ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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‘‘हिंदी गज़ल़ की भाषिक संरचना का स्वरूप’’

‘‘हिंदी गज़ल़ की भाषिक संरचना का स्वरूप’’

सुनील कुमार शोध छात्र (हिन्दी)

‘‘हिंदी गज़ल़ हिंदी साहित्य जगत् में एक प्रतिष्ठित काव्य विधा के रूप में अपना स्थान बनाने में निश्चय ही सफल रही है। हिंदी गज़ल़ न तो ऊर्दू गज़ल़ की नकल है और न उसका अनुकरण है वरन् वह एक स्वतंत्र एवं समानान्तर काव्य विधा है। यद्यपि उसने ऊर्दू गज़ल़ से बहुत कुछ सीखा भी है और लिया भी है। वस्तुतः ऊर्दू गज़ल़ अरबी-फारसी की एक लम्बी गज़ल़ परम्परा का स्वाभाविक विकास होने के चालते प्रारम्भ से ही स्वीकृत एवं समादृत काव्य विधा के रूप में प्रसिद्ध रही वहीं हिंदी गज़ल़ उस स्वीकृति एवं सम्मान के लिए बहुत सुदीर्घ प्रतिक्षा एवं संघर्ष की राह से होकर उस मुकाम को हासिल करने की ओर बड़ी तत्परता से अग्रसर है। यद्यपि भारतेन्दु युग से ही हिंदी काव्य विधा की एक क्षीण काव्य धारा के रूप में उसके विकास की धारा निरन्तर बहती आ रही है किंतु इस धारा को ‘‘हिमालय से गंगा निकलनी’’ जैसी पहचान एवं प्रतिष्ठा प्रसिद्ध हिन्दी गज़ल़कार कवि दुष्यंत ने प्रदान की। दसवें दशक की शुरूआत में ही एहतराम इस्लाम ने अपने एक वक्तव्य में स्पष्ट किया था कि- ‘‘हिंदी गज़ल़ को अपने मीर और गालिब की प्रतिक्षा एक लम्बे समय तक करनी पड़ सकती है लेकिन वातावरण जिस तेजी से उसके पक्ष में बनता नजर आ रहा है उससे यही लगता है कि आने वाले दिन गज़ल़ ही के होंगे और वह हिन्दी काव्य की सर्वप्रिय विधा के रूप में जल्द ही प्रतिष्ठित हो पाएगी। न केवल यह कि हिंदी कवियों की एक बड़ी संख्या गज़ल़ की केश सज्जा में लीन हो चुकी है बल्कि उनके द्वारा रचित गज़ल़ों को गम्भीरता से लिया भी जा रहा है।’’हिंदी गज़ल़ के भाषिक स्वरूप पर ध्यान केन्द्रित करें तो वहाँ बहुत विविधता के दर्शन होते है। यूँ तो हर गज़ल़कार का अपना एक विशिष्ट भाषिक रंग-संसार होता है और सूक्ष्मता में जाए तो एक ही गज़ल़कार की विभिन्न रचनाओं में इन भाषिक रंगों के ना-ना स्वरूप झलकते रहते है और ये गज़ल़रूपी चमन के अलग-अलग रंगों के फूल की भाँति इसकी व्याप्कता एवं विविधता के सौन्दर्य को ही स्पष्ट करते है। समग्रतः हिंदी गज़ल़ के भाषिक स्वरूप पर विचार करें तो इसमें मुख्यतः तीन धाराएँ स्पष्ट रूप से उभर कर आती है जिनके अन्तर्गत हम इस संदर्भ में अपने चिन्तन को व्यवस्थित रूप प्रस्तुत कर सकते हैं- क. परम्परागत, मिजाज विचार एवं संवेदना की पैरवी करती हिन्दी गज़ल़ ख. हिंदी गज़ल़ में विशुद्ध रूप से हिंदी के ही प्रयोग करने के स्वर ग. हिंदी गज़ल़ में भाषिक प्रयोगधार्मिता के स्वर  वस्तुतः हिंदी गज़ल की भाषिक संरचना के इस संक्षिप्त एवं विहंगम परिदृश्य के अवलोकन से यह तथ्य उभर कर आता है कि गज़ल़ जैसी विधा के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है किसी विचार या संवेदना को मार्मिक के साथ ही तीक्ष्ण रूप में अभिव्यक्ति प्रदान करता। यह ‘अंदाज-ए-बयाँ’ ही गज़ल़ की आधारभूत चीज है। भाषागत एवं विषयगत प्रयोगधार्मिता एवं नवीनताएँ किसी गज़ल़कार को इस अथाह संवेदना जगत में अपनी पहचान बनाने में सहायक होते है अन्यथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हक सभी को है और जो चाहे जैसे चाहे अपने अशरारों को अभिव्यक्त कर स्वयं का गज़ल़कार होने का भ्रम पाले रहे। इस संदर्भ में युवा आलोचक अनिल राय को वक्तय बहुत ही समाचीन प्रतीत हो रहा है। ‘‘सच यह है कि हिंदी में अच्छी गज़ल़े भी कहीं लिखी जा रही है। बोध, संवेदना, भाषिक-संरचना तथा गज़ल़ के मिज़ाज के अनुरूप प्रभावशाली कथन भंगिमा, सभी स्तर पर हिंदी गज़ल़ को विकास की नई ऊँचाईयाँ प्रदान करने वाली अनेक सृजनात्मक प्रतिभाएँ, पूरी निष्ठा और गम्भीरता के साथ निरन्तर रचनारत है। . . . इन प्रयासों का ही परिणाम है कि भारी गर्दों-गुबार के बीच से गुजरती अच्छी गज़ल़ों की इस धारा ने हिंदी गज़ल़ को सामथ्र्य और सम्भावनाओं की नई दीप्ति दी है।

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