ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

ग्राम्य जीवन में बदलता समकालीन परिदृश्य-शिव मूर्ति का कथा साहित्य

शोधार्थी-मनीष कुमारशोधार्थी-

जे0आर0एफ0 (हिन्दी)

डी0ए0वी0 स्नातकोत्तर महाविद्यालय बुलन्दशहर (उ0प्र0)

भारत की मौलिक आत्मा और अधिकांशतः जनजीवन ग्रामीण परिस्थितियों में निवास करती है। ऋतु परिवर्तन और सात्विक जीवन सदा से चला आ रहा है और इस प्रकार के जीवन का प्रत्यक्ष दर्शन हमें ग्रामों में ही होता है। यान्त्रिक युग और नवीनीकरण के अभिशाप से यद्यपि ग्राम भी अभिशप्त हुए हैं तथापि अभी भी ग्रामों में सात्विक यथार्थ जीवित है। आज यान्त्रिक युग अपने साथ अनेक जड़ समस्याएँ लेकर आया है उनसे ग्राम प्रभावित हुए, उनकी आस्थाएँ और मर्यादाएँ  आकुल हुई है। इन सब समस्याओं को जिस सहानुभूति से हिन्दी कथाकारों ने सम्भाला, उससे उनके स्ष्टा के दायित्व की अद्भुत रूप से पूर्ति हुई है। जीवन के चहँुमुखी जटिलताओं से घिरा मनुष्य स्वयं नहीं जानता कि उसका वास्तविक रूप क्या है- इस सत्य की खोज में सहायक कथाकार शिवमूर्ति ने ग्राम्य जीवन के बदलते सामाजिक परिवेश और मूल्यों के बीच समकालीन परिदृश्य में मनुष्य के सही संदर्भ को पहचाना है। आज देश की स्वतंत्रता और जन जीवन के फलस्वरूप हिन्दी साहित्यकारों ने फिर से प्रेमचन्द की छोड़ी हुई परम्परा की याद दिलाती है और इस दशा में नागार्जुन, रेणु, अज्ञेय, यशपाल, शिवमूर्ति आदि आधुनिक युग की अनुभूति के अनुसार अपने ग्राम जीवन को एक नई दिशा की ओर मुड़ते हुए दिखाया है और ग्राम्य समस्याएँ फिर से कथासाहित्य का विषय बन रही है।भारत की मौलिक आत्मा और अधिकांशतः जनजीवन ग्रामीण परिस्थितियों में निवास करती है। ऋतु परिवर्तन और सात्विक जीवन सदा से चला आ रहा है और इस प्रकार के जीवन का प्रत्यक्ष दर्शन हमें ग्रामों में ही होता है। यान्त्रिक युग और नवीनीकरण के अभिशाप से यद्यपि ग्राम भी अभिशप्त हुए हैं तथापि अभी भी ग्रामों में सात्विक यथार्थ जीवित है। आज यान्त्रिक युग अपने साथ अनेक जड़ समस्याएँ लेकर आया है उनसे ग्राम प्रभावित हुए, उनकी आस्थाएँ और मर्यादाएँ  आकुल हुई है। इन सब समस्याओं को जिस सहानुभूति से हिन्दी कथाकारों ने सम्भाला, उससे उनके स्ष्टा के दायित्व की अद्भुत रूप से पूर्ति हुई है। जीवन के चहँुमुखी जटिलताओं से घिरा मनुष्य स्वयं नहीं जानता कि उसका वास्तविक रूप क्या है- इस सत्य की खोज में सहायक कथाकार शिवमूर्ति ने ग्राम्य जीवन के बदलते सामाजिक परिवेश और मूल्यों के बीच समकालीन परिदृश्य में मनुष्य के सही संदर्भ को पहचाना है। आज देश की स्वतंत्रता और जन जीवन के फलस्वरूप हिन्दी साहित्यकारों ने फिर से प्रेमचन्द की छोड़ी हुई परम्परा की याद दिलाती है और इस दशा में नागार्जुन, रेणु, अज्ञेय, यशपाल, शिवमूर्ति आदि आधुनिक युग की अनुभूति के अनुसार अपने ग्राम जीवन को एक नई दिशा की ओर मुड़ते हुए दिखाया है और ग्राम्य समस्याएँ फिर से कथासाहित्य का विषय बन रही है। प्रेमचन्द ने जो कुछ लिखा वह उनके युग की मांग थी समय का आग्रह  था। प्रेमचन्द का युग कांगे्रस के देशव्यापी आन्दोलनों से प्रभावित था और स्वयं प्रेमचन्द जी गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। इसलिए प्रेमचन्द ने ग्राम्य-जीवन में वही चित्रण किया, वही समस्याऐं उठाई जो उस समय के ज्वलन्त प्रश्न थे। उन्होंने ग्राम के आर्थिक, शोषण, सामाजिक रूढ़ियों और धार्मिक अन्धविश्वासों को समझा उनका निराकरण उपस्थित कर आत्म संतोष प्राप्त किया। प्रेमचन्द जी कहते हैं कि ‘साहित्यकारों को चाहिए जो दलित है, पीड़ित हैं, वंचित है-चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उसी की हिमायत और वकालत करना उनका फर्ज है। यद्यपि आज की परिस्थितियां प्रेमचन्द के समय से भिन्न हैं इसी कारण आज के कथा साहित्य की ग्राम्य समस्याएं भी प्रेमचन्द के साहित्य की ग्राम समस्याओं से कुछ भिन्नता रखती है। यही कारण है कि आज के कथाकार इन उभरती हुई शक्तियों को पहचान कर ऐसे चरित्र और पात्रों के निर्माण में लगा है जो युग की कठोर वास्तविकता का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व कर सके। इन कथाकारेां में शिवमूर्ति ने भी अपनी रचनाशीलता वस्तु स्थितियों को पहचान कर उनका सटीक विश्लेषण करते हैं। वे ग्रामीण परिवेश के गहरे जानकार तो है ही प्रस्तुतीकरण में उतने बेवाक भी। ऐसे कहानीकारों से ही आशा की जा सकती है कि वे कथासाहित्य को उसकी धुरी से हटने नहीं देंगे और सामाजिक बदलावों को भी अलक्षित नहीं करेंगे। संसाद परिवर्तनशील है। यह उक्ति कितनी सार्थक है कि जीवन पर्यंत कई परिवर्तन देखने को मिलते है। पीढ़ी दर पीढ़ी नई रीतियाँ, परम्पराएंँ पनपती है और बदलती रहती हैं। मान्यताएँ जन्म लेती हैं। विकास की गति के साथ समाज और दुनिया की दूरियाँ सिमटती रही है। रिश्ते केवल औपचारिक रह गए हैं। परन्तु परम्पराओं का जो स्वरूप और मान्यता प्राचीन समय में थी अद्यतन कहीं न कहीं आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है। चाहे औपचारिक ही क्यों न हो, ऐसा प्रतीत होता है कि उसका केवल स्वरूप बदला है, भावात्मक और मूल भाव में परिवर्तन अपरिहार्य लगता हैं कथाकार शिवमूर्ति के कथा-साहित्य में इस सब पहलुओं को देखने को मिलता है जो समाज के बदलते हुए  पृष्ठभूमि को एक नया आयाम देने के कोशिश की गयी है। ‘त्रिशूल’ शिवमूर्ति का ऐसा उपन्यास है जो उनकी कहानियों की लीक से हटकर एक नए दृष्टिबोध और तेवर के साथ सामने आता हैं  साम्प्रदायिकता और जातिवाद हमारे समाज में अरसे से जड़ जमाये बैठे हैं पर इनकी आँच पर राजनीति की रोटी सेकने की होड़ के चलते इनके जहर और आक्रामकता में इधर चिन्ताजनक वृद्धि हुई हैं फलस्वरूप आज समाज में भयानक असुरक्षा, अविश्वास और वैर भाव पनप रहा है। धर्म, जाति और सम्प्रदाय के ठेकेदार आदमी और आदमी के बीच की बाई खाई को लगातार चैड़ी करते जा रहे हैं। ‘त्रिशुल’ की कहानी महमूद और लोक नायक पाले की काहनी मात्र नहीं है और न ही शास्त्री जी जैसे रामवादी पार्टी के एक व्यक्ति की कहानी है। पाल साहब जैसे साम्प्रदायिक सद्भाव और भाईचारे की भावना को विकसित करने वाले लोग अभी भी समाज में है जो धर्म को व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न मानते हैं और इसलिए वे महमूद को पारिवारिक सदस्य की तरह अपने साथ रखते हैं। उनके लिए महमूद न तो नौकर है और न ही कट्टरवादी मुसलमान। महमूद तो वस्तुतः इन बातों से परिचित भी नहीं है। हिन्दु और मुसलमान इस देश में सदियों से जिस भाई-चारे के साथ रहते आये हैं वे खुद नहीं सोच पाते हैं कि महमूद का मुसलमान होना ही हिन्दु साम्प्रदायिकता के लिए सबसे बड़ा अपराध है। शास्त्री जी जैसे लोग हिन्दु साम्प्रदायिकता का झण्डा लेकर चलते हैं। पाल साहब से पहली मुलाकात में वे कहते हैं कि – ‘गाय पालकर आप सच्चे हिन्दु धर्म निवाह रहे हैं। गौ ब्राह्मण की सेवा। आपको देखकर लगता है कि आप आस्थावान व्यक्ति है और जीवन का मूल है आस्था’ इस उपन्यास में शिवमूर्ति ने मानवेत्तर प्राणियों को उपस्थित कर उनकी संवेदना को पकड़ने का काम किया है। गाय बछड़ा और कुत्ता पाल साहब के पालतू जानवर है। और महमूद उसकी सेवा करता है। लेखक ने इन पशुओं का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया है जो पाठकीय संवेदना को प्रभावित करता है। त्रिशूल को प्रशंसा के फूल ही नहीं, विरोधी, के पत्थर भी कम नहीं मिले। इसे जातिवाद और आग लगाने वाली रचना कहा गया। इस पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए पैम्फलेटों और सभाओं द्वारा लम्बा निन्दा अभियान चलाया गया। वह उपन्यास इस तथ्य को भी स्पष्टता से इंगित करता है कि प्रतिभागी शक्तियों का मुहँतोड़ जबाव शोषण और उत्पीड़न झेल रहे दबे-कुचले गरीब जन ही दे सकते हैं या दे रहे हैं।  स्त्री के संघर्ष को शिवमूर्ति अपनी कहानियों में हमेशा ही आगे रखते हैं, बाकी सभी कुछ गौण एवं आनुशांगिक रहता है। चाहे वह ‘तिरिया चरित्तर’ की विमली हो, ‘अकालदंड’ की सुरजी हो या ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचारी हो, हर जगह नारी-अस्मिता की लड़ाई, वह भी अति साधारण एवं गरीब तथा लाचार स्त्री-पात्रों के माध्यम से। इस लड़ाई में प्रायः स्त्री ही हारती हुई दिखाई देती है, किन्तु कहानी पाठकों के मन में संवेदना का उबाल जगाने का अपना काम कर जाती है। वह स्त्री की विमुक्ति की छटपटाहट को बड़े ही प्रभावशाली तरीके से हमारे दिलों-दिमाग में दर्ज करा देते है। वह स्त्री के संघर्ष की मशाल को कुछ इस तरह जलाते है कि कहानी भले ही खत्म हो जाए लेकिन मशाल नहीं बुझती। ‘कुच्ची का कानून’ स्त्री-संघर्ष की एक नई मशाल है। यह शिवमूर्ति की बीसवीं सदी की नहीं, इक्कीसवीं सदी की कहानी है। इस कहानी की पंचायत उनकी ‘तिरिया चरित्तर’ की पंचायत से एकदम भिन्न है। यहां स्त्री अनपढ़ व सामाजिक बेड़ियों में कैद होते हुए भी अधिक वाचाल है, राजनीतिक रूप से           अधिक दक्ष है, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अधिक दृढ़संकल्प है, तथा बाहरी समाज भी उसके संघर्ष में जुड़ने को तत्पर है। इसलिए इस पंचायत में स्त्री हारती नहीं, वह गाॅव के मुद्दों को अपनी तर्कशीलता से उन्हीं की माँद में निरूतरित कर देती है और एक विजयी के रूप में उभरती है। यहां संघर्ष की नियति निराशाजनक नहीं हैं वह पूरी सड़ी-गली पितृसत्तात्मक व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग प्रशस्त करने का माध्यम बन जाता है। इस कहानी की स्त्री अपने संघर्ष में अकेली भी नहीं है, उसके साथ वह नया चेतन समाज है, जिसे आज सिविल सोसायटी कहा जाता है। शिवमूर्ति की कहानियाँ मुख्यतः स्त्री-विमर्श कहानियां हैं, किन्तु उसके केन्द्र में आज की पढ़ी-लिखी, जागरूक, पुरूष समाज से बराबरी का दर्जा जाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती, समाजिक व बौद्धिक स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक ताकत जुटाती, अपने यौनिक अधिकारों के लिए सतर्क, भद्र-लोक की नारी नहीं है। उनका स्त्री-विमर्श समाज की उन निम्रवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, भौतिक ताप व उत्पीड़न, जिजीविषा, प्रतिरोध, राग-द्वेष, पारिवारिक क्लेश आदि पर केन्द्रित है, जो दूर-दराज के गाॅव में घर-जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। शिवमूर्ति की प्राथमिक पहचान एक कहानीकार की है। ‘केशर कस्तूरी’, ‘कसाईबाड़ा’, ‘तिरिया चरित्तर,’ भरतनाट्यम’ तथा ‘सिरी उपमाजोग’ जैसी कहानियाँ जिनमें पुनः कथा-रस की वापसी के साथ समय-समाज के ज्वलंत मुद्दों को दर्शाने का कार्य हुआ है, वे शिवमूर्ति को हमारे समय के एक प्रमुख कहानीकार की पहचान प्रदान करती हैं। पर इन कहानियों के अतिरिक्त भी उनका एक महत्वूपर्ण परिचय, समकालीन समर्थ उपन्यासकार का है। उन्होंने अपने उपन्यासों में समय और समाज के संश्लिष्ट स्वरों को उकसी ऐतिहासिक अविच्छिनता में उकेरते हुए समकालीन हिन्दी उपन्यास को नई संभावनाओं से युक्त करने का महत कार्य किया है। शिवमूर्ति का मानना है कि रचनाकार को अपने समय-समाज से संपृक्त रहना बेहद जरूरी है। ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित उनकी एक टिप्पणी पर ध्यान दिया जाय तो उनके उक्त विचार के साथ-साथ उकनी कथात्मक रचना-प्रक्रिया से भी अवगत किया जा सकता है-वे लिखते हैं – ‘‘लेखक भी खत-पतवार की तरह मिट्टी की ही उपज होता है, जिस परिवेश में वह पैदा होता है, जिसमें वह पलता-बढ़ता है, वहीं से वह अपनी प्राथमिकताएं तय करता है।’’ शिवमूर्ति ने अब तक कुल तीन उपन्यासों का सृजन किया है। ‘त्रिशूल’ (1995), ‘तर्पण’ (2004) और ‘आखिरी छलांग’ (2008)। ‘त्रिशूल उनका पहला उपन्यास है, जिसमें हमारे समकालीन एक प्रमुख चिंता को स्वर दिया गया है। इस उपन्यास में सांप्रदायिकता और जातिवाद की आड़ में घृणित राजनीति करने वाली मानसिकता को बेपर्द करने की गंभीरत कोशिश हुई है। ‘तर्पण’ शिवमूर्ति का दूसरा उपन्यास है। जिसमें नब्बे के दशक के उपरान्त ग्रामीण जनजीवन-स्थितियों के सहारे हमारे समाज के ज्वलंत सच को रेखांकित किया गया है। इस उपन्यास में सदियों से पोषित हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता के विरोधी स्वरों के तानों-बानों से पूरा औपन्यासिक ढ़ांचा खड़ा किया गया है। शिवमूर्ति का उपन्यास ‘‘आखीरी छलांग’’ किसान जवीन के त्रासदी को जिस मार्मिकता से उभारती है, वो पाठक को किसान जीवन के दर्द से सीधे लेजाकर जोड़ देती है। निष्कर्ष- निष्कर्षतः कहा जाय तो शिवमूर्ति का प्रत्येक उपन्यास अपने समय-समाज से संवाद करता हुआ अपने समकाल को रचता है तथा अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करता है। शिवमूर्ति का कथासाहित्य अपने औपन्यासिक ढ़ांचे में हमारे समय-समाज के परस्पर अंतर्विरोधी स्वरों को उसकी संश्लिष्टता में रखते हुए हमारे समय-समाज के करीब लाता है। चाहे वह ‘त्रिशूल उपन्यास हो या ‘तर्पण’। दोनों अपने समय-समाज के संकटों-जातिवाद, धार्मिक, कट्टरतावाद, संप्रदायवाद, वर्चस्ववाद आदि का प्रत्याखान करता हुआ हमें यह सोचने को विवश करता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यही इन उपन्यासों की सार्थकता भी है। ‘मेरे साक्षात्कार’ (2013 ई0) शिवमूर्ति सं0 सुशील सिद्धार्थ ने कथाकार शिवमूर्ति से बारह लोगों ओमा शर्मा, गौतम सान्याल, सुशील सिद्धार्थ, दयानन्द-पाण्डेय, विनयदास, कंचन चैहान, मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रभातरंजन, प्रेमचभाद्वाज गौरीनाथ तथा राकेश मिश्रा और अरूण सिंह से विभिन्न विषयों पर बातचीत की गयी है। इन साक्षात्कारों के द्वारा शिवमूर्ति के साहित्य को समझाने में सहायता मिलती है। शिवमूर्ति का साहित्य स्त्रियों को केन्द्रीयता प्रदान करते हुए उनके संघर्षों को व्यक्त करता है। ‘-तिरिया चरित्तर’  जैसी कहानी इस तथ्य का प्रमाण है। शिवमूर्ति गाॅवों पर लिखने वाले कथाकारों में महत्वपूर्ण है। गाॅव और किसान के साथ उनका अनिवार्य रिश्ता उनके इन साक्षात्कारों में व्याख्यापित हुआ है। इस प्रकार शिवमूर्ति का कथा साहित्य ग्राम्य जीवन के बदलते हुए परिदृश्य को दर्शाता दिखाई देता है।संदर्भ ग्रन्थ सूची1. हिन्दी उपन्यासों में ग्राम समस्याऐं – डाॅ0 ज्ञान अस्थाना, पृष्ठ-10, 122. त्रिशूल (उपन्यास) शिवमूर्ति – अन्तिम आवरण पृष्ठ3. ‘हिन्दी गद्य साहित्य’ रामचन्द तिवारी – पृष्ठ-589, 5904. त्रिशूल (उपन्यास) शिवमूर्ति – पृष्ठ-125. केशर कस्तूरी (कहानी संग्रह) – शिवमूर्ति – पृष्ठ-80

Latest News

  • Express Publication Program (EPP) in 4 days

    Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...

  • Institutional Membership Program

    Individual authors are required to pay the publication fee of their published

  • Suits you and create something wonderful for your

    Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.