ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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ग्लोबल वार्मिंग: प्रकृति की ओर लौटो

डा0 कौशलेन्द्र कुमार सिंह,
एसो0 प्रो0 (राजनीति विज्ञान)
जवाहरलाल नेहरू, मेमोरियल पी.जी. कालेज, बाराबंकी

ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम स्वरूप आज जब पूरे विश्व का पर्यावरण बदल रहा है, जिसका मुख्य कारण विज्ञान के विकास के परिणाम स्वरूप होने वाले प्रदूषण को माना जा रहा है तो राजनीतिक वैज्ञानिक होने के नाते हमारा ध्यान रूसों के उस निबन्ध की तरफ अवश्य जाता है जिसमें उसने कहा था कि कला एवं विज्ञान के विकास के परिणाम स्वरूप मनुष्य की प्रा.तिक अवस्था प्रभावित हुई, और उसकी उदान्त वनचर की अवस्था गड़बड़ाई है। जैसे निष्कर्ष उस समय रूसों ने कारण एवं निदान के रूप में निकाला था। उसी प्रकार आज भी ग्लोबल वार्मिंग की सम्स्या का कारण और उससे निदान के उपाय खोजें जा रहे है। ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम स्वरूप आज जब पूरे विश्व का पर्यावरण बदल रहा है, जिसका मुख्य कारण विज्ञान के विकास के परिणाम स्वरूप होने वाले प्रदूषण को माना जा रहा है तो राजनीतिक वैज्ञानिक होने के नाते हमारा ध्यान रूसों के उस निबन्ध की तरफ अवश्य जाता है जिसमें उसने कहा था कि कला एवं विज्ञान के विकास के परिणाम स्वरूप मनुष्य की प्रा.तिक अवस्था प्रभावित हुई, और उसकी उदान्त वनचर की अवस्था गड़बड़ाई है। जैसे निष्कर्ष उस समय रूसों ने कारण एवं निदान के रूप में निकाला था। उसी प्रकार आज भी ग्लोबल वार्मिंग की सम्स्या का कारण और उससे निदान के उपाय खोजें जा रहे है। औद्योगिक क्रान्ति तथा आधुनिक विलासिता पूर्ण सभ्यता ने मानव जीवन के लिये गम्भीर खतरा उत्पन्न कर दिया है। बढ़ते पर्यावरणीय प्रदूषण का सबसे अधिक गम्भीर स्वरूप हमें ग्लोबल वार्मिंग के रूप में दिखाई पड़ता है। आज पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से भले ही परेशान है परन्तु इसके बावजूद दूनिया के देशों के बीच इस समस्या को लेकर कोई आम राय नहीं बन पा रही है। विकसित राष्ट्रों का अभिमत अलग है तो विकासशील राष्ट्रांे का मत अलग। विकसित राष्ट्रों का मानना है की उनके उद्योग धन्धे अचानक से नहीं बन्द किये जा सकते है, धीरे-धीरे इसके लिए प्रयास किया जाय और ऐसे उद्योग न लगाये जिससे की प्रा.तिक पर्यावरण को नुकसान पहुँचता हो। जबकि विकासशील राष्ट्र जो कि तकनीकी और प्रौद्योगिकी रूप से अभी विकास कर रहे है, वे इसको अपनी अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ कर देखते है। उनका मानना है कि यदि वे उद्योग नहीं लगायेगें तो उनका अर्थिक विकास नहीं हो पायेगा। यदि प्रदूषण के मानक को लागू करना है तो समान रूप के विकसित और विकासशील राष्ट्रों में लागू किया जाए, जिससे कि ग्लोबल वार्मिंग से पूर्ण से बचा जा सकें अर्थात् पूरी तरीके से हमें, प्रा.तिक अवस्था को अपना लेना चाहिए। विकसित और विकासशील राष्ट्रों के तर्कों से यदि अलग हटकर हम देखें तो पता चलता है कि -ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारण:- 1. औद्योगिकीकरण                        2. गैर वनीकरण                        3. प्रा.तिक संशाधनों का अतिदोहन                        4. आटो-मोबाइल प्रदूषण                        5. परमाणू जैविक कचरों का इकट्ठा होना है।इन प्रमुख कारणों से पूरी दूनिया में गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। जिस तरीके से आज नगरीकरण, विस्थापतीकरण तथा तकनीकी एवं औद्योगिक विकास हो रहा है, उससे पूरा परिस्थितीकीय पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, परमाणु प्रदूषण, रेडियाधर्मी प्रदूषण आदि ने मानव जीवन के लिए आवश्यक आॅक्सीजन तक को प्रदूषित कर दिया है। अतः यह बढ़ता पर्यावणीय प्रदूषण आज हमें ग्लोबल वार्मिंग के रूप में दिखाई पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम स्वरूप तमाम परिवर्तन हो रहे है जिसमें प्रमुख है:-1. जलवायु परिवर्तन2. ग्लेशियर का पिघलना।3. पृथ्वी के तापमान में वृद्धि।4. समुद्र जल स्तर में वृद्धि।5. भूमण्डल के अन्य प्रणियों (लोरा-फौना) को खतरा।6. प्रा.तिक आपदाओं में वृद्धि बदलते प्रर्यावरण से जल वायु चक्र में परिवर्तन हो रहा है। जिससे कि कहीं बाढ़ आ जाती है तो कहीं सूखा पड़ जाता है। जिससे एक तरफ तो खड़ी फसल नष्ट हो जाती है तो दूसरी तरफ अन्न उत्पादन ही नहीं हो पाता है। जिससे कि न सिर्फ मानव के लिए खाद्यआपूर्ति की समस्या उत्पन्न हो जा रही है, बल्कि भू- मंण्डल पर अन्य प्रार्णियों के लिए भी जीवन का संकट खड़ा हो गया है। ग्लेशियर पिघलने से जहाँ एक तरफ नदियाँ के सूखने का खतरा उत्पन्न हो गया है, वहीं पर दूसरी तरफ समुद्री जल स्तर के बढ़ने से समुद्रतटीय क्षेत्रों के डूबने का खतरा उत्पन्न हो गया है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ने से मानव को तो खतरा है ही साथ ही अन्य प्राणियों के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रा.तिक आपदाओं के बढ़ने से कहीं तो लोग डूब कर मर रहे है तो कहीं पानी के बिना प्यासे मर रहे है। इसलिएकहा जा रहा है कि यदि पर्यावरणीय प्रदूषण के खतरे से निपटा नहीं गया तो राष्टों के बीच पानी के लिए युद्ध होगा।  ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम स्वरूप ओजोन परत का क्षरण हो रहा है, जिससे कि पराबैगनी किरणें धरती पर आने से मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। वनों के कटाव से भू-क्षरण प्रारम्भ हो गया है, बरसात होने से भू-जल स्तर घट रहा है, ग्लेशियर पिघलने से समुद्ध का जल स्तर बढ़ रहा है, जिससे जहाँ एक तरफ पीने योग्य पानी का संकट है तो दूसरी तरफ कई द्वीपों पर बसे मानवों के लिए विस्थापन के साथ ही अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। भूमण्डलीय स्तर पर जैव विविधता समाप्त हो रही है। इसलिए आज काफी तेजी से नारा दिया जा रहा है कि स्थानीय पर्यावरणीय समस्या के समाधान हेतु भूमण्डलीय स्तर पर सोचने की आवश्यकता है, क्योंकि यह समस्या सम्पूर्ण मानव जाति को प्रभावित कर रही है, खनन, हाइडोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं, कचरा प्रबन्धन आदि के लिए स्थानीय स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।आज पर्यावरण तथा विकास स्थानीय के साथ ही भूमण्डलीय मुद्दा भी हो गया है। इसलिए आज सतत् विकास की प्रक्रिया पर बल दिया जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र के जितने भी सम्मेलन हुए है, उनमें भले ही सर्व सहमति नहीं हो पायी हो, परन्तु सभी राष्ट्रों ने यह अवश्य स्वीकार किया है कि बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से मानवाधिकारों के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है। 1992 की रियो-द-जेनेरिवो समिति से लेकर अब तक जितनी भी समितियां हुई, उसमें राष्ट्रों के बीच इस बात पर सहमति नहीं बन पायी कि कौन सा राष्ट्र कितने पर्यापरण प्रदूषण को समाप्त करेगा, परन्तु वे इस मुद्दे पर सहमत दिखे कि पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार तत्वों में तेजी से कटौती की आवश्यकता है। अतः यदि हम ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का समाधान राजनीतिक चिन्तकों के विचारों में देखते है तो पाते है कि प्रा.तिक पर्यावरण पर प्राचीन यूनानी विचारकों प्लेटों से लेकर रूसो, महात्मा गाँधी तथा आज, अलगोर, ध्रुवसेन सिंह आदि ने अपने विचार अभिव्यक्ति किए है। इन सभी का मानना है कि मनुष्य को कम से कम प्र.ति के साथ छेड़छाड़ करना चाहिए। प्राचीनयूनानी विचारक प्लेटो का मानना था कि मनुष्य को अपने प्रा.तिक गुणों के अनुसार कार्य करना ही न्याय है। इसीलिए प्लेटों मनुष्य के सर्वागीण विकास के लिए मनुष्य के प्रा.तिक गणों का विकास करना चाहता था। इसलिए वह श्रेष्ठ मन और स्वास्थ्य के विकास के लिए संगीत एवं व्यायाम की शिक्षा की व्यवस्था करता है, और मनुष्य अपने पथ से विचलित न हो, इसलिए वह साम्यवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित करता है।जीनजैक्स रूसो जिसकी चर्चा प्रारम्भ में हो चुकी है, उसका मानना है कि विज्ञान और कला के विकास ने ही मानव जीवन को भ्रष्ट कर दिया है अतः मनुष्यों को प्र.ति की ओर लौट चलना चाहिए। उसका मानना है कि मनुष्य के लिए सबसे श्रेष्ठ तो यही है कि वह प्र.ति की ओर लौटे, परन्तु वह इतना आगे आ चुका है कि पुनः प्र.ति की ओर लौट पाना सम्भव नहीं है। अतः मानव प्राणी को एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए जो कि ‘‘प्रा.तिक व्यवस्था’’ के अनुरूप ही हो। इसीलिए रूसों ने अपनी पुस्तक सोशल कान्ट्रेक्ट के माध्यम से एक सामाजिक संविदा करवाता है, जिससे मनुष्य राज्य और सामान्य इच्छा को स्वीकार करता है। रूसों का मानना है कि सामाजिक संविदा से जिस राज्य का निर्माण होगा वह प्रा.तिक अवस्था जैसी परिस्थिति का ही निर्माण करेगा। अगर रूसों के पूरे विचार को न भी माना जाय तो भी यदि उसके शाब्दिक अर्थ को ही लिया जाय तो वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। भारतीय राजनीतिक चिन्तकों में महात्मा गाँधी भी प्रा.तिक व्यवस्था के समर्थक थे, वे अन्धाधुंध औद्योगिकीकरण तथा भारी उद्योगों के जबरदस्त विरोधी थे। श्रम की महत्ता, कुटीर उद्योग, रोजगार, ,खादी, तथा विलासिता पूर्व जीवन के बारे में यदि उनके विचारों का गहन अध्ययन किया जाय तो इससे स्पष्ट है कि गाँधी जी हरित राजनीति और हरित व्यवस्था के समर्थक थे। इसीलिए गाँधी जी स्थानीय स्तर पर ऊर्जा के उत्पादन पर बल देते थे।आज परा आधुनिक विचारको में जहाँ आई0पी0पी0आर0 के अलगोर और आर0के0 पचैरी थे जिनका मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम स्वस्थ्य पर्यावरण बदल रहा है। जिसके लिए इन लोगों को पुरूस्.त भी किया गया। जबकि इसके विपरीत धु्रवसेन सिंहऔर सी0एम0 नौटियाल जैसे वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन एक निरन्तर सतत् प्रक्रिया है यह पृथ्वी के निर्माण से लेकर अब तक कई बार हो चुकी है। अतः यह आई0पी0पी0आर0 केनिष्कर्षों का खण्डन कर देते है। परन्तु इन्होने भी यह माना है कि पूर्व में भी कार्बन का स्तर बढ़ता था, तो यह घट भी जाता था, परन्तु इस बार पर्यावरण में बढ़े हुए कार्बन की मात्रा लगातार बढ़ती ही जा रही है, वह घट नहीं रही है अतः मानव जनित कारण ही इसमें मूल कारण हो सकते है। अतः मानव जनित कारणों को कम किया जाना चाहिए जिससे कि ग्लोबल वार्मिंग से प्रा.तिक पर्यावरण को बचाया जा सके। अतः स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग पर्यावरण के लिए खतरा है इस लिए इससे निपटने के लिए तमाम सुझाव वर्तमान में दिए जाते है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट 2001 में कहा गया कि प्रोद्योगिकी का लाभ इस तरह से होना चाहिए जिससे कि परा-पीढी समता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। प्रोद्योगिकीका प्रयोग इस तरह से हो जिससे कि विकासशील देश की समस्यायें औद्योगिक प्रयोग के लिए ईधन तथा सफाई आदि से निपटा जा सके।  आज इस बात पर बल दिया जाता है कि ऐसे प्रोद्योगिकी का प्रयोग किया जाए जो कि स्थानीय स्तर प्रयोग के योग्य हो, इकोफैण्डली हो, पर्याप्त संशाधन हो तथा वहीं की संस्.ति के अनुरूप हो। अर्थात् ऐसी हो जोकि ‘‘प्र.ति के अनुरूप हो, गैर परम्परागत तथा रिनेएबल ऊर्जा के प्रयोग पर बल दिया जा रहा है, जिससे कि कचरे के उत्पादन तथा प्रदूषण से बचा जा सके। प्रा.तिक संसाधनों का प्रयोग उतना ही किया जाना चाहिऐ जितना कि अत्यन्त आवश्यक हो। आज इस बात पर बल दिया रहा है कि विकास और आर्थिक वृद्धि इस तरह से हो जिससे की हमारी प्रा.तिक जैव विविधता बनी रहे।‘संदर्भ सूची’1. कैपिसिटी बिल्डिग फार इण्डेपेन्डेन्स-कलाम, ए0पी0जे0, अब्दुल, यूनीवर्सिटी न्यूज 47 (38) सितम्बर 21-27,20092. बैलेन्सिग द अर्थ-ए ट्रीब्यूर टू द अलगोर- शाह मलीकान्त, यूनीवर्सिटी न्यूज 47 (38) सितम्बर 21-27,20093. कान्सेटर, मिटिगेशन एण्ड मैनेजमैण्ट आॅफ नेचुरल हेजारड्स, भारद्वाज, विक्रम एवं सिंह धु्रवसेनः जियोपैनोरमाः एन इण्ट्रोउक्शन टू इन्टराटेरनरी जियोलोजिकल प्रोसेस नेचुरल हेजारड्स एण्ड क्लाइमेट चेन्ज, 2009, पृ0 48-534. क्लाइमेट चेन्ज एण्ड ग्लोबल वार्मिंग: नेचुरल/एन्थरोपोजेनिक-सिंह ध्रुवसेन, जियोपेनोरमा, एन इन्ट्रोडक्शन टू इन्टराटेरनरी जियोलोजिकल प्रोसेस, नेचुरल हेजारड्रस एण्ड क्लाअमेट चेन्ज, 2009, पृ0 1-45. दि चेन्जिंग फेस आफ ग्लोबलाइजेशन-दास गुप्ता, समीर, सेज पब्लिकेशन, नई दिल्ली, कैलिफोर्निया लन्दन, 2004, पृ0 23-246. सिविक इनवायरनमेण्टालिजम: अलटरनेटिव्स टू रेगुलेशन्स इनस्टे्टस एण्ड कम्यूनिटीज:- जान, डेविट, कांगरेशनल क्वाटरली प्रेस, वाशिंगटन डी0सी0, 19947. इनवायरनमेण्टल पोलिटिक्सः डोमेस्टिक एण्ड ग्लाकबल डायमेन्सन-जैक्यूलिन, बी0 स्विटजर एण्ड गैरी ब्रायनर, सेन्ट मैन्टिन्स प्रेस, न्यूयार्क, 1998 पृ0 3058. नार्थ-साउथ इनवायरनमेण्टल स्टै्टजीज, कास्ट्स एण्ड बारगेन्स पट्टी, एल, पेट्ज, ओवरसीज डेवलपमन्ट काउन्सिल वाशिंगटन डी0सी0 1992, पृ0 609. वल्र्ड अपार्ट: ग्लोबलइजेशन एण्ड द इन्वायरमेन्ट स्नेथ, जे0जी0 (स0) आइलैण्ड प्रेस वाशिंगटन, कोवेलो, लन्दन, 2003, पृ080

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