ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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जवाहर लाल नेहरू व समाजवाद

डा॰ मनमीत कौर,
एसोसिएट प्रोफेसर,
राजनीति विज्ञान विभाग, बरेली काॅलेज, बरेली

राजनीतिक क्षेत्र में नेहरू जी पूरी तरह उदारवादी मान्यताओं में विश्वास करते थे। लोकतन्त्र के प्रति उनकी आस्था बहुत गहरी थी, लेकिन आर्थिक क्षेत्र में वे अहस्तक्षेप की नीति के समर्थक नहीं थे। वे भारत की आर्थिक समस्याओं का हल समाजवाद में ही पाते थे लोकतन्त्र तथा समाजवाद, दोनों के प्रति उनकी आस्था ने उन्हें ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ का प्रतिपादक बना दिया।राजनीतिक क्षेत्र में नेहरू जी पूरी तरह उदारवादी मान्यताओं में विश्वास करते थे। लोकतन्त्र के प्रति उनकी आस्था बहुत गहरी थी, लेकिन आर्थिक क्षेत्र में वे अहस्तक्षेप की नीति के समर्थक नहीं थे। वे भारत की आर्थिक समस्याओं का हल समाजवाद में ही पाते थे लोकतन्त्र तथा समाजवाद, दोनों के प्रति उनकी आस्था ने उन्हें ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ का प्रतिपादक बना दिया। वे समाजवाद एवं लोकतन्त्र को एक दूसरे का पर्याय मानते हैं। वे उसे ही सच्चा लोकतन्त्र मानते हैं जो विशमताओं से दूर हों। वे लोकतन्त्र और समाजवाद का समन्वय करना चाहते हैं। वे भारत में लोकतन्त्रीय समाजवाद स्थापित करना चाहते थे। नेहरू अन्य समाजवादियों की तरह यह मानते थे कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्र एक श्रम है। 1936 में पं॰ नेहरू ने राष्ट्रीय योजना समिति के अध्यक्ष के रूप में औद्योगिकरण द्वारा सुदृढ़ भारत की संकल्पना की थी।’’ उन्होंने इसे आगे बढ़ाया जिससे भारत में तीव्र औद्योगिक विकास हुआ। इसमें कृषि विकास तथा गाँधी के प्रभाव के कारण लघु एवं कुटीर उद्योगों पर भी जोर दिया गया। उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं देश के शीघ्र विकास में विश्वास करता हूँ और यह तब ही हो सकता है जब दरिद्रता से लड़ा जा सके तथा जनसाधारण के स्तर को ऊँचा बनाया जा सके। तो भी मैंने खादी योजना का समर्थन किया है और भविष्य में भी मुझे यही करना है क्योंकि मुझे विश्वास है कि वर्तमान आर्थिक जीवन में खादी तथा ग्रामोद्योग का विशेष स्थान है।’’ नेहरू ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये पंचवर्शीय योजना चलाई। वे जमींदारी व्यवस्था के विरोधी थे। वे इसे किसान विरोधी मानते थे। अपने समाजवादी होने के विषय पर नेहरू जी ने एक स्थान पर लिखा था- ‘‘क्या मैं समाजवादी हूँ या व्यक्तिवादी, क्या इन दोनों शब्दों का विरोध होना कोई आवश्यक बात है? क्या हम ऐसे कोई मानव हैं कि हम अपने को ठीक प्रकार का वाक्य या   उपवाक्य में परिभाषित कर दें? मैं समझता हूँ कि मैं आदतन तौर तथा प्रशिक्षित तौर से एक व्यक्तिवादी हूँ तथा बुद्धि से मैं समाजवादी हूँ, जो कुछ भी इसका अर्थ लगाया जाय। मैं आशा करता हूँ कि व्यक्तिवाद, समाजवाद को नष्ट नहीं करता है। वास्तव में मैं इससे प्रभावित हुआ हूँ क्योंकि यह असंख्य व्यक्तियों को सांस्कृतिक तथा आर्थिक बंधनों से मुक्त करायेगा।’’ वे समाजवाद को व्यक्तिवाद के विरोध में नहीं वरन् व्यक्ति के महत्व को बढ़ाने वाला मानते थे। अवाद्री सम्मेलन में उन्होंने समाजवादी समाज की स्थापना करने का निश्चय किया। नागपुर सम्मेलन में उन्होंने सहकारी खेती का विचार रखा। समाजवाद को अपनाने का कारण स्पष्ट करते हुए वह मानते हैं-‘‘हमने समाजवाद इसलिये नहीं अपनाया कि यह हमें ठीक या लाभकारी लगता है बल्कि इसलिये भी स्वीकार किया है कि यह हमारी आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिये हमारे सामने कोई अन्य मार्ग नहीं था।’’ नेहरू समाजवाद के समर्थक थे। वे समाजवाद का समर्थन करते हुए लिखते हैं-‘‘संसार तथा भारत की समस्याओं का समाधान केवल समाजवाद द्वारा ही संभव लगता है। जब मैं इस शब्द का प्रयोग करता हूँ, तब केवल मानवीय नाते से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, आर्थिक दृष्टि से भी करता हूँ, किन्तु समाजवाद आर्थिक सिद्धान्त में कुछ अधिक महत्वपूर्ण है, यह एक जीवन दर्शन है। इसीलिये यह मुझे जाँचता है। मेरी दृष्टि में निर्धनता, चारों ओर फैली बेरोजगारी, भारतीय जनता का अधोपतन तथा दासता को समाप्त करने का मार्ग समाजवाद को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से संभव नहीं दिखता है।’’ उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही इस विचार को अपना लिया था कि भारत की आर्थिक समस्याओं का हल समाजवाद ही हो सकता है। 12 अप्रैल सन् 1936 को लखनऊ काँग्रेस के सभापति के रूप में उन्होंने ‘समाजवाद ही क्यों’ विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, ‘‘मेरा यकीन है कि दुनियाँ की और हिन्दुस्तान की समस्या का एक ही हल है और वह है समाजवाद। जब मैं इस शब्द का प्रयोग करता हूँ तो मैं अस्पष्ट जनसेवी तरीके पर नहीं वरन् वैज्ञानिक और आर्थिक दृष्टि से करता हूँ। समाजवाद एक आर्थिक सिद्धान्त की अपेक्षा कुछ ज्यादा मायने रखता है। यह जिन्दगी का दर्शनशास्त्र है और इसका यह रूप मुझे पसन्द भी है। मैं समाजवाद के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं देखता जो गरीबी, बेकारी, बेइज्जती और गुलामी से हिन्दुस्तान के लोगों को छुटकारा दिला सकें।’’ नेहरू के समाजवाद को कार्ल माक्र्स ने बहुत सीमा तक प्रभावित किया है, लेकिन नेहरू माक्र्सवाद को सम्पूर्ण रूप में कभी भी ग्रहण नहीं कर पाये। विशेषतया हिंसात्मक क्रान्ति, वर्ग-संघर्ष और लोकतन्त्र के सम्बन्ध में नेहरू माक्र्सवादी धारणा से सहमत नहीं हो सकते थे। अतः एक माक्र्सवादी के बजाय एक ऐसे लोकतान्त्रिक समाजवादी के रूप में वे हमारे सामने आते हैं जो न केवल राजनीतिक क्षेत्र में, वरन् आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में भी लोकतन्त्र की स्थापना करना चाहता है। उन्होंने सदैव इस बात पर जोर दिया कि यदि राजनीतिक लोकतन्त्र स्थापित कर दिया जाय और आर्थिक तथा सामाजिक लोकतन्त्र स्थापित न हो तो, लोकतन्त्र अधूरा रह जायगा। उनका यह आर्थिक और सामाजिक लोकतन्त्र ही समाजवाद था। नेहरू का लक्ष्य सामाजिक समानता और अधिकतम सम्भव सीमा तक आर्थिक समानता की स्थापना करना था। इसके साथ ही उनका विचार था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति लोकतान्त्रिक व्यवस्था के माध्यम से की जा सकती है और ऐसा ही किया जाना चाहिए। नेहरू का सम्पूर्ण आर्थिक दर्शन समाजवादी विचारधारा पर आधारित था और उनका समाजवाद केवल आर्थिक संगठन का साधन मात्र न होकर एक जीवन का दर्शन था। वे मैक्स एडलर की भाँति समाजवादी थे। 1936 में कांग्रेस के लखनऊ में हुए अधिवेशन में उन्होंने कहा-‘‘मैं इस नतीजे पर पहुँच गया हूँ कि दुनिया की समस्याओं और भारत की समस्याओं का समाधान समाजवाद में ही निहित है और जब मैं इस शब्द ‘समाजवाद’ को इस्तेमाल करता हूँ, तो किसी अस्पष्ट, मानवीयतावादी अर्थ में नहीं बल्कि एक वैज्ञानिक, आर्थिक क्षेत्र में।’’ किन्तु समाजवाद एक आर्थिक सिद्धान्त से भी बढ़कर कुछ है: ‘‘यह जीवन का एक दर्शन है और इस रूप में यह मुझे भी भाता है। भारत की जनता की कंगाली, जबर्दस्त बेरोजगारी, दयनीयता और गुलामी को दूर करने का मैं समाजवाद के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं देख पाता हूँ। इसका मतलब है कि हमें अपने राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में बहुत बड़े क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे, जमीनों और उद्योग-धन्धों का शिकंजा जमाये बैठे निहित स्वार्थों को और साथ ही, सामन्ती तथा निरंकुशतावादी भारतीय रजवाड़ों की व्यवस्था को भी खत्म करना होगा। इसका मतलब है कि-सिवाय एक सीमित अर्थ में-निजी सम्पत्ति को समाप्त करना होगा और मुनाफे खड़े करने की मौजूदा व्यवस्था की जगह, सहकारी सेवा के उच्चतर आदर्श को स्थापित करना होगा, इसका मतलब है कि अन्ततः हमें अपनी आदतों और इच्छाओं में परिवर्तन करना होगा। इसका मतलब है, एक नयी सभ्यता को कायम करना, जो मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था से मूलतः भिन्न होगी।’’ इस प्रकार जवाहरलाल नेहरू के लिए समाजवाद केवल आर्थिक प्रणाली नहीं थी वह एक जीवन दर्शन था। समाजवाद न केवल भारत से कंगाली, बेरोजगारी, निरक्षरता, बीमारी और गन्दगी मिटाने के लिए ही जरूरी था, वरन् मानव व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए भी जरूरी था।  नेहरू के अनुसार इस व्यवस्था के अन्तर्गत उद्योगों तथा उत्पादन के अन्य साधनों पर राष्ट्रीयकरण और समाजीकरण के आधार पर समस्त समाज का स्वामित्व स्थापित किया जाना चाहिए और आर्थिक व्यवस्था का संचालन समस्त समाज के सामूहिक हित को दृष्टि में रखते हुए किया जाना चाहिए। समाज के निम्नतम् वर्गों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाया जाना चाहिए, सभी व्यक्तियों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जानी चाहिए और ऐसा प्रबन्ध किया जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति अथवा वर्ग अपने आर्थिक साधनों के बल पर समाज के किन्हीं अन्य व्यक्तियों के जीवन पर अधिकार स्थापित न कर ले। नेहरू ने सदैव इस बात पर बल दिया कि आर्थिक क्षेत्र में इन लक्ष्यों की प्राप्ति लोकतान्त्रिक मार्ग को अपनाकर ही की जानी चाहिए, सत्तावादी मार्ग या तौर-तरीकों को अपनाने की बात नहीं सोची जा सकती। लोकतान्त्रिक समाजवाद मानवीय मूल्यों पर आधारित है और यह राजनीतिक क्षेत्र में उदारवाद में विश्वास  करता है। लोकतान्त्रिक समाजवाद का यह सर्वप्रमुख लक्षण है और यही बात लोकतान्त्रिक समाजवाद को माक्र्सवाद- साम्यवाद से अलग करती है। नेहरू जी का विश्वास था कि किसी सिद्धान्त की श्रेष्ठता की कसौटी यह होनी चाहिए कि वह मानव चरित्र पर क्या प्रभाव डालता है, इस दृष्टि से लोकतान्त्रिक समाजवाद साम्यवाद की तुलना में श्रेष्ठ है क्योंकि वह व्यक्ति को तुच्छ स्वार्थ से ऊँचा उठाकर उसे सबकी भलाई के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है। समाजवाद, साम्यवाद और पूँजीवाद। इन दोनों से ही श्रेष्ठ है; जहाँ एक ओर वह साम्यवाद की हिंसा और दमन को टालता है, वहाँ दूसरी ओर वह पूँजीवाद की असमानता और शोषण का भी            विरोध करता है। लोकतान्त्रिक समाजवाद इस दृष्टि से श्रेष्ठ है कि वह नैतिक नियमों की उपेक्षा किये बिना और व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बनाये रखते हुए उसे आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है। नेहरू जी का विश्वास था कि भविष्य निश्चित रूप से लोकतान्त्रिक समाजवाद का ही है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत का नेतृत्व पं॰ नेहरू के हाथ में आया और पं॰ नेहरू के नेतृत्व में भारत ने लोकतान्त्रिक समाजवाद की दिशा में अपनी यात्रा प्रारम्भ की। सर्वप्रथम, भारतीय संविधान के अन्तर्गत लोकतांत्रिक समाजवाद के तत्वों को अपनाया गया। इन तत्वों को विशेषतया भारतीय संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों तथा कुछ सीमा तक मौलिक अधिकारों में रखा जा सकता है। संविधान में वर्णित निर्देशक तत्व समाजवादी व्यवस्था के सामान्य सिद्धान्त व उद्देश्य ही हैं। इन्हीं तत्वों के आधार पर सरकार और काँग्रेस दल लोकतान्त्रिक समाजवाद की दिशा में आगे बढ़े। शासन द्वारा अपनायी गयी पंचवर्षीय योजनाओं का लक्ष्य समाजवाद ही रहा है। सन् 1954 में केन्द्रीय संसद ने एक प्रस्ताव के द्वारा भारत में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना योजनाओं का लक्ष्य घोषित किया और एक लोक-कल्याणकारी राज्य के निर्माण का संकल्प लिया। पं॰ नेहरू के नेतृत्व में समाजवाद की दिशा में जो प्रयत्न किये गये, उनमें ‘अबाड़ी काँग्रेस का प्रस्ताव’ प्रमुख स्थान रखता है। सन् 1955 में अबाड़ी काँग्रेस में प्रस्ताव पारित किया गया कि संविधान की प्रस्तावना व नीति निर्देशक तत्वों की क्रियान्विति के लिए योजना द्वारा ‘समाजवादी ढाँचे के समाज’ ;ैवबपंसपेजपब च्ंजजमतद व िैवबपमजलद्ध की स्थापना की जाय; जिसके अनुसार उत्पादन के प्रमुख साधनों पर समाज का स्वामित्व और नियन्त्रण रहे, उत्पादन में वृद्धि हो और राष्ट्रीय सम्पत्ति का समुचित वितरण सम्भव हो सके। प्रस्ताव में जिन बातों पर जोर दिया गया, वे इस प्रकार है: ;पद्ध प्रमुख उद्योग और उत्पादन के साधनों पर समाज का नियन्त्रण, ;पपद्ध भूमि-सुधार, ;पपपद्ध उद्योगों में श्रमिकों का हिस्सा, सहकारिता को प्रोत्साहन और सामाजिक न्याय। सन् 1956 के नागपुर अधिवेशन में काँग्रेस ने शांतिपूर्ण और न्यायोचित साधनों द्वारा ‘एक समाजवादी सहकारी राज्य के निर्माण’ का प्रस्ताव पास किया। 1962 के भावनगर अधिवेशन और 1964 के भुवनेश्वर अधिवेशन में लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना के संकल्प को दोहराया गया। नेहरू काल में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की दिशा में कुछ प्रगति भी हुई। सारे देश में सामुदायिक विकास योजनाओं का जाल-सा विछाया गया और विकास कार्यों में जन-सहयोग प्राप्त करने व राज्य की शक्ति को विकेन्द्रित करने के लिए पंचायत राज की स्थापना की गयी। सामाजिक संरक्षण और श्रम के क्षेत्र में भी सरकार द्वारा अनेक कानूनों का निर्माण कर श्रमिक कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाये गये। एक सैद्धान्तिक विचारधारा के रूप में लोकतान्त्रिक समाजवाद श्रेयस्कर है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। यह भी सत्य है कि भारत का मार्ग लोकतान्त्रिक समाजवाद ही हो सकता है- पूँजीवाद या साम्यवाद नहीं। लेकिन लोकतान्त्रिक समाजवाद के प्रसंगों में नेहरू के विचार-दर्शन और कार्य-व्यवहार में कुछ कमियाँ आवश्य ही रही हैं। प्रथम, इस प्रसंग में नेहरू की समस्त विचारधारा में आवश्यक स्पष्टता का अभाव है। यदि यह स्पष्ट न किया जाय कि सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना के लिए क्या किया जाना है और कैसे किया जाना है तो इस प्रकार की घोषणाओं और विचारों का महत्व क्या है? द्वितीय, भारत जैसे देश में लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना के लिए जिस दृढ़ संकल्प, प्रबल इच्छा शक्ति और गतिशीलता की आवश्यकता होती है, नेहरू के नेतृत्व में भी भारतीय अभिजन और विशेषतया राजनीतिक अभिजन उस स्थिति को नहीं अपना सका। अभिजन वर्ग की कथनी और करनी में अन्तर बना रहा और समाजवाद की दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हो पाई। डा॰ वी॰पी॰ वर्मा का यह कथन सही है कि, ‘‘हम उन्हें एक सामाजिक आदर्शवादी कह सकते हैं जो सामान्य व्यक्ति की भावनाओं के लिए जनतन्त्रीय दृष्टिकोण में आस्था रखता है।’’ गीता के इस कथन से, ‘‘हमें कर्म करना चाहिए, फल की कामना नहीं? नैतिकता उन्हें अवश्य प्रभावित करती थी और उन्होंने कहा था कि ‘‘नैतिक आदर्शों से प्रेरित होकर हम अपना काम करें। समाज में मानवीय मूल्यों को महत्व दें और फल की चिन्ता किये बिना यत्नपूर्वक अपने कार्य में लगे रहें।सन्दर्भ सूची:-1. डा॰ पुखराज जैन, ‘भारतीय राजनीतिक विचारक’ साहित्य भवन, आगरा।2. डा॰ अजय सिंह, ‘राजनीति शास्त्र’, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा।3. बी॰आर॰ नंदा, ‘जवाहरलाल नेहरू’ विद्रोही व राजनेता, साराँश पब्लिकेशन, दिल्ली।4. डा॰ बी॰एल॰ फड़िया, ‘आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन’ साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा।5. डा॰ आनन्द प्रकाश अवस्थी, ‘भारतीय राजनीतिक विचारक, लक्ष्मी नारायण पब्लिकेशन्स, आगरा।6. क्तण् स्ण्च्ण् ैींतउंए श्प्दकपंद छंजपवदंस डवअमउमदज ंदक ब्वदेजपजनजपवदंस क्मअमसवचउमदज स्ंोउप छंतंपद ।हंतूंसए ।हतंण्7. क्तण् ज्ञण्स्ण् ज्ञीनतंदंए ष्प्दकपंद भ्पेजवतल ख्1206.1947, स्ंोउप छंतंपद ।हंतूंसए ।हतंण्8. डा॰ वी॰पी॰ वर्मा, आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा।

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