ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

’’दिनकर’’ के काव्य में नारी प्रेम और सौन्दर्य

डा0 मिथलेश गुप्ता
अध्यक्ष-हिन्दी विभाग,
श्री रामकृष्ण पी0जी0 काॅलेज, कुरारा, हमीरपुर

संघर्शमय जीवन को रसमय बनाने में प्रेम और सौन्दर्य की भूमिका अद्वितीय है। यह प्रेम केवल वैयक्तिक अनुभूति नहीं है, बल्कि यह समष्टि के कल्याण का महत्वपूर्ण अंग है। प्रेम के साथ जिस शब्द का अटूट सम्बन्ध माना जाता है। वह ‘सौन्दर्य’ शब्द की व्युत्पति सु-नंद करते हुए इसके अर्थ को स्वीकार किया गया है। इस प्रकार सौन्दर्य में व्युत्पत्ति परक अर्थ की दृष्टि से आनन्द को आधार माना गया है। पाश्चात्य आलोचकों ने व्यूटी ‘‘शब्द’’ में ‘‘व्यू’’ का अर्थ प्रिय अथवा रसिक और ‘‘टी’’ भाववाचक प्रत्यय माना है। इसके अतिरिक्त ‘‘अमरकोश’’ में सुन्दर शब्द के निम्नलिखित रुप है।संघर्शमय जीवन को रसमय बनाने में प्रेम और सौन्दर्य की भूमिका अद्वितीय है। यह प्रेम केवल वैयक्तिक अनुभूति नहीं है, बल्कि यह समष्टि के कल्याण का महत्वपूर्ण अंग है। प्रेम के साथ जिस शब्द का अटूट सम्बन्ध माना जाता है। वह ‘सौन्दर्य’ शब्द की व्युत्पति सु-नंद करते हुए इसके अर्थ को स्वीकार किया गया है। इस प्रकार सौन्दर्य में व्युत्पत्ति परक अर्थ की दृष्टि से आनन्द को आधार माना गया है। पाश्चात्य आलोचकों ने व्यूटी ‘‘शब्द’’ में ‘‘व्यू’’ का अर्थ प्रिय अथवा रसिक और ‘‘टी’’ भाववाचक प्रत्यय माना है। इसके अतिरिक्त ‘‘अमरकोश’’ में सुन्दर शब्द के निम्नलिखित रुप है।‘‘ सुन्दर रुचिकर चारु सुशमा साधु शोभनम् ,‘‘ कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोज्ञं मंजु मंजुलम।’’ काव्य जीवन की ललित अभिव्यक्ति है। इसलिए जीवन के मूल में जो प्रेरणायें गतिशील हैं, वही काव्य काव्यचेतना की जनक है। जीवन प्राणों की धार का रसमय विलास है। (1) जीवन के मूल में प्राप्त अनन्त सत्ता के तालन्ताल पर नर्तन करती हुई यह धारा अनादिकाल से प्रवाहित होती ही आ रही है। (2) इस गाति के मूल की खोज दर्शन। (3) की चिरंतन साध रही है और उसके लास्य। (4) पर मुग्ध उसे वाणी देना कवि की साधना। दोनों के प्रस्थान भिन्न हैं, किन्तु लक्ष्य एक। (5) बुद्व द्वारा विश्व को समझने का प्रयास दर्शन है, और प्रतिभा और अनुभूति द्वारा विश्व के रहस्य को हृदयंगम करने का नाम कविता है। दर्शन हमारी बुद्वि को संतुश्ट करता है, और काव्य हमारी कल्पना और आत्मा के लिए मधुरमय भोजन प्रस्तुत करता है। (6) जगत का मूल तत्व क्या है, इस पर प्राच्य दर्शनों में पर्याप्त विचार हुआ। सब उसे अनिवर्चनीय अवांग मनस गोचर (7) मानते हैं, भारतीय दर्शनों ने उसे सत-चित् आनन्द कहा है। मनुष्य की आत्मा इस ब्रह्य का ही अंष है। (8) प्रकृतिक ब्र्रह्य से छूटकर सतत् उसके विरह में चल रही है। आनन्दतत्व की आकांक्षा और आत्मरण की कामना उसकी लीला की रहस्य है। (9) काव्य और कलाएं ब्र्रह्य इसी आनन्द (10) रुप को लेकर चलती है। मनोविज्ञान, दर्शन और सौंदर्य शास्त्र में भिन्न-दृष्टिकोण से मनुष्य की मानसिक क्रियाओं के मूल की विवेचना की गई है, निष्कर्ष रुप में आनन्द सत्य का सहज, अवियोज्य गुण है। सत्य सुन्दरम् के माध्यम से प्रकाशित होकर अहनिंश हमारे हृदय को छूता रहा है। इस आनन्द को (11) उपनिषदों में समस्त सृष्टि का मूल कहा है। यही रस है-सौंदर्य के भावन उस्थित आनन्द, इसी को पाकर जीवन कृतार्थ होता है। युगाचरण तथा अनल-कवि की विरुदावली विभूषित श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा के अन्यतम कवि हैं, जिनकी कविताओं में एक ओर योद्वा का गम्भीर घोष, अनल का तीव्र ताप और सूर्य का प्रखर तेज समाया हुआ है। वहीं दूसरी ओर रुप में कोमलता तथा मधुरता को देखा जा सकता है। ‘रसवन्ती’ काव्य में इसी प्रकार की कविताएँ हैं इस संग्रह में यौवन सौन्दर्य और विरह व्यथा में मार्मिक गीत संकलित है। ‘दिनकर’ अपने काव्य नारी प्रेम को कई रुपो में चित्रित किया है-नारी शक्ति रुप, अबला रुप, आकर्शक रुप, आधुनिक रुप, कुल वधू रुप, माता रुप तथा अन्याय रुप। कवि की सम्पूर्ण श्रद्वा एवं आस्था नारी के मातृत्व में व्यक्त हुई है। कवि नारी के मांसल आकर्षक से अधिक उसके आंतरिक आलोक के अनुसंधान का पक्षपाती है।  ‘उर्वशी‘ महाकाव्य में कवि ने नारी के अन्तरंग और बहिरंग सौन्दर्य के दोनों रूपों को तटस्थ होकर कवि दृष्टि से देखा है, जिनके कारण स्थल स्थल पर नारी – सौन्दर्य का चित्रण अत्यधिक निखार पा सका है, कवि की दृष्टि में नारी का सौन्दर्य रश्मिमयी में घमाला के रूप में है। यथा – ‘‘रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी।फूलों की छाँव तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊगी।‘‘(उर्वशी)
कवि ने नारी को विशिष्ट गुणों से युक्त माना है। कहते हंै कि नारी उन उच्चताओं की प्रतीक है, जिसे मनुष्य साधना और तप से पाते हैं। नारी वह शक्ति है, जिसकी सहायता से मनुष्य परम तत्व को पाता है। च्यवन ऋषि की दृष्टि में नारी एक सेतु के सदृष है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने समस्त स्वप्न साकार करता है -नारी ही वह महा – सेतु पर अदृष्य से चलकर,नये मनुज, नव प्राण दृष्य जग में आते रहते है।नारी ही वह कोश्ठ देव, दानव मनुष्य से छिपकर,महाशून्य चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है। ‘‘(उर्वशी)
कवि ने नारी के बाह्य सौन्दर्य, आध्यात्मिक पक्ष और रहस्यमय रूप का खुलकर वर्णन किया है। दिनकर जी अग्रेंज कवि स्पेन्सर की भाँति विश्वास करते हैं, कि सुन्दर नारी विश्व का सबसे बड़ा वरदान है-        ‘‘यह तुम्हारी कल्पना है प्यार कर लो,          रूपसी नारी प्रकृति का चित्त है, सबसे मनोहर।            ओ गगनचारी यहाँ मधुमास छाया है,            भूमि पर उतरो।            कमल, कर्पूर कुमकुम के कुंन्ज से,            इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।‘‘
कवि ने नारी ‘उर्वशी‘ महाकाव्य में नारी को कुलवधू के रूप में इस प्रकार चित्रित किया है –  माथे में सिन्दूर पर छोटी बिन्दी चमचम सी,    पपनी पर आँसू की बूँदें मोती सी शबनम सी, पीली चीर कोर में जिसके चकमक गोटा जाली,चली पिया के गाँव उमर के सोलह फूलों वाली। (कवि श्री बालिका से वधू)ऐसी कुलवधू को वह चाहता है। यथा –                ‘‘जी करता है, अपना पौरूष इज्जत इसे उढा दूँ,                 या कि जगा दूँ उसके भीतर की उस लाल शिखा को,                 आँखों में जिसके जलने से दिशा काँप जायेगी।
इसके अतिरिक्त नारी का मातृ रूप भी कम आकर्षक नहीं। दिनकर के अनुसार नारी का माता रूप  सब रूपों से श्रेष्ठ है। इसकी श्रेष्ठता अप्सराऐं भी स्वीकार करती हैं, जो वैसे केवल रूप को ही महत्व देती हंै। जब मेनका स्वयं स्वीकार करती है, नारी ‘‘असीम हो जाती है पयस्विनी होकर।‘‘मेनका के अनुसार –                 पर, रम्भे! क्या कभी बात यह भी मन में आती है,                 माँ बनते ही त्रिया कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है,                 गलती है, हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,                 पर हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर।                 युवा जननि को देख शांति कैसी मन में जगती है।                 रूपमती भी सखि! मुझे तो वही त्रिया लगती है,                 जो गोदी मे लिए क्षीर-मुख शिशु को सुला रही हो,अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो। (उर्वशी)
‘दिनकर‘ जी ने ‘रसवन्ती‘ में नारी के मातृत्व भाव को भी खुलकर व्यक्त किया है।‘रसवन्ती‘ में नारी के मातृत्व का गुणगान करते हुए कवि लिखते है –
‘‘शरमाती बैठी थी उत्सुक वधू प्रसूति – सदन में,निकली है लेकर पुनीत गम्भीर हृदय माता का,जबसे उज्ज्वल प्रेम उमड़ आंचल में फूट पड़ा है,एक सरल सन्तोश झलकता है, उसके आनन पर।‘‘(रसवन्ती)
सूर्य के तेज की चन्द्रमा की कोमल रश्मि को, तारों की पवित्र आत्मा को वह एक स्थान में समेट कर वह उसे प्राप्त कर पुत्र में समाहित करना चाहती है। वह उसके लिए अनेक मंगल कामनाऐं करती है, तथा उसे एक प्रतापी, दयालु एवं धर्मात्मा शासक बनने की शुभाशीश देती है-
वह सब होगा सत्य लाल मेरा यह कभी उगेगा,पिता सदृश ही अपर सूर्य बनकर अखंड भूतल में।और भरेगा पुण्यवान् यह माता का गुण लेकर,उर-अन्तर अनुरक्त प्रजा का शीतल हरियाली से। (उर्वशी)
मज्जागत सौन्दर्य, माँसल प्रेम तथा दन्द्रियजन्य सुख से ऊपर उठना न तो शरीर की अवहेलना है न माँसल प्रेम का महत्व कम करना है, अपितु यह तो उसकी उत्तरोत्तर प्रगति के सोपान है, देह का दिव्यात्मा से मिलन है, प्राणों का परमेश्वर में लीन होना है, तथा आत्मा का परमात्मा के सान्निध्य में पहुँचना है। इसे वियोग नही माना जा सकता। यदि वियोग है, तो विशेष योग के अर्थ में -यह अतिक्रन्ति वियोग नही, शोणित के तप्त ज्वलन का,परिवर्तन है स्निग्ध, शान्त दीपक की सौम्य शिखा में,निन्दा नही, प्रशरित प्रेम की छलना नही, समर्पण,प्याग नही संचय उपत्याकाओं के कुसुम द्रुमों को,ले जाना है, यह समूल नगपति के तुंग शिखर पर,वहाँ जहाँ कैलास-प्रान्त में शिव प्रत्येक पुरूष है,और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी है। (उर्वशी) ‘दिनकर‘ जी की समस्त कृतियों के अवगाहन के पश्चात् यह कहा जा सकता है, कि कवि ने काव्य के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्व ध्वनि को दिया है। कवि सौन्दर्योपासक हैं, अतः वह कविता का मुख्यगुण सौन्दर्य सृश्टि मानता है, ज्ञान नही। वास्तव में ज्ञान बौद्धिक होकर सौन्दर्य के प्रति तटस्थ नही रह पाता है, और सौन्दर्य शिवत्व में भावेष्टित होकर एक शाश्वत सत्य है। कवि ने नारी प्रेम के कई पक्षों को रखकर स्पष्ट कर दिया है, कि नारी में अनेक गुण हैं, कोमलता, सरलता, सहजता, सहनशीलता, सौन्दर्य आदि। वास्तव में ‘उर्वशी‘ में दिनकर जी ने स्वर्ग की महिमामयी अप्सरा उर्वशी तथा पृथ्वी के प्रतापी सम्राट पुरूरवा की प्रेम-कथा के माध्यम से सौन्दर्य, प्रेम और दर्शन की त्रिवेणी प्रवाहित की है। प्रेम की मनोवैज्ञानिक छवियों के अनेक रम्य और भाव भी ने बिम्ब उर्वशी में देखने को मिलते हैं। रूप सौन्दर्य, अनुभूति तथा संवेदना के सम्यक सम्प्रेषण में समर्थ नये और ताजे बिम्ब उर्वशी की शैल्पिक उपलब्धियाँ हैं। समग्रत ‘दिनकर‘ का काव्य एक ओर क्रांति ,पौरूष राष्ट्रीयता और ओजस्विता का काव्य है, तो दूसरी ओर उसमें ‘रसवन्ती‘ की मादकता और उर्वषी का कामाध्यात्म भी स्पष्ट दिखलाई देता है। दिनकर जी ने अपने ‘‘राष्ट्र को जाचना है ‘‘नामक कविता में पुरूरवा के मुख से जो कल्याण है, वह वस्तुतः ‘दिनकर‘ जी के सबंध में भी अक्षरतः सत्य है – ‘‘मत्र्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं।‘‘
सन्दर्भ ग्रन्थ -1) कठो 21312, मुएडकोपनिषद 31/14.2) कठो 21311, गीता 1511 शांकरमाश्य 1511 की टिप्पणी सौन्दर्य लहरी, 553) वेदान्त सूत्र 1, 1 बृहदा 214154) सौन्द्रर्य लहरी- 405) डाॅ आनन्द कुमार स्वामी-4 डाॅस आॅफ शिव, 59, 19486) डाॅ हरनारायन सिंह- छायावाद काव्य तथा दर्षन पृ0-24, ग्रन्थम कानपुर 647) डाॅ आनन्द कुमार स्वामी-4 ट्रांसफार्मेशन आॅफ नेचर में संकलित‘ आभास तथा परोक्ष’ निबंध। 8) गीता 1517 तथा 101209) तरवार्थ दीप निबंध, पृ0-68, 69 तथा पृ0- 115, 116 डा0 प्रेमस्वारुप द्वारा अपने शोधनिबंध, हिन्दी वैष्णव साहित्य में रस परिकल्पना में पृ0- 1134239 म0 भ0 गोपनाथ कविराज भारतीय संस्कृति  और साधना, खण्ड-2प पृ0 246 श्रीमदभागवत-1012911 तैत्तिरीय- 21611 10) अचार्य रामचन्द्र शुक्ल-चिंतामणि भाग-1 पृ0 162, काव्य में लोक मंगल की साधना वस्था 11) तैत्तिरीय- 2161112) महाकाव्य उर्वषी पृ0 22 उपर्युक्त-91, 38, 102, 12, 94, 5013) रसवन्ती

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