ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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धारा-377: गैर-संवैधानिक

डाॅ0 रश्मि फौजदार
(प्रवक्ता-राजनीति शास्त्र)
मुस्लिम गल्र्स डिग्री काॅलिज, बुलन्दशहर

06 सितम्बर,  2018 को सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत पसंद और सम्मान से जीवन जीने के अधिकार पर मुहर लगाते हुए सहमति से एकांत में दो वयस्कों द्वारा बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। कोर्ट ने यौन अभिरुचि के आधार पर समलैंगिकों के साथ भेदभाव को उनके मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए कहा कि उन्हें भी सम्मान से जीवन जीने का अधिकार है। उन्हें भी अन्य नागरिकों के समान अधिकार प्राप्त हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने आइपीसी की धारा-377 के उस अंश को रद कर दिया है, जो दो वयस्कों के बीच एकांत में सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करती है। हालांकि, नाबालिगों के साथ या सहमति के बगैर बनाए गए संबंध तथा जानवरों के साथ इस तरह की हरकत धारा-377 के तह दंडनीय अपराध बना रहेगा।06 सितम्बर,  2018 को सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत पसंद और सम्मान से जीवन जीने के अधिकार पर मुहर लगाते हुए सहमति से एकांत में दो वयस्कों द्वारा बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। कोर्ट ने यौन अभिरुचि के आधार पर समलैंगिकों के साथ भेदभाव को उनके मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए कहा कि उन्हें भी सम्मान से जीवन जीने का अधिकार है। उन्हें भी अन्य नागरिकों के समान अधिकार प्राप्त हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने आइपीसी की धारा-377 के उस अंश को रद कर दिया है, जो दो वयस्कों के बीच एकांत में सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करती है। हालांकि, नाबालिगों के साथ या सहमति के बगैर बनाए गए संबंध तथा जानवरों के साथ इस तरह की हरकत धारा-377 के तह दंडनीय अपराध बना रहेगा। दूरगामी परिणाम वाला यह फैसला मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा की संविधान पीठ ने सुनाया है। पीठ के चार न्यायाधीशों ने अलग-अलग फैसला दिया लेकिन सभी फैसले सहमति के है। जस्टिस दीपक मिश्रा ने स्वयं और जस्टिस खानविलकर की तरफ से फैसला दिया। अन्य तीन जजों ने मुख्य न्यायाधीश से सहमति जताते हुए अपने अलग फैसले दिए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2013 के सुरेश कौशल फैसले को खारिज कर दिया है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की पीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट का 2009 का नाज फाउंडेशन मामले में दिया गया फैसला रद्द कर दिया था। हाई कोर्ट ने वही व्यवस्था दी थी, जिस पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने को अपनी मुहर लगाई है। जस्टिस मिश्रा ने मुख्य फैसले में ‘‘संविधान को जीवंत और प्रगतिवादी बताते हुए कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र का उदेश्य समाज का प्रगतिवादी बदलाव करना होता है। हमारा संविधान समय के साथ बदलाव की अवधारणा रखता है। इसके प्रावधानों को महज शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए इसकी व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए जिसमें बदलते समय की मंशा परिलक्षित होती हो। संविधान की प्रगतिवादी व्याख्या में ने सिर्फ व्यक्तिगत अधिकारों और सम्मान से जीने की मान्यता शामिल है बल्कि ये ऐसा वातावरण तैयार करता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उत्थान का उचित अवसर मिलता हों पीठ ने कहा कि किसी भी तरह का भेदभाव लोकतांत्रिक समाज पर कुठाराघात करता है।’’1 धारा 377 स्वेच्छा से 18 साल से अधिक उम्र का कोई पुरुष, महिला या पशु से अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करे तो भारतीय दंड संहिता की इस धारा के तहत उसे आजीवन कारावास या दस साल तक कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। समान लिंग के प्रति आकर्षण रखने वाले महिला या पुरुष को समलैंगिक माना जाता है। एलजीबीटी,‘ लेस्बियन , गे, बायसुक्सुअल, ट्रांसजेण्डर‘ के लिए संक्षेप में प्रचलित शब्द है। यह 1990 के दशक में अधिक प्रचलित हुआ। इसे आरम्भ में ‘एलजीबी‘ नाम से जाना जाता था। यह शब्द ‘गे‘ के रूप में पूरे समुदाय को मिलने बाली पहचान को समाप्त करने के लिए आरम्भ हुआ। आगे इसका विस्तार होता रहा है और अब इसे एलजीबीटी$अथवा एलजीबीटीआईक्यू के रूप में प्रचलित किया जाता है। इस समुदाय को ‘रेनबो‘ के नाम से प्रचालित करने की प्रक्रिया भी आरम्भ की गई थी, जो असके प्रतीक ध्वज तक ही रही। अपनी यौऩ प्राथमिकताओं के कारण यह पृथक समुदाय के रूप में अपनी पहचान के साथ है। समलैंगिकता का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। वात्सायन द्वारा लिखे गए कामसूत्र में बाकायदा इस पर एक अध्याय लिखा गया है। समलैंगिकता के संबंध में भिन्न-भिन्न देशों, संस्थाओं और व्यक्तियों के अलग-अलग विचार है। जैसे- सुब्रमण्मम स्वामी का कहना है कि ‘‘समलैंगिकता एक जेनेटिक डिसाॅर्डर है। इस पर मेडिकल रिसर्च होनी चाहिए ताकि इसे सही किया जा सके। यह अमेरिकी गेम है। जज्द ही यहां अब गे बार्स खुलेंगे जहां समलैंगिक जाएंगे, एचआईवी फैलेगा। उनहें उम्मीद है कि सरकार 7 जजों की बेंच नियुक्त करेगी जो इस 5 जजों के बेंच के फैसले को बदल सकें।’’2 दूसरी ओर शशि थरूर का मानना है कि ‘‘ धारा 377, पर फैसले की आज की खबर पर मेरा मतः गरिमा पुनः स्थापित हुई। अब न्यायापालिका लोहे का पिंजरा नहीं रहीं। देश की शीष कोर्ट को धन्यवाद। लोकतंत्र में विश्वास करने वाले सभी भारतीय गर्व के साथ अब अपना सिर ऊंचा रख सकते हैं।’’3 वहीकरन जौहर का कहना है ‘‘ऐतिहासिक फैसला,,, अत्यंत गर्वित हूं। सेक्शन 377 को हटाते हुए समलैंगिकता को गैर अपराध घोषित करना समान अधिकार और मानवाधिकार के लिए बड़ी विजय हैं देश ने अपना आक्सीजन वापस पा लिया।’’4 बंगाली समलैंगिक संदीप राय का कहना है कि ष्ॅपजी जीम ैनचतमउम ब्वनतज तमंकपदह कवूद ैमबजपवद 377 जव कमबतपउपदंसपेम ीवउवेमगनंसपजलए जीम रवनतदमल व िं श्ळववक ठमदहंसप ठवलश् ंदक ीपे मंतसल ेजतनहहसमे ूपजी ीपे ेमगनंस पकमदजपजल जव ं जपउम ूीमद ीम पिदके ीम पे ष्दव सवदहमत ंसवदमष्5 मुस्लिम उल्माओं एवं हिन्दु महासभा इस फैसले से नाखुशी जाहिर की। क्मवइंदकइंेमक बसमतपबे जमतउमक पज ंहंपदेज प्ेसंउ ंदक ैींतपं संूेए ीपदकन उंींेंइीं कमबसंतमक पज ं ेपदेपेजमत बंउचंपहद जव ष्कमेजतवल प्दकपंद मजीवे ंदक अंसनमेष् 6  संयुक्त राष्ट्र संघ ने धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सराहना करते हुए कहा कि यह निर्णय एलजीबीटीआई समुदाय को समान अधिकार देने व उनके प्रति भेदभाव को खत्म करने के प्रयासों को बढ़ावा देगा। यौन अभिविन्यास और लिंग अभिव्यक्ति दुनिया भर में पहचान का अभिन्न हिस्सा बनें। हिंसा, कलंक और भेदभाव मानवाधिकारांे का गंभीर उल्लंघन है। संयुक्त राष्ट्र के 94 सदस्य देश इनके समान अधिकारों का समर्थन करते हैं। 54 विरोध में, 46 का रुख तटस्थ है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ष्प्दकपं ूंे ं ेपहदंजवतल व िपदजमतदंजपवदंस जतमंजमे वद तपहीजे व िस्ळठज्फ ंदक पज ूंे वइसपहंजवतल जव ंकीमतम जव जीमउण्ष्8 मुस्लिम देशों लेबनान, कजाखिस्तान, माली, तुर्की, इंडोनेशिया, बहरीन, अल्बेनिया, अजरबैजान,  नाइजर में समलैंगिकता को वैध माना है। सुडान, यमन, सऊदी अरब, ईरान, सोमालिया, नाइजीरिया, कतर, अफगानिस्तान, यूएई, मौरीतानिया में मृत्युदंड का प्रावधान है। 25 देश जहां समलैंगिकता वैध है। 72 देश जहां समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखा गया। 2015 में आयरलैंड जनमत संग्रह के जरिये समलैंगिकता को वैध करने वाला पहला देश बना। 2000 में नीदरलैंड में समलैंगिक शादियों को कानूनी तौर से सही करार दिया गया। 06 सितम्बर 2018 को संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि सुरेश कौशल के फैसले में एलजीबीटी समुदाय को एक बहुत छोटा वर्ग मानते हुए उनके अधिकारों को नकार दिया जाना गलत था। संविधान निर्माताओं की यह मंशा कतई नहीं थी कि मौलिक अधिकार सिर्फ बहुसंख्यक जनता के लिए होंगे और कोर्ट तभी दखल देगा जब बहुसंख्यकों के मौलिक अधिकरप्रभावित होंगे।संविधान का मंतव्य है कि यदि किसी एक व्यक्ति के मौलिक अधिकार का भी हनन होता हो, तो अदालत को दखल देना चाहिए। यौन रुझान जैविक तथा प्राकृतिक है। इसमें किसी तरह को भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन होगा। अतरंगता और निजाता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है। किसी व्यक्ति का इस पर बहुत कम नियंत्रण होता है कि वह किस स्त्री या पुरुष के प्रति आकर्षित हो। दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन  संबंध पर आइपीसी की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 1 और 21 का हनन करती है। मौजूदा समय में जब दुनिया में शादी को भी सन्तातोत्पत्ति से नहीं जोड़ा जा सकता है, तो दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक या विपरीत सेक्स के संबंधों पर अप्राकृतिक यौनाचार का ठप्पा लगाने पर सवाल उठता है। सामाजिक नैतिकता की आड़ में किसी के अधिकारों की कटौती की अनुमति नहीं दी जा सकती। भारत सरकार इस फैसले के व्यापक प्रचार के लिए जरूरी कदम उठाए। इसका रेडियो, पिं्रट और आॅनलाइन मीडिया पर नियमित अंतराल से प्रचार किया जाए। एलजीबीटी समुदाय के साथ जुड़े कलंक और भेदभाव को खत्म करने के लिए कार्यक्रम बनाए जाएं। इसके अलावा सभी सरकारी अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों को जागरूक और संवेदनशील बनाने का प्रशिक्षण दिया जाए। इतिहास एलजीबीटी समुदाय और उनके परिवारों के लोगों के दशकों तक अपमान और बहिष्कार सहते रहने और उन्हें न्याय देने में देरी के लिए क्षमा प्रार्थी है। इस समुदाय के लोग भय और अभियोजन के माहौल में जीने को मजबूर हुए। ऐसा सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय ने इस बात से अनिभज्ञ रहने के कारण हुआ कि समलैंगिकता प्राकृतिक प्रवृत्ति है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एएम खानविलकर ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को भी देश के दूसरे नागरिकों की तरह समान अधिकार हैं। यौन झुकाव के कारण किसी के साथ भेदभाव करना अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के विपरीत है। संवैधानिक नैतिकता, सामाजिक नैतिकता से उपर है। उन्होंने कहा कि सामाजिक नैतिकता की दुहाई देकर किसी भी समुदाय या किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का दमन नहीं किया जा सकता। सभी नागरिकों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। हर नागरिक के सम्मान की रक्षा करना संवैधानिक अदालत का दायित्व है। सम्मान हर व्यक्ति का अखंडित तत्व है। यौन क्षुकाव पर किसी स्त्री या पुरूष का कोई नियंत्रण नहीं है।  एलपीबीटी समुदाय की कम संख्या पर उन्होंने कहा कि संविधान निर्माताओं का कभी यह मकसद नहीं रहा था कि मौलिक अधिकार केवल बहुसंख्यकों तक ही सीमित है। दरअसल, इस तरह का नजरिया संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। संवैधानिक कोर्ट का यह दायित्व है कि अगर एक-भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हुआ तो उसे दखल देना चाहिए। धारा-377 निजता के अधिकार, समानता के अधिकार और समानता के अधिकर की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस धारा की आड़ में एलजीबीटी समुदाय को प्रताड़ित किया जाना भेदभावपूर्ण है। निजी स्थल पर अगर सहमति से वयस्कों द्वारा यौन संबंध बनाया जाता है तो यह न तो सार्वजनिक शिष्टाचार को नुसान पहुंचता है और न ही नैतिकता को। समलैंगिकता पर फैसला देते हुए र्जिस्टस डीवीई चंद्रचूड़ ने कहा कि आईपीसी धारा 377 की बजह से एलजीबीटी समुदाय के सदस्यों को छुपकर और दोयम दर्जे के नागरिकांे के रूप में जीने के लिए मजबूर होना पड़ा। धारा 377 पुराने ढर्रे पर चल रहे समाज की व्यवस्था पर आधिरित है। एकांत में परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन कृत्य का संबंध ना तो नुसानदेह है ओर ना ही समाज के लिए संक्रामक है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय के लोग खतरे के साये में जी रहे है। उन्हें सांस्कृतिक नैतिकता के नाम पर मूल अधिकारांे से वंचित कर दिया गया है। समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखकर उन्हें     संविधान के सभी अधिकार दिलाना ही न्याय होगा। इसके बाद ही वे बिना डर के जीवन को आजादी से और अपनी पसंद के मुताबिक जी सकेंगे। उन्होंने कहा कि समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंधों को प्रतिबंधित करने वाला धारा 377 का अंश समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं बल्कि यह पूरी तरह से एक स्वाभाविक अवस्था है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने फैसले में सुरेश कौशल मामले में दी गई सुप्रीम कोर्ट की ही व्यवस्था को निरस्त कर दिया। इसमें समलैंगिक यौन संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में शामिल किया गया था। जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि सदियां तक बदनामी और उनके परिवारों को राहत देने में देरी को इतिहास में खेद के साथ दर्ज किया जाना चाहिए। हमें अलोकप्रिय विचारांे को नजरंअदाज करने की जरूरत है। जस्टिस मल्होत्रा ने अलग से लिखें 50 पन्नों के फैसले में कहा कि संविधान का अनुच्छेद 19 (1) हर एक नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी देता है, लेकिन इस अधिकार के प्रयोग पर प्रतिबंध अनुच्छेद 19 (2) में लगाया गया हैं। कानून और उत्पीड़न के डर से एलजीबीटी को छिप कर रहना पड़ता है। समलैंगिकता पूरी तरह से स्वाभाविक अवस्था है ओर यह सेक्स करने के तरीको का ही हिस्सा है ऐसे लोगों को अपराध बोध से मुक्त रहकर जीने का हक है जस्टिस मल्होत्रा ने कहा, इतिहास को इस समुदाय से इसके लिए माफी मांगती चाहिए, जिस वजह से सदियों तक उन्हें अपमान और बहिष्क्त जीवन जीना पड़ा। 1290- इंग्लैड के फलेटो में अप्राकृतिक यौन संबंध का मामला सामने आया था। इसके बाद इसे कानूनन अपराध घोषित किया गया। कई कानून बनाए गए। धारा-377 भी इन्हीं में से एक है। 1861  भारत दंड संहित (आईपीसी) में धारा 377 शामिल की गई है।। 1994 पहली बार दिल्ली हाईकोर्ट में धारा 377 को चुनौती दी गई।  सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले ने आपसी सहमति से दो व्यस्क समलैंगिकों के बीच बनाए गए संबंध को आपराधिक कृत्य से बाहर कर दिया है। एलजीबीटीआईक्यू समुदाय में शीर्ष अदालत के ताजा फैसले को लेकर खुशी की लहर है। इस फैसले ने समाज में बरसों से चली आ रही नैतिकता बनाम समलैंगिंकता की बहस को एक तरह से खत्म कर दिया है।

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