ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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प्राचीन भारत में पंचायती राजव्यवस्था-महिलाओं की भूमिका के विशेष संदर्भ में

अमित कुमार यादव (शोधार्थी)
राजनीति विज्ञान विभाग, बरेली कालेज, बरेली

इतिहासकार पंचायती राजव्यवस्था का आरम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से मानते है लेकिन इस सन्दर्भ में प्रचुर सामाग्री, साक्ष्य और प्रमाणों के अभाव में उस समय की राजनीतिक जीवन एवं प्रशासनिक व्यवस्था का सही प्रमाण नहीं मिल सका है। ‘पिगट’ महोदय की धारणा है कि ‘नगरों, गृहों, भवनों और सार्वजनिक इमारतों आदि के योजनाबद्ध निर्माण से ऐसा प्रतीत होता है, कि शासन-सत्ता किसी केन्द्रीय सर्वोच्च सत्ता में केन्द्रीभूत नहीं थी। शासन का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया था और वहाँ स्थानीय स्वशासन की प्रणाली प्रचलित थी।’  सिन्धु घाटी सभ्यता के क्षेत्रों से नारी की अनेक मूर्तियों के प्राप्त होने से इतिहासकारों का विचार है कि सम्भवतः इस सभ्यता के अन्तर्गत समाज ‘मातृ-प्रधान’ था। कुछ अन्य, साक्ष्यों से यह भी प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि ‘‘सिन्धु घाटी सभ्यता में महिलाओं के प्रतीक स्वरूप देवियों की पूजा की जाती थी।’’ इतिहासकार पंचायती राजव्यवस्था का आरम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से मानते है लेकिन इस सन्दर्भ में प्रचुर सामाग्री, साक्ष्य और प्रमाणों के अभाव में उस समय की राजनीतिक जीवन एवं प्रशासनिक व्यवस्था का सही प्रमाण नहीं मिल सका है। ‘पिगट’ महोदय की धारणा है कि ‘नगरों, गृहों, भवनों और सार्वजनिक इमारतों आदि के योजनाबद्ध निर्माण से ऐसा प्रतीत होता है, कि शासन-सत्ता किसी केन्द्रीय सर्वोच्च सत्ता में केन्द्रीभूत नहीं थी। शासन का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया था और वहाँ स्थानीय स्वशासन की प्रणाली प्रचलित थी।’  सिन्धु घाटी सभ्यता के क्षेत्रों से नारी की अनेक मूर्तियों के प्राप्त होने से इतिहासकारों का विचार है कि सम्भवतः इस सभ्यता के अन्तर्गत समाज ‘मातृ-प्रधान’ था। कुछ अन्य, साक्ष्यों से यह भी प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि ‘‘सिन्धु घाटी सभ्यता में महिलाओं के प्रतीक स्वरूप देवियों की पूजा की जाती थी।’’  पंचायत एवं ग्रामीण स्थानीय शासन की अवधारणा भारतीय व्यवस्था में अत्यन्त प्राचीन है। प्राचीन भारत में पंचायतों को ‘ग्राम गणराज्य’ की संज्ञा प्राप्त थी। काल में प्रशासकीय व्यवस्था के लिए राज्य ग्रामों में विभाजित थे। अर्थात यह कहा जा सकता है कि उक्त समय की राजनीतिक व्यवस्था में ‘ग्राम’ राज्य सम्बन्धी संगठनों के मुख्य प्रशासनिक अंग थे। वैदिक युग के विभिन्न वेदों में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ‘ग्राम’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी किया गया है। उस समय के ‘ग्राम’ अपने ‘शासन’ का प्रबन्धन स्वयं करते हुए विधायी, कार्यकारी एवं न्यायिक तीनों तरह के दायित्वों का निर्वाह करती थीं। केन्द्रीय स्तर पर भले ही राजतंत्रीय शासन व्यवस्था थी, लेकिन स्थानीय स्तर पर उनके दायित्वों का विभाजन किया गया था। प्रान्तीय प्राधिकारी स्थानीय प्राधिकारियों के सलाह से प्रान्त की सम्पूर्ण जानकारी केन्द्रीय सरकार को प्रदान करते थे। प्राचीन स्थानीय संस्थाएँ केन्द्रीय संस्था से पूर्णतः स्वतंत्र थीं। केन्द्रीय संस्थाओं एवं शासन या शासकों के बदलाव का उन पर कोई विषेष प्रभाव नहीं पड़ता था। ऋग्वैदिक काल की पंचायतें स्थानीय शासन व्यवस्था की सहयोगी एवं पारस्परिक संस्थाएँ थी, जिनका वर्णन वैदिक साहित्यों में अनेक बार ‘सभा’ या ‘समिति’ के रूप में किया गया है। ये सभायें या समितियाँ लोगों की भलाई के लिए कार्य करती थीं। ‘अथर्ववेद’ में इस आषय का एक श्लोक यह है कि-‘‘ये ग्रामा वदरण्यं या सभा अधिभूभ्याम।ये संग्रामाः समितियस्तेषु चारू वेदम ते।’’  अर्थात् पृथ्वी के ग्रामों, वनों व सभाओं में हम सुन्दर वेद युक्त वाणी का प्रयोग करें। वैदिक काल में सभी आमजन को एक समान रूप से पंचायत या सभा या समितियों में जाने का अधिकार प्रदान किया गया था। यही कारण रहा कि इस युग में पंचायतें अत्यन्त संगठित, सुदृढ़ और आमजन के प्रति समर्पित थीं। प्रभानाथ बनर्जी के अनुसार ‘वैदिक काल के शुरू में ’ग्राम’ स्वायत्तयशासन की इकाई थी तथा वे केन्द्रीय नियंत्रण से दूर थे। ’ग्रामीणी’ व अन्य गाॅव कार्मिक, ग्रामीणी द्वारा नियुक्त होते थे। वाल्मीकि रामायण में इस आशय का एक श्लोक भी मिलता है-                     ‘‘यदिदमेऽनुरूपार्थ   मया  सांधु  सुमिन्त्रतम्।     भवन्तोमऽनु अन्यन्तां ववां  करवाभयहम।।’’  अर्थात् मेरे द्वारा रखे गये उच्च विचार यदि वास्तव में उचित प्रतीत होते हैं, तो इन विचारों को लागू करने की अनुमति दी जाये। दूसरे शब्दों में, आप मेरा मार्गदर्शन करें। इसके अतिरिक्त रामायण युग में जनपद भी थे जो ग्रामीण गणराज्यों के रूप में जाने जाते थे।        प्राचीन भारतीय महिलाओं का जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा प्राप्त था। ‘पतंजलि’ और ‘कात्यायन’ जैसे प्राचीन व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ‘ऋग्वैदिक-ऋचाए’ँ यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और सम्भवतः उन्हें अपने पति चुनने की आजादी थी। बौद्धिक, आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में स्त्रियों को वही प्रतिष्ठा प्राप्त थी, जो कि पुरुषोें को। धार्मिक कृत्यों, सामाजिक उत्सवों, समारोहों आदि में वे पुरुषों के साथ आसन ग्रहण करती थीं। पत्नी के रूप में महिलायें घर की साम्राज्ञी होती थी। ‘ग्रहणी’, ‘ग्रहस्वामिनी’, ‘सहधर्मिणी’ शब्द उनके पारिवारिक प्रभाव का परिचय देते हैं। ‘पुत्री’, एवं ‘पुत्र’ में कोई भेद नहीं था। ‘पुत्रियों’ का ‘पुत्रों’ के समान उपनयन संस्कार होता था और उन्हें भी ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था। स्त्रियाँ उच्च शिक्षा भी ग्रहण कर सकती थीं। ऋग्वेद  में विदुशी स्त्रियों ‘विष्वारा, घोषा, अपाला, लोपामुद्रा, सिकता, निवावरी’ आदि ने ऋषियों का प्रतिष्ठित पद प्राप्त किया। वैदिक काल में दार्षनिक, कवि, यहाँ तक कि कुछ महिलाएँ योद्धा भी थीं। उस समय पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा जैसी कुरीतियाँ नहीं थीं। उन्हें बाहर निकलने, घमूने-फिरने तथा आने-जाने की स्वतंत्रता प्राप्त थी। विवाह के लिए महिला एवं पुरुष की सहमति आवश्यक तथा सामान्यता एक पत्नी एवं एक पति व्यवस्था ही प्रचलित थी। वैदिक काल में अन्तरजातीय विवाह का प्रचलन और विधवा पुनर्विवाह की भी अनुमति थी।   महाकाव्यों अर्थात् ‘रामायण’ एवं ‘महाभारत’ काल में शासन संचालन के लिए राज्य या साम्राज्य विभिन्न भागों में विभक्त और प्रत्येक भाग राज्य के उच्च अधिकारी के अन्तर्गत था। प्रशासन की निम्नतम् इकाई ‘ग्राम’ थी। ग्राम का अधिकारी ‘ग्रामणी’ होता था। प्रत्येक ग्राम को स्थानीय स्वशासन के अधिकार प्राप्त था और वे लगभग आत्म निर्भर होते थे। प्रशासन के लिए दस-ग्रामों का एक समूह होता था, जिसका अधिकारी ‘दशग्रामी’ कहलाता था। इसके ऊपर ‘विशपति’ अधिकारी होता था, जिसके अधीन बीस-ग्राम होते थे। इसके ऊपर ‘शतग्रामी’ या ग्राम ‘शताध्यक्ष’ होता था, जिसके अधीन सौ-ग्राम होते थे। एक-हजार ग्रामों के अधिकारी को ‘अधिपति’ कहते थे। ‘महाभारत’ के सभा-पर्व में राजा ‘युधिष्ठिर’ को यह मंत्रणा दी गयी थी, कि वह प्रत्येक ग्राम में पाँच अधिकारी रखें। इससे यह विदित होता है, कि उस काल में भी राजा ‘ग्राम शासन’ को व्यवस्थित और संगठित करने के लिए सचेत थे।  भारत का प्राचीनतम ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ के अन्तर्गत भी पंचायतों का उल्लेख प्राप्त होता है। मनुस्मृति के अनुसार ग्राम पंचायत के अधिकारी या प्रमुख को ‘ग्रामणी’, ‘ग्रामाधिपति’, या ‘ग्रामिक’ भी कहा जाता था।  गाँव प्रमुख या मुखिया का प्रमुख कार्य कर आदि वसूल करना था। प्रत्येक दस गाँव के ऊपर एक कर्मचारी होता था, जिसे ‘दशिक’ के नाम से, बीस गाँवों के ऊपर के कर्मचारी या अधिकारी को               ‘विशाधिपति’ के नाम से, सौ गाँवों के ऊपर के कर्मचारी या अधिकारी को ‘शतपाल’ के नाम से एवं एक हजार गाँवों के ऊपर के कर्मचारी या अधिकारी को ‘सहस्रपति’ के नाम से जाना जाता था। विंसेंट स्मिथ ने पारांतक ‘‘प्रथम’’ ( 907 ईसवी से 949 ईसवी ) के विषय में कहा है कि ‘स्थानीय कार्यकलाप जैसे प्रशासन व न्याय, सुव्यवस्थित समितयों या पंचायतों के द्वारा राज्य के आदेश से प्रशासित होता था। इस समय के षिलालेख बताते हैं कि स्थानीय समस्याओं को निपटाने के लिए बाण निरीक्षण, न्याय निरीक्षण, स्वर्ण निरीक्षण के लिए समितियों का गठन किया जाता था।  महाकाव्यों में अनेक स्थान पर यह उल्लेख भी प्राप्त होता है कि उस युग में ‘पुत्र’ की कामना अधिक की जाती थी, ‘पुत्री’ की कम। पुत्र को ‘पितरो’ं का उद्वार करने वाला माना गया था और पुत्री को संकट का मूल समझा जाता था। महाभारत में उल्लेख है कि पुत्री आपत्ति थी और वह अपने माता-पिता और पति तीनों के कुलों के लिए संकट थी। देंखे -आत्मा पुत्रः सखाभार्या कृच्छ हिदुहिता किल। कुलत्रयं  साषयितं  कुरूते कन्या का सतात्।  इससे स्त्रियों की हीन दशा का संकेत मिलता है, परन्तु यह घटनायें यत्र-तत्र ही पायी जाती थी। उस समय अधिकाषं ऐसे उदाहरण प्राप्त मिलते है,ं जहाँ पुत्रियों एवं पुत्रों के बीच में कोई विभेद नहीं होता है । कुछ विचारकों की ऐसी धारणा थी कि स्त्रियों की प्रतिष्ठा से देवता भी प्रसन्न रहते थे। सीता, सावित्री, देवयानी, कुन्ती, दमयन्ती, द्रोपदी, उत्तरा आदि सम्मानित और प्रतिष्ठित स्त्रियों के उदाहरण हैं। जहाँ एक, ओर सतीसाध्वी महिलाओं के उदाहरण हैं, तो वहीं दूसरी, ओर शूपर्णखा, ताड़का, मेनका जैसी महिलाएँ भी हैं। स्त्रियों के बाल-विवाह का अभाव एवं स्वतंत्रता पूर्वक उनके घूमने तथा राज-रानियों और महारानियों की सभा में बैठने की आजादी थी। सती-प्रथा की घटनाएँ भी सामने आयी हैं परन्तु वो सामान्य न थीं।  महाकाव्य काल में स्त्रियों की उच्चता सर्वमान्य थी। माता के रूप में गुरू से भी           अधिक महत्ता थी। देंखे – ‘‘गुरूणां चैव सर्वेषां माता परम को गुरूः।’’  महाकाव्य काल में बाल-विवाह का अभाव था। विवाह एक पवित्र बंधन और धार्मिक अनुष्ठान था। जिसे समाज में अनिवार्य माना जाता था। विवाह के लिए ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं था। इस काल में कुछ आपवादिक महिलाओं को छोड़कर राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका अत्यन्त कम रही।  शुक्र नीति सार के अन्तर्गत भी पंचायत संगठनों का वर्णन मिलता है –                   ‘‘सहस्राधिपति    चैव    ग्रामनेतारमेव  च।                     भागहार तृतीयंतु   लेखकं  च  चतुर्थकम्।।                    शस्त्रास्त्र कुशललोयस्तु दृढ़ागंष्च निरालसः।                    यथायोग्यं  समाहूयात्प्रनम्रः  प्रति  हाकरः।।’’ शुक्र नीति-सार के इस श्लोक मंे पंचायत अधिकारियों एवं उनके कार्यों का उल्लेख मिलता है- सहस्रधिपति, ग्रामनेता, माधरा, लेखक, शुल्क ग्राहक और परिहार। इन अधिकारियों के द्वारा निम्न कार्य पूर किये जाते थे- सहस्राधिपति का कार्य राज्य कर जमा करने के साथ ही चोरों और डाकुओं से ग्रामवासियों को पिता तुल्य रक्षा करना तथा ग्राम मुखिया लोगों पर अर्थदण्ड भी कर सकता था।              ‘माधरा’ और ‘शुल्क ग्राहक’ को व्यापारियों से कर वसूलना तथा ‘लेखक’ को ग्रामों का लेखा-जोखा तैयार करना होता था। परिहार का कार्य शस्त्र में निपुण होना और आवश्यकता पड़ने पर लोगों को ग्राम अधिकारियों के सामने उदारतापूर्वक उपस्थित करना था। शुक्र ने उन कर्मचारियों एवं अधिकारियों का भी उल्लेख किया है जो दस, सौ और हजार ग्राम पंचायतों का निरीक्षण करते थे, जिन्हें नायक, सामन्त तथा यशपाल आदि के नामों से सम्बोधित किया जाता था।  कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में राज्य के सात प्रमुख अंगों में ‘जनपद’ को शामिल किया। उनके अनुसार ‘जनपद’ प्रशासन की एक प्रमुख इकाई थी। उनमें ‘ग्राम’ सबसे छोटी इकाई के रूप में कार्य करती थी। दस गाँवों को मिलाकर ‘संग्रहण’ नामक बड़ा गाँव, दो सौ गाँवों को मिलाकर ‘सार्वतिक’ नामक नगर, चार सौ गाँवों को मिलाकर, ‘द्रोणमुख’ नामक  उपनगर एवं आठ सौ गाँवों के मध्य ‘स्थानीय’ (निगम) नामक नगर बनाये जाने चाहिए। ‘ग्राम’ की शासन व्यवस्था का संचालन हेतु ‘ग्रामिक’ नामक अधिकारी निुयक्त होता था। सीमा विवाद की स्थिति में समाधान ‘पंचग्रामिक’ नाम का अधिकारी करता था।  उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा समाज में अवनत हो गयी थी। कन्या जन्म दुःख का विषय समझा जाने लगा और पुत्र मनोकामना का विषय बन गया था। महिलाओं को कष्ट और दुख का स्रोत तथा पुत्र को वंश का रक्षक माना जाता था। धीरे-धीरे महिलाओं और पुरुषों में दूरियाँ बढ़ने लगीं। फलतः वे पुरुषों के सम्पर्क से प्राप्त ज्ञान से वंचित होने लगीं। महिला और पुरुष के बीच समानता का भाव समाप्त होने लगा था। महिलायें जातीय परिषदों तथा सभाओं में प्रवेश नहीं कर सकती थीं। परन्तु धार्मिक कार्यों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी। ऋग्वैदिक काल में कई संस्कार जो महिलाओं के द्वारा किये जाते थे वे कार्य अब पुरोहितों के द्वारा किये जाने लगे।  उत्तरवैदिक काल में एक स्थान पर महिलाओं की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि -‘‘पिता   रक्षित   कौमारे,   भर्ता  रक्षित  यौवने।रक्षित स्थविरे  पुत्राः  न  स्त्री  स्वातन्त्रयमर्हति।।’’  अर्थात् बचपन में महिला की रक्षा पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र करता है, इसलिए वे स्वतंत्रता के योग्य नहीं हैं। वहीं इस काल में स्त्रियों की शिक्षा के महत्व को माना जाता था। पितृग्रह में कन्याओं को पाकशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। उनको गृहस्थ जीवन की शिक्षा का ज्ञान, उनके शारीरिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास की ओर ध्यान दिया जाता था। संगीत और नृत्य में षिक्षित होने के कारण महिलायें गान-विद्या में प्रवीण होती थीं। कुछ स्थानों में उनके लिए उच्च षिक्षा प्राप्त करने एवं शिक्षक होने के भी प्रमाण प्राप्त होते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद में जनक की सभा में गार्गी और याज्ञवलक्य के वाद-विवाद का उल्लेख मिलता है। विदुषी स्त्रियाँ राजसभाओं में दार्षनिक तर्क-विर्तक में भाग लेती थीं। गार्गी, वाचक्नवी, मैत्रेयी आदि के दृष्टान्तों से प्रमाणित होता है कि स्त्रियाँ षिक्षित, विदुशी, वीर और साहसी भी होती थीं। कुछ ने तो अधिक बौद्धिक गौरव तथा सम्मान भी प्राप्त कर लिया था।  कहीं-कहीं उन्हें इस काल में पूज्यनीय भी बताया गया है।  अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं।  लेकिन इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि उत्तर वैदिक काल में नारी की महत्व एवं स्थिति कमजोर अवश्य हुई। मौर्य समाज में महिलाओं की दशा उन्नत थी। उन्हें आदर, सम्मान एवं पूर्ण स्वतंत्रता थी। महिलायें पुरुषों के साथ धार्मिक कार्यों और सामाजिक समारोहों में भाग लेती थीं। रानियाँ देव-दर्षन और दान करती थीं। कुछ रानियाँ जैन या बौद्ध धर्म में भिक्षुणियाँ बनकर दार्शनिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर भ्रमण करती थीं। महिलाओं को विधवा-विवाह, सम्बन्ध-विच्छेद करने, पारिवारिक सम्पत्ति प्राप्त करने तथा विवाह में प्राप्त दहेज व उपहार के अधिकार थे। अनेक स्त्रियाँ राज्य में गुप्तचर, निरीक्षिका, सैनिक एवं अंगरक्षक भी होती थीं। महिलाएँ भिक्षुणी और सन्यासिनी के रूप में भ्रमण एवं धर्म का प्रचार करती थीं।  गुप्त-काल में महिलाओं की स्थिति पूर्व काल के समान ही रही। लेकिन इस काल में यह विचार प्रचलित हो चला था कि लड़की का विवाह उसके मासिक धर्म के प्रारम्भ होने से पहले कर देना चाहिए। इस काल में भी महिलायें शिक्षा ग्रहण, बड़ी आयु में विवाह और सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक उत्सवों अथवा कार्यों में भाग लेती थीं। विधवा विवाह पर कोई प्रतिबन्ध न था। सम्भवतया विदेशियों के प्रभाव के कारण श्रेष्ठ कुलों में सती प्रथा की शुरुआत हो गयी थी, लेकिन इसकी मान्यता नहीं थी। निम्न कुल के व्यक्ति से व्यभिचार करने वाली, अन्य पुरुष से बच्चा उत्पन्न करने वाली अथवा पति हत्या का प्रयत्न करने वाली पत्नी को ही त्यागने की व्यवस्था थी अन्यथा स्त्री त्याज्य न थी। ‘‘अश्टवर्षा  भवेद  गोरी  नव वर्षा  तु   रोहिणी।दश वर्षा  भवेत  कन्या अत उधर्व   रजस्वेला।।प्राप्ते  तुदषमे  वर्षे  यस्तु   कन्यान   यच्छति।    मासि-मासि  रजस्तस्यः पिता पिति   गोणिनम।।’’  इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सिन्धु सभ्यता में मातृ देवी के पूजन अर्चन के प्रचलन नर्तकी की सुन्दर प्रतिभा प्राप्त होने एवं महिलाओं के विविध आभूषणों और शृंगार के प्रसाधनों की उपलब्धि से ऐसा प्रतीत होता है कि यह समाज काफी उन्नत था। आर्यों के वैदिक युग पितृसत्तात्मक होने पर भी समाज में स्त्रियों की बड़ी प्रतिष्ठा थी। उनकी नैतिकता और सदाचार का स्तर काफी श्रेष्ठ था। उत्तर वैदिक युग में महिलाओं की दशा में परिवर्तन आया। पुत्री को परिवार के लिए कष्ट और दुख का स्रोत माना जाने लगा।               सखा ह जाया कृपणंहि दुहिता ज्योतिहि पुत्रः परमे व्योमन।            महिलाएँ अन्य जातीय परिषदों या सभाओं में जा नहीं सकती थीं। पूर्व के तमाम सारे वे संस्कार जो स्त्रियाँ करती थी। अब पुरोहितों के द्वारा किये जाने लगे। महाकाव्य काल में महिलाओं की नैतिकता और आदर्ष श्रेष्ठ थे। माता के रूप में गुरू से भी अधिक उनकी महत्ता थी। देखें –                   गुरूवां  चैव  सर्वेषां  माता  परम  को  गुरू ।             इस काल में महिलाओं की दशा काफी उन्नत एवं उनका आदर और सम्मान होता था। मौर्योत्तर एवं गुप्त काल तक आते-आते महिलाओं की दशा अत्यन्त निम्न हो गयी। सती-प्रथा, बाल-विवाह एवं स्त्री तथा पुरुष असमानता जैसी समस्याएँ आम हो चलीं। इस प्रकार शासन-प्रशासन में महिलाओं की भुमिका उत्तर-वैदिक काल से पतन की ओर अग्रसर हुई जो कमोबेश भारत की स्वतंत्रापूर्व तक बनी रही। जहाॅ तक ‘ग्रामीण स्वशान’ में उनकी भूमिका का प्रश्न है तो ‘प्राचीन भारतीय समाज’ ( सिंधु-घाटी सभ्यता के अतिरिक्त ) ‘पितृसत्तातमक’ था। स्थानीय स्वषान में उनकी भूमिका नगण्य थी।संदर्भ सूची-1. लुणिया, बी. एन. ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’ लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाषन, आगरा,  2010-11, पृ. 702. मित्तल, डाॅ. ए. के., ‘भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’, साहित्यभवन पब्लिकेषन, आगरा,पृ.323. अर्थववेद, 4. वाल्मीकि रामायण,5. लुणिया, वी. एन. ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’ लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन, आगरा 2010-11, पृ.1046. पूर्वोक्त पृ.1727. मनुस्मृति, 7-114, सम्पादक, गंगानाथ झा, इण्डियन प्रेस, प्रयाग, 19328. महीपाल, पंचायती राज संस्थाएँ, ‘अतीत, वर्तमान एवं भविष्य’ सारांश प्रकाशन, नई दिल्ली, 19969. महाभारत, आदि पर्व, 159-1110. महाभारत, 5-97-15-1611. लुणिया, बी. एन. ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन, आगरा, 2010-11  पृ.18012. महाभारत, 1-196-1513. मित्तल, डाॅ. ए. के., ‘भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’, साहित्यभवन  पब्लिकेशन, आगरा, 2010  पृ.8214. मालवीया, एस. डी., ‘विलेज पंचायत इन इण्डिया’, इकोनाॅमिक पोलिटिकल रिर्सच डिपार्टमेण्ट, आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी, नई दिल्ली-1956, पृ. 8315. मिश्रा, राजेष,- राजनीति विज्ञानः एक समग्र अध्ययन, 2015 पृश्ठ. 45 16. लुणिया, वी. एन.-‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन, आगरा, 2010-11 पृ.13317. मनुस्मृति 9/318. लुणिया, वी. एन.-‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन, आगरा, 2010-11 पृ. 13419. मनुस्मृति, 3/5620. लुणिया, वी. एन.-‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन, आगरा,  2010-11 पृ. 42821. शर्मा, एल. पी. -‘प्राचीन  भारत’ लक्ष्मीनारायण  अग्रवाल  प्रकाषन, आगरा 2017, पृ. 29722. स्मृति चन्द्रिका, संस्कार खण्ड पृ. 216।23. अत्रेय ब्राह्मण, 1824. महाभारत, आदि पर्व , 159-11

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