ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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महात्मा गांधी के दर्शन में अन्नदायी श्रम का महत्व

डाॅ ममता यादव

डाॅ ममता यादव एसोसिएट प्रोफेसर राजनीतिक विज्ञान विभाग

  डाॅ शकुंतला मिश्रा

राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय लखनऊ

महात्मा गांधी ने जो दर्शन प्रस्तुत किया उसने प्रत्येक विचार मानववाद के आदर्शांे से प्रेरित था। उनका आर्थिक विचार भी उनके मानववाद के आदर्श से इतर नहीं था। महात्मा गांधी के विचारों की मूल अनुशंसा है हर व्यक्ति को पूर्णतया समान समझा जाए। अतःवह सदैव ऐसे माध्यमों पर विचार करते रहे जिससे सामाजिक समरसता बने और असमानता समाप्त हो उनका अन्नदायी श्रम का सिद्धांत भी एक ऐसा ही विचार है अर्थशास्त्र की आधुनिक पाठ्यपुस्तकों की तुलना में विश्व की धार्मिक कृतियों को अर्थशास्त्र के नियमों अधिक सुरक्षा पूर्ण एवं ठोस कृतियाॅं मानते है। यही कारण है कि वे अपने आर्थिक विचारों के आधार पर रोजी-रोटी सिद्धांत को भी इन्ही धार्मिक मान्यताओं से प्रेरित होकर प्रस्तुत करते हैं। रोटी के लिए श्रम का सिद्धांत महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तुत इस प्रत्यय इस विचार पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए अनिवार्य भोजन स्वयं के श्रम के माध्यम से अर्जित करना चाहिए। उनका विचार था कि केवल बौद्धिक श्रम द्वारा अर्जित आजीविका उचित नहीं है वास्तव में शरीर की आवश्यकताये शारीरिक श्रम के द्वारा ही पूरी की जा सकती, कम से कम हमारी दैनिक आवश्यकता हमारे भोजन का प्रबंध तो स्वयं के शारीरिक श्रम का ही प्रतिफल होना चाहिए।महात्मा गांधी ने जो दर्शन प्रस्तुत किया उसने प्रत्येक विचार मानववाद के आदर्शांे से प्रेरित था। उनका आर्थिक विचार भी उनके मानववाद के आदर्श से इतर नहीं था। महात्मा गांधी के विचारों की मूल अनुशंसा है हर व्यक्ति को पूर्णतया समान समझा जाए। अतःवह सदैव ऐसे माध्यमों पर विचार करते रहे जिससे सामाजिक समरसता बने और असमानता समाप्त हो उनका अन्नदायी श्रम का सिद्धांत भी एक ऐसा ही विचार है अर्थशास्त्र की आधुनिक पाठ्यपुस्तकों की तुलना में विश्व की धार्मिक कृतियों को अर्थशास्त्र के नियमों अधिक सुरक्षा पूर्ण एवं ठोस कृतियाॅं मानते है। यही कारण है कि वे अपने आर्थिक विचारों के आधार पर रोजी-रोटी सिद्धांत को भी इन्ही धार्मिक मान्यताओं से प्रेरित होकर प्रस्तुत करते हैं। रोटी के लिए श्रम का सिद्धांत महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तुत इस प्रत्यय इस विचार पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए अनिवार्य भोजन स्वयं के श्रम के माध्यम से अर्जित करना चाहिए। उनका विचार था कि केवल बौद्धिक श्रम द्वारा अर्जित आजीविका उचित नहीं है वास्तव में शरीर की आवश्यकताये शारीरिक श्रम के द्वारा ही पूरी की जा सकती, कम से कम हमारी दैनिक आवश्यकता हमारे भोजन का प्रबंध तो स्वयं के शारीरिक श्रम का ही प्रतिफल होना चाहिए। गांधीजी यहाॅ बाइबल के इस शिक्षा से प्रभावित हैं जिसमें कहा गया है पसीने की रोटी खाओ ;म्ंतद जीम इतमंक ठतममक इल जीम ेूमंज व िइतवूद्ध।  वास्तव में महात्मा गांधी ने अपने लेखन के माध्यम से यह इच्छा व्यक्त की थी प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में बाइबल के सिद्धांत का अक्षरशः पालन करना चाहिए।गांधी जी ने अन्नदायी श्रम के सिद्धांत को टाॅलस्टाॅय और रस्किन के लेखो कथा बाइबिल एवं गीता के कुछ प्रसंग के आधार पर प्रस्तुत किया। टाॅलस्टाॅय से गांधी जी ने यह प्रेरणा प्राप्त की जीवित रहने के लिए मनुष्य को कर्म करना चाहिए के रस्किन विचारों ने भी उनको इस दिशा में प्रवृत्त किया। रूसी लेखक टी.एम.बोनडा रेफ ने सर्वप्रथम यह विचार व्यक्त किया की मनुष्य अपनी रोटी स्वयं कमाए। टाॅलस्टाॅय ने इस विचार को व्यापक रूप से प्रचारित किया। गांधीजी गीता के तृतीय अध्याय के 12वे एवं 16 वे श्लोक को उद्धृत करते हैं जो इस प्रकार है‘‘इषटानभोगानहिं वो देवा दारथनते यज्ञभविताःतैदऋतानप्रदायैभयो यो भुडेत सतोन एव सः‘‘।।(12।।)   जिसका अर्थ है——- ‘‘जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ संपन्न होने पर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे किंतु जो उपहारों को देवताओं को अर्पित किए बिना भोगता है वह निश्चित रूप से चोर है।’’  ‘‘एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवतयतीहह यः। अधा यूरिनिद्रयारामों मोधं पार्थ स जीवति।।(16)।। अर्थात जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञचक्र्र का पालन नहीं करता है वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति केवल  इंद्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है। इस श्लोक में शारीरिक कर्म के इस सिद्धांत पर बल दिया गया है जिसके द्वारा यह बताया जाता है कि बिना कष्ट के प्राप्त भोजन चुराए हुए भोजन के समान है। इस संबंध में गांधी जी ने स्वयं के शब्दों में यह कहा है कि ‘‘यह नियम की मनुष्य को अपने स्वयं के श्रम के द्वारा ही जीवित रहना है मेरे मन में पहले पहल तब बैठा जब मैनें टाॅलस्टाॅय का रोटी के लिए शारीरिक श्रम से संबंधित लेखन पढ़ा वैसे उससे भी पहले रस्किन का ‘‘अनंटू दिस लास्ट’’ पढ़ने के बाद मैं इस नियम का आदर करने लगा था। इस नियम पर की मनुष्य को अपनी रोटी कमाने के लिए अपने हाथों से श्रम करना चाहिए रूसी लेखक टी.एम.बोनडारिफ ने बल दिया था। टाॅलस्टाॅय ने ही इसका विज्ञापन करके उसे व्यापक रूप से प्रचारित किया मेरे विचार में गीता के तीसरे अध्याय में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति यज्ञ किए बिना भोजन करता है वह चोरी का अन्न खाता है। यह इसी नियम का प्रतिपादन है यज्ञ से तात्पर्य यहां रोटी के लिए श्रम से ही हो सकता है।’’ अन्नदायी श्रम से गांधी का तात्पर्य है कि जीवित रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को श्रम करना अनिवार्य है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किस वर्ग का हो शारीरिक श्रम की गरिमा को समझे और इसके महत्व को सोचे की कम से कम अपनी रोटी के लिए उसे भी कुछ शारीरिक कर्म करना आवश्यक है। यह सही है प्रत्येक व्यक्ति हर प्रकार का शारीरिक श्रम नहीं कर सकता गांधी इस बात को जानते है, वह यह नही कहते की प्रत्येक व्यक्ति कृषि कार्य करे। परंतु उनका मानना है की प्रत्येक व्यक्ति यह निर्धारित करें किस प्रकार का शारीरिक श्रम कर सकता है वह धागा बुन सकता है, लकड़ी का काम कर सकता है तथा अपनी शक्ति एवं रूचि के अनुरूप किसी भी कार्य का चयन कर सकता है। गांधी जी कहते है कि एक ऐसा शारीरिक श्रम हर व्यक्ति कर सकता है। वह अपने लिए झाडू-बुहारू सफाई कार्य कर ही सकता है, अपना अपमार्जक, अपना भंगी, अपना मेहतर तो बन ही सकता है। गांधी कहते है कि ऐसे शारीरिक श्रम का एक व्यक्तिगत लाभ भी है इससे शरीर स्वस्थ रहता है।  गांधी जी का मानना था कि रोजी-रोटी का सिद्धांत उन व्यक्तियों के लिए जो अहिंसा का पालन करते है, जो अर्चना करते है तथा ब्रम्हचर्य का स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं वरदान है। गांधी का मानना है कि यद्यपि यह व्यवहारिक नहीं है कि सभी लोग सदैव कृषि कार्य करें। परन्तु उसके स्थान पर कताई, बुनाई, बढ़ईगिरी, लोहारी आदि कार्य करते हुए कृषि को अपना आदर्श स्वीकार करें। क्योंकि जब प्रत्येक व्यक्ति मेहतर होगा; अपना मैला स्वयं उठाएगा तो समाज में समानता का भाव उत्पन्न होगा। क्योंकि वास्तव में सफाई करने का कार्य आज के किसी वर्ग विशेष को सौंप दिया जाना न्याय-संगत नहीं है। गांधी जी का कहना था कि ‘‘बाल्यकाल से ही हमारे मस्तिष्क पर यह विचार की हम सब मेहतर हैं अंकित कर देना चाहिए’’। सफाई के कार्य को रोजी-रोटी के साथ जोड़ देना चाहिए ऐसा करने से मानव की समानता का मूल्यांकन हो सकेगा। सभी के लिए प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री विश्राम की सुविधाएं उपलब्ध हो सकेंगी, जनसंख्या का दबाव रूग्णता तथा निर्धनता भी नहीं रहेगी अनेक प्रकार के हुनर व्यवसाय विकसित होगें ऊंच-नीच के भेद नहीं रहेगें। गांधी जी ने रोजी-रोटी के सिद्धांत को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। असाध्य दिखाई देते हुए भी इस सिद्धांत का दैनिक शारीरिक परिश्रम द्वारा संधारण संभव है। बौद्धिक श्रम के द्वारा अर्जित आजीविका उचित नहीं है। शरीर की आवश्यकताएं शारीरिक परिश्रम द्वारा ही पूरी की जा सकती हंै। बौद्धिक श्रम केवल आत्मा की परितुष्टि के लिए है, आय के लिए इसका उपयोग नही होना चाहिए। महात्मा गांधी का मानना था कि यदि इस सिद्धांत को माना जाए तो दुनिया की सारी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। महात्मा गांधी के समक्ष यह प्रश्न भी प्रस्तुत किया गया कि क्या मनुष्य अपने बौद्धिक श्रम के द्व्वारा अपनी जीविका अर्जन नहीं कर सकता ? इसके उत्तर में गांधी जी ने इस मान्यता को पुनः प्रतिष्ठित किया बौद्धिक कार्य मनुष्य की आत्मा की संतुष्टि के लिए होता है। उससे पैसा पैदा नहीं करना चाहिए। बिना हाथों के श्रम के रोटी किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए चाहे वह समाज का कोई व्यक्ति हो वह शिक्षक हो, वह डाक्टर हो, वह वकील हो वह बस अपने कार्यो द्वारा समाज की सेवा करे पैसा न कमाए। अपने भरण-पोषण के लिए उन्हें जिस पैसे की आवश्यकता हो अपने शारीरिक श्रम के द्वारा अर्जित करें।  गांधी जी प्रत्येक व्यक्ति यहाॅ तक कि वह रविन्द्र नाथ टैगोर जैसे बुद्धिजीवी से यही आशा रखते थे कि वह प्रतिदिन थोड़ा बहुत हाथ से श्रम अवश्य करें। हाथ से कार्य करने से कार्य की श्रेणी में          सुधार होता ही, है क्योंकि देश के 90०/॰ व्यक्ति कड़ी मेहनत करने वाले है अतः 10 ०/॰ को भी अपनी जीविका के लिए श्रम करने में संकोच नहीं करना चाहिए। कृषि संबंधी बहुत सी कठिनाइयां दूर हो सकती है। यदि इस प्रकार बुद्धिजीवी भी इसमें हाथ बटाएं तो इससे पद संबंधी विशेषताएं भी समाप्त हो जाएंगी। बुर्जुआ वर्ग का स्वरूप ही बदल जाएगा निकट भविष्य मेे ही एक नए वर्ग विहीन समाज का उदय आरंभ होने लगेगा।  महात्मा गांधी का मानना था राजनीति के क्षेत्र में भी मतदाताओं की योग्यता का आधार हाथ का श्रम होगा न कि संपत्ति स्तर। इस प्रकार इस सिद्धान्त की स्वीकृति से इससे संबद्ध हैयता की भावना दूर होगी और इससे तथाकथित श्रमजीवी वर्ग का स्तर भी ऊंचा हो जाएगा।  1947 में इस विचार पर स्पष्टीकरण करते हुए महात्मा गांधी ने कहा इस प्रकार एक अकेला श्रमिक सरलता से मतदाता बन जाएगा जबकि एक लखपति वकील व्यापारी और अन्य कोई ऐसा व्यक्ति यदि राज्य के लिए कोई शारीरिक श्रम नहीं करेगा तो उसके लिए मतदाता बनना कठिन हो जाएगा।  शारीरिक श्रम के महत्व के संदर्भ में गांधी जी आगे कहते हैं ”मुझे गलत न समझें मै बौद्धिक श्रम के महत्व को नकार नहीं रहा लेकिन कितना ही बौद्धिक श्रम करें वह शारीरिक श्रम का स्थान नही ले सकता। भलाई के वास्ते हमने जन्म लिया है। यद्यपि बौद्धिक श्रम शारीरिक श्रम से              अत्यधिक श्रेष्ठ माना जा सकता है, प्रायः ऐसा होता भी है पर वह शारीरिक श्रम का स्थापन कदापि नहीं है और ना हो सकता है। यह इस प्रकार से है जैसे कि बौद्धिक आहार अन्न के दानों से कितना ही श्रेष्ठ क्यों ना हो वह हमारा पेट नहीं भर सकता। सच्चाई तो यह है कि धरती की पैदावार के अभाव में कोई बौद्धिक कार्य संभव ही नहीं है। गांधी आगे कहते है ”क्या लोगों के लिए बौद्धिक श्रम के द्वारा अपनी रोटी कमाना उचित नहीं है ? नहीं। शरीर की आवश्यकता शारीरिक श्रम द्वारा ही पूरी की जानी चाहिए। ”जो सीजर का है, वह सीजर को करने दो“ उक्ति शायद यहां भी लागू होती हैं। गांधी इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कहते है ”बौद्धिक कार्य महत्वपूर्ण है और जीवन क्रम में निसंदेह इसका स्थान है, लेकिन मै जिस बात पर बल दे रहा हूँ वह शारीरिक श्रम है। मेरा कहना है कि इस दायित्व से किसी को बरी नहीं किया जाना चाहिए। शारीरिक श्रम से मनुष्य के बौद्धिक कार्य की गुणवत्ता में भी सुधार आएगा“।  गांधी कहते है मजदूर कुर्सी पर बैठ कर लिख नहीं सकता लेकिन जिस व्यक्ति ने जीवन भर कुर्सी पर बैठकर काम किया है निश्चित रूप से शारीरिक श्रम करना आरंभ कर सकता है। महात्मा गांधी को गीता के कर्म संदेश पर अटूट विश्वास था, उनका विश्वास था ईश्वर ने मानव को अपनी अनिवार्य आवश्यकता के प्रबंध के लिए शारीरिक श्रम को प्रदान किया है। महात्मा गांधी इस भावना से ही मनुष्य जाति को दूर रखना चाहते थे जहां उसके आवश्यकताओं की पूर्ति बिना किसी परिश्रम के हो। यही कारण है कि महात्मा गांधी देश में व्याप्त दरिद्रता और बेराजगारी के लिए अज्ञानता और श्रम की गरिमा को न पहचानना मानते थे। गांधी जी कहते है भारत में उन सबके लिए काम मौजूद है जो ईमानदारी से अपने हाथ पैरों से काम करना चाहते है। ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को काम करने अपनी रोटी से ज्यादा कमाने की सामथ्र्य प्रदान की है और जो व्यक्ति इस सामथ्र्य का उपयोग करने के लिए तैयार है उसे काम की कोई कमी नहीं हो सकती। आवश्यकता इस बात की है कि भगवान के दिये हाथ पैरों से काम करने के लिए तैयार हो।  महात्मा गांधी का मानना था कि राज्य या सरकार का यह निश्चित दायित्व है कि वह अपने सभी नागरिकों को चाहे वह स्त्री हो या पुरूष चाहें उनकी संख्या जितनी भी हो रोटी कमाने के लिए शारीरिक श्रम के अवसर उपलब्ध कराएं। गांधी जी कहते है ”दुनिया में एक भी समर्थ स्त्री या पुरूष बिना काम भोजन के है तब तक हम सभी को विश्राम करने भरपेट भोजन करने में लज्जा का अनुभव करना चाहिए। गांधीजी श्रम के महत्व को प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण मानते है। उनके विचार में ”श्रम करना पूजा के समान हैं। इससे उदात और राष्ट्रप्रेम का भाव दूसरा कोई नहीं हो सकता है। सभी को प्रतिदिन एक घंटा गरीब लोगों के बराबर श्रम करने की बात कहते हैं। इस श्रम के माध्यम से वास्तव में मानवता के साथ सही मायने में तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है। और यदि गरीबों जैसा श्रम किया जाए तो यह ईश्वर के लिए सच्ची श्रद्वा और पूजा होगी। ईश्वर के प्रति किया गया कोई भी समर्पण छोटा नहीं होता है इसलिए इस भावना से किया गया सभी कार्य समान रूप से प्रशंसनीय होगा। यदि एक सफाई का कार्य करने वाला व्यक्ति अपने कर्म को पूजा मानकर करता है तो उसका यह कार्य उतना ही श्रेष्ठ और प्रशंसनीय होगा जितना कि ईश्वर के आदेश को मानकर शासन के कार्य को करने वाले राजा का होता है “।  वास्तव में गांधी जी शारीरिक श्रम जिस रोटी के लिए श्रम के लिए इस्तेमाल करते हैं वह निश्चय ही समाज सेवा का सर्वोत्तम स्वरूप है प्रबुद्ध श्रम वह है जिसके पीछे एक निश्चित प्रायोजन हो। गांधी जी ………… कहते है कि ”रोटी के लिए श्रम के करने के नियम का पालन करने से समाज की संरचना में एक मौंन क्रांति होगी। जब जीवन के लिए संघर्ष करने के स्थान पर परस्पर सेवा के लिए मानव के संघर्ष की विजय माना जाएगा और पशु के नियम के स्थान पर मानव के नियम की प्रतिष्ठा होगी“।  महात्मा गांधी रोटी के लिए श्रम के सि़द्धान्त को श्रम का विभाजन के साथ भी जोड़ते है। उनका मानना है कि श्रम का विभाजन आवश्यक है, परंतु साथ ही मजदूरी की बराबरी भी अनिवार्य है। एवं साथ ही बौद्धिक कार्य करने वाले वकील, शिक्षक, चिकित्सक आदि को भंगी की अपेक्षा ज्यादा पैसे लेने का अधिकार भी नहीं है। इस प्रकार के श्रम विभाजन के आधार पर राष्ट्रीय राज्य का निर्माण होगा उस क्षण संपूर्ण विश्व का उत्थान होगा।  गांधी के शब्दांे में सच्ची सभ्यता अथवा सुख की प्राप्ति का श्रम के विभाजन के इस सिद्धान्त के अतिरिक्त और कोई आसान रास्ता नही हैं। महात्मा गांधी ने कहा कि मेरा आर्दश यह है कि पूंजी और श्रम एक दूसरे के पूरक है। एक दूसरे की सहायता करें। वह एकता और सामंजस्य भावना के साथ एक बड़े परिवार की तरह रहें। उनके विचार में पूंजीपति अपने साथ काम करने वाले श्रमिकों के कल्याण के न्यासी है। इसलिए उन्हंे श्रमिकों के भौतिक कल्याण के साथ-साथ उनके नैतिक कल्याण को भी सुनिश्चित करना चाहिए। गांधी जी श्रम के विभाजन के सिद्धान्त आधार पर श्रम को महत्व देते है न कि श्रम के द्वारा किए गये कार्य की प्रकृति को। इस आधार पर वह श्रमिक और पूंजीपति के मौलिक समानता में विश्वास रखते है। यही कारण है कि वे पूंजीपति के विनाश को अपना लक्ष्य नही मानते अपितु महात्मा गांधी पूंजीपति के ह्नदय परिवर्तन की बात करते हैं।  इस विचार के पीछे महात्मा गांधी के उस महान विचार से प्रेरणा की अनुशंसा है जुड़ी हुई है जो वह प्रत्येक नैतिक जीवन के लिए प्राथमिक स्तर के रूप में प्रस्तुत करतें हैं। अन्नदायी श्रम के पालन के लिए भी यह शर्त अनिवार्य है। गांधी का कहना है इस प्रकार अन्नदायी श्रम के लिए किसी को भी बाधित करना उचित नहीं है। हर व्यक्ति को स्वेच्छा से ऐसा श्रम करना चाहिए। किसी प्रकार की          बाध्यता इस श्रम की अनुशंसा के विपरीत है, क्योंकि बाध्य करने की प्रक्रिया से प्रतिक्रिया होती है और उसके विरूद्व प्रतिवाद तथा विरोध उत्पन्न होता है। यह और संतुष्टि तथा सामाजिक व्यवस्था के और संतुलन का उपादान बन जाता है। सामाजिक जीवन का आधार प्रेम तथा स्वेच्छा पूर्ण सहयोग है यह अन्नदायी श्रम का सिद्धान्त समाज के लिए उपयोगी तभी हो सकता है जबकि इसका प्रयोग समाज में स्वेच्छा से हो।
गांधी जी श्रम की समानता के आधार पर आर्थिक समानता को अहिंसक स्वाधीनता की सर्व कुंजी ;डंेजमत ज्ञमलद्ध मानते थे। आर्थिक समानता के लिए पंूजी और श्रम के अंतहीन संघर्ष का उन्मूलन अनिवार्य है। इस आधार पर गांधी जी पूजीवाद को अंहिसक पद्धति के द्वारा सामाप्त करने के लिए पूंजीपतियों से निवेदन करते हैं, कि वह उन लोगों का न्यासी समझे जिनके ऊपर वह अपनी पंूजी के निर्माण उसकी रक्षा उसके संवर्धन के लिए निर्भर है।  वास्तव में महात्मा गांधी के दर्शन में श्रम के महत्व का यह सिद्धान्त उनके मानवादी और समतावादी दृष्टिकोण का श्रेष्ठ उदाहरण है। साथ ही उनके कर्मयोग के सिद्धान्त अनुपम दर्शन है महात्मा गांधी का यह अन्नदायी श्रम का दर्शन पूर्व जितना प्रासंगिक था वर्तमान और भविष्य में भी उतना ही प्रासंगिक बना रहेगा।त्ममितमदबम : 1ः भारतीय राजनीतिक विचारक, लेखक-डाॅ विष्णु भगवान प्रकाशक-आत्माराम एंड संस कश्मीरी गेट दिल्ली। 2. आधुनिक भारतीय सामाजिक राजनीतिक चिंतन लेखक डाॅक्टर पुरूषोत्तम नागर राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर 3. समकालीन भारतीय दर्शन लेखक, बसंतकुमार लाल प्रकाशक – मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली। 4. श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप द्वारा कृष्ण कृपा प्रकाशक -भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट मंुबई 5. यंग इंडिया 11.4.1929, पृश्ठ संख्या- 114-15 6 हरिजन 18-06-1935 पृश्ठ संख्या-1567. हरिजन 18-1-1948 पृश्ठ संख्या-5208. हरिजन 19-12-36 पृश्ठ संख्या-3569. यंग इंडिया 6-10-1921 पेज – 314 10. हरिजन 23-3-1947 पेज – 178

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