ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

वजूद के संकट से जूझते भारतीय वामपंथी दल

डाॅ0 मोहित मलिक
(असिस्टेन्ट प्रोफेसर राजनीति शास्त्र)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
खैर (अलीगढ़)

2019 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के मैजिक की हर तरफ चर्चा है। राहुल गांधी की हार की भी चर्चा जरूर होती है लेकिन वामपंथियों को लेकर आम लोग बहुत कम चर्चा कर रहे हैं। देश में करीब 52 वर्षाें से अपनी जड़ों को मजबूत किये वामपंथी नेता इस लोकसभा चुनाव में पूरी तरह धराशायी हो गये। वामपंथी केवल 5 सीटों पर रह गए। 2014 के चुनाव में वाममोर्चा को 12 सीटें मिली थीं। इस बार केरल से उसे एक सीट जबकि तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन में शामिल होकर उसने चार सीटें जीतीं। वाममोर्चा अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में खाता भी नहीं खोल सका। इससे स्पष्ट है कि लाल झंडे के वजूद पर संकट खड़ा हो चुका। 1967 में लाल बहादुर के निधन के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई थी तब 1967 के लोकसभा चुनावों में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने पहली बार 59 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ा और 19 सीटों पर जीत हासिल की। उसके बाद 1971 में अपनी सीटों में और इजाफा करते हुए लोकसभा चुनावें में 25 सीटों पर कब्जा जमा लिया। 1980 के चुनावों में तो वामपंथियों ने 37 सीटों के साथ देश में लाल झंडा लहरा दिया था। 90 का दशक भारत के लिये राजनीतिक इतिहास का सबसे खराब और अस्थिर दौर रहा। नरसिम्हा राव ने जैसे-तैसे बहुमत का जुगाड़ कर सरकार बनाई। 1996 और 19999 के बीच देश में तीन बार चुनाव हुये लेकिन वामपंथियों ने राजनीतिक अस्थिरता में भी अपनी स्थिरता बनाये रखी। 2004 के  चुनावों में भी माकपा को 43 सीटें हासिल हुई थी। 2009 के चुनावों में वाममोर्चा केवल 16 सीटों पर रह गया।2019 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के मैजिक की हर तरफ चर्चा है। राहुल गांधी की हार की भी चर्चा जरूर होती है लेकिन वामपंथियों को लेकर आम लोग बहुत कम चर्चा कर रहे हैं। देश में करीब 52 वर्षाें से अपनी जड़ों को मजबूत किये वामपंथी नेता इस लोकसभा चुनाव में पूरी तरह धराशायी हो गये। वामपंथी केवल 5 सीटों पर रह गए। 2014 के चुनाव में वाममोर्चा को 12 सीटें मिली थीं। इस बार केरल से उसे एक सीट जबकि तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन में शामिल होकर उसने चार सीटें जीतीं। वाममोर्चा अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में खाता भी नहीं खोल सका। इससे स्पष्ट है कि लाल झंडे के वजूद पर संकट खड़ा हो चुका। 1967 में लाल बहादुर के निधन के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई थी तब 1967 के लोकसभा चुनावों में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने पहली बार 59 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ा और 19 सीटों पर जीत हासिल की। उसके बाद 1971 में अपनी सीटों में और इजाफा करते हुए लोकसभा चुनावें में 25 सीटों पर कब्जा जमा लिया। 1980 के चुनावों में तो वामपंथियों ने 37 सीटों के साथ देश में लाल झंडा लहरा दिया था। 90 का दशक भारत के लिये राजनीतिक इतिहास का सबसे खराब और अस्थिर दौर रहा। नरसिम्हा राव ने जैसे-तैसे बहुमत का जुगाड़ कर सरकार बनाई। 1996 और 19999 के बीच देश में तीन बार चुनाव हुये लेकिन वामपंथियों ने राजनीतिक अस्थिरता में भी अपनी स्थिरता बनाये रखी। 2004 के  चुनावों में भी माकपा को 43 सीटें हासिल हुई थी। 2009 के चुनावों में वाममोर्चा केवल 16 सीटों पर रह गया। वामपंथी किले मंे जबरदस्त संेधमारी हुई। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ को तृणमूल ने ध्वस्त कर दिया। दक्षिण भारत के अपने मजबूत गढ़ों में भी वाममोर्चा लगातार सिमटता रहा। 2014 में मोदी लहर ने वाममोर्चा को बहुत नुकसान पहुंचाया और इस बार तो उसका बचा-खुचा गढ़ केरल भी हाथ से निकल गया। केरल मंे वाममोर्चा को केवल एक सीट मिली है। तमिलनाडु एक प्रोग्रेसिव और धर्मनिरपेक्ष राज्य है। राज्य का इतिहास जीवा जैसे बड़े कम्युनिस्ट नेताओं और एस.पी. चिथन जैसे ट्रेड यूनियन नेताओं का रहा है। वहां द्रमुक के साथ मिलकर 4 सीटों पर जीत हासिल करना कोई हैरान कर देने वाली बात नहीं। केरल में सबरीमला मंदिर की परम्पराओं को बरकरार रखने के लिये चले आदोलन के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने काफी मेहनत की। जिस तरह से सबरीमला मुद्दे को लेकर हिन्दू लामबंदी हुई वह केरल के लिए नई बात थी। हालांकि इसका फायदा भाजपा को मिलना चाहिये था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मेहनत भाजपा ने की लेकिन फायदा कांग्रेस को मिला। राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने का फायदा कांग्रेस को मिला। सबरीमला आन्दोलन तीन महीने चला। विजयन के नेतृत्व में एलडीएफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू कराने के लिये भाजपा कार्यकर्ताओं को जेल में भी डाला। इस सबसे बावजूद भाजपा लोगों के वोट को अपने पक्ष में तब्दील नहीं कर पाई। यह सही है कि लोग विजयन सरकार की नीतियों से नाराज थे। विजयन सरकार को सबक सिखाने के लिए उन्होंने कांग्रेस को बेहतर विकल्प समझाा। कभी वामपंथियों की पंजाब में मौजूदगी थी। एक दोर ऐसा भी था जब इनकी टिकट पर पंजाब से कई बार सांसद और विधायक चुने गये। 1957 के लोकसभा चुनावों में संयुक्त पंजाब की झज्जर सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रताप सिंह सांसद चुने गये थे। 1971 के चुनावों में संगरूर और बठिंडा सीट जाती थी। 1977 के चुनाव में फिल्लौर संसदीय सीट भी जाती थी। अब पंजाब की राजनीति में भी कामरेड दिखाई नहीं देते। हर जगह उसके वोट प्रतिशत में भी कमी आई। पश्चिम बंगाल में भी उसके मत भाजपा को ट्रांसफर होते दिखाई दे रहे हैं। पश्चिम बंगाल में उसे केवल 7.47 फीसदी वोट मिले हैं। ’’समय के साथ देश का जनमानस काफी बदल चुका है लेकिन वामपंथियों ने अपना मानस नहीं बदला। तीन दशकों से दुनिया काफी बदल चुकी है लेकिन वामपंथियों अपनी रूढ़िवादी नीतियों के चलते अमेरिकी विरोध पर अड़ा हुआ है। जिस सर्वहारा और हाशिये के समाज के पक्ष में वामपंथ लड़ता रहा है उनके लिए अनेक कल्याणकारी योजनायें चल रही हैं। पिछले पांच वर्ष में मोदी सरकार की योजनाआंे का लाभ भी लोगों का मिला है। वाममोर्चा के भीतर की कलह भी असफलता के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। मतभेदों के चलते कई दिग्गजों की अपमानित किया गया और वाममोर्चा से अलग हो गये। वामदलों ने खुद को बदलने की कोशिश नहीं की । भारत में पैदा होकर भी उनके नेता भारतीयता से दूर भागते रहे। साइकिल लेकर चलने वाले मेहनतकश कामरेड अब रहे नहीं। कामरेड भी अब कारों में घूमने लगे। ऐसे में भारतीयों ने उनसे दूरी बना ली।’’1 इस चुनाव में वामपंथ के क्षरण का बड़ा कारण यह रहा कि सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता उन पर हमले करते रहे और वाम नेतृत्व मूकदर्शक बना रहा, जबकि भाजपा कार्यकताओं पर हमले होते ही वहां प्रदेश भाजपा नेता पहंुचते रहे और लड़ते रहें।  वामपंथ की अंतर्कलह और अंतर्विरोधों से वाम समर्थक आजिज आ गए थे। सीताराम येचुरी जो लाइन लेते थे, प्रकाश करात उससे अलग जाते दिखते थे। वाम दल खासकर माकपा चुनाव को युद्ध मानती रही है, किंतु इस चुनाव में यह युद्ध के रूप में लड़ती नजर नहीं आई। माकपा की लोकल कमेटी से लेकर जोनल, जिला व राज्य कमेटियों द्वारा लोकसभा के चुनाव प्रचार के लिए जिस जज्बे को दिखाए जाने की जरूरत थी, वह नहीं दिखाई गईं कदाचित इसलिए वह शिखर से ढलान पर आ गिरी। बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में लंबे समय तक माकपा शिखर पर रही। आज बंगाल और त्रिपुरा की सत्ता से वह बाहर है। इन प्रदेशों में बड़े पैमाने पर पार्टी छोड़ रहे हैं। मतभेदों के कारण ही नृपेन चक्रवर्ती, सैफुद्दीन चैधरी से लेकर सोमनाथ चटर्जी जैसे कद्दावर नेताओं को माकपा से बहिष्कृत किया गया। ये तीनों नेता अब नहीं रहे, किंतु माकपा ने कभी इस पर विचार नहीं किया कि इन नेताओं को पार्टी से बहिष्कृत किया जाना दल के लिए किना हितकर रहा? सोमनाथ से पार्टी नेतृत्व को जो मतभेद रहा, पर उनके तर्क मजबूत थे। उनकी बात नहीं सुनी- समझी गई। सैफुद्दीन चैधरी ने कहा था कि भाजपा पार्टी की दुश्मन नंबर एक है और कांग्रेस दो नंबर। इस बयान पर तब पार्टी के कट्टरपंथी तबके को उदारपंथी सैफुद्दीन के बयान में कांग्रेस भक्ति नजर आई थी और सैफुद्दीन दल से बाहर कर दिया गए। विडंबना देखिए कि बाद में पूरी माकपा उनकी राजनीतिक लाइन पर ही चल पड़ी। ’’वाम दलों ने यह समझने की जहमत नहीं उठाई कि वे अपना जनाधार क्यों खो रहे हैं? समय के साथ देश का मानस बदलता गया, पर वाम दलों ने खुद को नहीं बदला। उन्होंने भारतीय मूल्यों व परंपराओं को सम्मान देने की कोशिश नहीं कि, उलटे वे उनका उपहास उड़ाते रहे।’’2  वामपंथी दलों में सबसे बड़ी पार्टी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की  स्थापना अक्टूबर 1920 को हुई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सातवीं कांग्रेस कलकत्ता में 1964 में हुई थी और उसी में भाकपा से निकलकर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा की गई थी। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में संशोधनवाद पर जो बहस चली थी और उसमें जो गहरे सैद्धांतिक मतभेद उभरे थे उसकी परिणति कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के रूप में हुई थी। तब माकपा के गठन की घोषणा करते हुए मुजफ्फर अहमद ने कलकत्ता कांग्रेस में कहा था, ’आइए हम सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी खड़ी करने की शपथ ले।’ पार्टी को इस पर मंथन करना चाहिए कि क्या उस शपथ पर माकपा खरी उतर सकी? वामपंथी दलों का अहित उन वाम झुकाव वाले बुद्धिजीवियों ने भी खूब किया है जो विरोधी विचार को समझना तो दूर रहा, उसे सुनने को भी तैयार नहीं। वह खुद को लिबरल भले बताते हों, लेकिन उनमें असहिष्णुता कूट-कूट कर भरी है। जैसे वाम विचारक असहमति को सम्मान देने के लिए तैयार नहीं वैसी ही कुछ स्थिति वाम दलों की भी है। चंूकि वे अपनी गलतियों से कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं इसलिए इसमें संदेह है कि उनका नए सिरे से उत्थान हो सकेगा। यह सचमुच ’’बड़े आश्यर्च की बात है कि जो वाम सत्तर के दशक तक संसद में मुख्य विपक्षी दल हुआ करता था, वह 2019 तक आते-आते संसदीय लोकतंत्र में बिल्कुल ही अप्रासंगिक बनकर रहा गया।  संसदीय लोकतंत्र में उसकी हिस्सेदारी नगण्य हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि वाम दलों के पास कैडर नहीं है। ठीक है कि उसके कैडरों में कमी आयी है लेकिन भाजपा के बाद आज भी देश में वाम दलों के पास ही अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं।’’3 ऐसे में सभी के मन में यह बात उठ रही है कि उनका प्रदर्शन इतना निराशाजनक क्यों रहा और इसका संकेत क्या है। इस बार के लोक सभा चुनावों में पश्चिम बंगाल और केरल दोनों ही जगहों पर देखा गया कि वाम दलों के समर्थकों ने अपने दलों को छोड़कर अन्य दलों का समर्थन किया। पश्चिम बंगाल में सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने दूरदृष्टि-दोष के चलते भाजपा को समर्थन दिया। दरअसल, उनके मन में ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ इतना गुस्सा और रोष था कि उन्हांेने भाजपा को समर्थन देना ही उचित समझा। वैसे इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, क्योंकि वहां उसकी राजनीतिक लड़ाई ममता से ही रही है। जब उन्हें महसूस हुआ कि वे तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला नहीं कर सकते, तो उन्होंने भाजपा को समर्थन दे दिया। चंूकि वहां ममता सीपीएम को सत्ता से हटाने में कामयाब हुईं थीं और तृणमुल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ सीपीएम के कार्यकर्ताओं की हिसंक झड़पें होती रही थीं, इसलिए उन्हें तृणमुल को पराजित करने के उद्देश्य से भाजपा को समर्थन देना ही उचित प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि सीपीएम को वोट देकर वे अपना वोट बर्बाद करेगे। यह हाल केरल में हुआ। केरल के कई सीपीएम नेताओं ने भी स्वीकार किया है कि उनके कैडरों ने लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) को छोड़कर कांग्रेस की अगुआई वाली यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) को वोट दिया।ठोस जमीन भी तैयार करनी होती है। कैडरों की हताशा पार्टी की लगातार चुनावी अफसलता का परिणाम तो है ही, पार्टी का सत्ता से बाहर रहना भी उसका एक कारक नजर आता है। सत्ता से विहीन होकर वाम दल अपने कैडरों को एकजुट रखने मंे नाकामयाब रहे, क्योंकि सत्ता से बाहर रहने के कारण वाम समर्थकों की तरह-तरह की सरकारी सहायता बंद हो गयी। पुलिस ओर प्रशासन से मिलने वाली सारी रियायतें और सुविधाएं समाप्त हो गयीं। अब वे अपने चहेतों को कोई लाभ पहंुचाने की स्थिति में नहीं रह गये। इसके चलते जहां समाज में उनकी पूछ कम हुई, वहीं सरकार के साथ उनका आंकड़ा छत्तीस को हो गया। अब वे अपनों की सहायता तो छोडिए, खुद की सहायता करने के काबिल भी नहीं रह गए। यहां एक बात हमें ध्यान में रखने चाहिए कि आज जो तृणमुल का कैडर है, उसका अधिकांश पहले सीपीएम के साथ ही हुआ करता था। इससे एक बात और साबित होती है और वह यह कि सीपीएम नेतृत्व अपने कैडरों को माक्र्सवादी प्रशिक्षण देने और उनके मन में पार्टी के लिए प्रतिबद्धता का भाव और उत्साह कायम रखने में कोताही करता रहा। वाम नेताओं ने पार्टी कैडरों को दिये जाने वाले प्रशिक्षण पर विराम लगा दिया और केवल नारा लगाने को ही प्रतिवद्धता का पर्याय मान लिया गया। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो पार्टी और वाम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का पर्याय मान लिया गया। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो पार्टी और वाम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी जल्दी खंडित कैसे हो गयी? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वाम दलों ने अपने जुझारू चरित्र का परित्याग कर दिया। जनहित के मुद्दे को लेकर वे सड़क पर उतरने से परहेज करने लगे। यह जानने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं कि पिछले कई दशकों से वाम दलों ने किसी भी जनहित के मुद्दे पर कोई भी जनांदोलन नहीं किया। संसद से लेकर सड़क तक वे खामोश रहे। ऐसे में उनके कैडरों का उत्साह शिथिल होना स्वभाविक था। जाहिर है कि हतोत्साह होकर कोई पूर्ण प्रयास नहीं कर सकता। संघर्ष ही वाम की शक्ति रही थी, लेकिन दुर्भाग्य से वाम दलों ने उसका परित्याग कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि संघर्ष से ही प्रतिबद्धता पैदा होती है। जब संघर्ष ही नहीं रहा, तो प्रतिबद्धता कहां से रह सकती थी। किसी भी जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले राजनीतिक समूह का ऐसा जिद्दी और अनाड़ी रवैया शायद दुनिया में कहीं भी किसी ने नहीं देखा होगा। सीपीएम का यही प्रकाश गुट तमिलनाडु में उस डीएमके के साथ सहयोग करने के लिए तैयार है, जो कांग्रेस के साथ जुड़ी हुई है। लेकिन प्रकाश करात गुट की इस जिद का कारण यह कहा जा रहा है कि अगर कांग्रेस के साथ किसी प्रकार के समझौते की कोई गंुजाइश छोड़ी गई तो पश्चिम बंगाल की पार्टी उसके बहाने ही कांग्रेस के सीटों का समझौता कर लेगी। वे यह झूठा प्रचारविगत में लिए गए वाम दलों के अनेक निर्णय भी जिम्मेदार नजर आते हैं। जहां तक  भी करते हैं कि पश्चिम बंगाल में 2011 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता करने से पार्टी को कोई लाभ नहीं हुआ था। ये लोग यह नहीं जानते कि राजनीति काफी हद तक जनता के परसेप्शन का खेल होता है आज भी बंगाल में अपनी साख को समग्र रूप से वापस हासिल करना अकेले वाम के बूते में नहीं है। जनतांत्रिक ताकतों के किसी एकजुट संघर्ष के बीच से ही वह फिर से पनपसकता है। प्रकाश करात कंपनी यह सब जानते हुए भी पार्टी में अपने समर्थकों को बरगलाने के लिए इन बातों का छिपाता है। जो लोग बंगाल की जमीनी सचाई से परिचित नहीं है, वे बंगाल की राजनीति को नियंत्रित करना चाहते हैं। ’’करात सीपीआई (एम) के एक ऐसे बड़े नेता रहे हैं, जिनकी जनता के बीच अपनी कोई साख नहीं है। वे पार्टी के अंदर अपने वर्चस्व को कायम रखने में जरूर माहिर हैं, और एक बंद संगठन की अपनी कमजोरियों का लाभ उठा कर काफी अर्सें से पार्टी के सर्वाेच्च नेतृत्व के अपनी ही तरह के जनाधार विहीन लोगों के बल पर अपना एक बहुमतवादी गुट बनाए हुए हैं। 1996 में जब हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के महासचिव थे, तब उन्होंने अपनी इसी ताकत के प्रयोग से ज्योति बसु के स्तर के नेता को धूल चटा दी थी और इस प्रकार सीपीआई (एम) के भविष्य को मिट्टी में मिलाने का नेतृत्व किया था।’’4 तब ज्योति बसु को कहना पड़ा था कि यह एक ऐतिहासिक भूलंे हुईं अब बस निकल गई है, पार्टी के विस्तर का ऐसा मौका फिर नहीं आने वाला है। भारत में वामपंथ का स्वर्णिम और 20वीं सदी के नौवें दशक से लेकर 21वी. सदी के शुरूआती दशक तक जारी रहा। माकपा ने गठबंधन के दौर में किंगमेकर की भूमिका निभाई। संप्रग-1 सरकार में उसका प्रभाव चरम पर था और वाम दल मनमोहन सरकार के माध्यम से अपने सामाजिक-आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ने में कामयाब रहे। वाम दलों की राजनीतिक गिरावट 2008 में शुरू हुई, जब उन्होंने संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला किया। इसने कई घटनाओं को जन्म दिया, जिन्होंने भारतीय राजनीति में उनके प्रभाव को सीमित कर दिया। कई भूलों ने माकपा को राजनीति में एक शक्तिशाली दल से एक मामूली दल बना दिया। आइए जानते हैं ऐसी ही तीन ऐतिहासिक भ्ूालें। 1996 में माकपा को एक ऐतिहासिक अवसर मिला, जब वाजपेयी सरकार के विश्वास मत हासिल करने में विफल रहने के बाद ज्याति बसु से क्षेत्रीय दलों के गठबंधन द्वारा प्रधानमंत्री बनने की पेशकश की गई। लेकिन माकपा ने बसु को गठबंधन सरकार का नेतृत्व नहीं करने दिया। पार्टी का मानना था कि वह अपने माक्र्सवादी एजंडे का लागू नहंी कर पाएगी। बसु ने अपनी पार्टी के फैसले ऐतिहासिक भूल के रूप मंे वर्णित किया। पार्टी, जो तब तक पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा तक सीमित थी, उसने अपने प्रभाव का विस्तार करने का एक बड़ा अवसर खो दिया। 2006 में पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली माकपा सरकार ने टाटा मोटर्स के लिए सिंगूर में 997 एकड़ जमीन अधिग्रहीत करने की घोषणा की, जिस पर छोटी कार नैनो बनाने का कारखाना स्थापित होने था। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने इस अवसर का इस्तेमाल अपना जनाधार बढ़ाने के लिए किया। उसने मुआवजे और किसानों के हितों पर आंच आने का आधार बनाते हुए बड़ा आंदोलन खड़ा किया। माकपा की एक गरीब समर्थक पार्टी की छवि को मिटा दिया, क्यांेकि उसे एक शक्तिशाली कारपोरेट समूह के हितों की रक्षा करते देखा गया था। इसके कारण 2011 के    विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चें की हार हुई और माकपा ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में अपना खास स्थान खो दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 को फैसला सुनाया कि सभी उम्र की महिलाओं को केरल के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी जानी चाहिए। पिनरई विजयनके नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार ने कोर्ट के फैसले को लागू करने का फैसला किया। भाजपा के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) ने इस अवसर को हथिया लिया और सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। इसने सीएम विजयन को हिंदू समुदाय के बीच अलोकप्रिय बना दिया। लोकसभा चुनाव में पार्टी की पराजय का कारण सबरीमाला आंदोलन को माना जा सकता है, जिसने यूडीएफ को राज्य की 20 में से 19 सीटें जीतने में मदद की। मोदी आजाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने दक्षिणपंथी दल का प्रतिनिधि होने के बावजूद जनकल्याणकारी योजनाओं में खुद को जनवादी कहने वालों को पीछे छोड़ दिया। यही वजह है कि बंगाल के वामपंथी काडर ने भाजपा को अपना अंतिम आश्रय मान लिया। वहां से वामपंथी मोरचे का एक भी सदस्य लोकसभा के लिए नहीं चुना गया। केरल में भी सिर्फ एक सीट पर उन्हें सफलता हासिल हुई। तो उसके पीछे द्रमुक सहित कई दलों का गठबंधन था। ’’लाला सलाम पेश करने वाले ऐसे दर-बदर हो जाएंगे आधा दशक पहले तक ऐसा सोचना तक नामुमकिन था।’’5 भारत में माक्र्सवाद की क्या स्थिति है? क्या वह भारतीय संस्कृति की आत्मा के खिलाफ है? ऐसा कहना या मानना होगा की संस्कृति स्थिर होती है। एक बार जब वह बन जाती है तो भविष्य में भी वैसी ही बनी रहती है। तथ्य इसका समर्थन नहीं करते। देश में कल तक ब्राह्ममणों का राज था। आज उन्हें कोसा जा रहा है। कल वक दलित चूं भी नहीं कर सकते थे और वही आज सड़कों पर उतरकर आंदोलन कर रहे हैं। लाखों या करोड़ों स्त्रियां घर से बाहर निकल कर नौकरी कर रही हैं। यही कारण है कि ’’भारत में माक्र्सवाद एक बड़ी राजनीति धारा बन सका, आज वह मुरझा हुआ दिखाई देता है लेकिन  इसलिये नहीं कि माक्र्सवाद में कोई दम नहीं है बल्कि माक्र्सवादियों में कोई दम नहीं था। उनकी बड़ी राजनीति को देख कर माक्र्स निश्चय ही आज शर्मिंदा होते।’’6 माक्र्स जैसा चाहते थे उसके उलट हुआ। राज्य विहीन समाज की स्थापना का उनका लक्ष्य तो ओझल ही हो गया। साम्यवादी मुल्कों में तानाशाही एवं निरंकुशता की स्थापना हुई। रूस में तो जो कोई लेनिन या उसके शासन के विरूद्ध सक्रिय पाया जाता था। उसे पुलिस द्वारा मरवा दिया जाता था। लेनिन की मृत्यु के बाद जब जोसेफ स्टालिन ने सत्ता संभाली तब खून खराबा और अधिक तेज हो गया। रूस की तरह चीन में भी सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर माओ ने लाखों लोगों का खत्म कर दिया। 1975-79 के दौरान कंबोडिया में पोलपोट की साम्यवादी खमेर रूज पार्टी ने अपने लाखों राजनीतिक विरोधियों की हत्या की। हत्याओं, श्रम यातनाओं, कुपोषण और भंयकर बीमारियों के कारण कंबोडिया की 30-35 लाख आबादी समाप्त हो गई। श्रमिकों के कल्याण की बात करने वाली साम्यवादी पूर्वी जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी के शासन में श्रमिकों का वेतन पश्चिमी जर्मनी के श्रमिकों के वेतन के आधे से भी कम था। यदि हिटलर और मुसोलिनी को उनके फासिस्ट कारनामों के लिए याद किया जाता है तो माओ, लेनिन और स्टालिन फासिस्ट क्यों नहीं हैं? इन्हें क्रांतिकारियों की श्रेणी कैसे मिल गई? ’’आज साम्यवाद केवल कुछ ही मुल्कों में नाममात्र के लिए ही है। दुनिया का परिदृश्य बदल रहा है। किंतु अपने देश में बुद्धिजीतियों का एक अच्छा खासा तबका साम्यवादी लकीर का फकीर बना हुआ है।’’7  मौहम्मद सलीम जो कि माकपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व संसाद का मानना है कि ’’जब तक बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी रहेगी तब तक वाम मोर्चे का वजूद हमेशा कायम रहेगा या फिर आपको मान लेना पड़ेगा कि इन समस्याओं का समाधान हो गया है और अच्छे दिन आ गए हैं’’।8 प्रो0 नरेन्द्र कुमार का मानना है कि ’’वर्तमान में पूरे विश्व के परिप्रेक्ष्य में देखें तो जिस तरह से लोगों का झुकाव दक्षिणपंथी दलों की तरफ हुआ है, वाम दलों के लिए अपने को उभारने का एक अच्छा मौका है। वाम विचारधारा की सोच में समस्या है। लोगों को जो नया आइडिया चाहिए, नए तरीके से जो आंदोलन खड़े होने चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। आने वाले कुछ दशकों में तो कम से कम वामपंथ और वाम विचारधारा के उबरने की संभावनाएं नजर नहीं आ रही है।’’9 दुनिया भर में ’’सियासी दल स्वंय को प्रासंगिक रखने के लिए नये तौर-तरीके अपनाये रहे है वही भारत के वामदल पुरानी सोच और अतीत के नारों से चिपके हैं।’’10 वामदलों की आगे की राह क्या होगी? क्या वह ब्रिटिश लेबर पार्टी की तर्ज पर कुछ करेंगे जिसके कुछ दशक पहले अपनी सोच और कार्यशैली में बदलाव किया था। विदेश से आयातित साम्यवाद भारत की संसदीय प्रणाली में जो वर्चस्व बनाए हुए था, वह अब इतिहास होता जा रहा है गांव-गरीब के नाम की राजनीति करने वाले साम्यवादी अपना अर्थ खोती जा रही नीतियों के कारण टूटते और बिखरते रहे हैं।सन्दर्भ:-1. अश्विनी कुमार, लाल झंडे के वजूद का संकटः- पंजाब केसरी, नई दिल्ली, 29 मई 2019।2. प्रो0 कृपा श्ंाकर चैबे, अस्तित्व के संकट से जूझते वामपंथी दल, दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 25 मई 2019।3. कुमार नरेन्द्र सिंह (वरिष्ठ पत्रकार), वाम की विदाईः- राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप) नई दिल्ली, 25 मई 2019।4. अरूण माहेश्वरी, वामपंथ का उत्तर-सत्यः- राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, 24 जनवरी 2019।5. शशि शेखर, मोदी के अवसर और चुनौतियांः- हिन्दुस्तान, मेरठ, 26 मई 2019।6. राज किशोर, वक्त से मात खा गया माक्र्सवाद, दैनिक जागरण, नई दिल्ली 7 मई 2019।7. प्रो0 उदय प्रकाश अरोड़ा, लकीर के फकीर सरीखे साम्यवादी, दैनिक जागरण, नई दिल्ली 28 जून 2019।8. मौहम्मद सलीम (माकपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद), हमेशा बनी रहेगी वाममोर्चे की प्रासंगिकताः- दैनिक जागरण नई दिल्ली, 09 जून 2019।9. प्रो0 नरेन्द्र कुमार, महंगी पड़ी जमीनी हकीकत की अनदेखीः-दैनिक जागरण नई दिल्ली, 09 जून 2019।10. सूर्यप्रकाश, खुद की खत्म करते वामदल, दैनिक जागरण नई दिल्ली 17 जून 2019।

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