ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में अटल-प्रासंगिकता

डाॅ0 मोहित मलिक(असिस्टेन्ट प्रोफेसर राजनीति शास्त्र)

 राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खैर (अलीगढ़)

अटल बिहारी वाजपेयी का जाना सही अर्थों में एक युगांत है। भारतीय लोकतंत्र ने जो भी गिने -चुने कददावर राजनेता पैदा किये हैं, अटल जी उनमें से शीर्ष स्थन पर रखे जा सकते हैं। भाजपा के शायद वह एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्हें ’अजातशत्रु’ कहा जा सकता है। उन्हें जितना सम्मान अपनी पार्टी में प्राप्त था, उसके कहीं ज्यादा दूसरी पार्टियों के नेता उनका सम्मान करते थे। वह जब संसद में बोलने के लिये खड़ें होते थे तो सभी राजनीतिक दलों के नेता उनके भाषणों को सुना करते थे। पार्टी से परे जा कर सम्मान प्राप्त करने के दुर्लभ गुणों के कारण ही वह भाजपा को स्वीकार्य और सार्वजनिक स्वरूप दे सके। उनके नेतृत्व में भाजपा का ंिहंदुत्व विनम्र  और समन्वयवादी हुआ था। इसी के चलते भाजपा के अंदर नम्रता और लचीलापन आया जिससे कि भाजपा का अन्य दलों के साथ गठबंधन हो सका। यह लचीलापन आज की राजनीति का अपरिहार्य गुण बन गया है। अटल जी को ’’गठबंधन की व्यवहारवादी राजनीति का वास्तविक सूत्रधार कहा जा सकता है।’’1 उनके  नेतृत्व में ही पहली बार भाजपा में यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वह कांग्रेस का विकल्प बन सकती है। अपनी कटटर और साम्प्रदायिक छवि के कारण भाजपा अछूत बनी हुई थी। अटल जी की अगुवाई में ही भाजपा का अछूतोद्धार हुआ। इसमें उनकी ईंट पर ईंट बनी राष्ट्रीय ओर बहुलतावादी छवि काम आई। अटल बिहारी वाजपेयी का जाना सही अर्थों में एक युगांत है। भारतीय लोकतंत्र ने जो भी गिने -चुने कददावर राजनेता पैदा किये हैं, अटल जी उनमें से शीर्ष स्थन पर रखे जा सकते हैं। भाजपा के शायद वह एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्हें ’अजातशत्रु’ कहा जा सकता है। उन्हें जितना सम्मान अपनी पार्टी में प्राप्त था, उसके कहीं ज्यादा दूसरी पार्टियों के नेता उनका सम्मान करते थे। वह जब संसद में बोलने के लिये खड़ें होते थे तो सभी राजनीतिक दलों के नेता उनके भाषणों को सुना करते थे। पार्टी से परे जा कर सम्मान प्राप्त करने के दुर्लभ गुणों के कारण ही वह भाजपा को स्वीकार्य और सार्वजनिक स्वरूप दे सके। उनके नेतृत्व में भाजपा का ंिहंदुत्व विनम्र  और समन्वयवादी हुआ था। इसी के चलते भाजपा के अंदर नम्रता और लचीलापन आया जिससे कि भाजपा का अन्य दलों के साथ गठबंधन हो सका। यह लचीलापन आज की राजनीति का अपरिहार्य गुण बन गया है। अटल जी को ’’गठबंधन की व्यवहारवादी राजनीति का वास्तविक सूत्रधार कहा जा सकता है।’’1 उनके  नेतृत्व में ही पहली बार भाजपा में यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वह कांग्रेस का विकल्प बन सकती है। अपनी कटटर और साम्प्रदायिक छवि के कारण भाजपा अछूत बनी हुई थी। अटल जी की अगुवाई में ही भाजपा का अछूतोद्धार हुआ। इसमें उनकी ईंट पर ईंट बनी राष्ट्रीय ओर बहुलतावादी छवि काम आई। किसी भी ’’नेता या सार्वजनिक जीवन में कार्यरत किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके विचारेां और कर्मों से ही हो सकता है न कि इस बात से कि उसकी जीवन शैली कैसी है।’2 दुनिया में ’’किसी भी व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं हो सकता। हम इतिहास में उतनी ही बातें जानते हैं, जो या तो सार्वजनिक है, या जिन लोगों को जितना ज्ञात है, उन सबकों सामने ला दिया।’’3  यदि किसी व्यक्ति के ’’खाते में अगर कई उपलब्धियाँ हो तो दिक्कत यह हो जाती है कि सभी का मूल्यांकन कायदे से नहीं हो पाता। कोई एक पक्ष उभर कर सामने आ जाता है, फिर सारा चिंतन चर्चा उस पर फोकस हो जाती है।’’1 अटल बिहारी वाजपेयी की ’’राजनीतिक विरासत का सबसे प्रासंगिक पक्ष है गठबंधन की राजनीति’’5 यहां हमारा मकसद वाजपेयी के व्यक्तित्व या राजनीति में उनके जीवन का समग्र मूल्यांकन करना नहीं वरन आज की गठबंधन की राजनीति में उनकी प्रासंगिकता है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के देहान्त के बाद उनकी ’विरासत’ को लेकर एक चर्चा निरंतर जारी है। वह उत्कृष्ट देशप्रेमी थे, और सनातन हिन्दू परम्परा में आस्था रखने वाले दक्षिणपंथी राजनेता थे। तब भी वह स्वभाव से उदार, सहिष्णु और असहमति को सुन सकने की क्षमता रखते थे। इसी कारण स्वयं उनकी अपनी पार्टी में उनके आलोचकों की कमी नहीं रही। ’’गोविन्दाचार्य जैसे लोगों ने तो यहां तक कह डाला था कि वह व्यक्ति नहीं मुखौटा है, जब जी चाहे अवसर अनुसार नया मुखौटा पहन लेते हैं।’6 20 अगस्त 2018 की श्रद्धांजलि सभा स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व  और कृत्य , देानों को बयां कर गई। एक ही झटके में वह भाजपा नेता के खेमे से निकल कर सर्वदलीय, सर्वमान्य भारतीय  नेता बन गए। ऐसे कम ही अवसर आते हैं, जब किसी भिन्न विचारधारा के नेता की स्वीकार्यता इतनी बड़ी हो पाती है। लंबे अरसे बाद भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित किसी कार्यक्रम में माक्र्सवादी, समाजवादी, कांग्रेस आदि परस्पर धुर विरोधी विचारधारा वाले दल संसद और विधानसभा के बाहर एक मंच पर नजर आए। ’’गठबंधन धर्म और गठबंधन की राजनीति की मर्म स्पर्शता उनके व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पहलू था, जो हम सबों के लिए सबक योग्य है।’’7  सत्ता में कांग्रेस का एकाधिकार टूटने के बाद संयुक्त मोर्चा हो या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग), दोनों ही अनेक पार्टियों के मोर्चे थे। लेकिन अपनी असंतुलित महत्वाकांक्षओं के चलते संयुक्त मोर्चें के घटक दो-ढाई साल से अधिक निर्वाह नहीं कर सके। पहली बार पूरे पांच साल कोई गैर-कांग्रेस सरकार चली तो उसे निभाने का श्रेय अटल जी को है। इसे उनकी विरासत का दरजा देना इसलिए उचित है। सहयोगी दलों से तालमेल की जैसी क्षमता अटल जी में थी, उसके दर्शन उनके उत्तराधिकारियें मे नहीं होते। तृणमूल की ममता बनर्जी, अन्ना द्रमुक की जयललिता और बसपा की मायावती अटल जी के समय राजग की सहयोगी थीं, और उन्होंने अनेक समस्याएं भी खड़ी की, लेकिन यह हुनर अटल जी में था कि छोटे-मोटे अंतर्विरोधी को नजरअंदाज करके या उन्हें संतुलित रखकर वे पूरे पांच साल गठबंधन चला सके। इसके लिए व्यक्तित्व में जैसा लचीलापन और खुलापन चाहिए, वह उनमें था। जम्मू-कश्मीर रियासत के अंदर जिन परिस्थितियों में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हुई, हालंाकि जनसंघ और भाजपा के नेता उनकी हत्या मानते हैं, अटल बिहारी वाजपेयी उनके निजी सचिव हुआ करते थे और शेख अब्दुल्ला वहां के बजीरे आजम उसी शेख अब्दुल्ला के पौत्र आगे चलकर वाजपेयी मंत्रिमंडल के सदस्य भी रहे जो अटल जी के व्यक्तित्व के तहत ही संभव हुआ।  विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा ने राम जन्मभूमि के आंदोलन को राजनीतिक मुद्दे के रूप में प्रखरता के साथ उठाया। उस समय उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादियों बहुमत वाली जनता दल की सरकार थी, और वैचारिक तौर पर इसे अदालत का फैसला न आने तक या दोनों समूहों के धार्मिक लोगों के बीच आम सहमति बन जाने तक वे इसके निर्माण के विरोध थे। 6 दिसम्बर 1992 की घटना के बाद समाजवादियों के स्वर और भी प्रखर हो गए और बगैर संसदीय कानून या जबरन मंदिर  निर्माण के घोर विरोधी हो गए। 1998 में जब एनडीए का गठबंधन हुआ, जाॅर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के नेतृत्व में अटल द्वारा इन विवादास्पद प्रश्नों को राष्ट्रीय एजेंडे से दूर कर दिया। देखते-देखते अटल जी की स्वीकार्यता गगनचंुबी हो गई। टीएमसी, बीजेडी, समता पार्टी और बाद में जेडीयू, अकाली दल, टीडीपी, एजीपी, बसपा, नेशनल कांफ्रेंस, द्रमुक और अन्नाद्रमुक समेत लगभग तीन  दर्जन राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां खुशी-खुशी अटल जी के नेतृत्व को स्वीकार कर चुकी थी।  इतिहास गवाह है कि किसी भी सहयोगी दल के साथ किसी भी वैचारिक प्रश्न पर कभी कोई विवाद उत्पन्न नहंी हुआ जैसा आजकल देखने-सुनने को मिलाता है। वस्तुतः गठबंधन की राजनीति के दो नायक हुए। पहले, ज्येति बसु और दूसरे, अटल बिहारी वाजपेयी। बसु के 25 वर्षों के शासन में सहयोगी दलों की सीट और विभाग जस के तह बने रहे। यह गठबंधन के स्वर्णिम क्रियान्वयन का बड़ा उदाहरण है। 1996 के असफल प्रयोग, जिसमें सिर्फ 13 दिनों तक अटल जी प्रधानमंत्री रहे, के कारण वे संसद में 161 की संख्या के साथ सबसे बड़ी पार्टी के बावजूद जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच पाए। इस बावत स्वंय अटल बिहारी वाजपेयी ने संख्या बल को लेकर लोकसभा में अपना दर्द बयां किया था कि ’कांग्रेस पार्टी पराजित हुई और मुझे बड़े दल के रूप में जनता का विश्वास मिला, लेकिन मैं इस संख्या बल के सामने नतमस्तक होता हूं और इस्तीफा देता हूं।’ इसी प्रकरण के बाद एच.डी. देवेगौड़ा कांग्रेस के बाहरी समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे। अटल जी अपने दल के कार्यक्रमों के प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी सहयोगी दलों और यहां तक कि घोर        विरोधी दलों के कार्यक्रमों का भी सम्मान करते थे। संसद में एक बार सीपीआई और सीपीएम के नेता इराक पर अमेरिकी हमले को लेकर चिंतित थे, और वाजपेयी जी से उनके कक्ष में मिलकर अपना एतराज जता रहे थे। अटल जी का उत्तर सुनकर नेता असमंजस में आ गए जब उन्होंने कहा कि ’अमल तो तभी होगा जब काॅमरेड इन सवालों को जोर-शोर से संसद में उठाएगें।’ अगले दिन संसद का माहौल बदला हुआ था, जब प्रधानमंत्री ने कम्युनिस्टों के सुर से सुर मिला दिया और एक स्वर से अमेरिका की निंदा होने लगी। उनकी स्वीकार्यता की इन्तिहां थी, जब नरसिम्हा राव ने जेनेवा में कश्मीर पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत का पक्ष रखने के लिए अटल जी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भेजा। इस पर पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य भी भांैचक्के रह गए थे। देश आज पुनः गठबंधन की राजनीति के चैराहे पर खड़ा है। दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांगे्रस को मित्रों की दरकार है। भाजपा के सहयोगियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। शिवसेना नाराज है, अकाली दल गुस्से में है, टीडीपी नाता तोड़ चुकी है। अन्ना द्रमुक दूरी बनाए हुए है। टीएमसी आग बबूला है। पीडीपी अफसोस में है। दूसरी ओर, कांग्रेस पार्टी भी मित्रों की संख्या बढ़ाने को तरस रही है। सच कहें तो क्षेत्रीय दलों का विकास कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के मनमानेपन के कारण ही हुआ है। टीएमसी से लेकर टीडीपी, टीाअरएस, वाईएसआर और एनसीपी, सभी कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के तानाशाही पूर्ण और अन्यायपूर्ण नतीजे से उपजे संगठन हैं, और इनकी शंकाएं आज भी जीवित है। इसलिए भाजपा विरोधी रूझाान होने के बावजूद ये दल कांग्रेस के वर्चस्व को लेकर आशंकित रहते है, और गाहे-बगाहे तीसरा मोर्चा, संघीय मोर्चा और दोनों गठबंधनों से दूरी आदि जैसे मुहावरों का इस्तेमाल करते रहते हैं। आज के परिदृश्य में एक और अटल की आवश्यकता है। राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपने पक्ष को आक्रामक तरीके से रखने के बजाय अधिक समन्वयवादी रूख अख्तियार करने की आवश्यकता है। धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों की भावनाओं को भी संबोधित किए जाने की आवश्यकता है। क्षेत्रीय दलों की अस्मिता के सवालों के साथ भी तालमेल करनेकी जरूरत है देश के सर्वांगीण विकास हेतु अपनी या  विरोधी पार्टी शासित राज्यों के साथ भेदभाव अनुचित है। अपनी विचारधारा के साथ ही दूसरे दल की    विचारधारा का भी सम्मान होने तथा उत्तेजक तत्वों से अपनी पार्टी और देश को बचाने की आवश्यकता है। ’’आज संसद का वातावरण तानवपूर्ण है। आरोप-प्रत्यारोप चरम पर है। बहस बंद है। कामकाज ठप है। संवादहीनता शिखर पर है। पक्ष और प्रतिपक्ष सिद्धांतों के बजाए मूंछो की लड़ाई लड़ रहे हैं।  एकाध प्रशन को छोड़कर आम सहमति अतीत का अध्याय बन चुकी है। अपनी कृत्रिम श्रेष्ठता थोपने पर सभी अतुर हैं। विचार भिन्नता का स्थान चरित्र हनन और कटुता ने ले लिया है। आक्रामक, संवेदनहीन विचारशून्य, बड़बोलेपन का पक्ष पैना है। ’ऐसे ही प्रश्नों का सार्थक उत्तर अटल जी थे।’8 ’क्योंकि ष्टंरचंलमम ूंे जीम हतमंज ेलदजीमेप्रमतए ं कमउवबतंज चंत मगबमससमदबमए विनदकमत ंदक चतंबजपजपवदमत व िश्ब्वसपजपवद क्ींतउंश्ण् भ्म बवपदमक जीम चींतंेम बवंसपजपवद कींतउं ूीपबी मेेमदजपंससल उमंदज जीम ंसस ंससपंदबम चंतजपमे उनेज इम हपअमद कनम तमेचमबज चमतेनंेपवद ंदक दवज पिंजए जंबज ंदक दवज कपाजंजए ूमतम ीपे हनपकपदह उंदजतंेण्ष् नेहरू बराबर यह महसूस करते है कि ’’कांग्रेस ही देश नहीं है और राजनीति सब कुछ नहीं है। अटल जी भी कामोबेश ऐसा ही भाव-विचार रखते थे और यही चीज उन्हें दूसरों से अलग और नेहरू के नजदीक करती थी। कोई ऐसी पार्टी नहीं थी जिसके लोगों से उनका याराना नहीं था। ’‘उन्हांेने राजनीति में लम्बी पारी ख्ेाल, लेकिन अजातशुत्र बने रहे। अपनी पार्टी के नेताओं को भले ही राजनीतिक जरूरतों के लिए समय-समय पर ध्वस्त किया हो, किसी विरोधी नेता के खिलाफ उन्होनें व्यक्तिशः कुछ किया हो, इसके कोई प्रमाण नहीं मिले हैं।’’10 वह कौन-सी चीज है, जो अटल जी को लोकप्रिय बनाती थी? बारह वर्षों तक जो आदमी स्मृति-शून्यता मंे रहा हो, सामाजिक जीवन से बिलकुल गायब, उसके निधन पर भी जिस तरह लोग उमड़े, उससे यही प्रतीत होता है कि उन्हें लोग भूले नहीं हैं और क्यों नहीं भूले हैं? शायद इसलिए कि वह भी अपनी जनता को भारत के लोगों को बेहद ही प्यार करता थे। कट्टरता से चिर दूर, अक्खड़ न सही, लेकिन बहुत कुछ फक्कड़, खुला चेहरा-कोई छुपाव नहीं। ’जबकि यह सही है कि आज विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच उस तरह का संवाद नहीं है जो अटल जी के समय था।’11 आज देश में वाजपेयी के निधन पर उनके प्रति जो ‘‘भावना और संवेदना दिखी वह भारतीय लोकतंत्र की मजबूती को बखूबी बयान करती है ’’कभी अस्पृश्य कही जाने वाली जनसंघ के नेता के रूप मंे, कभी दो सांसदों वाली भाजपा नेता के रूप में कटाक्ष सहने वाले वाजपेयी ने अपनी राजनीतिक कौशल, चातुर्य, समावेशी राजनीति और विचार, व्यवहार तथा भाषा के संयम द्वारा विलक्षण स्वीकार्यता अर्जित की।’’12 वह श्रीमती गांधी के बड़े आलोचकों में एक थे, मगर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ‘’1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद उन्होंने श्रीमती गांधी को दुर्गा कहा था, वह भी संसद के संेट्रल हाॅल में हुए एक कार्यक्रम में। जाहिर है, केाई भी इंसान इस तरह किसी की प्रशंसा नहीं कर सकता, जब तक कि वह उसके कामों को कायल न हो’’ 2005 तक वाजपेयी स्वस्थ थे। फिर उनकी सेहत धीरे-धीरे गिरने लगी। भारत के राष्ट्रपति प्रणम मुखर्जी ने सौभद्र चटर्जी और प्रशांत झा से अटल जी के दोस्त के रूप में यादें साझा करते हुए कहा ‘‘भारत रत्न देने उनके घर गया था। वह एक अपवाद था। ऐसा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रपति भवन से बाहर किसी भी नागरिक पुरस्कार समारोह के लिए राष्ट्रपति नहीं जाता।’’13 पूर्व सांसद और पूर्व केन्द्रीय सचिव एन0के0 सिंह का कहना है ‘’गठबंधन के दलों और साथियों के साथ अटलजी का व्यवहार काफी विलक्षण था। एक बार उन्होंने मुझे कहा कि ’चन्द्रबाबू नायडू ने कभी कुछ नहीं मांगा, किसी मंत्रालय की मांग नहीं की, फिर भी वह हमारा समर्थन करते रहे हैं। वह जो कुछ भी चाहते हैं, उन्हें आप दीजिए। उनको मेरे पास आने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। हमने उनकी समस्याएं दूर कीं।’’14 छोटे राजनीतिक दलोंके लिए भी वाजपेयी के दिल में भरपूर सम्मान था। करूणानिधि, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ उनके बढ़िया रिश्ते थे। वह क्षेत्रीय आकांक्षओं को बहुत तवज्जों भी देते थे। यही वजह है थी कि उन्होंने उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झाारखंड जैसे अलग राज्यों की अर्से से चली आ रही मांग पर मुहर लगाने का काम किया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि ये सभी राज्य बिना किसी प्रदर्शन या विरोध के ही अस्तित्व में आ गए। यह अटल जी की शासनकाल ही परिणाम था कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे तीन बड़े राज्यों को बंटवारा बिना किसी विवाद के इतने सुगम तरीके से संपन्न हो गया। यह संप्रग सरकार द्वारा आंध्र प्रदेश का बंटवारा कर बनाए तेलंगाना राज्य के लिए अपनाए गए अव्यवस्थित और अपरिपक्व तौर-तरीकों से एकदम अलग था। अटल जी देश के प्रथम प्रधामंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनन्य प्रशंसक थे। कहा तो यहां तक जाता है कि नेहरू ने शुरूआती दौर में ही अटल जी की प्रतिभा को पहचान लिया था और कुछ विदेशी मेहमानों से पहली बार सांसद बने वाजपेयी का परिचय भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में कराया था इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि अटल जी के व्यक्तित्व पर नेहरू का प्रभाव था। ’यह शायद उनकी शख्सियत का ही कमाल था कि अपनी आरएसएस-जनसंघ की पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने विपरीत वैचारिक धु्रवों वाले दलों के बीच भी स्वीकार्यता हासिल की । ऐसे में कोई उन्हें ’दक्षिणपंथी नेहरू’ भी कह सकता है।’15  जब उन्होंने ’कदम मिलाकर चलना होगा’ जैसी कविता लिखी तो यह केवल एक कवि का दिवास्वप्न नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों वाले एक लोकतांत्रिक व्यक्ति के अंतर्मन की सशक्त, उदार एवं लोकतांत्रिक तथा समावेशी राजनीति की सशक्त अभिव्यक्ति भी थी तथा गठनबंधन राजनीति को बल और संबंल प्रदान करती है। जिस प्रकार गठबंधन सरकारों को चलाते हुए उन्होंने विभिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि के दलों के एक साथ रखा ऐसी विशिष्टता संभवतः भारतीय राजनीति में कभी देखने को नहीं मिली। अटल जी के न रहने पर उनकी इस कला को सिखने की उपादेयता आज निरन्तर महसूस की जा रहीं है। इस क्षति का एहसास इसलिए भी गहरा है, क्योंकि अटल जी जैसे समावेसी राजनीति के शिल्पकार दुर्लभ हैं।
सन्दर्भ1. सम्पादकीय, ’अलविदा अटल’, राष्ट्रीय सहारा, 17 अगस्त 20182. कुमार नरेन्द्र सिंह, ’इधर या उधर के थे वाजपेयी’, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 25 अगस्त 20183. अवधेश कुमार, ’उपलब्धियों में कइयों से आगे’, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 25 अगस्त 20184. आलोक पुराणिक, ’महारथ आर्थिक संतुलन की’, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 25 अगस्त 20185. अजय तिवारी माक्र्सवादी समीक्षक, ’अतुलनीय तालमेली क्षमता’, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 25 अगस्त 20186. पुष्पेश पंत, ’परिवर्तन व निरंतरता का दुर्लभ संतुलन’, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 25 अगस्त 20187. के.सी.त्यागी, ’जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता’, अपरिहार्य गठबंधनके उपयेागी सबक, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 25 अगस्त 20188. उपरोक्त।9. च्ंअंद ज्ञ टमतउं ष्भ्पेजवतल ूपसस श्रनकहम भ्पउ ज्ञपदकसलष्  ज्ीम ज्पउम व िप्दकपंए छमू क्मसीपए 18 ।नहनेज 2018ण्10. प्रेम कुमार मणि, ’अटल-प्रासंगिकता’, राष्ट्रीय सहारा, 18 अगस्त 2018।11. प्रदीप सिंह, ’अटल युग वाली राजनीति की चाहत’, दैनिक जागरण, 23 अगस्त 2018।12. डाॅ0 एके वर्मा, ’नई लोकतांत्रिक संस्कृति की जरूरत’, दैनिक जागरण, 26 अगस्त 2018।13. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, ’अच्छे वक्ता ही नहीं बहुत कुछ थे वाजपेयी’, हिन्दुस्तान, 22 अगस्त 2018।14. एन.के. सिंह पूर्व सांसद और पूर्व केन्द्रीय संचिव, ’तंग दायरों को तोड़ते रहे वाजपेयी’, हिन्दुस्तान, 18 अगस्त 2018।15. ए. सूर्यप्रकाश, ’राजनीति में वैचारिक बदलवा के जनक’, दैनिक जागरण, 20 अगस्त 2018।

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