ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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संवैधानिक नैतिकता ही सर्वोच्च: सर्वाेच्च न्यायालय

डाॅ0 डी0आर0 यादव
(एसोसिएट प्रोफेसर राजनीति शास्त्र)
बरेली काॅलिज बरेली

समलैगिकता का अस्तित्व प्राचीनकाल से ही अनेक देशों में पाया गया है लेकिन यह कभी उस रूप में नजर नहीं आया जैसा कि आधुनिक युग में देखने को मिला है। आधुनिक युग में कुछ देशों ने समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दे दी है तो कुछ देश इसके सख्त खिलाफ रहे हैं। देश की सर्वेच्च अदालत ने समलैंग्किता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। इसके अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक सम्बन्धों को अब अपराध नहीं माना जाएगा। पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने कई अपीलों की  06 सितम्बर 2018 को अपना अन्तिम फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि ‘‘जो भी जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। समलैंगिक लागों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। समलैंगिक लोगों के प्रति लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी।’’1समलैगिकता का अस्तित्व प्राचीनकाल से ही अनेक देशों में पाया गया है लेकिन यह कभी उस रूप में नजर नहीं आया जैसा कि आधुनिक युग में देखने को मिला है। आधुनिक युग में कुछ देशों ने समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दे दी है तो कुछ देश इसके सख्त खिलाफ रहे हैं। देश की सर्वेच्च अदालत ने समलैंग्किता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। इसके अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक सम्बन्धों को अब अपराध नहीं माना जाएगा। पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने कई अपीलों की  06 सितम्बर 2018 को अपना अन्तिम फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि ‘‘जो भी जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। समलैंगिक लागों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। समलैंगिक लोगों के प्रति लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी।’’1 इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट का 2009 का फैसला पलटते हुए इसे अपराध की श्रेणी में डाल दिया था। भारतीय दण्ड संहिता में समलैंगिकता को अपराध माना गया था। आइपीसी की धारा 377 के मुताबिक जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक सम्बन्ध बनाता है तो समलैंगिकता अपराध के लिए 10 वर्ष की सजा या उम्रकैद का प्रावधान रखा गया था। इसमें जुर्माने का भी प्रावधान था और इसे गैर जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया था। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धारा 377 को विदाई दे दी गई है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो जब सुप्रीम कोर्ट ने 1917 में निजाता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया था, तब धारा 377 तो अपने आप ही अप्रभावी हो गई थी क्योंकि सैक्सुअलिटी एक नितांत निजी विषय है। इस केस में सरकार ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। सुनवाई के दौरान अतिरिक्त साॅलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने एक हलफनामा दाखिल कर कहा था कि केन्द्र सरकार धारा 377 की वैधता का फैसला पूरी तरह सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ती है। सरकार ने यह भी कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध बनाने वाले प्रावधान पर ही फैसला करना चाहिए, इससे जुड़े दूसरे मामलों पर नहीं क्योंकि उनके कई दूरगामी नतीजे हो सकते हैं। हलफनामें के मुताबिक समलैंगकता अगर अपराध नहीं तो इसके बाद नागरिक संगठन बनाने का अधिकार या सम्पत्ति हस्तांतरण जैसे मुद्दे का हल निकालने के लिए केन्द्र सरकार राजनीतिक पहल करेगी। 21वीं सदी के पहले चरण में वैज्ञानिक शोध यह बात अकाटय रूप से प्रमाणित कर चुके हैं कि समलैंगिकता रोग या मानसिक विकृति नहीं है, जिसका रुझान इस ओर होता है इन्हें इच्छानुसार जीवनयापन के बुनियादी अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता। अब आप से अहम सवाल है कि सभी धर्म समलैंगिक सम्बन्धों को अप्राकृतिक व्यभिचार या पाप समझते हैं। पश्चिम में भी इसके पहले यूनान तथा रोम में व्यस्कों तथा किशोरों के अंतरंग शारीरिक सम्बन्ध समाज में स्वीकृत रहे हैं। जिस बुरी व्यभिचारी लत को अंग्रेज ग्रीक लव कहते हैं उसे फ्रांसीसी वाइस आंग्लेस (अंग्रेजी ऐब) कहते रहे हैं। ईसाई अमेरिका के अनेक राज्यों में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाला जा चुका है और इनके विवाह को कई राज्यों ने कानूनी मान्यता दे दी है। हमारे संविधान में यह स्पष्ट है कि परिवार पति-पत्नी व बच्चों का समूह होता है। समलैंगिक समाज इसके बिल्कुल विपरीत जाता दिखाई दे रहा है। अप्राकृतिक रिश्ते भारतीय संस्कृति को कितना आघात पहुंचाएंगे इसका आकलन स्वयं समाज को करना होगा। समलैंगिकों को मानवीय गरिमा आकलन स्वयं समाज को करना होगा। समलैंगिकों को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भारतीयों को सहर्ष स्वीकार है लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या समलैंगिकों की शादियों को भारतीय स्वीकार करेंगे? क्या समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने पर कारखानों, शिक्षा संस्थानों और जेलों में समलैंगिकता की बाढ़ तो नहीं आ जाएगी? मानव गलत रास्तों का चयन आसानी  से कर लेता है। जिस तरह से देश बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं उसे देखते हुए बहुत सी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं। समलैंगिकता अब भारत में अपराध नहीं रही। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के ताजा फैसले के बाद तीन दशक से भी ज्यादा समय से चल रही वह कानूनी लड़ाई भी अब खत्म हो गई, जो कुछ लोंगों के निजी जीवन के विकल्पों को अपराध के दायरे से बाहर रखने के लिए शुरू हुई थी। इसके साथ ही तकरीबन एक सौ अट्ठावन साल पहले बना अंग्रेजी राज का वह कानून भी निपट गया, जो इस तरह के संबन्धों को अप्रकृतिक मानता था, इसलिए       अपराध के दायरें में रखता था। दिलचस्प बात यह है कि इस बीच ऐसी सारी चीजें अंग्रेजों के अपने देश में       अपराध के दायरे से बाहर आ गई,  लेकिन हमारे यहाँ नए दौर की यह बयार दूर ही रही। सुप्रीम कोर्ट ने इसे न केवल असंविधानिक माना है, बल्कि यह भी कहा है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के लिए इतिहास को एलजीबीटी समुदाय से माफी मांगनी चाहिए। अदालत का यह भी कहना है कि ‘‘कोई भी समुदाय चाहे वह कितना भी छाटो क्यों न हो उसे किसी स्थाई डर के साथ नहीं रहना चाहिए। इस धारा का समाप्त हो जाना इस समुदाय को अब अपराधी ठहरा दिए जाने के भय से मुक्त कर देगा।’’2 धारा 377 को खत्म किए जाने की मांग कोई नई नहीं हैं, काफी अरसे से समय-समय पर यह उठती रही है। इस पर चर्चा 2009 में उस समय तेज हुई, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस धारा को खारिज कर दिया। यह लगभग तभी साफ हो गया था कि लोगों की जीवन शैली के आधार पर भेदभाव करने वाली इस धारा की उम्र बहुत लंबी नहीं है। इस फैसले की एक और खासियत यह थी कि इसने समाज में एक विमर्श शुरू किया, जो अलग तरह का जीवन जीने वालों को स्वीकार्य बनाने के लिए जरूरी होता है। बेशक इसके साथ ही इस धारा को सही मानने वाले भी सक्रिय हो गए। कुछ धार्मिक संगठनों ओर अन्य लोगों ने इस फैसले को कोर्ट में चुनौती दी, जहां चार साल लंबी बहस के बाद यह तय हुआ कि इस धारा को समाप्त करना संसद का काम है और यह उसी को करना चाहिए। लेकिन संसद आज तक यह नहीं कर सकी, तभी को  08 सितम्बर 2018 को जस्टिस चंद्रचूड़ जो उस पांच सदस्यीय सांविधानिक पीठ का हिस्सा थे, नेशनल लाॅ यूनिर्सिटी के 19वीं वार्षिक बोधराज साहनी मेमोरियल व्याख्यान ने कहा कि ‘‘क्यों राजनेता अपनी शक्ति जजों केा सौंप देते हैं। सुप्रीम कोर्ट में ऐसा रोजना हो रहा है। धारा-377 जैसे मामले में केंद्र ने जवाब दिया कि हम फैसला कोर्ट के विवेक पर छोड़ते हैं। यह ‘विवेक’ मुझे जवाब नहीं देने के लिए मजबूर कर रहा था। इसलिए मैंने अगले दिन अपने फैसले में जवाब दिया। फसला औपनिवेशिक कानून और संवैधानिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व के बीच लड़ाई को दर्शाता है। हमने व्यक्तिगत गरिमा, किसी व्यक्ति की पसंद और स्वतंत्रता देने की कोशिश की।’’3 समलैंगिकता को आपराधिक कृत्य मानने वाली मानसिकता पूरी दुनिया से काफी पहले ही विदा होनी शुरू हो गई थी। इस समय दुनिया के कुछ ही देश हैं, जहां इसे आपराधिक कृत्य माना जाता है। वे सारे देश कट्टरपंथी की श्रेणी में आते हैं। हम कभी नहीं चाहेंगे कि भारत की गिनती ऐसे देशों में हो। इस लिहाज से धारा 377 का हटना सिर्फ समलैंगिकता का मामला भर नहीं है, बलिक भारतीय न्याय व्यवस्था को उन आधुनिक मूल्यों से जोड़ने का माला भी है, जहां लोगों को निजी जीवन को किन्हीं मान्यताओं या धारणाओं की वजह से कठघरे में खड़े करने को गलत माना जाता है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सहमति से दो वयस्कों के बीच कायम होने वाले समलैंगिक यौन संबन्ध को अपराध के दायरे से बाहर क्या कर दिया किया ‘‘लगता है जैसे देश में भूकंप आ गया हो। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक में अदालत के इस निर्णय की आलोचना हो रही है। कुछ लोगों की नजर में यह निर्णय भारतीय संस्कृति के खिलाफ तो है ही, अप्राकृतिक भी है। कई विद्वान इसे अवैज्ञानिक भी बता रहे हैं। जो लोग इस फैसले को उचित बता रहे हैं, उनकी भाषा डरी-सहमी है।’’4 तो क्या सच में कोर्ट का फैसला भारतीय संस्कृति के खिलाफ और अप्राकृतिक यौन संबंधों को बढ़ावा देने वाला है? सवाल का जवाब देने के पहले देखना-जानना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने किस आधार पर धारा 377 की अपराध की श्रेणी से मुक्त किया है। शीर्ष अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को बचाव नहीं करने वाला और मनमाना करार दिया है। उसका मानना है कि इस धारा से समानता के सिद्धान्त का उल्लंधन होता है। स्पष्ट कहा कि धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था। इसके कारण भेदभाव होता है। इस फसले में गरिमा के साथ जीने के अधिकार को मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता दी गई है, क्योंकि धारा 377 के कारण एलजीबीटी सदस्य छुप कर ओर दोयम दरजे के नागरिक के रूप में रहने को विवश थे। जो लोग समलैंगिकता को भारतीय संस्कृति के विरूद्ध या अप्राकृति बता रहे हैं, वे वास्तव में भारतीय समाज में प्रचलित घिसी-सिटी धारणाओं के शिकार है। जिस समाज में सेक्स के बारे में बात करना भी गुनाह समझा जाता हो, वहां समलैगिक संबंधों की वकालत करना किसी अपराध से कम नहीं। वास्तव में यह कहना ढोंग है कि समलैंगिक संबंधन भारतीय संस्कृति के विरूद्ध है। सच तो यह है कि न केवल भारत बल्कि दुनिया के हर समाज में समलैंगिकता का प्रचलन रहा है। भारतीय समाज में भी समलैंगिकता गहरे पैठी हुई है। सच तो यह है कि भारतीय समाज में हमारा पहला यौन संबंधी अनुभव समलैंगिक लोगों से ही प्राप्त होता है।, कभी जाने में तो कभी अनजाने में और कभी-कभी उत्सुकता वश। समाज में लड़के लड़कियों के बीच सहज संवाद को भी असहज ढंग से देखा जाता है। ऐसे में सबसे पहले समलिगी अनुभव ही हमारे पल्ले में आता है। हम अपने गांव-घरों में जानते रहते हैं कि अमुक व्यक्ति समलैंगिक यौन संबंध रखता है, लेकिन उसे लेकर  हम कभी व्यग्र नहीं होते और ना कभी कोई परेशानी होती हैं हम अपने अनुुभव से जानते है कि समलैगिक रुझान वाला व्यक्ति भी उतना ही सहज होता है, जितना अन्य। इसीलिए यह कहना कि समलैंगिकता भारतीय संस्कृति के खिलाफ है, वास्तव मे एक ढोंग है। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों में भी समलैंगिक संबंधों की झालक मिलती है। वेद, पुराण से समलैंगिकता को उजागर करने वालेी अनेक कहानियां मिलती हैं। खुजराहों और कोणार्क मंन्दिर की दीवारों पर समलैंगिक यौन मुद्राओं वाली मूर्तिया प्रमाण हैं कि भारतीय संस्कृति में समलैंगिकता कभी वर्जित नहीं रहीं। अगर वर्जित होती तो इसके खिलाफ दंड का प्रावधान भी जरूर होता लेकिन हमारे किसी भी धर्मग्रंथ में इसके खिलाफ दंड का विधान नहीं है। अधिकांश वैज्ञनिक मानते हैं कि मनुष्य की यौन अभिरुचि वातारण, मान्यताओं और जैविक तत्वों के जटिल अंतरक्रिया की परिणाम होती है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण जैविक कारण होते हैं। किसी व्यक्ति के यौन रुझान का    निर्धारण जीन से होता है। वैज्ञनिकों का कहना है कि समलैंगिक रूझान के लिए माता-पिता के हार्माेन्स, क्रोमोजोम्स, बहुजैविक प्रभावों, मस्तिष्क की संरचना आदि जिम्मेदार होते हैं। वैज्ञानिकों की नजर में समलैंगिक यौज आकर्शण, व्यवहार और अभिरुचि कोई विकृति नहीं। इतना ही नहीं, वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि समलैंगिक संबंध रखने वाले संतुष्टिपूर्ण जीवन जी सकते हैं। अपने संबंधों के प्रति उतने ही ईमानदार हो सकते हैं, जितने अन्य आम लोग। वैज्ञानिक कहते है कि समलैंगिक संबंध कोई वैकल्पिक यौन संबंध का मामला नहीं है, बल्कि जेनेटिक है, जिसे किसी उपाय या परामर्श के जरिए बदला नहीं जा सकता। यदि मान लें कि समलैंगिकता का मूल कारण जेनेटिक है, तो हम नैतिकता के पचड़े में पड़ने से तो बच ही सकते हैं, साथ् ही इसके लिए समलैंगिकों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगायी जा सकती है। आधुनिक शोंधों से स्थापित हो चुका है कि हमारी यौन अभिरुचि की उत्पत्ति जैविक है यानी समलैंगिकता भी उतनी ही प्राकृतिक है, जितनी विपरीतलिंगी यौनिकता। जैविक रूप से जन्में पुरुष को किसी अन्य पुरुष के प्रति आकर्षित नहीं किया जा सकता। इसके लिए उसकी जैविक संरचना ही अलग होनी चाहिए। कहने की अर्थ यह कि समलैंगिक यौन संबंध के प्रति हमारा दृष्टिकोण स्टीरियोटाइप यानी घिसी-पिटी धारणा पर आधारित है, जिसका न तो कोई वैज्ञानिक आधार है, और न ही सांस्कृतिक। जरूरत है मानसिकता और समझ बदलने की। देश, काल और परिस्थितियां बदलने पर किस तरह तरह मूल्य-मान्यताएं और नियम-कानून भी बदल जाते हैं, इसका ही उदाहरण है समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला। ‘‘इस फैसले का असर भारत ही नहीं, भारत के बाहर उन तमाम देशों पर भी पड़ेगा जो भारतीय लोकतंत्र से प्रेरित होते हैं ओर जहां समलैंगिकता को        अपराध माना जाता है। स्पष्ट है कि यह बड़े असर वाला एक बड़ा फैसला है। ऐसा कोई फैसला समय की मांग थी, क्योंकि इस धारणा का कोई औचित्य-आधार नहीं कि समलघ्ैंगिकता किसी तरह की विकृति है अथवा भिन्न यौन व्यवहार वाले कमतर नागरिक हैं।’’5 यह फैसला समलैंगिकों के साथ-साथ भिन्न यौन अभिरुचि वाले अन्य लोगों के लिए भी एक बड़ी राहत लेकर आया है। यह फैसला इसलिए भी उल्लेखनीय है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस अंश को रद किया जो बलिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करती थी उसी ने 2013 में ऐसा करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि यह काम तो संसद का है। यह सहज ही समझा जा सकता है कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने भिन्न यौन अभिरुचि वालों को सम्मान से जीवन जीने के अधिकार के तहत समलैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त करने के साथ 377 को पूरी तौर पर खारिज नहीं किया तो इसके पर्याप्त कारण हैं। इस धारणा के वे अंश प्रभावी बने रहने आवश्यक थे जो नाबालिगों से समलैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी में रखते हैं। नाबालिगों को योन शीषण से बचाने के लिए यह सतर्कता बरतनी जरूरी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘समलैंगिक संबंध को मान्यता प्रदान कर भारतीय समाज को यही संदेश दिया कि भिन्न यौन अभिरुचि वाले भी आदर और सम्मान से जाने के अधिकारी हैं, लेकिन समाज के उस हिस्से की         धारणा बदलने में कुछ समय लगेगा जो अलग यौन व्यवहार वालों को अपने से इतर और अस्वाभाविक मानता चला आ रहा है। ऐसी सोच रखने वालों को यह समझना होगा कि अलग यौन व्यवहार वाले भी मनुष्य हैं और उन्हें अपनी पसंद के हिसाब से होगा कि अलग यौन व्यवहार वाले भी मनुष्य हैं और उन्हें अपनी पसंद के हिसाब से अपना जीवन जीने का अधिकार है। ऐसी स्वस्थ समझ को बल मिलना ही चाहिए।’’6 यदि दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलटा नहीं होता तो शायद जो अब हुआ वह कई साल पहले हो गया होता। संसद के पास भी यह मौका था कि वह धारा 377 में संशोधन कर बालिगों के बीच सहमति समलैगिक संबंधों को मान्य करती। उसने भी यह काम नहीं किया। 2014 में ट्रांसजेंडर्स को तीसरे जेंडर के तोर पर मान्यता दिए जाने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही वर्तमान फैसले की नींव पड़ गयी थी। इसके बाद जब 2017 में नो न्यायाधीशों की पीठ ने निजात के अधिकार को मौलिक अधिकार माना तो यह और स्पष्ट हुआ कि धारा 377 पर उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों द्वारा 2013 में दिया गया फैसला भी निरस्त हो जाएगा। जस्टिस सिंघवी ने 2013 के फैसले में कहा था कि इस कानून के दुरुपयोग से सिर्फ 200 लोगों के पीड़ित होने का आंकड़ा है और इसे राष्ट्रीय समस्या नहीं माना जा सकता। जस्टिस सिंघवी की पीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए यह भी कहा था कि धारा 377 को गैर आपराधिक बनाने के लिए कानून में बदलाव सिर्फ संसद द्वारा ही किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धारा 377 के तहत देश भर में चल रहे सभी आपराधिक मामले अब निरस्त हो जाएंगे, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ‘‘इस फैसले में कदए गए तर्काें के चलते भविष्य में समलैंगिकों के लिए अन्य अधिकारों की मांग उठना  स्वाभाविक है। समलैंगिकता को संस्थागत स्वरूप देने के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और बच्चों के बारे में विशेष कानून बनाने की पहल संसद को ही करनी होगी।’’7 ’’लोग ज्वांइंट प्राॅपर्टी नहीं खरीद सकते, एक साथ खाता नहीं खुलवा सकते। बीमा पाॅलिसी में नामिनी नहीं बना सकते। हमें हर तरह के अधिकारों से वंचित रखा गया था। सेक्स ओरिएंटेशन की वजह से कई बार नौकरी छोड़नी पड़ी। दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी, आॅफिस में हर लोग ताना मारते थे, मजाक उड़ाते थे।’’8 2009 में संप्रग सरकार ने दिल्ली उचच न्यायालय के सम्मुख शपथ पत्र देकर कहा था कि समलैंगिकता को कानूनी दर्जा देने से एड्स और बच्चों के प्रति यौन अपराध में बढ़ोतरी का बड़ा  खतरा है। इसे निराधार नहीं कहा जा सकता। ऐसे में इस फैसले का दुरुपयोग ने हो, यह सुनिश्चित करना समाज और सरकार, दानों की जिम्मेदारी है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इन सब सवालों के बाद भी धारा 377 को लेकर जो फैसला दिया, ‘‘वह ने केवल ऐतिहासिक है बल्कि यह एक कलक को धोने जैसा है।’’9 संवैधानिक पीठ का मानना था कि  ष्ब्वदेजपजनजपवदंस उवतंसपजल बंददवज इम उंतजलतमक ंज जीम ंसजंत व िेवबपंस उवतंसपजल ंदक पज पे वदसल बवदेजपजनजपवदंस उवतंसपजल जींज बंद इम ंससवूमक जव चमतउमंजम पदजव जीम त्नसम व िस्ंूण्ष्10 सुप्रीम कार्ट ने जो ऐतिहासिक फैसले अब तक दिए हैं, वे फैसले भी काफी युगांतरकारी और महत्वपूर्ण रहे हैं। पर यह फैसला शायद इन सब में अग्रिम पंक्ति का फैसला साबित हो। कोर्ट ने इस फैसले से व्यक्तिगत स्वायत्तता के दायरे को बड़ा कर दिया है और समलैंगिकता को अपराध का दर्जा समाप्त कर मानवाधिकार को नई ऊंचाई दी है। इस फैसले से संवैधानिक नैतिकता सबसे ऊपर माना गया है।सन्दर्भ:-1. अश्विनी कुमार; संपादकीय, ‘धारा 377 की विदाई लेकिन’ पंजाब केसरी, नई दिल्ली, 07 सितम्बर, 20182. समानता के लिए; संपादकीय, हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 07 सितम्बर, 20183. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, अपने जिम्मेदारी से भाग रहे है नेता, धारा-377 में भी केंद्र ने ऐसा ही किया-अमर उजाला नई दिल्ली, 09 सितम्बर, 20184. कुँवर नरेन्द्र सिंह; हंगामा है क्यों बरपा; राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, 11 सितम्बर 20185. बड़े असर वाला फैसला संपादकीय-दैनिक जागरण नई दिल्ली, 07 सितम्बर 20186. उपरोक्त7. विराग गुप्ता; समलैंगिक संबंधों को स्वीकृति; दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 07 सितम्बर, 20188. समलैंगिको को अब चाहिए शादी का हक- पंजाब केसरी नई दिल्ली, 08 सितम्बर 20189. फैजान मुस्तफा; संवैधानिक नैतिकता सर्वाेपरि; राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, 08 सितम्बर, 2018

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