ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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कानून के क्षेत्र में हिन्दी

डा0 मनोज मलिक,
प्राचार्य
स्वामी दयाल भटनागर लॉ कॉलिज, सिकन्द्राबाद (बु0शहर)

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने तमिलनाडू में हिन्दी भाषा विरोधी आन्दोलन के दौरान हिन्दी के अधिरोपण का विरोध किया किन्तु चेन्नई में अन्ना विश्वविद्यालय के समारोह में तमिलों को हिन्दी सीखने की सलाह दी, क्योंकि हिन्दी का क्षेत्र बहुत व्यापक है।
देश के संविधान ने हिन्दी को देश के राजकाज की भाषा तथा अन्य भारतीय भाषाओं को प्रदेश के राजकाज की भाषा का स्थान दिया है जो संविधान की प्रस्तावना में वर्णित भारत के लोकतान्त्रिक राज्य के स्वप्न के लिए आवश्यक था किन्तु न्यायपालिका के लिए संविधान की भावना के अनुकूल खुद को ढाल सकना सम्भव नहीं हो सका जिसके अनेक दृष्टान्त हैं-अगस्त 19, 2014 अधिवक्ता शिवसागर तिवारी ने कानूनी हिन्दी के पक्ष में याचिका दायर की और उच्चतम न्यायालय ने उस याचिका पर केन्द्र सरकार को नोटिस जारी किया तथा जबाव मांगा जिसमें अदालत की कार्यवाही के संचालन के लिए हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु संविधान के अनुच्छेद 348 मे संशोधन की बात की गई,
मधुलिमये बनाम वेदमूर्ति मामले में श्री राजनारायण अपना निवेदन हिन्दी में प्रस्तुत करना चाहते थे कुछ न्यायाधीश हिन्दी मंे दिए गए तकों को समझ नहीं पा रहे थे, अतएव अदालत ने उनके सामने तीन विकल्प रखे-एक अंग्रेजी में तर्क करें, दूसरा वे अपने वकील को ऐसा करने की अनुमति दें, या तीसरा वे अपनी बात लिखित रूप में अग्रेजी में दें, परन्तु श्री राजनाराण को ये शर्ते मंजूर नहीं थी, उच्चतम न्यायालय ने तब यह निर्णय दिया कि चूँकि अनुच्छेद 348 के अनुसार न्यायालय की भाषा केवल अंगेजी है, इसलिए श्री राजनारायण को अपनी बात हिन्दी में रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती है संविधान के अनुच्छेद 19(1) (क) द्वारा प्राप्त मूलाधिकार के नाम पर यदि इसकी अनुमति दे दी जाए तो कोई असमिया, कोई गुजराती, कोई तमिल तो कोई बंगाली में तर्क करेगा, और न्यायाधीशों के लिए यह असमंजस का कारण बनेगा। श्री राजनारायण ने व्यवस्था तथा सुविधा की दृष्टि से किसी एक ही भाषा जैसे अंग्रेजी का होना ठीक माना, किन्तु इस आधार पर हिन्दी को अदालत से बाहर रखना न्यायोचित नहीं माना। विख्यात संविधान विशेषज्ञ एच.एम. सीरवई ने गुजरात विश्वविद्यालय बनाम श्रीकृष्ण मुधोलकर के मामले पर अपनी राय देते हुए कहा कि हिन्दी की संविधान में एक विशिष्ट स्थिति है, इसलिए इसकी तुलना अन्य भारतीय भाषाओं के साथ नहीं की जानी चाहिए।
गुजरात विश्वविद्यालय बनाम श्री कृष्णा में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि शिक्षा का माध्यम किसी विषय सूची में वर्णित नहीं है, राज्य विधायिका प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के बारे में भाषा निर्धारित करने का अनन्य अधिकार रखती है उच्च शिक्षा तथा वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा में शिक्षण का माध्यम निर्धारित करने की शक्ति संसद में है 42 वें संशोधन अधिनियम, 1976 के बाद शिक्षा समवर्ती सूची का विषय बन गई है।
यद्यपि राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से राज्य के न्यायालय की भाषा सुनिश्चित करने की शक्ति रखता है, परन्तु सीरवई महोदय के अनुसार, इस तरह की सम्मति सम्भवतः कभी नहीं दी जाएगी, क्योंकि इससे न्याय प्रशासन, न्यायालय और बार में एकता सुनिश्चित नहीं की जा सकेगी, सूची 1-संघ सूची की प्रविष्टि 78 अभिव्यक्त रूप से संसद को यह शक्ति देती है कि वह उच्च न्यायालयों में वकालत करने के सम्बन्ध में कानून बनाए इसके अनुसरण में अधिवक्ता अधिनियम, 1961 बनाया गया इस अधिनियम द्वारा एक ऐसे ‘बार’ की स्थापना हुई, जिसमें भाषा को लेकर एकरूपता है अर्थात् अभी भाषा नीति ऐसी है कि देश के एक उच्च न्यायालय में कार्यान्वयन करने वाला अधिवक्ता किसी अन्य उच्च न्यायालय में भी वकालत में कठिनाई नहीं पाता।
डॉ.सुभाष सी. कश्यप द्वारा उद्धृत किया गया कि एक याचिका इस कारण खारिज हो गई है कि वह अंग्रेजी में नहीं वरन् हिन्दी में थी। हिन्दी समिति बनाम भारत संघ मंे उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि किसी एक विशेष भाषा (हिन्दी) के माध्यम से प्रवेश टेस्ट (एंट्रेंस टेस्ट) नहीं लेना केवल भाषा के आधार पर प्रवेश से वंचित करना नहीं माना जाएगा। पिछले दिनों उच्च न्यायालय ने दिल्ली विश्वविद्यालय की एल.एल.बी. प्रवेश प्रतियोगी परीक्षा को अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में भी करने की याचिका को खारिज कर दिया.
भारत के विधि आयोग की 216वीं रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की गई, भारत के विधि आयोग ने अनुच्छेद 348 में संशोधन करने की संसदीय समिति की सिफारिश को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यदि समस्त उच्च न्यायालयों की भाषा भिन्न हुई, तो उच्च न्यायालयों की भाषा-भिन्नता वकीलों के ‘देश में कहीं भी वकालत करने के अधिकार को काल्पनिक बना देगी, जैसे यदि चेन्न्ई उच्च न्यायालय में केवल तमिल में ही कार्यवाही हो, तो उत्तर भारत का वकील वहाँ वकालत नहीं कर पाएगा, उसी प्रकार यदि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की भाषा सिर्फ हिन्दी हो जाए, तो चेन्नई का वकील इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर सकेगा, उच्च न्यायालय के निर्णय में भाषा सम्बन्धी भिन्नता होने से एक उच्च न्यायालय सम्भवतः अन्य उच्च न्यायालय के निर्णय के लाभ से वंचित हो जाएगा।
संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार,‘उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के निर्णय, डिक्री या आदेश के सम्बन्ध में इन न्यायालयों की यह बाध्यता है कि वे हर परिस्थिति मंे अपना निर्णय, डिक्री व आदेश अंग्रेजी में ही दें, जब तक कि संसद विधि द्वारा कोई अन्य व्यवस्था नहीं कर देती न्यायिक और अर्द्वन्यायिक कार्य में संलग्न सरकारी विभागों की बड़ी संख्या हिन्दी में आदेश पारित करने में अक्षम है, किन्तु सरकारी अधिकारियों द्वारा हिन्दी में आदेश पारित करने से उन्हें कोई नहीं रोकता। अदालत में भाषा नीति को प्रभावित करने वाले कुछ कारण निम्नवत है।
लोक विधि- पब्लिक लॉ, अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार शासन, अन्तर्राष्ट्रीय बौद्धिक सम्पदा और तेजी से विकसित होता जा रहा इकनॉमिक लॉ, सीमा पर लेन-देन की प्रणाली आदि विषय हमें विरासत में मिले हैं, उनका एकीकरण अन्य देशों तथा न्यायालय की कानूनी प्रणाली के साथ हो गया है।
कॉमन लॉ प्रणाली विधिशास्त्र के पूर्व निर्णयों पर अवलम्बित है. पूर्वनिर्णय सिर्फ अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं, हमारी अदालतें स्वतन्त्रता के साथ अंग्रेजी अमरीकी और राष्ट्रमण्डल के पूर्वनिर्णयों को आधार बनाती हैं, हमारे न्यायालयों के निर्णयों आजकल विदेशी अदालतों में अद्धृत किए जा रहे है देश के सभी भागों में विधायी कानून और नियम हिन्दी भाषा में उपलब्ध नहीं हैं, न न्यायाधीशों के लिए, न बार के सदस्यों के लिए और न ही वादी जनता के लिए, भारत ने दूसरे देशों के साथ कराधान विधि के कई करारों पर हस्ताक्षर किए हैं कानूनों का निर्वचन पर हमारे यहाँ दिन-रात काम होता है राजस्व कानूनों के अलावा कुछ नए विषय जैसे-सूचना प्रौद्योगिकी, स्टेम सेल डवलपमेंट और साइवर अपराध से सम्बन्धित कानून, कराधान विधि आदि अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका, कॉमनवेल्थ देश आदि के कानून अंग्रेजी में उपलब्ध हैं।
कम्प्यूटर क्रान्ति भी एक कारण है कि विधि साहित्य, कानूनी जानकारी की सूचना अंग्रेजी भाषा से प्राप्त करना अत्यन्त सहज हो गया है। कर (टैक्स) एवं लेखा परीक्षकों के समुदाय, निवेशक सब अंग्रेजी में कानून तैयार करना चाहते हैं, क्योकि बहुत से वाक्यांश, मैक्जिम्स, सिद्धान्त और अभिव्यक्ति सिर्फ अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हैं आज लैटिन के ‘इप्सो फैक्टो’ (स्वयंमेव ही) ‘एब इनिशियो’ (आरम्भ से ही) आदि सूत्रों का प्रचलन है, टिप्पणियाँ और कानूनी पत्रिकाएँ आदि हिन्दी में मुद्रित नहीं हैं प्राधिकृत ज्यादातर पाठ्य पुस्तकें अंग्रेजी में हैं, अन्य देशों के कानून की पुस्तके और पत्रिकाएँ, जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में मददगार साबित होते हैं, सब अंग्रेजी में हैं,
अहिन्दी भाषी हिन्दी को विधान की भाषा स्वीकारने के लिए तैयार नहीं विश्व स्तर पर हिन्दी के मेन्टर उपलब्ध हैं,लेकिन उनकी संख्या सीमित है ऑन लाइन और ऑफ लाइन दोनों स्थानों पर अंग्रेजी मेन्टर्स बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध है। अनुच्छेद 351 द्वारा हिन्दी भाषा के प्रसार के लिए संघ को दिए गए जनादेश के बावजूद देश के कई हिस्सों में अब भी लोग हिन्दी से पूरी तरह से परिचित नहीं हैं। दक्षिणी राज्य हिन्दी में पारित आदेश, फरमान और निर्णय को स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं हैं। संसद के सदस्यों की एक बडी संख्या, जो अहिन्दी भाषी राज्यों से है, हिन्दी प्रारूपण को पढ़ने और समझने में सक्षम नहीं हैं और न ही सक्षम बनना चाहते हैं।
1976-77 में आर.आर. दलवाई बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में हिन्दी की प्रगति में उच्चतम न्यायालय के योगदान की सजगता स्वतः ही दिखलाई पड़ती हैं तमिलनाडु सरकार ने हिन्दी विरोधी आन्दोलनकारियों को पेन्शन देने की योजना बनाई अपीलार्थी ने अनुच्छेद 226 के अधीन तमिलनाडु सरकार के हिन्दी विरोधी आन्दोलनकारियों को पेंशन प्रदान करने की शक्ति को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आवेदन किया उसने राज्य की शक्ति को भी चुनौती दी कि राज्य कोष का उपयोग ऐसी संविधान विरोधी बात के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि भारत के संविधान का अनुच्छेद 351 दो टूक शब्दों में हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश देता है परन्तु उच्च न्यायालय ने आवेदन खारिज कर दिया और कहा कि तमिलनाडु सरकार ऐसा कर सकती है फिर इसे सर्वोच्च न्यायालय लाया गया। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा, ‘‘तमिलनाडु सरकार द्वारा बनाई गई पेंशन योजना में विघटन के तत्व हैं यह विभाजनकारी प्रवृत्तियों को भड़काते हैं, यदि कोई राज्य हिन्दी या किसी अन्य भाषा के विरूद्ध मनोभावों को उततेजित करने में लगा हुआ है, तो ऐसी प्रेरणा को आरम्भ में ही नष्ट करना होगा, क्योंकि यह राष्ट्र विरोधी कार्य है ऐसा करने वालों को प्रोत्साहन देने से हिन्दी के प्रसार की वृद्धि में गतिरोध उत्पन्न होता है और विघटनकारी एवं विभाजनकारी तत्वों को बल मिलता है अतः पेंशन योजना अवैध और असंवैधानिक है।
ऐसे मामलों की भी कमी नहीं है, जिनमें हिन्दी के प्रति संवेदनशीलता दिखलाई गई है। सन् 1978 के भारत संघ बनाम मुरासोली मारन मामले में माननीय सर्वोच्चम न्यायालय ने यह स्पष्ट अभिमत दिया कि हिन्दी भाषा में सरकारी कर्मचारियों को प्रोत्साहित करना संविधान के किसी भी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं करता, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 343 और 344 की भावना को मूर्त रूप प्रदान करता है
इस मामले में प्रत्यर्थियों ने उच्च न्यायालय में रिट-पिटिशन फाइल किया और घोषणा की कि 1962 में राष्ट्रपति आदेश जारी किया गया तथा उसके अनुसरण में जो अन्य आदेश परिपत्र और ज्ञापन जारी किए गए, वे राजभाषा अधिनियम 1963 की यथा-संशोधित धारा 4(3) से असंगत थे क्योंकि उन्होने हिन्दी भाषा में प्रवीण न होने के कारण उन व्यक्तियों को अलाभकारी स्थिति में रख दिया था, जो पिटिशनरों के सदृश थे उच्च न्यायालय ने उनकी दलील स्वीकार कर ली और आदेश को असंवैधानिक घोषित कर दिया राज्य ने इस निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि राष्ट्रपतीय आदेश विधि मान्य है, “राष्ट्रपतीय आदेश भाषा-अधिनियम के पास होने के पश्चात् अविधि-मान्य नहीं हो गया है, राष्ट्रपतीय आदेश में हिन्दी भाषा को राजभाषा बनाने के अन्तिम उद्देश्य पर ध्यान रखा गया है किन्तु साथ-साथ देश की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है कि परिवर्तन क्रमिक होना चाहिए राष्ट्रपतीय आदेश का प्रयोजन हिन्दी भाषा की प्रसार वृद्धि करना और केन्द्रीय सरकार कर्मचारियों को सेवा में रहते हुए हिन्दी भाषा का प्रशिक्षण लेने की सुविधाएँ देना है’’
जगदेव सिंह बनाम प्रताप सिंह मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अपनी भाषा को बनाए रखने के अन्तर्गत भाषा के लिए आन्दोलन करने का अधिकार भी सम्मिलित है। विश्व के अनेक देश इस सम्बन्ध में इस प्रकार के कानून बना रहे हैं, जिससे उनकी अपनी भाषा पुनः अपना स्थान प्राप्त करे और अंग्रेजी उन्हें पदस्थापित न कर पाए कनाडा तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में न्यायधीश को कम से कम दो भाषाएँ जानना अनिवार्य है। सन् 2005-2006 में प्रकाशित ‘द इकोनोमिस्ट’ की भाषा सम्बन्धी रपट के अनुसार, यूरोपीय संघ में 13 यूरोपीय भाषाएँ शासकीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हैंः लेकिन धीरे-धीेरे अंग्रेजी ने अन्य 12 भाषाओं को किनारे कर दिया है अमेरीका में भी अंग्रेजी ने ऐसा ही किया भारत में संस्कृत को पहले शास्त्रीय कहकर अत्यन्त सीमित कर दिया गया और आज अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी यही प्रक्रिया जारी है।
चीनी भाषा के बाद विश्व में सबसे अधिक हिन्दी भाषा बोली जाती है, आँकड़ों के अनुसार, फिजी, मॉरिशस, ग्याना, सूरीनाम, त्रिनिदाद, चीन, सिंगापुर, बर्मा, श्रीलंका, थाईलैण्ड, मलेशिया, तिब्बत, भूटान, इंटोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, दक्षिण, अफ्रीका आदि की अधिकतर जनता तथा नेपाल के कुछ नागरिक हिन्दी बोलते हैं, क्योंकि यहाँ हिन्दी भाषी परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी निवास कर रहे हैं, अमेरीका, कनाडा, फ्रांस, इटली, रूस, स्वीडन, नार्वे, हॉलैंड, पोलैंड, जर्मनी, सऊदी अरब आदि देशों में पर्याप्त मात्रा में हिन्दी भाषी जन निवास कर रहे हैं। दुबई की अधिकांश जनता न केवल हिन्दी बोलती है बल्कि समझती भी है व्यावसायिक जरूरत ने भी हिन्दी भाषा का इन देशों में प्रसार किया है, क्योकि अधिकांश विदेशी कम्पनियों में हिन्दी जानकारों के लिए नौकरी सुलभ हो गई है इससे निश्चित ही हिन्दी भाषा का संवर्द्धन, विकास व प्रसार हो रहा है।
डा0 जयन्ती प्रसाद नौटियाल के 2012 के नवीनतम शोध से यह सिद्ध हुआ है कि चीनी जानने वाले 1050 मिलियन हैं और हिन्दी जानने वाले 1200 मिलियन हैं। हिन्दी के पूरे विश्व में विशाल क्षेत्र की भाषा होने का एक कारण मध्यम वर्ग को अपने में समेटना है हिन्दी को अपनाना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की विवशता है, क्योंकि भारतीयों की मेहनत और कुशाग्र बुद्धि ने खुद को प्रमाणित करके दिखाया है और विश्व के अधिकांश देशों की उन्नति में सहयोग दिया है भारतीयों की कर्मठता को उपयोंग में लाने की कम्पनियों की विवशता और इच्छा में हिन्दी की शक्ति और विवशता और सामर्थ्य का बढ़ना है वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्रों में हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीय विकास बीसवीं शती के अन्तिम दो दशकों में जितनी तेजी से हुआ है, उतना किसी अन्य भाषा में नहीं।
प्रबन्धक समिति बनाम जिला परिषद् मामले में इलाहाबाद, उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका हिन्दी में देवनागरी लिपि में प्रस्तुत की गई इलाहाबाद उच्च न्यायालय में निर्णय दिया कि राज्यपाल ने 05.09.1969 को जो अधिसूचना दी है, उसके बाद एक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह हिन्दी में याचिका दायर कर सके और विनिश्चय कर सके नरेन्द्र कुमार बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय के निर्णयों, आज्ञप्तियों और आदेशों में हिन्दी के प्रयोग को राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 7 के अन्तर्गत वैध माना उच्च न्यायालय ने विचार प्रकट किया कि उच्च न्यायालय की भाषा के सम्बन्ध में राज भाषा अधिनियम, 1963 की धारा 7 के अन्तर्गत वैध माना उच्च न्यायालय ने विचार प्रकट किया कि उच्च न्यायालय की भाषा के सम्बन्ध में राज भाषा अधिनियम, 1963 संसद द्वारा पारित है यह हिन्दी में निर्णय का विकल्प देता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि निर्णय आज्ञप्ति या आदेश केवल अंग्रेजी में ही होंगे।
विधि मन्त्री श्री.पी. गोविन्द मेनन की हार्दिक कामना थी कि शीघ्रतिशीघ्र न्यायालयों की कार्यवाहियाँ उस भाषा में हों, जो राज्य की जनता द्वारा अपने पारस्परिक व्यवहार के लिए प्रयुक्त की जाती है, उनको यह बात बहुत खलती थी कि अभियुक्त तो कटघरे में अपने भाग्य के विषय में आशंकित खड़ा रहता है और न्यायालय में उसके अधिवक्ता तथा अभियोजन पक्ष के वकील अंग्रेजी में अपने-अपने तर्क न्यायधीश के समक्ष रखते हैं, जिन्हें अंग्रेजी न जानने के कारण अभियुक्त समझ नहीं पाता और न्यायधीश उन तर्काें को सुनकर उसे दण्डित करने का निर्णय सुना देता है।
हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जिला तथा उच्च न्यायालय स्तर पर हिन्दी में राज काज होता है हरिकिशन बनाम महाराष्ट्र मामले में निरूद्ध व्यक्ति अंग्रेजी भाषा नहीं जानता था उसके इस निवेदन को स्वीकार नही किया गया कि फैसले के समय हिन्दी भाषा का प्रयोग किया जाए नैनमल प्रतापमल बनाम भारत संघ मामले में अनूदित आदेश सम्बन्धित व्यक्ति को उसकी परिचित हिन्दी भाषा में नहीं बताया गया अंग्रेजी वह जानता नहीं था इन मामलों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सांविधानिक अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि निरूद्ध व्यक्ति स्वयं उस भाषा को जानता हो यदि व्यक्ति अंग्रेजी नही जानता तो उसे उस भाषा में आधार बताए जाएं जिससे वह परिचित है।
कानून प्रणाली में संवाद का स्तर हिन्दी भाषा हो सके, इसके लिए अनेक स्तरों पर प्रयत्न किए गए राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की प्रेरणा से भाषा विशेषज्ञ सम्मेलन और विशेषज्ञ अनुवाद समिति के माध्यम से सरकार ने गति दिखलाई राजभाषा विधायी आयोग एवं उसके उत्तरवर्ती विभाग ने विधि शब्दावली के निर्माण में कतिपय सिद्धान्तों का अनुसरण किया राष्ट्रपति के 1960 के आदेश के पैरा 3 में शब्दावली के निर्माण का कार्य शिक्षा मन्त्रालय को सौंपा गया था उसके अनुसरण में शिक्षा विभाग ने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का निर्माण किया। विधि मन्त्रालय ने उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को हिन्दी में प्रकाशित करने का निश्चय किया 25 अगस्त, 1988 को भारत के संविधान का द्विभाशी संस्करण (हिन्दी अंग्रेजी में) प्रकाशित किया गया, दो पत्रिकाएँ दांडिक निर्णय पत्रिका और सिविल निर्णय पत्रिका प्रकाशन में आई हिन्दी के माध्यम से विधिक भाषा का विकास करना एक राष्ट्रीय मिशन रहा है। भारतीय विधिक शब्दावली का निर्माण विधि साहित्य से संचय करके किया गया है जिसमें भारत सरकार के विधि एवं न्याय मन्त्रालय की अहम् भूमिका रही है विधि शब्दावली इतनी वैज्ञानिक और सटीक है कि न सिर्फ कानून और संविधान की एकरूपता को हम उसमें पाते हैं, वरन् राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय-दोनों सन्दर्भों को समेटने का सामर्थ्य उसमें है। आवश्यकता है कि इसका प्रचार हो, जिससे शब्द परिचित हों और सरल लगने लगें।
यदि संविधान को उसी तरह काम करना है जैसे उसकी भावना है तो यह अनिवार्य है कि भारत के संविधान के भाग-17 ‘संघ की राजभाषा’ के उद्देश्य ‘राजभाषा हिन्दी को प्रभावी रूप में स्थापित किया जाए हिन्दी भाषियों की उदासीनता खुद को हीन समझना हिन्दी के विकास की सबसे बड़ी बाधा है केन्द्र व राज्य सरकारे हिन्दी में रोजगार उपलब्ध कराने में सक्षम हो सकें, यह विधिक हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार, सम्प्रेषण और विकास में अत्याधिक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकेगा, जो न केवल देश को एक कड़ी में बांधने में कामयाब हो सकता है, वरन् जन साधारण में सरकारी काम काज, शासन व्यवस्था तथा कानूनी प्रक्रिया में भी नागरिकों में बेहतर आस्था जगाने में सफल होगा। कानून के समुचित विकास के लिए हिन्दी को अपनाना सम्भव हो सकता है यदि वर्तमान प्रणाली में इस मुद्दे से जुड़ी व्यावहारिक समस्याओं को समझा जाए और उन पर काम किया जाए।

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