ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में कुटीर उद्योगों का योगदान

डॉ. राजेन्द्र कुमार
असि0 प्रोफेसर वाणिज्य विभाग
गंगाशील महाविद्यालय फैजुल्लापुर, नवाबगंज, बरेली

भारत में प्राचीन समय से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कुटीर उद्योगों की भूमिका अग्रणी रही है। आज से लगभग दो हजार वर्श पूर्व भी भारत अपने सूती वस्त्र उद्योग एवं इस्पात उद्योग के लिए विश्व प्रसिद्ध था। भारत जैसे विकासशील एवं अत्यधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र के लिए तो कुटीर उद्योगों की अधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है क्योंकि यहाँ की 80 प्रतिशत जनसंख्या आज भी गाँवों में निवास कर रही है एवं उसकी जीविका का संसाधन भी कुटीर उद्योग एवं कृषि ही है, जिनमें कम पूंॅजी विनियोजित करके अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सकता है तथा अधिक उत्पादन किया जा सकता है। कुटीर उद्योग का आशय ऐसे उद्योग से है जो पूर्ण रूप से परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्णकालीन या अंशकालीन धन्धें के रुप में चलाया जाता है, जिसमें उत्पादन का कार्य यन्त्रों की अपेक्षा हाथों से अधिक किया जाता है।1 इसी कारण गाँधी जी ने मनुष्य को धन माना है। उनके अनुसार सोना और चाँदी धन नहीं है। यद्यपि मनुष्य जाति को यन्त्र एवं मशीनो के निर्माण करने का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है। मानव में यन्त्र निर्माण करने की निराली शक्ति होती है। यह बात उसके हाथ के पंजे की बनावट से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि उसका अंगूठा सभी उगुलियों को स्पर्श कर सकता है, उसमें हुनर और कारीगरी है। यह हुनर और कारीगरी मनुष्य की उगुलियों में है और किसी अन्य प्राणी का अगंूठा उसकी उगुलियों को स्पर्श नहीं कर सकता और न ही अन्य प्राणियों में हुनर और कारीगरी होती है।
बड़े पैमाने के क्षेत्र से भारी प्रतिस्पर्धा के बावजूद भी कुटीर उद्योगों ने ग्रामीण भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में स्वतन्त्रता के उपरान्त एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चाहे सरकार से इन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन प्राप्त नहीं हुआ हो। एक प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जहाँ 1950 में 16000 लघु व कुटीर उद्योग पंजीकृत थे वहीं इनकी संख्या बढ़कर वर्ष 1961 में 36000 हो गयी और वर्ष 1999-2000 में यह संख्या बढ़कर 30.25 लाख पहुँच गयी। पिछले दशक के दौरान भी कुटीर उद्योगों ने इस दिशा में आशातीत सफलता प्राप्त की।2 यद्यपि ग्रामीणों के आर्थिक विकास का सर्वश्रेष्ठ माध्यम पशुपालन, खेती, मतस्य पालन, मुर्गी पालन, कताई करना, हस्तशिल्प, नारियल का रेशा, मधुमक्खी पालन आदि हैं किन्तु वर्तमान समय में कुटीर उद्योगों द्वारा बहुत से परिमार्जित उपकरण जैसे इलेक्ट्रॉनिक नियन्त्रण उपकरण, माइक्रोवेव उपकरण, इलेक्ट्रो चिकित्सा उपकरण, टी0बी0 सैट आदि का निर्माण किया जाने लगा है, जिसके माध्यम से आज ग्रामीण आत्मनिर्भर होने लगे हैं। गाँधी जी के अनुसार स्व-उद्यम द्वारा मनुष्य आर्थिक गुलामी से मुक्त हो सकेगा। दूसरी चीज नई बुनियादी शिक्षा इन लघु व कुटीर उद्योगों के स्वावलम्वन की पाठशाला होगी।
गाँधी जी ने कुटीर उद्योगों के विकास पर अत्यधिक जोर दिया उनके मतानुसार जब पर्याप्त मात्रा में कुटीर उद्योगों की स्थापना होगी तो प्रत्येक के हाथ में काम होगा, सभी अपना कर्म करेंगे, तो सभी की उन्नति होगी। वरना जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपनी आर्थिक सम्पन्नता से वंचित रह जायेगा और हम कदापि भी समृद्ध नहीं हो सकेगें। गाँधी जी की ‘‘सर्वाेदय’’ अवधारणा भी इसी पर आधारित है। उनके मतानुसार सर्वाेदय का अर्थ है – सबकी उन्नति हो, सबका विकास हो, सबका उत्कर्ष हो। गाँधी जी ने यहांॅ तक कहा है कि ‘‘भारत का कल्याण कुटीर उद्योगों में निहित है’’
योजना आयोग के अनुसार ‘‘लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है’’।1 गाँधी जी ने कहा था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है अतः कुटीर उद्योगों और निरन्तर ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देेकर इस सत्य और सम्मान को पहचान देनी चाहिए।3 परन्तु आज भारतीय महापुरूषों का दुर्भाग्य कहा जाए या हमारी बेईमानी। जिन सिद्धान्तों का निर्माण उन्होने भारतीय जनमानस के सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए किया था, उनका क्रियान्वयन ईमानदारी व निष्ठा से नहीं किया गया।
भारत सरकार द्वारा वर्ष 1948 से आज तक लघु एंव कुटीर उद्योगों के विकास पर निरन्तर जोर दिया जा रहा है फिर भी लघु एवं कुटीर उद्योगों की सफलता में कहाँ चूक हुई? स्वतन्त्रता संग्राम से ही कुटीर उद्योग खादी व ग्रामीण हस्तशिल्पियों का महत्त्व समझने के बावजूद स्वतन्त्रता के छः दशक से अधिक समय बीतने के पश्चात भी उन्हें उचित स्थान क्यों नहीं दे पाए? इस ज्वलन्त प्रश्न की तह में देखेगें तो स्थितियों की सच्चाई को समझने के लिए देश के सबसे महत्त्वपूर्ण वस्त्र उद्योग की स्थिति को जानना होगा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 20 प्रतिशत कपड़े का उत्पादन हथकरघा क्षेंत्र में होता है शेष 80 प्रतिशत कपड़े का उत्पादन मिल व पावरलूम क्षेत्र से होता है, जो 20 प्रतिशत उत्पादन हथकरघा क्षेत्र से होता है, उस पर भी संकट के बादल छाए हुए हैं। गाँधी जी का कहना था कि हथकरघे के लिए सूत की उपलब्धि हाथ की कताई या चरखे से होनी चाहिए। अगर गाँधी जी के इस सुझाव पर अमल कर लिया जाता तो आज हाथ से बुने कपड़े का उत्पादन एक प्रतिशत से कम के स्थान पर 25 प्रतिशत से भी अधिक होता। 4
ग्रामीण भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्त्व का अनुमान उनकी उपयोगिता से लगाया जा सकता है भारत में बेरोजगारी की विराट समस्या है उच्च शिक्षित युवक व युवतियां बेरोजगारी की समस्या से ग्रस्त हैं। वृहत उद्योग इन बेरोजगार युवाओं को रोजगार देने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।
भारतीय कृषि पर जनसंख्या का बोझ पहले से ही अधिक है जिसे कम किये बिना कुटीर उद्योगों में कुशलता नहीं आ सकती है। अतः इतनी विशाल जनसंख्या को रोजगार देने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि देश में लघु व कुटीर उद्योगों का पर्याप्त विकास किया जाए। चूँकि लघु एवं कुटीर उद्योग पूँूजी प्रधान न होकर श्रम प्रधान उद्योग हैं कुछ उद्योग तो ऐसे हैं जो बहुत ही कम पूँंजी से संचालित हो सकते हैं जैसे बीड़ी बनाना, टोकरी बनाना, गुड़िया बनाना आदि। लघु एवं कुटीर उद्योग आय एवं सम्पत्ति के केन्द्रीकरण को बढ़ावा न देकर उसके विकेन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करते हैं। अतः आर्थिक सत्ता के दोशों को लघु एवं कुटीर उद्योगों की सहायता से कम किया जा सकता है तथा साथ ही राष्ट्रीय आय का उचित एवं न्यायपूर्ण वितरण किया जा सकता है। भारत के कुल निर्यात में लघु एवं कुटीर उद्योगों का योगदान 34 प्रतिशत है।
एक सर्वेक्षण के आधार पर लघु एवं कुटीर उद्योगों की सबसे प्रबल समस्या कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में न मिल पाना है और यदि मिल भी जाता है। तो अत्यधिक ऊँची कीमतें चुकाने के बाद जिसके कारण 5.6 प्रतिशत इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं तथा दूसरी समस्या वित्तीय सुविधाओं का अभाव होना पाया गया है जिसके कारण 34.7 प्रतिशत कुटीर इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं। तीसरी समस्या विपणन की है जिसके कारण भी लगभग 14.4 प्रतिषत लघु इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं तथा चौथी समस्या मालिकों के बीच आपसी झगड़ों की है जिसके कारण भी 3.7 प्रतिशत लघु इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं एवं पांचवी समस्या प्राकृतिक आपदा की है जिसके कारण भी 3.4 प्रतिशत इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं एवं छठी समस्या श्रामिकों की है जिसके कारण भी 2.2 प्रतिशत लघु एवं कुटीर इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं तथा इनके बावजूद भी अन्य कुछ ऐसे पहलू हैं जिसके कारण 19.4 प्रतिशत लघु इकाईयाँ बन्द हो जाती हैं।
लघु एवं कुटीर उद्योगों की उपयोगिता को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि परम्परागत उत्पादन तकनीक का आधुनिकीकरण किया जाये। क्योंकि प्राचीन तकनीक से लघु एवं कुटीर उद्योग नवीन डिजाइन की वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर सकते। अतः उनकी निर्माण विधि में आधुनिक यन्त्रो का उपयोग करके सस्ती दर पर उत्तम किस्म की वस्तुएं शीघ्रता से उत्पादित की जा सकती हैं। वर्तमान समय में विशेष तौर पर शहरो में बढ़ती महंगाई के कारण मध्यम-वर्गीय परिवारों को अपनी गुजर-बसर करना टेढ़ी खीर है। यदि जापानी तकनीक से कुछ ऐसी सरल प्रणाली अपनायी जाये, जिससे छोटी मशीनों की सहायता से उत्तम किस्म की उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कम लागत पर किया जा सके तो लघु एवं कुटीर उद्योग मध्यम-वर्गीय परिवारों के लिए अतिरिक्त आय के साधन बन सकते हैं। यदि कॉलेज एवं विश्वविद्यालय में भी लघु उद्योगों के आधार पर प्रशिक्षण एवं उत्पादन सुविधाएं प्रदान की जायें तो इससे निर्धन छात्र-छात्राओं को अत्यधिक लाभ होगा और वे अपने अध्ययन को जारी रखकर उचित प्रशिक्षण प्राप्त करके राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि तथा ग्रामीण बेरोजगारी को कम करने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं।
उपर्युक्त के आधार पर कह सकते हैं कि स्वतन्त्रता के उपरान्त लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास में सरकारों द्वारा निरन्तर प्रयास किये जो रहे हैं, लोकतान्त्रिक सरकारो द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योगों को वित्तीय सुविधाएं, विपणन सुविधाएं, आधुनिक तकनीक की सुविधाएं निरन्तर मुहैया करायी जा रही हैं ताकि लघु एवं कुटीर उद्योगों के बन्द होने की समस्या से मुक्ति मिले और आम जनता को इन लघु व कुटीर उद्योगों के माध्यम से रोजगार मिल सके, जिससे ग्रामीण क्षेत्र के व्यक्तियों की कृषि पर निर्भरता कम हो तथा कुटीर उद्योगों में लगकर प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो, उनका रहन-सहन अच्छा हो तथा बेरोजगारी जैसी विकराल समस्या को कम किया जा सके।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ0 सी0बी0 मामोरिया भारत की आर्थिक समस्याएं (2016)
साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा।
2. डॉ0 रूद्र दत्त एवं भारतीय अर्थव्यवस्था (2010)
के0पी0 सुन्दरम एस0 चन्द एण्ड कम्पनी लि0 रामनगर,
नई दिल्ली।
3. डॉ0 उपेन्द्र प्रसाद गाँधीवादी समाजवाद (2012)
नमन प्रकाशन, नई दिल्ली।
4. डॉ0 प्रताप सिंह गाँधी जी का दर्शन (2012)
रिसर्च पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली।

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