ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

स्वाधीनता आन्दोलन में लाल बहादुर शास्त्री जी की सहभागिता

डॉं0 नीलम गुप्ता
एसो0 प्रो0 राजनीति विज्ञान विभाग
बरेली कालेज, बरेली (उ0प्र0)

लाल बहादुर शास्त्री भारत की एक महान विभूति थे, त्याग मूर्ति निर्धनता का साधनों के अभाव में रहने वाले साहसी पुरुष, ईमानदारी, सच्चाई, सरलता, सामनता, मानवता के पुजारी आम जनता के प्रिय नेता लाल बहादुर शास्त्री थे, जो जीवन पर्यत्न प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चट्टान की तरह अडिग रहें। राष्ट्रपिता की दीक्षा लाल बहादुर शास्त्री को विद्यार्थी जीवन से ही मिलनी प्रारम्भ हो गई थी। इसमें शास्त्री जी के शिक्षक निश्कमेश्वर जी का बहुत बडा योगदान था जो अंग्रजी के शिक्षक होते हुए भी प्रखर राष्ट्रीय विचारांे के व्यक्ति थे। शास्त्री जी के छोटे नाना दरबारी लाल नही चाहते थे कि उनका नाती राष्ट्रीय आन्दोलन से जुडे। वह उसे किसी अच्छी नौकरी में देखना चाहते थे किन्तु समय जिस तेजी से मोड ले रहीं थी उसमें उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी।
पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयत्नों से 1917 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उसके उद्द्याटन के अवसर पर भारत तथा विदेशों से उनके अतिथि पधारे थें इनमें महात्मा गॉंधी आकर्षण के विशेष केन्द्र थे। अधिकांश अतिथि सूट बूट से लैस थे। राजधराने रत्न जड़ित अपने राजसी पोशाकों में पधारे थे। धार्मिक क्रियाओं को छोडकर उद्घाटन का सारा कार्य अंग्रेजी भाषा में हुआ। केवल महात्मा गॉंधी शुद्ध स्वदेशी वेशभूषा में थे। उन्होंने अपना भाषण हिन्दी में दिया । उनके इस आचरण से किशोर, लाल बहादुर के मन पर भी उसका गहरा प्रभाव पडा।
1920 में जब शास्त्री जी गॉंधी जी के आहवान् पर स्कूल का बहिष्कार कर राजनीति की दीक्षा ली। उस समय देष में बडी उथल-पुथल शुरु हो गई थीं। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी कुछ ऐसी धटनाएं घटी, जिन्होंने भारत सहित सम्पूर्ण विश्व की राजनीति को एक क्रान्तिकारी मोड़ देने का योगदान दिया। 1885 में कॉंगेस की स्थापना तथा जागरण के लिए उनके छोटे- छोटे संगठनो के माध्यम से देश में राजनीति के चेतना को उभारने का काम किया। 1897 में तिलक की गिरतारी, वाशुदेव वलंवत फडके के सशक्त विद्रोह से है, ब्रिटिश विरोधियों की भावना भडक चुकी थी। तिलक द्वारा 1897 में गणपति उत्सव को राष्ट्रीय स्वरुप देने से भी राष्ट्रीय भावना का पर्याप्त प्रचार-प्रसार हो गया था। इसी समय मोहनदास करमचन्द्र गॉंधी के द्वारा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध तथा मानव अधिकार के लिए किये गये कार्य से राष्ट्रीय चेतना को बल मिला था। इसके बाद काग्रेस भी गरमदल तथा नरमदल बमें बिभाजित हो गये। देष में बढते असंतोंष को दबाने के लिए 1909 में सरकार ने मोर्लेमिन्टो सुधार की। इन सुधारांे के द्वारा हिन्दू मुसलमानों में फूट डालने का बीजारोपण हुआ। 1906 में मुस्लिम लोगो की स्थापना हो चुकी थी। 1908 में तिलक को राजद्रोह भड़काने के आरोप में 6 वर्ष के लिए देश से निर्वासित कर जेल भेज दिया गया। यहीं पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “गीता रहस्य” लिखी। 1915 में महात्मा गॉंधी भी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आये थे तथा उन्होंने पहली बार कंाग्रेस के मद्रास अधिवेशन में भाग लिया, तिलक भी अपनी 6 वर्ष की सजा काटकर छूट चुके थे। बाद में अपने देश व्यापी दौरे में तिलक ने, जो लोकमान्य कहलाये जाने लगे (स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है) का मन्त्र दिया। 1916 में जलियावाला बाग हत्याकांड में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जल रही ज्वाला में घी का काम किया। दुर्भाग्य से 1920 में तिलक की मृत्यु हो गई देश भर में भारी शोक हो गया, उसी समय गॉंधी जी का अवतरण राष्ट्रीय मंच पर हो गया और तिलक की मृत्यु के बाद नेतृत्व की पूरी भागदौड गॉंधी जी के हाथ में आ गई। गॉंधी जी ने 1920 में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलने लगी, सरकारी स्कूलों का बहिष्कार तथा शराब की दुकानों पर धरना होने लगा। इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय भावना को और व्यापकता प्रदान की।
इसी समय लाल बहादुर शास्त्री जी स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पडें गॉंधी के आदेश पर शास्त्री ने एक दिन का उपवास रखा। शास्त्री जी की हाईस्कूल की परीक्षा होने वाली थी। शास्त्री जी के वुजुर्ग दस कदम से नाराज थे कहते थे यह लडका बडा नालायक है इसने पढाई का एक साल यूूं ही व्यर्थ गवा दिया, शास्त्री जी की विघवा मॉं कब से आशा लगाये बैठी थी कि उसका बेटा पढ़ लिखकर कमाने लायक बने और घर का बोझ उठाये। शास्त्री जी के शिक्षक निश्कामेश्वर को भी उसका यह निर्णय पसन्द नहीं आया, हला कि शास्त्री जी में देष प्रेम की प्रेरणा भरने में उनका पूर्ण हाथ था। उसके शिक्षक लाल बहादुर से अपने निर्णय पर फिर से विचार करने को कहते हुए बोले- “तुम्हारी मॉ। कितनी कठिनाई से अपना दिन काट रहीं है। देश भक्ति बुरी चीज नहीं है, लेकिन अपनी पारवारिक जिम्मेदारियों का भी ध्यान रखना चाहिए।” शास्त्री जी ने सुन सब की ली, लेकिन अपने संकल्प पर अडिग रहें। पहली बार शिक्षक के परामर्श की उन्होंने उपेक्षा की। इसके कुछ दिन बाद वह अपने घर रामनगर जाकर अपनी मॉं से मिले और एकान्त जाकर कहने लगे,”दुसरे क्या सोचते और कहते हैं, इससे मुझे बिलकुल परवाह नहीं है लेकिन क्या तुम भी मेरे काम को ठीक नही समझती हो , तुम जैसा कहोंगी वैसा करुॅंगा।“ राम दुलारी एक क्षण को अवाक् रह गई। कुछ क्षण बाद बेटे के कन्घों पर हाथ रखते हुए बोली “बचवॉं मुझे तुम पर पूरा भरोसा है । मैं जानती हूॅं तुम कोई भी काम बिना सेाचे विचारे जल्दबाजी मे नही करोगें। लेकिन यह जरुर कहूंगी कि जो भी कदम आगे बढाओं उसे पीछे मत हटाना।“ इस उत्तर से लाल बहादुर के मन पर से भारी बोझ उतर गया। वह काशी लौट आये और मॉं का आर्शीर्वाद पाकर उत्साह से राष्ट्रीय आन्दोलन में जुट गये। काशी में गॉधी विद्यालय की स्थापना की, जो बाद में काशी विद्यापीठ में परिषद हो गया। विद्यापीठ का उद्द्याटन 10 फरवरी 1921 को गॉंधी जी के कर कमलों द्वारा हुआ। लाल बहादुर जी ने विद्यापीठ में प्रवेश ले लिया। काशी विद्यापीठ में अलगूराम तथा त्रिभुवन नरायण सिंह भी पहुॅंच गये। उनके अतिरिक्त शास्त्री जी के अनेक पुराने सहपाठी भी वहॉं जुड गये। उस समय विद्यापीठ में पढने वाले अन्य उल्लेखनीय छात्रों में राजाराम, विभूतीभूषण मिश्रा, हरिहर नाथ, बालकृष्ण केसकर आदि के नाम लिए जा सकते है। डॉॅं भगवानदास विद्यापीठ के प्राचार्य थे। शिक्षकों में बाबू भगवानदास, श्री प्रकाश, आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेन्द्र देव तथा सम्पूर्णानन्द भी थे। लाल बहादुर ने दर्शन का विषय अध्ययन के लिए चुना। शिक्षा का माध्यम हिन्दी था। हरिश्चन्द्र स्कूल में लाल बहादुर की भाषा उर्दू और बैंक लिपिक भाषा फारसी थी, किन्तु निष्कामेश्वर जी के सम्पर्क में उन्हे हिन्दी का भी अच्छा ज्ञान हो गया और हिन्दी में निपुणता हासिल की। लाल बहादुर के शिक्षक कामेश्वर जी को एक विचार आया कि वह किसी व्यावसाय में लग जाये और इस विचार के बाद उनके विद्यापीठ के सहपाठी नारायण तिवारी की दशाखमेथ मुहल्ले में स्थित खादी की दुकान की एक शाखा सिटी पोस्ट आफिस के निकट लीची बाग में खोल दी गई है। यह समय ऐसा था कि पढायी भी चल रही, व्यवसाय भी और राष्ट्रीय आन्दोलन भी। लाल बहादुर जी रात में दुकान पर ही सो जाते थे और सुबह उसकी सफाई कर तथा खोलकर विद्यापीठ चले जाते, यही कारण था कि शास्त्री जी को विभिन्न अनुभव मिलते रहे और शाम को विद्यापीठ से जल्दी लौटने पर वे खादी कन्धे पर रखकर फेरी भी लगाते थे, खादी की दुकान कई साल तक चली। 1923 में उन्हें कॅंाग्रेस का पंडाल बनाने के लिए ‘गया’ में रहकर लगभग एक मास तक मिट्टी खोदने, धोने और गडढे पाटने का काम भी करना पडा। काग्रेस के इस गया अधिवेशन में वह विद्यापीठ के स्वंय सेवक दल के सदस्य के रुप में सम्मिलित हुए। इस अधिवेशन के अध्यक्ष श्री चितरंजन दास थे। इस स्वंय सेवक दल में वहॉं पहुॅंच कर पडाल निर्माण के पिछडें हुए कार्य को बडी दक्षता से पूरा कर दिया गया। विद्यापीठ की पढाई के दिनों में ही शास्त्री जी जवाहर लाल नेहरु के सम्पर्क में आये। 1921 में विजय लक्ष्मी पंडित के विवाह के अवसर पर नेहरु जी ने
विद्यापीठ के छात्र लाल बहादुर से देश में हो रहे आन्दोलन की चर्चा की। विद्यापीठ तक पहुचने के लिए उन्हे प्रतिदिन छः – सात मील पैदल चलना पडता था। उनके पास इक्के का भाड़ा चुकाने का पैसा नही था फिर भी काशी विद्यापीठ में आन्दोलन के सन्दर्भ में शास्त्री जी की भूमिका को कम नही ऑंका जा सकता है। काशी विद्यापीठ में अधिकांश विद्यार्थी छात्रावास में रहते थे जो छात्रावास की फीस नहीं दे सकते थे, वे सब लोग शहर में रहकर मकान किराये पर ले लेते थे, और कुल खर्च को आपस में बॉंट लेते थे। गर्मियों में किसी पेड़ की छाया का सहारा ले लेते थे और जाडों में खुली धूप का आनन्द ले लेते थे, दिनभर की पढाई खत्म होने पर अपनी खादी की दुकान पर लौट आते थे। कक्षा में अध्यापक और छात्र सभी जमीन पर दरी बिछाकर बैठा करते थे, अध्ययन के अतिरिक्त अधिकांश समय देश-विदेश की राजनीतिक चर्चाओं में बीतता था। विद्यापीठ राजनैतिक चर्चाओं का अड्डा बन गया था। शायद ही कोई छात्र ऐसा हो, जो राजनीतिक आन्दोलन में जेल न गया हो।
असहयोग आन्दोलन के दिन विदेशी सरकार से निरन्तर संघर्ष हो रहे थे। वातावरण में एक नया उत्साह भर गया था। इलाहाबाद में लाल बहादुर ने कुछ अन्य कार्यकर्ताओं के साथ ग्रामीणों तक महात्मा गॉंधी का सन्देश पहुचॉंने के लिए देहातों का दौरा किया। दौरे में अभूतपूर्व सफलता मिली। असहयोग आन्दोलन का लाल बहादुर की व्यवहार कुशलता पर प्रभाव पडा। शास्त्री जी अपने दल के साथ गॉंवों में जाते, अधिकांश दूरी पैदल तय करते थे। वे राह में ग्रामीणों को सत्याग्रह का दर्शन और स्वराज की मॉंग समझाते। रात होने पर वे जिस गॉंव में होते वहीं ठहर जाते। गॉंव वालों का आतिथ्य स्वीकार करते या वहीं कहीं चूल्हा बनाकर रोटी बनात,े वे रात और गर्मी की दोपहरी गॉंव के चौपालों में या राह के किनारे किसी बाग में विताते और थोडा अराम करने के बाद अगली मंजिल की ओर चल पडते थे। 1932-33 में शास्त्री जी गिरफ्तार कर लिए गये। असहयोग आन्दोलन अपने शीर्ष पर था। किसानों से कहा जा रहा था कि वे कर न अदा करें। जैसी की सरकार की परिपाटी थी, कि उसने काग्रेंस कार्यकर्ताओं को आन्दोलन में सक्रिय भाग ले सकने के पहले ही उनके घरों से पकडकर जेल पहुॅंचा दिया। सैकडों कार्यकर्ता जेल भेज दिये गये जिनमें लाल बहादुर शास्त्री व पडोसी मोहनलाल गौतम भी थे। एक दिन जब लाल बहादुर शास्त्री गौतम के मुकदमें की कार्यवाही सुनने के लिए अदालत गये हुए थे, एक पुलिस इन्सपेक्टर ने शास्त्री जी को उनकी गिरफ्तारी का वारंट दिखाया और पास में खडी पुलिस की गाड़ी में बैठाकर उन्हे कोतवाली पहुॅंचा दिया।
गॉंधी जी अपने आन्दोलन का हिंसात्मक रुप नहीं देखना चाहतें थे, इसलिए गोरखपुर में चौरी-चौरा काण्ड में हिंसा होने पर उन्होंने अपने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया जिससे लाल बहादुर शास्त्री जी छोड दिये गये। ब्रिटिश सामाज्य के विरुद्ध भारतीयों का महान् ऐतिहासिक संघर्ष 1930 में आरम्भ हुआ, महात्मा गॉंधी जी ने इसका नेतृत्व किया क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने नेहरु रिपोर्ट को अस्वीकार कर भारतीयों के लिए संघर्ष के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं छोडा उसके सामने आन्दोलन के अलावा कोई और मार्ग नहीं था। देश की आर्थिक हालात् बहुत सोचनीय थी। किसानों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि वे एक गज कपड़ा एक बोतल मिट्टी का तेल खरीदने की स्थिति में नहीं थे। औधोगिक मजदूरों की दशा तो ओर भी सोचनीय हो गई थी, कारखानों में हड़ताले आम बात हो गई थीं। मेरठ षडयन्त्र केस में गिरफ्तार 36 मजदूर नेताओं को लम्बी कैद की सजा दी गई थी। इन सब कारणों में मजदूर में चेतना आयी और संगठित होने लगे। मजदूर आन्दोलन उग्र और खतरनाक हो रहा था। फरवरी 1930 में काग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने गॉंधी तथा उनके साथियों को सविनय अवज्ञा आन्दोलन करने का अधिकार प्राप्त किया था। इसका आरम्भ दांडी यात्रा की ऐतिहासिक घटना से शुरु हुआ। इसमें गॉंधी और 79 सदस्यों ने भाग लिया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार करने का चर्चा और खादी अपनाने को किसी कर देने से इन्कार करने का अदालत, स्कूल कालेजों समेत सभी सरकारी दफ्तरों से किसी भी प्रकार का सहयोग न करने का आग्रह किया गया।
”सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे हैं देखना है जोर कितन बाजु-ए-कातिल में है। लाल बहादुर शास्त्री बहुत ही संवेदनशील थे और देश में होने वाली हर ऊथल-पुथल का उनपर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। देश के अन्य भागों की तरह इलाहाबाद में भी कांग्रेस जन सैकड़ों संख्या में पकड़े जा रहे थे जिससे वे सविनय अवज्ञा आन्दोलन में शमिल न हो सके। उन दिनों लाल बहादुर शास्त्री जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव थे और उन्होंने इलाहाबाद के लगान बंदी आन्दोलन में भाग लिया था। जब तक लाल बहादुर खुद गिरतार नहीं हुए थे। पूरी तरह व्यस्त रहे उनका कर्तब्य पूरा करने में और गिरतार बन्धुओं के मामले में। इस प्रकार लाल बहादंर शास्त्री ने एक आदर्श सत्याग्रही की प्रतिष्ठा अर्जित कर ली थी, उन्होंने पुलिस की लाठी की वर्ष और जेल जीवन की कठिनाईयां शान्ति व संयमपूर्वक सहीं शास्त्री जी चाहते थे कि ललिता जी भी देश सेवा में हाथ बॅंटाये, जुलूसों में शामिल हो, विदेशी कपड़ो की दुकानों पर धरना दें।
”अॅंग्रेजो भारत छोड़ो प्रस्ताव” 7 व 8 अगस्त को अखिल भारतीय कॅंाग्रेस कमेटी की मुम्बई में बैठक हुई। देश भर से हजारों कार्यकर्ता इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए बम्बई पहुॅंचे जिनमें लाल बहादुर शास्त्री भी थे। जनता के प्रस्ताव पर अमल का आहवान् किया गया। प्रस्ताव की भाषा कुछ अंश इस प्रकार था- कि इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन का अन्त ऐसा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जिस प्रकार युद्ध का भविष्य और स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र की सफलता निर्भर है। स्वाधीन भारत और सभी महान् साहसों को स्वतंत्रता के पक्ष में तथा नाजीवाद, फासिज्म और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में इस सफलता को सुनिश्चित बनायेगा। इससे न केवल युद्ध के भविष्य पर वास्तविक प्रभाव पडेगा, बल्कि सभी गुलाम और अत्याचार से पीडित मानवता संयुक्त राष्ट्रों के पक्ष में हो जायेगी ओर इन राष्ट्रों का जिनका मित्र भारत होगा। बन्धनों में जकड़कर भारत ब्रिटिष सामाज्यवाद का प्रतीक बना रहेगा और कलंक बनकर, संयुक्त राष्ट्रों के भाग्य को अवश्यक प्रभावित करेगा। अतः महा समिति भारत के जन्म सिद्ध अधिकार स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए जन समूह के द्वारा तथा समझकर व्यापक रुप से हिंसात्मक संघर्ष के आरम्भ की स्वीकृत देती है।
9 अगस्त को जिस दिन देश भर में नेताओं की धरपकड़ हुई लाल बहादुर शास्त्री मुम्बई में ही थे। पुलिस को उसकी ही तलाश थी लेकिन वे उनके ठहरने के स्थान का पता लगाने में असफल रहे। अतः शास्त्री जी उन नेताओं में शामिल थे जो उस दिन गिरतारी से बचे रहे। शास्त्री जी मुम्बई से इलाहाबाद चल पड़े थे उनके साथ आन्दोलन के कागजात व भारत छोड़ो सम्बंधी प्रस्ताव की प्रतियां थीं। शास्त्री जी को इलाहाबाद आना था। इसलिए इलाहाबाद स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए पुलिस भी काफी ज्यादा तैयार थी। बुम्बई मेल से पंडित कमलापति त्रिपाठी पकड़े जा चुके थे किन्तु सौभाग्य से लाल बहादुर शास्त्री उस गाड़ी में नहीं थे। अगले दिन मानिकपुर गाड़ी रुकते ही लीलाधर शर्मा को एक डिब्बे में शास्त्री जी और अलगूराय बैठे दिखायी दिये। उन्होंने दोनों नेताओं को नगर में क्या हो रहा है इसकी सूचना दीतथा इसी बीच गाडी चल दी। इलाहाबाद पहुॅंचने के पूर्व शास्त्री जी ने शर्मा जी को मुम्बई से अपने साथ लाये सारे कागजात सौप दिये। आन्दोलन चलाने के लिए आवश्यक निर्देश दिये और यहॉं तक हुआ कि गिरफ्तार न होने तक आनन्द भवन मे मिलेंगे। सब जरुरी कागजात आनन्द भवन पहुॅंचा दिये जाये। उस दिन पुलिस ने इलाहाबाद के बजाय नैनी स्टेशन पर टेªन इन लोगो को पकडनें के लिए रोक दिया। पुलिस ने अन्तिम डिब्बे से तालाशी शुरु की। इस बीच स्थिति का लाभ उठाकर अलगूराय और शास्त्री जी और अन्य कॉग्रेसीं नेता भेष बदलकर दूसरी ओर से रेलगाड़ी से उतर गये तथा टीन की पटरियों से बने जंगल को लॅंाघकर पार हो गये। दूसरी और शास्त्री जी के डिब्बे में बैठे शर्मा जी ने इलाहाबाद में ही धनी सज्जन से विदेशी कपड़े मॉंगकर पहन लिया और अपना कुर्ता पैजामा संडास में फेक दिया। विदेशी कपड़े देखकर पुलिस ने उससे कुछ नहीं कहा और वह सभी कागजात के साथ सुरक्षित इलाहाबाद पहॅंुच गये। अगले दिन पूर्व कार्यक्रम के अनुसार शास्त्री जी आनन्द भवन पहॅंुच गये। इलाहाबाद में शास्त्री जी ने अपने अज्ञातवास के लिए स्थान आनन्द भवन चुना। वे आनन्द भवन के ऊपरी मंजिल में छुपे हुए थे। उस समय कॉंग्रेस गैर कानूनी संस्था घोषित हो चुकी थी और उसमें अधिकांश नेता जेल में थे।
सभा करना या आगे के कार्यक्रम तब करने के लिए आमतौर पर भी लोगो को सभा करना सम्भव न था। सब काम गुप्त रुप से होना थ। अतः कॉंग्रेस कार्यकताओं के बीच संदेशों का अदान-प्रदान केवल लिखित पर्चियों के माध्यम से हो सकता था, वे छपी नोटिसो, गारंटी पत्रों अथवा समाचारों और पर्चो के माध्यम से ही जनता से सम्पर्क रहता था। शास्त्री जी इस काम में लग गये। आनन्द भवन में वे अपने गुप्त स्थान में वह जनता को प्रेरणा देने वाले संदशों की प्रतिलिपियां तैयार करते जिससे जनता को आजादी की लडाई चलाते रहने की जरुरत समझाई जाती। हजारों की संख्या में ये पर्ची विश्वस्त कार्यकताओं को दिये जाते थे, जिससे छिपकर काम करने वाले जो विश्वविद्यालयों, गॉंवों तथा राज्य के अन्य नगरों मे पहुॅंचा दिये जाते जिससे यह निश्चित हो जाये कि आजादी की आग एक बार प्रज्वलित होकर अब बुझने न पायेगी। इसके बाद पुलिस निश्चित आनंद भवन में प्रतिदिन आने-जाने लगी। शास्त्री जी समझ गये कि अब उनके लिए आनंद भवन में छिपे रहना और वहां से काम चलाना अच्छा नहींे है। वह केशवदास मालवीय के साथ चले गये। मजे की बात यह थी कि केशवदास मालवीय स्वंय किसी अन्य मित्र के मकान में जा चुके थे। पुलिस की पकड में न आने के कारण ये नेता लोग अपने छिपने कें स्थान को बदलते रहते थे। यहां से शास्त्री जी अन्य अज्ञातवासी कार्यकताओं से मिलने, उनका मनोबल बढ़ाने औंर उन्हें आन्दोलन बढाने का रास्ता सुझाने के लिए बहुआ किसान जैसा वेश बनाकर बाहर भी निकल जाते थे। उन्होने अफवाहांे का खण्डन करने और जनता के बीच महात्मां गांधी जी का सन्देश पहुॅंचाने के लिए देहाती क्षेत्रो का दौरा किया। कई अन्य कांग्रेस नेता, कार्यकर्ता अभी लुके-छिपे कार्य कर रहे थे। अलगूराय, शास्त्री जी प्रातः अस्पताल तथा स्कूल में काम करने वाले के वेश मे इधर-उधर जाया करते थे। कुछ समय छिप कर काम करने के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने निश्चय किया कि अब वह समय आ गया है जब उन्हें बाहर आकर जेल में अपने साथियों के बीच पहुॅंच जाना चाहिए।
जिन दिनों शास्त्री जी जेल में थे उन्हीं दिनों उनके बडे़ पुत्र हरीकृष्ण को मियादी बुखार (टाइफाइड) हो गया। शास्त्री जी को जेल में ही सूचना दी गयी। जेल अधिकारी उन्हें पैरोल पर रिहा करने के लिए तैयार थे किन्तु वह लिखित में यह वचन चाहते थे कि पैरोल की अवधि के बाहर रहते हुए शास्त्री जी निजी राजनैतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेंगे। वह इस प्रकार की कोई शर्त मानने को तैयार नहीं हुए जिससे उनकी देश सेवा की प्रतिज्ञा का उल्लंधन होता था। अन्त में अधिकरियों ने उन्हे किसी लिखित आश्वासन के बिना ही एक माह की पैरोल पर मुक्त करना स्वीकार कर लिया। शास्त्री जी पैरोल पर रिहा हो गये, लेकिन एक माह की अवधि में हरी की दशा में विशेष सुधार नहींे हुआ। वह हांड मांस का ढॉंचा भर रह गया था। पैरोल की अवधि समाप्त होने पर उसे कुछ और दिन के लिए बढाने का प्रस्ताव किया गया, किन्तु जेल अधिकारी इस बार लिखित आश्वासन के बिना एक दिन के लिए भी पैराल बढानें के लिए भी तैयार नहीं हुए। शास्त्री जी के सामने भारी धर्म संकट उत्पन्न हो गया। एक ओर देश था, दूसरी ओर पुत्र, एक ओर संकल्प था, दूसरी ओर वात्सल्य। अन्त में विजय कर्तब्य की ही हुई। शास्त्री जी ने जेल वापस जाने का निष्चय किया। हरी ने अपने नन्हे हाथ फैलाकर बाबू जी मत जाइए की गुहार की। कुछ क्षण मे वात्सल्य, कर्तब्य पर हाबी होता दिखायी दिया। फिर शास्त्री जी ने बालक का माथा चूमा, उसे शीध्र स्वस्थ होने का आशीर्वाद दिया और मुडकर बिजली की तरह कमरें से बाहर निकल आये। उस समय उनकी ऑंखों से ऑंसू छलक रहंे थे।
23 मई 1944 को शास्त्री जी को जब नैनी से उन्नाव जेल भेजा गया तो स्थानान्तरण के समय शास्त्री जी को तीन दरी, गद्दा, एक रजाई, दो चादरें, तकिया का गिलाफ और चौबीस रुपये छः आने नकद। यह शास्त्री जी के जेल यात्रा का अन्तिम स्थानान्तरण था। इसके बाद अगस्त 1945 में सभी राजनीतिक बंदियों के रिहाई के समय वे भी छोड दिये गये। वह अपने जीवनकाल में सात बार जेल गये और उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार विभिन्न जेलों में उन्होंने लगभग छः वर्ष बिताए, परन्तु उनके साथियों व परिवार के सदस्यों के अनुसार नौ वर्ष तक जेल में रहे। वहॉं उन्होंने अधिकारियों को कभी परेशान नहीं किया। 2 वर्ष 11 माह की जेल काटकर शास्त्री जी जब धर लौटे तब यह रिहाई उनके लिए कुछ ऐसी थी जैसे रात की सबसे अॅंधियारी घडी को पार करके कोई प्रभात के झुरमुर में प्रवेश करें। तीन वर्षो में विश्व की और देश की हवा बदल चुकी थी।
इस प्रकार लाल बहादुर शास्त्री ने भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय रुप से भाग लिया, उसमें उनकी स्थिति, प्रतिष्ठा, और मनोभावना के व्यक्ति के लिए अधिक दिन तक छिपकर रहना और कार्य करना संभव न था।
अतः उन्होंने खुलकर काम करने का निश्चय किया और एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पहले ही दिन गिरतार कर लिये गये। वह सचमुच देश के जननायक थे, भारत माता के एक सीधे और सच्चे सपूत थे। उनका समूचा जीवन जनता और अपनी मातृभूमि की सेवा में बीता और अपने इन्हीं प्रयत्नों में इन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। वह देश और विश्व के चोटी के नेताओं की कोटि में पहुॅंच गये, वह उनका बड़प्पन था कि राजमार्ग पर चलते हुए वह पहले की पगडंडियों को नहीं भूले।
सन्दर्भग्रन्थ सूची –
1. धरती का लाल (लाल बहादुर शास्त्री स्मृति ग्रन्थ) प्रकाशन- श्री लाल बहादुर शास्त्री सेवा निकेतन फतेहपुर शाखा, मोती लाल नेहरु प्लेस, नई दिल्ली पृष्ठ- 335
2. उपर्युक्त ग्रन्थ- पृष्ठ- 338
3. लाल बहादुर शास्त्री और संसद- पृष्ठ- 101-102
4. डॉं0 आर मनकेकर- आधुनिक भारत के निर्माता- लाल बहादुर शास्त्री, पृष्ठ- 54
5. महात्मा गॉंधी, हरिजन पत्रिका, वर्ष- 10 मई 1942
6. डॉं0 आर मनकेकर- आधुनिक भारत के निर्माता, सेना निकेतन फतेहपुर शाखा, पुष्ठ- 88

Latest News

  • Express Publication Program (EPP) in 4 days

    Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...

  • Institutional Membership Program

    Individual authors are required to pay the publication fee of their published

  • Suits you and create something wonderful for your

    Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.