ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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‘‘हिन्दी कथा साहित्य में यथार्थवादी कहानीकार का अनुशीलन’’

डा0 वाई0सी0 यादव
असि0 प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
डी0ए0वी0 पी0जी0 कॉलिज
बुलन्दशहर (उ0प्र0)

हिन्दी कहानी के विकास का तृतीय काल (1937-1947) यथार्थवादी युग कहा जाता है क्योंकि इस काल में भौतिकवादी यथार्थ और मनोविश्लेषण यर्थाथ को आधार बनाकर कहानियों की रचना की गई। इस प्रकार इस काल में दो संस्थान पूर्णतः विकसित हुए
1. समाजवादी यथार्थ की कहानियाँ तथा
2. मनोविश्लेषण यथार्थ की कहनियां
समाजवादी यथार्थ को आधार बनाकर लिखने वाले कहानीकारेां ने ईमानदारी के साथ यथार्थ-चित्रण को अपनी कहानियों के कथानक का आधार बनाया। मार्क्सवादी सिद्धान्तों से प्रभावित होने के कारण इस संस्थान के कहानिकारों ने श्रमिकों का समर्थन, बुर्जुआ स्थितियों, मान्यताओं एवं मूल्यों का विरोध एवं पूँजीपतियों पर व्यंग किया। इस कहानियों में भौतिक मूल्यों को महत्व प्रदान किया गया तथा पतोन्मुखी मूल्यों का विरेाध तथा सर्वहारा वर्ग को सहज सहानुभूति प्रदान की गई। इन संस्थान के प्रमुख कहानीकार, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन तथा रांगेय राघव है।
यशपाल द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित कहानीकार है। वे मार्क्सवाद के आधार पर मध्य युगीन नैतिक मूल्यों के खोखलेपन को उद्घाटित करके यथार्थ चित्रांकन करते है। वचे वर्गसंघर्श को प्रमुखता देते हुए प्राचीन नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को चिनौती देते है और नवीन मूल्यों के प्रति आग्रही भाव रखते हैं। यशपाल ने- ‘आतिथ्य’, ‘खुदा की मद्द’, ‘धर्म रक्षा’, ‘जिम्मेदारी’, ‘वर्दी, ‘सबकी इज्जत’, ‘सागन्ती कृपा’, ‘महाराजा का इलाज’ तथा ‘देवी की कृपा’ आदि कहानियों में सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का यथार्थ चित्रण किया। सामाजिक नैतिकता के खोखलेपन का चित्रण करते हुए यशपाल ने यह बताया कि नीति सम्बन्धी मानदण्ड आज के युग में निरर्थक हो गये हैं। समाज में व्याप्त सामाजिक विषमता का चित्रण यशपाल ने प्रमुख रूप से किया क्योंकि उनके विचार से समाज में व्याप्त अधिकांश विकृतियों के मूल में धार्मिक विषमता ही विद्यमान है। सामाजिक यथार्थ के विभिन्न रूप उनकी कहानियों में मिलते हैं जिसका चित्रण यशपाल ने मध्यवर्गीय सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में किया है।
राहुल सांकृत्यायन एक ओर द्वन्द्वात्मक भौतिक से प्रभावित थे, तो दूसरी ओर बौद्ध दर्शन के अनुयायी थे। उन्होंने अपनी कहानियों में बौद्ध धर्म और साम्यवाद का समन्वय प्र्रस्तुत किया। उन्होंने ऐतिहासिक कहानियों की रचना करते समय द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए इतिहास को अपने दर्शन के अनुरूप बनाने के लिए तोड़-मरोड़ा है। उन्होंने बोल्गा से गंगा’ में आदिम सभ्यता से लेकर आधुनिक काल तक के भातरीय आर्यों के विकास को प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी कहानियों में मानव सभ्यता, दायित्व, नारी स्वतन्त्रता, मुक्त भोग आदि की स्थापना की।
रांगेय राघव भारतीय मान्यताओं और साम्यवादी दृष्टिकोण का समन्वय प्रस्तुत करते हैं। उनकी मान्यता है कि क्रान्ति के लिए पहले बौद्धिक परिवर्तन की जड़े जमाना आवश्यक है। वे व्यक्ति की सम्पत्ति का विरोध करते हैं। उनकी सशक्त कहानियों में ‘पंच परमेश्वर’ और ‘गदल’ को माना जाता है। ‘पंच परमेश्वर’ कहानी प्रेमचन्द की कहानी को ध्यान में रखकर लिखी गई है। प्रेमचन्द के पंच सत्यनिष्ठ और न्यायमूर्ति है किन्तु रांगेय राघव के पंच रिश्वत भी लेते है और अन्याय भी करते हैं।
दूसरे संस्थान के कहानीकार मनोविश्लेषणवादी यथार्थ को आधार बनाकर अपनी कहानियों की रचना करते हैं। वे सिग्मण्ड़ फ्रायड़ के सिद्धान्तों से विशेष रूप से प्रभावित रहे। इस संस्थान में कहानीकारों ने प्राचीन नैतिक मूल्यों की उपेक्षा कर मुक्त प्रेम को स्थापित किया। अन्तर केवल इतना है कि कही यह मुक्त-प्रेम फ्रायड़ के सिद्धान्तों से प्रभावित है तो कही भारतीय जीवन दृष्टिकोण के अनुरूप। अहं को लेकर इस संस्थान के कहानिकारों में मतैक्य नहीं है। अज्ञेय चिन्तनशील अहंवादी कहानीकार है। जैनेन्द्र कुमार चिन्तन-प्रधान भावुक है तथा इलाचन्द जोशी अहं पर ही प्रहार करते हैं।
जैनेन्द्र जी अपनी ‘‘बौद्धिक मिथ्या धारणा’’ के आधार पर कहानी में मानव की शिथिलताओं का यथार्थ चित्रण इस प्रकार करते हैं कि उनके प्रति सहानुभूति का भाव जागता है। उन्होंने पाश्चात्य मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्तों और भारतीय दर्शन का समन्वय करने की चेष्टा की है। समन्वय का आधार उन्होंने मानव नैतिकता और कर्त्तव्य के प्रति एकान्तिक समर्थ का चित्रण करते हुए उसके अचेतन के विरोध को भी प्रस्तुत करके कहानी में यथार्थवाद को रूपायित किया है।
मूल्यवादी विचारधारा के दृष्टिकोण से अज्ञेय श्रेष्ठ यथार्थवादी कहानीकार कहे जा सकते हैं। उन्होंने व्यक्ति चरित्र का गुम्फन मूल्यों के ही आधार पर प्रस्तुत किया। जैनेन्द्र के समान उन पर दर्शन का मिथ्या आवरण नहीं है। जोशी के समान केवल ह्रासोन्मुखी प्रवृत्ति को ही चित्रित नहीं करते और यशपाल के समान द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ही सर्वस्य नहीं उन्होंने व्यक्तिगत सम्बन्धों को व प्रेम को महत्व दिया है फिर उसमें दुःख मिले या सुख। उनकी कहानियों में व्यक्तिगत प्रेम एवं राष्ट्र प्रेम का सुन्दर समन्वय है। उनका दृष्टिकोण यथार्थवादी है इसीलिए उनकी मान्यता है कि ज्ञान का सबसे अन्तिम शत्रु भूख है। पूँजी और रूपये-पैसे पर सबका बराबर हक है।
सन् 1957 के आस-पास ‘नई कविता’ के आधार पर ‘नई कहानी’ का आन्दोलन आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन का प्रमुख बिन्दु स्वतन्त्रता के पश्चात की मोह भंग की स्थिति तो थी ही साथ ही पाश्चात्य प्रभावों ने भी उसे विशेष रूप से प्रभावित किया। सार्त्र और कामू आदि का प्रभाव यथार्थवादी कहानीकारों पर पड़ा।1 नई कहानी के आन्दोलन का यह परिणाम हुआ कि नई कही संत्रास, न्याय, प्रेम, यौन सम्बन्ध आदि कथानकों को आधार बनाकर ही कहानियों की रचना की गयी। जिजीविषा की मानव के लिए विशेष महत्वपूर्ण माना गया। अमरकान्त की ‘जिन्दगी और जोक’, मोहन राकेश की ‘सौदा’ निर्मल वर्मा की ‘लवर्ज’ एवं राजेन्द्र यादव की ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ मैं जिजीविषा, विघटन एवं अस्तित्व को झेलने का यथार्थपरक चित्रण हुआ है। स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में नया कहानीकार स्वतन्त्रता की मांग करता है। इन कहानीकारों ने भोगे हुए यथार्थ के चित्रण द्वारा प्रमाणिक अभीव्यक्ति पर बल दिया है।

नई कहानी आन्दोलन में यथार्थवादी कहानीकारों ने नगर कस्बा और गॉव के आधार पर नई कहानी को बाँटा। राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, नगर के कहानीकार थे कमलेश्वर कस्बे को आधार बनाकर कहानियाँ लिख रहे थे। फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ मार्कण्डेय औरे शिवप्रसाद सिंह जैसे सशक्त कहानीकार गॉव से जुड़े हुए थे।
इस समय के प्रमुख यथार्थवादी कहानीकारों में राजेन्द्र यादव का प्रमुख स्थान है। राजेन्द्र यादव की कहानियों में विसंगति व्यथा, पीड़ा, निराशा और शून्यता आदि भावनाओं का अंकन हुआ है। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ कहानी लक्ष्मी की कैद की ही कहानी नहीं अपितु उस कैद में निहित छटपटाहत और घुटन उस कैद से जुड़े हुए इतिहास और उस कैद से मुक्ति पाने की आकांक्षा और विद्रोह की कहानी है।
राजेन्द्र यादव किसी जीवन-दर्शन को स्वीकार नहीं करते, किन्तु कबीर, सार्त्र, काफका और कामू की चर्चा करते हैं उनकी कहानियों का मूलस्वर सम्बन्धों में अकेला, अनसमझा, निर्वासित, अभिशप्त, अजनबी, अपरिचित व्यक्ति चित्रित हैं। वह व्यक्ति पुराने सम्बन्धों को तोड़ देता है क्योंकि उसी ने उसे अेकला बना दिया है और वह नवीन सम्बन्ध, एकांकीपन, संत्रास भय, मृत्यु दंश, पिता-पुत्र, भाई-भाई, भाई-बहिन आदि के प्राचीन सम्बन्धों की स्मृति, सम्बन्धों का टूटना तथा नवीन सम्बन्धों का निर्माण यथार्थः चित्रित है।
कमलेश्वर ने अपनी कहानियों में नई-नई दिशाओं की खोज की है। वे अस्तित्व के संकट, भय, त्रास और मृत्यु पर विचार करते हैं, परिवेश को महत्व देते हैं तथा यथार्थ बोध को स्वीकार करते हैं। उनकी आरम्भिक कहानियां कस्बे से सम्बन्धित हैं। बाद में यौन सम्बन्धों को लेकर लिखी गई कहानियां ‘माँस का दरिया’ में संकलित है। कमलेश्वर की बहुचर्चित और प्रसंशित कहानी ‘राजा निरबंसिया’ में जीवन की मार्मिक टैªजिडी है इसमें नये मानवीय मूल्यों की स्थापना की गई है परन्तु उनका विजन ट्रैजिक नहीं है। इसमें कर्म के अभाव के कारण जीवन में अजीव सी घुटन और विषमताओं का प्रवेश हो गया है। वह जानता है कि जीवन में सुख, वासना और धन नहीं चाहिये।
कमलेश्वर की अन्य कहानियाँ, ‘नीली झील’, ‘कस्बे का आदमी’, जरे लिखा नहीं जाता’, ‘सच और झूठ’। ‘सच और झूठ’ में भी व्यथा, एकांकीपन, वेदना, रूढ़ियों के प्रति विद्रोह एवं तिरस्कार, नवीन मूल्यों के प्रति आग्रह, नवीन सम्बन्धों के बनने, प्राचीन के टूटने, आर्थिक विषमताओं और प्रेम व वैवाहिक समस्याओं का यथार्थमय चित्रण हुआ है।
महिला कहानीकारों में ऊशा प्रियंम्वदा, मन्नू भंडारी श्रीमती विजय चौहान, सोमावीरा, कृष्णा सोवती, शिवानी और भीष्म साहनी की कहानियों में वर्तमान परिवेश में नारी की भूमिका, परिवर्तित प्रेम सम्बन्ध, आधुनिक एवं नवोन्मेश संचेतना में उसकी स्थिति तथा परिवर्तित सामाजिक एवं पारिवारिक सन्दर्भों में समयोग की गति आदि का यथार्थ चित्रण मिलता है।
‘‘नारी स्वतन्त्रता का निर्णय नारी द्वारा ही मन्नू भंडारी द्वारा ही ‘दरार भरने की दरार’ में देखने को मिलता है। इस कहानी की पात्रा श्रुति के शब्दों में- ‘‘बहुत दिनों के संघर्ष और द्वन्द्व के बाद आखिर मैंने अन्तिम रूप से निर्णय कर ही लिया में अलग ही रहूँगी और कहती हूँ नन्दी निर्णय लेने के बाद से ही जैसे मैं हल्की हो गयी हूँ।’’2 अनेक कहानियों में नारी सम्बन्धी समस्याओं का यथार्थ चित्रण मन्नू भंडारी ने किया है।
सन् 1960 के पश्चात नई कहानी आन्दोलन के प्रतिक्रिया स्वरूप साठोत्तरी कहानी नामक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ यह आन्दोलन यथार्थवादी कहानी के प्रति महत्वपूर्ण रहा। इन कहानियों में असन्तोष और विद्रोह का भाव है। बेकारी, सूनापन अकेले होने का त्रास, शारीरिक सम्भोग की आवश्यकता, आर्थिक संघर्ष, तनाव, परिवेश का महत्व एवं जिजीविशा उनकी कहानियों में यथार्थ चित्रित है।
सन साठ के पश्चात के नये यथार्थवादी कहानीकारों में प्रमुख रूप से ज्ञानरंजन, सुरेश सिन्हा, रवीन्द्र कालिया, सुधा अरोड़ा, दूधनाथ सिंह, श्रीकान्त वर्मा, मनहर चौहान, महीप सिंह इत्यादि हैं। यद्यपि इन्होंने सन साठ से पहले ही लिखना शुरू कर दिया था किन्तु इनकी लेखनी में जो सुधार आया वह साठ के पश्चात ही आया था। अतः इसी दृष्टिकोण को लेकर हमने उनकी साठ के पश्चात प्रकाशित कहानियों को यथार्थ चित्रण की दृष्टि से देखा है तथा इसके बाद ही कहानियों में मानव जीवन के यथार्थ पर बल दिया। स्वयं कथाकार डॉ0 गंगाप्रसाद विमल के शब्दों में- ‘‘वस्तुतः समकालीन कथाधारा अथवा साठ के बाद की हिन्दी कहानी, मानव विश्वास की आदर्श कहानी नहीं, अपितु वह मानव मस्तिष्क के भीषण संकट बोध की यथार्थ प्रतीति कहानी है जो मानव-पीड़ा को इसलिए व्यक्त नहीं करती कि वह कोई प्रदर्शनीय प्रसंग नहीं अपितु वह सिर्फ यथार्थवाद है।’’3
सन साठ के बाद के कहानीकारों की पीढ़ी, वह युवा पीढ़ी थी जिसने बहुत कम समय के लिए परतन्त्र भारत को देखा था। जिनका पालन-पोषण और विकास स्वतन्त्र भारत में हुआ। इससे पूर्व यह पीढ़ी स्वतन्त्रता के सही अर्थ को या मूल्य को नहीं पहचान पाती। उसने अपने चारों ओर भ्रष्टाचार जातिवाद, भाई-भतीजावाद, प्रान्तीय संकीर्णताओं, गुटबन्दी नौकरशाही के घृणित परिणाम ही देखे और अपने को अनेक निषेधों से घिरा पाया। यही कारण है कि ‘भोगे’ अथवा ‘झेले’ और सोचे को कागज पर उड़ेल देने की दुर्दमनीय व्यग्रता इनके यहां उपलब्ध होती है और इससे उनकी संवेदना पुराने सभी कथाकारों से कुछ अजीब सी विकुंचित रूप से भिन्न हो गई।
साठोत्तरी कहानीकारों की एक लम्बी श्रृंखला है जिनका कहानी के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण रहा है- ‘‘कमलेश्वर, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, महीप सिंह, रामदरस मिश्र, ममता कालिया, हिमांशु जोशी, राकेश वत्स, सतीश जमाली, शशि प्रभा शास्त्री, डॉ0 नमिता सिंह का नाम एक आन्दोलन के रूप में आता है जिनमें हिन्होंने निम्नवर्ग, निम्न जाति तथा नारी के प्रति संवेदनशील को कहानी के रूप में पिरोया है। इस संदर्भ में भरत सिंह और नमिता सिंह की यह तुलना दूर की कड़ी है। मुक्तिबोध के आगे समस्या यह थी कि मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में/सभी मानव/सुखी, सुन्दर व शोषण मुक्त/कब होंगे। इस सभय, सुखी और शोषण मुक्त समाज के लिए अनिवार्य है- क्रान्ति और क्रान्ति के लिए जरूरी है क्रान्तिकारी पार्टी। क्रान्तिकारी पार्टी जुझारू जन संगठनों के सक्रिय और श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं का गतिशील संगठन होती है कार्यकर्ताओं के वर्गायपरण की प्रक्रिया में तीखे गतिरोध पैदा होते हैं। वर्गीय संस्कारों की केंचुल धीरे-धीरे हटती है। नमिता सिंह की कहानियों में यही ध्वन्ति और व्यक्त होता है। मुक्तिबोध की परम्परा का यही अगला विकसित चरण है।’’4
कुल मिलाकर आज की कहानी आज के जीवन की बड़ी ही तीखी यथार्थ चेतना है। हर कहानीकार अपने-अपने अनुभव के अनुसार शहर, कस्बा, ग्राम, पिछड़े हुए वन्य या पहाड़ी अंचल के जीवन के सत्यों को और टूटते बनते जीवन-मूल्यों को रूपायित कर रहा है। कहा जा सकता है कि आज का कहानीकार अपने प्रति जीवन के प्रति बेहद ईमानदार है। हिन्दी कहानी के विकास-क्रम को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हर नई पीढ़ी का रचनाकार अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अपने अलगाव के लिए यथार्थ को ही सुरक्षित धरातल मानता रहा है। उसकी पहली और मूल स्थापना यही है कि उसकी पूर्ववर्ती कथा-पीढ़ी में यथार्थ जिरूप में संप्रेषित किया जाता रहा है वह यथार्थ का वास्तविक रूप नहीं था। परिणाम पुनः उसके परिवेश में जोड़ा और उसकी आन्तरिक प्रवृत्तियों को उद्घाटित करने की दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया।
अस्तु नई कहानी और बाद की कहानी के कहानीकारों ने अपनी कहानियों में यथार्थवाद का सजीव एवं मनमोहक चित्रण किया इसको कहानी की राह से गुजरकर ही जाना जा सकता है।

विषय सूची –
1. नई कहानी, दशा: दिशा: सम्भावना, सम्पादक श्री सुरेन्द्र: पृ0-297
2. डॉ0 महेश दिवाकर, हिन्दी कहानी का समाजशास्त्रीय अध्ययन: पृ0: 374
3. डॉ0 गंगाप्रसाद विमल, समकालीन कहानी का रचना विधान: पृ0- 67
4. भरत सिंह, कहानी और कहानी, सं0 राजेन्द्र मलहोत्रा: पृ0-169

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