ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

नई शिक्षा नीति का एक वर्ष

डॉ0 रश्मि फौजदार
प्राचार्या (कार्यवाहक)
मुस्लिम गर्ल्स डिग्री कॉलिज, बुलन्दशहर

29 जुलाई 2020 को नई शिक्षा को घोषित हुए ’’एक बरस हो गया है, लेकिन कोविड की परिस्थितियों ने उसे उस तरह से लागू नहीं होने दिया है, जिस तरह से होनी चाहिए थी। न स्कूल खुले, न कॉलेज खुले। क्लास शिक्षण बंद रहा। विकल्प में शिक्षण-परीक्षण ऑनलाइन हुआ लेकिन नब्बे प्रतिशत छात्रों के पास ऑनलाइन सुविधाएं नहीं रही। कोविड के ही कारण दसवीं और बारहवीं के छात्र आन्तरिक मूल्यांकन और पिछले बरसों के अंकों के अनुपात के आधार पर पास/फेल किए गए। हो सकता है कि आने वाले दिनों में भी कोविड की संभावित लहरों से नई शिक्षा नीति को पूरी तरह अमल में न लाया जा सके। फिर भी नई शिक्षा नीति महत्वपूर्ण नीति है।’’1
करीब साढ़े तीन दशक के बाद भारत को पिछले वर्ष एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मिली। इसका खाका प्रस्तुत करते समय सरकार ने इसके माध्यम से गांधी और अम्बेडकर के सपने को सच करने की बात कही थी। नई नीति में इस ओर प्रयास काफी हद तक दिखाई भी पड़ता है। खास कर ये नया नीति दस्तावेज महात्मा गांधी के उस दर्शन से मेल खाता दिखा है, जिसमें शिक्षा को ’सा विद्या ये विमुक्त’ कहा गया है यानी शिक्षा वह है जो बंधन से मुक्त या प्रेरित करती है।
नई शिक्षा नीति के एक साल पूरे होने पर अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गांधी जी के इस दर्शन में आधुनिक और आत्मनिर्भर भारत का मंत्र भी जोड़ दिया। प्रधानमंत्री ने इसे ’’राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ का एक अहम स्तम्भ बताया और कहा कि भविष्य में हम कितना आगे जाएंगे, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि हम वर्तमान पीढ़ी को कैसी शिक्षा दे पा रहे हैं। इस संबोधन का सार निकालें तो उम्मीद यहीं है कि नई शिक्षा नीति जब पूरी तरह धरातल पर उतरेगी, तो देश एक नए युग में साक्षात्कार करेगा।’’2
तो पिछला एक वर्ष इस सपने को सच करने मंे कितना योगदान दे पाया है? देश के हालात सामान्य होते तो शायद इस पड़ताल का लहजा भी सामान्य तौर पर ऐसा ही होता। क्या पिछला साल इस सपने को सच करने में कोई योगदान दे पाया है? पिछले साल हम जहां खड़े थे, वहां से थोड़ा आगे जरूर बढ़े हैं, लेकिन मोटे तौर पर खुद सरकार इस तरक्की से संतुष्ट नहीं हैं। शिक्षा मंत्रालय में उच्च स्तर पर बदलाव इसका एक संकेत भी है। दरअसल, कोरोना महामारी के कारण शिक्षा की अवधारणा पूरी तरह बदल गई है। पिछले करीब डेढ़ वर्ष से शिक्षण संस्थान बंद हैं और अध्ययन अध्यापन की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन हो गई है। पढ़ाई का समय स्क्रीन टाइम में बढ़ोतरी कर रहा है और ज्ञान अर्जित करने के जिस सिलसिले को नई नीति प्रेरणादायी अनुभव में बदलना चाहती है, वो उबाऊ होने लगा है। बावजूद इसके कि इस दौरान परिस्थितियों से तालमेल बनाने के लिए शिक्षा मंत्रालय की ओर से कई प्रयास हुए हैं।
’दीक्षा’ प्लेटफॉर्म और ’स्वयं’ पोर्टल इसी दिशा में हुए नवाचार हैं। दीक्षा पर पिछले एक साल में 2300 करोड़ हिट्स इसकी उपयोगिता का ही तो सूचक हैं। नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा में गांव और शहरों को समान रूप से डिजिटल लर्निंग से जोड़ने की सिफारिश हैं, जिसे सफल बनाने के लिए मूक और स्वयंप्रभा जैसी मुफ्त ऑनलाइन कोर्स योजना मौजूद हैं। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है, जो इन तमाम प्रयासों की व्यापकता के बावजूद उपयोगिता के पैमाने पर वैश्विक जगत से इनके तालमेल पर सवालिया निशान लगाने का काम कर रहा है। कोरोना ने हमें ऑनलाइन शिक्षा के दूसरे पहलुओं पर भी गौर करने के लिए मजबूर किया है। शिक्षा से जुड़ी एक रिपोर्ट बताती है कि संचार क्रांन्ति के तीन दशक बाद भी कम्प्यूटर सिर्फ 39 फीसद स्कूलों तक पहुँच पाया है। इन्टरनेट पहुँच का आंकड़ा तो अभी केवल 22 फीसद तक पहुँच है।
यूनिसेफ की रिपोर्ट और विषम परिस्थितियों की संकेतक है। इसके अनुसार प्रति हजार स्कूली बच्चों में से केवल 85 के पास इंटरनेट सुविधा हैं ये सब शिक्षा में व्यवधान के सूचक हैं और इसीलिए इंनटरनेट से सुलभ शिक्षा के पैमाने पर भारत दक्षिण एशिया में नीचे से से दूसरे पायदान पर है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी को विस्तार दें रहीं भारतनेट परियोजना इस प्रश्न का हल साबित होगीं एक दूसरा सवाल बढ़ती आबादी के बीच सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का है। नब्बे के दशक में आई पिछली नीति का सूत्र वाक्य था -’सबके लिए शिक्षा’। हम जानते हैं कि इसका हश्र ’गरीबी हटाओ’ के नारे जैसा रहा है। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने गरीब जनता को ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की दौड़ से बाहर कर दिया। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में सबको सस्ती और गुणवत्तापूर्ण तथा रोजगारमूलक शिक्षा देना आसान लक्ष्य नहीं है। गांव शहर, गरीब-अमीर जैसे समाज में मौजूद कई विभानकारी तत्व इसे और मुश्किल बना देते हैं। इस दृष्टि से भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के एक साल होने पर मेडिकल कॉलेजों के दाखिले में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए 10 फीसद आरक्षण का फैसला प्रशंसनीय पहल है। इस नई व्यवस्था से हर साल ऑल इण्डिया कोटा स्कीम के तहत एमबीबीएस, एमएस, बीडीएस, एमडीएस, डेंटल, मेडिकल और डिप्लोमा में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद शिक्षा ग्रहण कर रहे 5550 विद्यार्थी लाभान्वित होंगे।
वैसे भी कोरोना के दौर में शिक्षा के अधिकार को लेकर असमानता और स्पष्ट हुई है। एनसीईआरटी की एक रिपोर्ट बताती है कि देश के 27 फीसद स्कूली विद्यार्थियों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरूरी स्मार्टफोन, लैपटॉप या कम्प्यूटर तक पहुँच नहीं हैं ऐसे बच्चों के लिए सरकार इसरो के सहयोग से सैटेलाइट टी0वी0 क्लासरूम शुरू कर रही है, ताकि स्कूल बंद रहने की स्थिति में भी उन्हें मुफ्त ऑनलाइन क्लास की सुविधा मिलती रहे। आपनी व्यापकता के कारण ऐसी जमीनी चुनौतियों का निदान खर्चीला भी होता है, जो एक जाई होने पर बजट के प्रावधानों को भी प्रभावित करते हैं। वर्ष 2020-21 के मूल बजट में शिक्षा मंत्रालय को 99 हजार करोड़ रूपये से कुछ ज्यादा धन आवंटित हुआ, लेकिन काविड-19 के संकट के बीच ये संशोधित होकर 85 हजार करोड़ के आसपास रह गया। इससे स्कूली शिक्षा, उच्च् शिक्षा, समग्र शिक्षा अभियान, लड़कियों की माध्यमिक शाला की राष्ट्रीय प्रोत्साहन जैसी अहम योजनाओं को आवंटन में कटौती का सामना करना पड़ा है। हालांकि मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आत्मनिर्भर भारत को लक्ष्य बनाते हुए शिक्षा में शोध और उसे रोजगारपरक बनाने को बढ़ावा दिया है। ये एक तरह का भविष्य में निवेश है, जिसके अच्छे परिणाम अपेक्षित है।
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शिक्षा पर खर्च किया गया एक रूपया अर्थव्यवस्था में 10 से 15 रूपए का योगदान दे सकता है। लेकिन इसके लिए शिक्षा की प्रक्रिया में समूची व्यवस्था की हिस्सेदारी आवश्यक है। कोरोना महामारी के दौर में कठिन हुई शिक्षा की राह को आसान बनाने के लिए सामूहिकता का ये भाव वैसे भी जरूरी है। इसकी शुरूआत शिक्षा मंत्रालय से हुई है, जहां बदलाव के बाद अब नई नीति पर अमल की रफ्तार कभी बदली दिख रही है। इस पर नजर रखने के लिए एक पोर्टल तैयार किया जा रहा है। उच्च शिक्षा में यूजीसी भी हर नई पहल को प्रोत्साहित करने के लिए कमर कसती दिख रही है। पुरानी शिक्षा नीति की पृष्ठभूमि भी यही सबक सिखाती है कि समय से तालमेल बैठाकर ही सफलता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
नई शिक्षा नीति का दस्तावेज कहता है कि नई शिक्षा नीति 2040 तक ही पूरे देश में लागू हो पाएगी। कारण साफ है: ’शिक्षा’ केन्द्र और राज्य, दोनों का विषय है, और केन्द्र और राज्यों के शिक्षा संस्थानों में बड़ी विविधता है। एक ओर केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं उच्च शिक्षा संस्थान हैं तो दूसरी ओर राज्य विश्वविद्यालय हैं। 10वीं 12वीं के केन्द्रीय बोर्ड और राज्यों के बोर्डो में बड़ा फर्क है। प्राथमिक शिक्षा के स्तर में भी बड़ा फर्क है। नीति संस्थानों और सरकारी संस्थानों के बीच बहुत से फर्क हैं, जो किसी भी नीति को अपने-अपने तरीके से लागू करने के आदी हैं। फिर केन्द्र की बजटिंग अलग है, और राज्यों की अलग। फिर शिक्षा के सकल बजट का प्रश्न है जो इस तरह की नीति को अच्छी तरह से लागू करने के लिए बेहद कम है।
जाहिर है कि नीति को बेहतर तरीके से लागू करने के लिए केन्द्र और राज्यों-सबको शिक्षा का बजट यथेष्ट बढ़ाना होगां एक साल हो गया है, लेकिन शिक्षा का बजट कहां बढ़ा? तो भी यह शिक्षा नीति विचारणीय है क्योंकि देश की शिक्षा व्यवस्था में वैश्विक स्तर का बदलाव लाने को प्रतिश्रुत है। फिलहाल कागज पर ही सही, यह नीति ’क्रांन्तिकारी’ शिक्षा नीति नजर आती है, जो 1986 की पिछली शिक्षा नीति के ’दस जमा दो’ की जगह ’पांच जमा तीन जमा तीन जमा चार’ के ढांचे का प्रस्ताव करती है। ’यूजीसी’ और ’तकनीकी शिक्षा बोर्ड’ (एआईसी0टी0ई) जैसे जड़ीभूत संस्थानों को खत्म कर शिक्षा के लिए नया संस्थान बनाने की बात भी करती है, और तीन साल के स्नातक कार्यक्रम की जगह चार साल के ’बहु अनुशसनिक कार्यक्रम’ चलाने पर जोर देती है, जिसमें छात्रों के लिए कई ’निकासी विकल्प’ है। उदाहरण के लिए पहले बरस का कार्यक्रम पूरा करने के बाद छात्र पढ़ाई छोड़ना चाहता है, तो उसे बीए का ’सर्टिफिकेट’ मिलेगा। जो लगातार दो साल का कार्यक्रम पूरा करेगा उसे ’बीए का डिप्लोमा’ मिलेगा। जो तीन बरस तक पढत्रेगा उसे ’बी0ए की डिग्री’ मिलेगी। लेकिन जो चार बरस का कोर्स करेगा वह ’बीए मेजर’ कहलाएगा। चौथे बरस में वह रिसर्च भी करेगा और शिल्प भी सीखेंगा।
उन छात्रों, जो अनेक कारणों से अपने बीए की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते, को एक बरस, दो बरस, तीन बरस के बाद फिर से अपनी बची पढाई पूरी करने की आजादी होगी, जो अभी मुश्किल से मिलती है। कहने की जरूरत नहीं कि ठीक इसी प्रकार का चार वर्षीय बहुअनुशासनिक कार्यक्रम आज से छह बरस पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में त के वीसी प्रो0 दिनेश सिंह ने शुरू किया था, जिसका इसी सरकार ने और दिल्ली विश्वविद्यालय के वामपंथी शिक्षक संगठनों ने घोर विरोध किया था और दोनों ने मिलकर उसे पलटवाया था लेकिन अब जब उसी कार्यक्रम को नई शिक्षा नीति का नाम देकर सरकार लाई है, तो वामपंथी शिक्षक संगठन एकदम खामोश हैं। लेकिन अब हमें भी कोई शिकायत नहीं क्योंकि देर आयद दुरूस्त आयद’ और सरकार ’जब जागे तभी सवेरा।’
बहरहाल, शिक्षा नीति हमारी शिक्षा को विश्वस्तरीय बनाती है। अब अपने चार वर्षीय स्नतक छात्रों को विदेशों में पढ़ने के लिए एक वर्ष का अतिरिक्त कोर्स नहीं करना पड़ेगा। इस शिक्षा नीति के साथ सरकार ने विश्व के टॉप बीस विश्वविद्यालयों को भारत में आकर अपने कैम्पस खोलने का निमंत्रण दिया है ताकि हमारे विश्वविद्यालय भी उनके बरक्स स्पर्धात्मक हो सकें। प्रसंगवश बता दें कि अब तक येल, कैम्ब्रिज, एमआईटी, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालयों ने यहां आने में अपनी दिलचस्पी दिखाई है। इस नीति के तहत एम.फिल. की डिग्री को खत्म कर दिया गया है। इसलिए अब स्नातक पास छात्र स्नातकोत्तर तक सीधे जा सकता है, और पीएचडी भी कर सकता है। लेकिन यह पीएचडी उस तरह की नहीं होनी है, जिस तरह की होती आई है। अब पी.एच.डी. भी ’बहुअनुशासनिक’ और ’अंतर अनुशासनिक’ तरीके से होनी होगी। पीएचडी के क्वालिटी कंट्रोल व सपोर्ट के लिए इस नीति के तहत एक ’नेशनल रिसर्च फाउंडेशन’ भी बनाया जाना है।
शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसे आप दुनिया बदलने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। देश में बड़ा बदलाव करना हो, तो सबसे पहले शिक्षा नीति को बदला जाता है। एक वर्ष पहले 29 जुलाई, 2020 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी थी। किसी भी शिक्षा नीति को चाहिए कि उसमें न केवल देश के संवैधानिक मूल्य शामिल रहें, बल्कि वह जागरूक और आधुनिक पीढ़ी तैयार करने के साथ ही सामाजिक कुरीतियों को भी दूर करें।
बीते बाहर महीनों में नई शिक्षा नीति के हिसाब से ’’कई परिवर्तनों की आधारशिला रखी गई है। पिछले एक वर्ष में शिक्षकों और नीतिकारेां ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को धरातल पर उतारने में बहुत मेहनत की हैं कोरोना के इस काल में भी लाखों नागरिकों, शिक्षकों, राज्यों, ऑटोनॉमस बॉडीज से सुझाव लेकर टास्क फोर्स बनाकर नई शिक्षा नीति को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा रहा है।’’3 15 अगस्त को हम आजादी के 75वें साल में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरह से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का कार्यान्वयन, आजादी के अमृत महोत्सव का प्रमुख हिस्सा है। 29 जुलाई 2021 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की पहली वर्षगांठ के अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिन योजनाओं की शुरूआत की है, वे नये भारत के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगी। भारत के जिस सुनहरे भविष्य के संकल्प के साथ हम आजादी का अमृत महोत्सव मनाने जा रहे हैं, उस भविष्य की ओर हमें आज की नई पीढ़ी ही ले जाएगी।
माना जा रहा है कि इस निवेश से सांस्कृतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक ओर आर्थिक तौर पर नई दिशा मिलेगी। इक्कीसवीं शताब्दी को ध्यान में रखते हुए भारत में विश्वविद्यालय की गुणवत्ता को वैश्विक स्तर पर ले जाना होगा तभी शिक्षा ज्ञान निर्माण और नवोन्मेष के तहत भारत की आर्थिक वृद्धि में सहायक हो सकती है। यह तभी संभव है जब भारत के महाविद्यालय और विश्वविद्यालय अंतराष्ट्रीय मानकों पर खरे उतरें। इसी कारण राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (एनएसी) और नेशनल इंस्टियूशनल रैकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) विश्ववि़द्यालयों और महाविद्यालयों का प्रत्यायन किया जा रहा है। भारत में लगभग 800 विश्वविद्यालय और 39000 महाविद्यालय है, जिनमें से लगभग 16000 महावि़द्यालय सिर्फ एक ही प्रोग्राम चला रहे हैं। मात्र 8000 महाविद्यालय ऐसे हैं, जिनमें लगभग 3000 से अधिक छात्र पंजीकृत हैं। यह व्यवस्था इक्कीसवी शताब्दी की शैक्षिक आवश्यकताओं से कोसों दूर है। बदलते परिवेश, जहां संचार व्यवस्था असीमित समाज का निर्माण कर रही है, में उच्च शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाना जरूरी है ताकि शिक्षा के सार्वजनीकरण का मार्ग प्रशस्त हो सके। यह देखते हुए नई शिक्षा नीति में ’’अनेक बदलाव किए गए हैं जैसे कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में बढ़ावा देना, निजी विश्वविद्यालयों को सरकारी विश्वविद्यालयों के समक्ष स्थापित करना, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और ऑल इण्डिया टैक्निकल एजुकेशन (एआईटीसीई) को विघटित करना, चार साल का मल्टी डिसिप्लिनरी अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम, मल्टीपल एग्जिट और एंट्री तथा एम0फिल प्रोग्राम को बंद करना। ये बातें सुनने में अच्छी लग सकती हैं पर क्रियान्वयन कठिन है क्योंकि राज्यों के विश्वविद्यालय तैयार नहीं है।’’4
लॉकडाउन के समय में बच्चों की जान के जोखिम को देखते हुए भारत सरकर ने ’’जान है तो जहान है को’ तरजीह देते हुए सभी शैक्षणिक संस्ािान बंद कर दिए। यह निर्णय निश्चित ही मुझे स्वागतयाग्य लगा क्योकि बच्चों के, युवाओं के भविष्य और करियर से पहले निश्चित तौर पर उनकी सुरक्षा को देखा जाना चाहिए। इस पर भी, ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से स्कूूली और उच्च शिक्षा जारी रही। हालांकि इस पर भी कई तरह के मत सामने आए पर आपदा काल में हम अपनी शिक्षा व्यवस्था संभाल पाए, यह बड़ी उपलब्धि है।’’5
वर्ष 2019 से 2021 की जुलाई तक आते-आते देश को तीसरे शिक्षा मंत्री मिले हैं। दो पूर्व वरिष्ठ मंत्री, जिनके कार्य काल में नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट बना और जिनके सन्निध्य में घोषणा हुई, अब मंत्रिमंडल के सदस्य नहीं है। कोरोना की दस्तक के बीच शिक्षा अधिकार कानून – 2009 को लागू करने के लिए आज तक जरूरी संसाधन उपलब्ध नहीं हो सके। नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन का रोडमैप अभी सार्वजनिक नहीं हुआ है।
चीन में कहावत हैं, ’’अगर मेहनत का परिणाम बीस दिन में चाहिए तो घास लगाइए, पांच साल में चाहिए तो पेड़ लगाइए, और परिणाम बीस साल में चाहिए तो बच्चों को पढ़ाए।’ लेकिन जल्दी से कुछ बदल देने का अधैर्य हमें भटका सकता है।’’6 मंत्रालय का नाम बदलना शिक्षा की उम्मीद लगाए गरीब बच्चों के लिए कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। सितम्बर, 1985 में शिक्षा मंत्रालय का नाम बदल कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय किया गया था और फिर 2020 में इस मंत्रालय काउ नाम शिक्षा मंत्रालय हो गया।
शिक्षा नीति लागू करने के लिए ’’पर्याप्त बजट का प्रावधान आवश्यक है। देखा गया है कि सरकार प्रत्येक वर्ष शिक्षा के बजट में कटौती कर रही है। भारत अपनी जीडीपी का लगीाग 03 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता आया है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में बजट में 93223 हजार करोड़ एवं 2020-21 में 95000 करोड़ रूपया आवंटित किया गया था। इस तरह से शिक्षा के बजट को देखें तो इसमें पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 06 प्रतिशत कटौती की गई है। जब इस तरह से निरंतर कटौती की जाएगी तो शिक्षा का विकास कैसे संभव हो पाएगा? यह विमर्श का विषय है।’’7 दुनिया के विकसित देश अपनी जीडीपी का खासा प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं। अपनी कुल जीडीपी का अमेरिका 5.5, क्यूबा 12, रूस 3.7, चीन 4, इंग्लैण्ड 06, फ्रांस 5.4, जापान 3.6, चीन, कनाडा 5.5 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं। इसलिए यूरोप एवं एशिया के कई देशांे में शिक्षा के बजट में निरंतर इजाफा देखा गया है।
इनमेें एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट (एबीसी) का शुभारंभ बहुत आशाजनक लग रहा है, और ’’इसमें भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली का अंतराष्ट्रीयकरण करने की क्षमता है। कनाडा, यूके और कोरिया जैसे कई देशों में क्रेडिट का एकेडमिक बैंक पहले से ही काम कर रहा है। एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट का विचार पहली बार 2019 में यूजीसी द्वारा रखा गया और बाद में हितधारकों के बीच चर्चा के बाद इसे एनईपी-2020 में अपनाया गया था।’’8
एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट के माध्यम से समझना आवश्यक है कि क्या यह नई अवधारणा भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था में मील का पत्थर साबित होगी। क्या इससे उच्च शिक्षा को नई दिशा मिलेगी? क्या भारतीय शिक्षा को अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मापा जा सकेगा? क्या विद्यार्थियों को इससे मोबिलिटी और ट्रांसफर प्रोसेस में आसानी होगी? क्या वे अकादमिक वर्षीय सेमेस्टर को बर्बाद किए बगैर उच्च शिक्षा को जारी रख सकेंगे? क्या उच्च शिक्षण संस्थानों को इसके माध्यम से बेहतर तरीके से जोड़ा जा सकेगा? क्या भारतीय विश्वविद्यालय व्यवस्था में डिग्री देने की प्रक्रिया में वाकई परिवर्तन होगा? शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की पहल पर इसमें समय के साथ और स्पष्टता आएगी। फिलहाल, समारात्मकता के साथ उच्च शिक्षा के हितधारकों से उम्मीद है कि वो समझने का प्रयास करेंगे कि एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट वाकई बदलावकारी कदम है, या नहीं।
समलोचक और विश्लेषकों को इसके पक्ष-विपक्ष में और अधिक विवरण देखने की आवश्यकता है, हालांकि, एबीसी को भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में गेमचेंजर के रूप में देखा जा रहा है, जो भारतीय शिक्षा में गुणवत्ता, पहुंच, सामर्थ्य और इक्विटी को बढ़ाएगा जिन मामलें में भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था पहले से ही विकसित और कई विकासशील समाजों की तुलना में अभी भी पीछे हैं।
29 जुलाई को 2021 से देश में लागू शिक्षा नीति को एक साल पूरा हो गया है, और इस दौरान कोरोना महामारी का प्रकोप भी जारी रहा। महामारी ने जीवन के प्रत्येक हिस्से को प्रभावित किया। शिक्षा क्षेत्र में इससे अछूता नहीं रहा। इस क्षेत्र में शिक्षण-प्रशिक्षण का स्वरूप ही बदल गया। स्कूल-कॉलिज और शिक्षण संस्थानों में से ज्यादातर आज भी कायदें से खुल नहीं सके हैं। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षण की अवधारणा बड़ा संबल बनी। शिक्षा नीति में इस अवधारणा को लेकर पहले से हम संकल्पबद्ध है। महामारी ने बता दिया है कि ऑनलाइन बेशक, आने वाले समय में शिक्षण-प्रशिक्षण का माध्यम हो सकती है, लेकिन इसके लिए जरूरी आधारभूत ढांचा कम पड़ सकता है। अतः शिक्षा के बजट में इजाफा करना होगा।

सन्दर्भ:-
1. सुधीश पचौरी, शिक्षाविद्, कागजों पर तो यह नीति ’क्रांन्तिकारी’, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
2. उपेन्द्र राय, मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एडिटर इन चीफ, सहारा न्यूज नेटवर्क, पूरी तरह धरातल पर उतरी, तो करेगा देश नये युग से साक्षात्कार, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
3. प्रो0 संजय द्विवेदी, महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली, बदलाव की बुनियाद, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
4. प्रो0 सुबोध मेहता, दिल्ली विश्वविद्यालय, राज्यों से भी लेते सुझाव, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
5. डॉ0 अंशु जोशी, असि0 प्रोफेसर जेएनयू, आत्मनिर्भर भारत और लक्ष्य, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
6. डॉ0 संजीव राय लेखक एवं शिक्षाविद्, विशेष मुकाम हासिल करने की उम्मीद नहीं जगा पाई नीति, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
7. डॉ0 सत्येन्द्र कुमार, असि0 प्रोफेसर, करेाड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, बदलाव आएगा, बजट तो बढ़ाएं, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021
8. डॉ0 रवि रंजन, असि0 प्रोफेसर, जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, एबीसी देगा नई उड़ान?, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 07 अगस्त 2021

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