ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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भारतीय विदेश नीति पर गाँधी विचार दर्शन का प्रभाव

डॉ0 विजय पाल
एसो0 प्रोफेसर- राजनीति विज्ञान
वी0एस0एस0डी0 कालेज, कानपुर।

डॉ0 इन्द्रमणि
एसो0 प्रोफेसर- राजनीति विज्ञान
वी0एस0एस0डी0 कालेज, कानपुर।

किसी भी देश की विदेशनीति का केन्द्रीय उद्देश्य उसका राष्ट्रीय हित होता है पर साथ-ही-साथ विश्व-शान्ति भी सभी का प्राथमिक अभीष्ट है। भारतीय विदेशनीति विश्व शान्ति एवं विश्व-बन्धुत्व जैसे मूल्यों को आगे रखकर ही अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संचालन किया। भारत एक ऐसा देश है जो अपने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया। यहाँ की सुन्दरता यहाँ की समन्वयवादी नीति रही है। प्राचीन भारत से लेकर आज तक हमने शायद ही आक्रामकता में विश्वास किया है। शान्ति एवं सौम्यता के हम पर्याय हैं। सर्वे भवन्ति सुखिनः, विश्व बन्धुत्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम् वाली सर्वोदयी दृष्टि भी भारत की अनोखी वैचारिक विधा है। बुद्ध एवं महावीर जैसे शान्ति के नायकों की जन्म स्थली एवं कर्मस्थली भारत ही रहा है। इसी देश में गाँधी एवं विनोबा जैसे महात्मा भी पैदा हुए जो अपने अहिंसा के वार से अंग्रेजों को तार-तार कर दिया। यहां पर हम स्वतंत्र भारत की विदेश नीति पर गाँधी के प्रभाव की चर्चा कर रहे हैं।
भारत के विदेश नीति के निर्धारण का दायित्व भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर था जो स्वयं गाँधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी थे। गाँधी जी ने जिस आदर्शवाद की नींव भारत में डाली उसका मुख्य सिद्धान्त था अहिंसा। यद्यपि अहिंसा का सिद्धान्त गाँधी जी की मौलिक देन नहीं थी परन्तु फिर भी पुरानी धरोहर को नये सन्दर्भ में पुनः स्थापित करना गाँधी जी द्वारा एक साहसिक कदम था जिसे व्यवहार के क्षेत्र में प्रतिस्थापित करने का पूरा श्रेय नेहरू को जाता है। अगर नेहरू के रूप में गाँधी को एक सुयोग्य शिष्य या उत्तराधिकारी न मिलता, तो भारत की दिशा आज कुछ और ही होती।
नेहरू जी ने गाँधी के विचारों पर आधारित विश्व-शान्ति की एक योजना को जन्म दिया। गाँधी जी के अभय व्रत से प्रभावित होकर 3 नवम्बर 1947 को नेहरू जी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली में भाषण देते हुए कहा था- ‘‘मेरे मन में कोई सन्देह नहीं है कि असेम्बली हमारी समस्याओं का निदान करेगी, मै भविष्य के विषय में चिन्तित नहीं हूँ, मेरे मस्तिष्क में कोई भी नहीं है, इस बात का भी कोई भय नहीं है कि सैन्य शक्ति की दृष्टि से भारत का कोई महत्व नहीं है। मैं महान बड़ी शक्तियों से भयभीत नहीं हूँ। उनकी सेनाओं उनके जहाजी बेड़े और उनके एटम बम से मुझे जरा भी डर नहीं लगता।’’1 नेहरू के पास यह निर्भयता कहाँ आयी। निश्चित रूप से नेहरू ने राजनैतिक निर्भयता का जो उदाहरण प्रस्तुत किया उसके पीछे उनकी नैतिकता का वह बल था जो उन्हें गाँधी से विरासत में मिला था।
सोवियत संघ से मुद्रति एवं प्रकाशित पुस्तक ‘‘JAWAHARLAL NEHRU AND HIS POLITICAL VIEWS’’ में उल्लेख है कि अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में नेहरू ने अहिंसा एवं शान्ति जैसे गाँधीवादी सिद्धान्तों को जगह दी है।2
महात्मा गाँधी की शान्ति और अहिंसा पर आधारित गांधीवादी विचारधारा से भारतीय विदेशनीति प्रभावित है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों में विदेशनीति के निर्धारण में गांधी विचार का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। हडसन के शब्दों मेें ‘‘गाँधी के शान्तिवाद ने देश को यह भरोसा दिलाया कि विश्व में शान्ति समझौतों से ही स्थापित हो सकती है, न कि रक्षात्मक संगठन बनाने से। भारत का यह कर्तव्य है कि वह विरोधी पक्षों से अलग रहे और उनमें मध्यस्थ का कार्य करे।’’3
साधनों की शुद्धता- गाँधी जी के इस सिद्धान्त से प्रभावित होकर भारतीय विदेश नीति झगड़ों को निपटाने के लिये शान्तिपूर्ण साधनों में अपना पूर्ण विश्वास प्रकट करती है। 29 नवम्बर 1955 में रूसी नेताओं बुल्गेनिन तथा ख्रुशचेव के साथ एक प्रीति भोज बैठक में श्री नेहरू ने कहा था, ‘‘हम केवल इस बात में विश्वास नहीं करते कि जिन उद्देश्यों को प्राप्त करना है वे शुद्ध हों किन्तु उनके लिए प्रयोग में लाए गए साधन भी शुद्ध हों अन्यथा नवीन समस्याओं की उत्पत्ति होती है तथा उद्देश्य अपने आपमें में बदल जाता है।’’4
भारत की विदेशनीति महात्मा गाँधी के इस नीति से प्रभावित रही है कि न केवल उद्देश्य बल्कि उसकी प्राप्ति के साधन भी पवित्र होने चाहिए। भारतीय संविधान में वर्णित नीति निदेशक सिद्धान्तों में कहा गया है कि ‘‘राज्य (1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा अभिवृद्धि का (2) राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने का (3) संगठित लोगों के एक दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बन्धनों के प्रति आदर बढ़ाने का (4) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिये प्रोत्साहन देने इत्यादि का प्रयत्न करेगा।’’5
नस्लवादी भेदभाव का विरोध- भारत अपने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान भी नस्लवाद भेदभाव का विरोध करता रहा। भारत दक्षिण अफ्रीका की प्रजाति विभेद का घोर विरोधी रहा है। स्वयं गाँधी जी को कई बार नस्लवाद भेदभाव का सामना करना पड़ा। महात्मा गाँधी ने नस्लगत भेदभाव को लेकर हमेशा प्रश्न उठाते रहे। उनका मानना था कि गोरे और काले सभी भगवान की सन्ताने हैं। सभी एक है और सभी समान हैं। गाँधी जी के इस विचार को भारत ने अपने विदेश नीति में स्थान दिया है।
पंचशील- गाँधी जी के साधनों की पवित्रता एवं सर्वोदयी विचार से परम् प्रभावित होकर नेहरू जी 1954 में पंचशील सिद्धान्तों की रचना की। जिसे उत्तरोत्तर कई देशो ने अपनी विदेश नीति का अंग बनाया। पंचशील दूसरे राष्ट्रो के साथ शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का सिद्धान्त है जो कि सर्वोदय का वास्तविक निहितार्थ है। इस सिद्धान्त को भारत शान्ति, सामाजस्य, मित्रता तथा सहयोग के लिये तथा शस्त्र दौड़ तथा शान्ति के साधन के रूप में युद्ध की तैयारी जैसे नकारात्मक साधनों के विरूद्ध एक सकारात्मक साधन मानता है।
पंचशील सिद्धान्त का अर्थ है, व्यवहार या आचरण के पांच नियम। भारतीय विदेश नीति के सिद्धान्त के रूप में इसका अर्थ है- वे पांच सिद्धान्त जो राष्ट्रों के बीच सम्बन्धों की स्थापना को लाभदायक रूप से निर्देशित कर सकते हैं।
पंचशील के पांच सिद्धान्त इस प्रकार हैं-6
1. एक दूसरे की भू-क्षेत्रीय अखण्डता तथा प्रभुता का पारस्परिक सम्मान। 2. अनाक्रमण।
3. एक दूसरे के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करना। 4. परस्पर लाभ तथा समानता।
5. शान्ति पूर्ण सह-अस्तित्व।
यदि गाँधी जी के सर्वोदयी विचारों का गहन अध्ययन किया जाये तो सभी के उत्थान वाला यह सिद्धान्त निश्चित रूप से पंचशील का सूत्रधार जान पड़ता है। पं0 नेहरू के शब्दो में ‘‘यदि इन पांच सिद्धान्तों को सभी देश मान्यता दे दें तो आधुनिक विश्व की अनेक समस्याओं का निदान मिल जायेगा।’’ पंचशील सिद्धान्त की प्रशंसा करते हुए श्री परदेशी ने कहा है कि, ‘‘इस पंचसूत्रीय सिद्धान्त ने शीत युद्ध के कुहरे को हटा दिया और विश्व की जनता ने शान्ति की संास ली। इस प्रकार पंचशील जो भारतीय इतिहास और संस्कृति की अपूर्व देन है विश्व के वर्तमान और भावी की आधारशिला बन गई।’’7
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय विदेश नीति में भारतीय संस्कृतियों की स्पष्ट झलक है और उसमें भी गांधी जी के कालजयी विचारों की स्पष्ट छाप नेहरू के विदेश नीति पर दिखती है जो अद्यतन अनवरत रूप से चल रही है।
सन्दर्भग्रन्थ सूची
1. डॉ0 जोशी, एम0सी0, ‘‘गांधी, नेहरू, टैगोर और अम्बेडकर’’ अभिव्यक्ति प्रकाशन इलाहाबाद पृ0 72
2. मतीर्शन O.B., Jawaharlal Nehru and Political Views उपाध्याय द्वारा अनुवादित, सोवियत संघ से मुद्रित एवं प्रकाशित, हिन्दी अनु0 प्रगति प्रकाशन पृ0 399
3. सिंहल, डॉ0 एस0सी0, ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’’ पृ0 288
4. घई, यूस0आर0, ‘‘भारतीय विदेश नीति न्यू एकेडेमिक’’ पब्लिशिंग कम्पनी जालन्धर पृ0 56
5. सिंहल, डॉ0 एस0सी0, ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’’ पृ0 288
6. घई, यूस0आर0, ‘‘भारतीय विदेश नीति न्यू एकेडेमिक’’ पब्लिशिंग कम्पनी जालन्धर पृ0 56
7. सिंहल, डॉ0 एस0सी0, ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’’ पृ0 288

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