ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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महिला जनप्रतिनिधियों के अधिकारों एवं दायित्वों की भूमिका में बाधाओं का विश्लेषण

डॉं0 डी0 आर0 यादव
एसो0 प्रो0 एवं अध्यक्ष
राजनीति विज्ञान विभाग
जी0वी0 (पी0जी0) कालेज
रिसिया, बहराइच

भारत गॉंवों का देश है । गॉंवों की उन्नति और प्रगति पर ही भारत की उन्नति और प्रगति निर्भर करती है। गॉधी जी ने ठीक ही कहा था ”यदि गॉव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट हो जायेगा। वह भारत नहीं होगा उसका सन्देश समाप्त हो जायेगा।
इसलिए स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माताओं ने पंचायत के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करते हुए संविधान के भाग 4 के अनु0 40 के अन्तर्गत स्वीकार किया और उसकी स्थापना हेतु राज्य को निर्देशित किया है। संविधान के अन्तर्गत केवल पंचायती राज व्यवस्था को अपनाने पर ही जोर नहीं दिया वरन् महिलाओं और पुरुषों की समान सहभागिता हो सके। में रखते हुए उसमें कई उपबन्ध भी किये, तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद पंचायतीराज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका बहुत कमजोर रही। जहॉं तक राजनीतिक संरचना का प्रश्न है, महिलाएं आज विश्व मतदाताओं का हिस्सा बन चुकी हैं। लेकिन इनमें से सिर्फ 18 प्रतिशत ही सांसद है। पंचायतों में उनकी भूमिका को बढाने के उद्वेश्य से सन् 1992 में एक महत्वपूर्ण 73 वॉं संविधान संशोधन लाया गया जिसका लक्ष्य महिलाओं को पंचायतो में एक तिहाई आरक्षण प्रदान करना था। पंचायतो में महिलाओं के सन्दर्भ में एक सकारात्मक बदलाव दिखायी पड़ता प्रतीत होता है।
लेकिन यह कहना पूरी तरह वाजिब नहीं होगा कि पंचायतीराज व्यवस्था के तरह सत्ता के विकेन्द्रीकरण से गॉंवो की तस्वीर एकदम बदल गयी है। वास्तव में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एंव महिलाओं को अपने एक नये सुनहरे भविष्य की मंजिल को हासिल करने की राह में तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करना पड रहा है। समाज में सामंती एवं पितृसत्तामक सांेच के प्रभावशाली लोग जबरन और धोखे से हासिल अपने वर्चस्व को आसानी से छोडने के लिए तैयार नहीं है। चुनाव लड रहे कमजोर तबको (अनु0 जाति, अनु0 जनजाति एवं महिलाओं) के लोगों को कई बार विकृत सोंच वाली शक्तियों के टकराव, हेराफेरी, शारीरिक हिंसा और उपहास का सामना करना पडता है। महिलाओं के सन्दर्भ में ये समस्याएं दो गुनी प्रतीत होती हैं, क्योकि उनको उपरोक्त समस्या के अतिरिक्त लैंगिग समस्याओं से जूझना पडता है।
पंचायती राज व्यवस्था में 73 वें संविधान संशोधन के पश्चात् पंचायत के तीनों स्तरों पर महिलाओं की भूमिका में बदलाव को आसानी से देखा जा सकता है। कई वर्षों के इस सफर में महिलाओं ने देश व प्रदेश स्तर पर पंचायतों में अपनी भूमिका को लेकर एक महत्वपूर्ण स्थान स्थापित किया है।
73 वें संविधान संशोधन के पश्चात् महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए उनके एक-तिहाई स्थानों को आरक्षित किया गया। 14 राज्यों के शहरी निकायों एवं लगभग 17 राज्यों के पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत तक स्थानों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
आज महिलाएं पंचायतों के विविध स्तरों पर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहीं हैं लेकिन उनकी महत्वपूर्ण भूमिका में अनेक ऐसी चुनौतियां बाधा बनी हुई हैं जो कहीं न कहीं उन्हें स्वतंत्र एवं सषक्त तरीके से कार्य नहीं करने दे रही हैं। वर्तमान समय में भी महिला जनप्रतिनिधियों के समक्ष अनेक पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, तकनीकी, राजनीतिक चुनौतियां एवं समस्याएं हैं जो पंचायतीराज संस्थानों के अन्दर सही मायनों में उनकी भूमिका में बाधा बनी हुई हैं।
आजादी के इतने वर्ष बाद आज भी महिलाओं के प्रति पुरुषों के दृष्टिकोण में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। अधिकांश पुरुष वर्ग नहीं चाहता कि महिलाएं घर से बाहर निकलें। जैसा कि हिन्दू शास्त्रों में (मनुस्मृति) में लिखा है कि धर्मानुसार स्त्री को बाल्यावस्था में पिता के संरक्षण में, युवावस्था में पति के संरक्षण में, और वृद्धावस्था में पुत्रों के अधीन रहना चाहिए।
परम्परागत् परिवारों में नारी को जन्म लेते ही सिखा दिया जाता है कि तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है,तुम्हारा आदर्श अपने आपको पति को समर्पित करना है। परिणामस्वरुप नारी को हांड-मांस के पुतले के अलावा कुछ भी नहीं समझा जाता है यही कारण है कि नारी अपना सम्मान खो बैठती है। आत्मसम्मान की कमी के कारण उसकी सीखने की प्रक्रिया शिथिल हो जाती है। पर्दाप्रथा आज भी होना एक चुनौतियों से कम नहीं है। पंचायत गतिविधियों के लिए जब उन्हें घर से बाहर निकलना पडता है तो उनके सामने चारों ओर पुरुष अधिकारी और कर्मचारी ही नजर आते हैं। ऐसे परिवेश में वे खुलकर अपनी बात पुरुष अधिकारी और कर्मचारी से नहीं कर पाती। अगर कार्यालय में महिला अधिकारी एवं कर्मचारी हों तो महिला प्रतिनिधियों की इस परेशानी को समझा जा सकता है।
आज भी उनके सामने अनेक सामाजिक बाधाएं है। स्वतं़त्रता के इतने वर्शो बाद भी वह न्यायपूर्ण तरीके से प्राप्त नहीं हुआ हैं और उनकी भूमिका के निर्वाह में समस्या बनी हुई है। इसी सामाजिक व्यवस्था के बारे में डॉं0 अम्बेडकर ने कहा था कि सामाजिक व्यवस्था संस्कृति के द्धारा समाज के सदस्यों की भावनाओं को नियमित करती है और संस्कृति की जडें इतनी गहरी होती हैं कि उनको हटाना व्यवस्था के आधार में परिवर्तन के बिना सम्भव नहीे है। जाति व वर्णों में बटे समाज के अन्दर निम्न जातियों की स्थिति तो और भी दयनीय है। कमजोर वर्ग एवं गरीब परिवार की महिलाओं के बारे में तो “गरीब की जोरु सबकी भाभी है” वाली कहावत चरितार्थ होती है। पंचायत प्रतिनिधियों के विभिन्न प्रशिक्षण शिविरों में महिला प्रतिनिधि पुरुष प्रधान मानसिकता का शिकार नजर आयी है। इस प्रकार अनेक उदाहरण सामने आये है। पंचायत में चुनकर आयी आरक्षित वर्ग की महिलाओं (अनु0जाति, अनु0 जनजातिं एवं अन्य पिछडा वर्ग) के साथ 21वी सदी में भेदभाव किया जाता है। सामान्य वर्ग के लोगों द्धारा पंचायत गतिविधियों में कोई भी सहयोग प्रदान करने हेतु पंचायत बैठकों में शामिल हेतु, उनके साथ समस्याओं के निदान हेतु आदि सम्बंधी गतिविधियों में सहयोग प्रदान नहीं किया जाता है। यही हाल प्रशासनिक मशीनरी में भी है। क्योंिक वहॉं पर भी सामान्य वर्ग के लोग अधिक है। इतने वर्ष की राजनीतिक सक्रियता के बावजूद अश्पृश्यता का कलंक अभी पूर्णरुपेण हटा नहीं है।
पंचायतों में चुनकर आयी महिलाओं में साक्षरता भी एक बडी चुनौती है- संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त के अनु0 45 के अनुसार राज्य को स्वतंत्रता प्राप्ति के 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष के उम्र के बच्चों की निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध किया गया है तथा 86वॉं संविधान संशोधन 2002 के द्वारा मूलभूत कर्तब्यों के अन्तर्गत एक प्रमुख कर्तब्य यह जोडा गया कि यदि माता-पिता या संरक्षक हैं तो 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु वाले अपनी यथा स्थिति बालक या प्रतिपल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करेंगे। इसका वास्तविकता से अभी तक सम्पर्क नहीं हो सका है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर मात्र 65.46 प्रतिशत महिलाएं साक्षर है। महिला साक्षरता दर में राष्ट्रीय स्तर से पिछडें बिहार 51.50ः, उत्तर प्रदेश 59.26ः, मध्यप्रदेश 60.02ः, राजस्थान 52.66ः, आन्ध्रप्रदेश 59.64ः, की साक्षरता दर है। देश की लगभग आधी से ज्यादा निरक्षर महिलाओं की जनसंख्या बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, आन्ध्रप्रदेश राज्यों में है। पंचायत के लाखों प्रतिनिधियों के निर्वाचन के लिए कोई शैक्षिक योग्यता आवश्यक नहीं है। इस कारण पंचायत के प्रतिनिधियों द्वारा योजना सम्बन्धी सरकारी नीतियों की बारीकियों को समझ पाना मुश्किल होता है। खासकर अनु0जातिं, अनु0 जनजातिं एवं महिलाएं जो ग्रामीण परिवेश से सम्बन्धित है, की शैक्षिक स्थिति अत्यन्त खराब है। पंचायत की सभाओं में लिए गये प्रस्ताव को भी वे सूक्ष्मता से समझ सकते। इसका परिणाम यह होता है कि पंचायत संस्थाओं के अधिकारी गॉंव के कुछ शिक्षित तथा प्रभावशाली लोगांे के साथ मिलकर पंचायतों पर अपनी पकड बनाये रखते है। कमजोर तबको के प्रतिनिधि अपने अनुभवों की बदौलत गॉंवों की समस्याओं और जरुरतों को अच्छी तरह समझते हैं, लेकिन शिक्षित न होेने के कारण उन्हंे कार्यक्रम न बनाने और लागू करने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। अक्सर वे दस्तावेजों को पढे बिना ही उनपर हस्ताक्षर कर देते है। कई बार सादे चेक पर भी हस्ताक्षर कर देते हैं।
पंचायत प्रतिनिधियों खासकर महिलाओं के सामने सामाजिक चुनौतियों के अलावा आर्थिक चुनौतियां भी कम गम्भीर नहीं हैं। सरदार बल्लभभाई पटेल ने 1935 में एक स्थायी निकाय सम्मेलन में कहा था कि विना वित्त के पंचायतों को विभिन्न कर्तव्य व अधिकार मरी औरत के श्रृगांर करने के समान है। पंचायतों के पास अपने वित्तीय साधन जुटाने, कर व गैर कर के तरीके बहुत कम हैं। अगर कुछ शक्ति साधन जुटाने की है भी तो वे मात्र ग्राम पंचायत के पास है, जहॉं पर उनके पास पर्याप्त प्रशासनिक मशीनरी भी नहीं है जिसकी सहायता से वे वित्तीय साधन जुटा सके। दूसरी तरफ उपलब्ध आकडे बताते है कि कुल ग्रामीण जनसंख्या का 37.27 प्रतिशत भाग गरीबी रेखा से नीचे है। कुछ राज्यों जैसे- बिहार, उडीसा ,मध्यप्रदेश, में यह गरीबी और अधिक है। उत्तर प्रदेश में कृषिगत भूमि पुरुष पैतृक वंशज को ही प्राप्त होती थी, लेकिन जिसमें थोडा परिवर्तन जरुर किया गया है। विधवा लड़कियों को जमीन पुरुष उत्तराधिकार न होने पर ही प्राप्त होता हे। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा खात्मा अधिनियम की धारा 171 के अनुसार लड़की को पैतृक सम्पत्ति की हिस्सेदारी से रोकती है। भूस्वामी की मृत्यु के बाद भूमि लडकों को हस्तान्तरित होगी। विवाहित लड़की तभी भूमि हिस्सेदारी की पात्र है यदि उस भूमि के अन्य हिस्सेदार नहीं है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को खासकर अस्थायी क्षेत्रों में 25 प्रतिशत कम पारिश्रमिक प्राप्त होता है। लगभग दो-तिहाई खेतिहर श्रमिक महिलाएं गरीबी रेखा के नीचे रह रहीं हैं। हाल ही में सर्वाेच्च न्यायालय के एक निर्णय ने विवाहित या अविवाहित महिलाओं को अपनी पिता की सम्पत्ति में बरावर का हक पाने का अधिकार दिया है। इसके अलावा विधवा बहु अपने ससुर से गुजारा भत्ता व सम्पत्ति में हिस्सा पाने की हकदार है। हिन्दू मैरेज एक्ट 1955 के सेक्षन 27 के तहत पति और पत्नी की जितनी भी सम्पत्ति है, उसके बॅंटवारे की भी मॉंग कर सकती है। इसके अलावा पत्नी के अपने स्त्री धन पर भी पूरा अधिकार रहता है, लेकिन ग्रामीण महिलाओं में जानकारी के अभाव के कारण अभी भी इन कानूनों का कोई व्यवहारिक परिणाम नहीं मिल सका है।
राजनीति के क्षेत्र में 73 वें संविधान के पूर्व कुछ परम्परागत परिवार का वर्चस्व बना रहा। एकाएक आये इस बदलाव में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, एवं महिलाओं को राजनीतिक सत्ता से सरोकार स्थापित करने का अवसर प्रदान किया। पारम्परिक तौर पर समाज में महिलाओं और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों का दर्जा षासित का रहा। अॅंग्रेजों के जमाने से ही ताकतवर ऊॅंची जातियों के लोग उनपर राज्य करते रहे हैं। ऐसे में कमजोर तबकों एवं महिलाओं में प्रशासनिक दक्षता का अभाव होना स्वाभविक है। अधिकांश महिला प्रतिनिधियों को मालूम नहीं होता कि अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कैसे करें, लिहाजा महिला जनप्रतिनिधियों पंचायत के विभिन्न स्तरो में अपने फैसले स्वतन्त्र तरीके से नहीं कर पाते हैं। वे निर्णयो ंके लिए अन्य लोगो के राजनीति केी आसानी से शिकार बन जाती हैं। चुनाव जीत जाने के बावजूद कमजोर तबके के प्रतिनिधियों को अपने कामकाज के संचालन में अक्सर सरकारी कर्मचारियों के असहयोग का सामना करना पडता है। आम तौर पर अफसरशाही तबका के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त होती हैं और इन तबकांे के सदस्यों की उपेक्षा करती है। भारतीय राजनीति में ‘विद्यमान जातिवाद, गुटबन्दी, दलगत राजनीति एवं यौन असमानता जैसी समस्याओं ने पंचायती राज व्यवस्था को दूषित किया है।
पंचायत प्रतिनिधियों के समक्ष खासकर महिला, गरीब एवं कमजोर तबकों को उनके जिम्मेदारी के निर्वहन में अनेक तकनीकी समस्याएं भी हैं, जो ग्रामीण लोगों के विकास एवं उनकी भूमिका में बाधा उत्पन्न करती है।
महिला प्रतिनिधियों को पंचायत में 33 प्रतिशत आरक्षण तो प्रदान कर दिया है लेकिन पंचायतों को चुनकर आयी अधिकतर अनपढ और गरीब समाज के हैं। उनको घर से बाहर जाने का अनुभव नहीं के बराबर है। अशिक्षा के कारण अपने दायित्व एवं अधिकारों की जानकारी उन्हें नहीं होती जिसके कारण प्रशासनिक कर्मचारियों एवं अन्य लोगों के द्वारा अपने खर्चों के अनुरुप उनका उपयोग किया जाता है। महिला जनप्रतिनिधियों के लिए अधिकारी व कर्मचारी अलग से कुछ समय नहीं देते है। पंचायत के विभिन्न स्तरों में निर्वाचित अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं महिलाओं को पंचायतों के विकास हेतु आर्थिक रुप से केन्द्र तथा राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पडता है।
अतः ग्राम पंचायत की ओर विषेश ध्यान देने की आवश्यकता है। महिला पंचायत प्रतिनिधियों के समक्ष अपनी पंचायत एवं गॉंव के लोगों के प्रति भूमिकाओं के निर्वहन में उपरोक्त बाधाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य चुनौतियां भी हैं जो उनकी गतिविधियों को पूर्ण करने में समस्याएं उत्पन्न करती हैं। वास्तव में पंचायत प्रतिनिधियों के सामने अनेक चुनौतियां है। पंचायतों की कार्यात्मक स्वायत्तता का मामला अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योकि बिना यह जाने की पंचायतों के विभिन्न स्तरों के क्या- क्या कार्य हैं। वे कैसे कार्य कर पायेंगे और उनके प्रतिनिधि भी कैसे जिम्मेदारी निभा पायेंगे । दूसरी तरफ पंचायतों को कितने ही अधिकार व शक्तियां दे दी जायें, उनका कोई अर्थ नहीं, यदि उनको पूरा करने के लिए प्रर्याप्त वित्तीय साधन उनके पास न हो।
1- पंचायतों में करने वाले योग्य कर्मचारियों, प्रशासकों एवं विशेषज्ञों का अभाव, सही व विश्वसनीय तथ्यों की कमी।
2- पंचायतों में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों एवं पंचायती राज व्यवस्था से जुडे प्रशासनिक कर्मचारियों के बीच सामंजस्य की चुनौती।
3- पंचायत में निर्वाचित प्रतिनिधियों खासकार महिलाओं में सरकारों द्वारा चलाये जा रहे अनेकों विकासपरक् योजनाओं की क्रियान्वयन से सम्बधित ज्ञान की कमी।
4- पंचायतों में काम करने वाले कर्मचारियों में अपने प्रशासनिक दायित्वों के प्रति ढीलापन एवं उसकी उदासीनता।
5- प्रशासनिक कर्मचारियों की सरकारी योजना के क्रियान्वयन में अरुचि एवं उन योजना का पक्षपातपूर्ण ठंग से लागू करना।
6- लोगो के बीच संवाद की कमी होना, योजनापूर्ण करने में अर्थिक संसाधनों की कमी।
7- पंचायतों के विभिन्न स्तरों पर राजनीतिक दलों की सक्रियता ने पंचायतों को दलगत राजनीति के दुष्परिणाम का शिकार बना लेना एवं प्रशासनिक मशीनरी में जनतंत्र का अभाव।
8- पंचायतों के विभिन्न स्तरों में बढते भ्रश्टाचार तथा भाई भतीजा, परिवार, एवं राजनीतिक सगें सम्बन्धी का बोलबाला आदि। इन तमाम बाधाओं के होते हुए भी वर्तमान समय में खासकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिला प्रतिनिधियों के कर्तब्य एवं अधिकारों के निर्वहन काफी सुधार हो रहा है, इन बाधाओं में सरकार सचेत नागरिक बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आकर मदद करना चाहिए जिससे वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना हो सके एवं स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की व्यवहारिक स्थापना हो सके।

सन्दर्भग्रन्थ सूची
1. डॉं0 पुखराज जैन एवं डॉं0 वी0 एल0 फणिया, भारतीय शासन एवं राजनीतिक(राज्यों की राजनीति) साहित्य भवन आगरा, वर्ष 2006 पृश्ठ -633
2. योजना, मासिक पत्रिका, अक्टूवर 2018 पृष्ठ -43.
3. महिपाल पंचायतीराजः चुनौतियां एवं सम्भवनाएं, राष्ट्रपुस्तक न्यास, भारत, वर्ष 2014 पृष्ठ- 62.
4. कुरुक्षेत्र, मासिकपत्रिका, सितम्बर 2018 पृष्ठ- 58.
5. डॉं0 नादेकर, महाराष्ट्र में पंचायती राज प्रकाशन- सागर प्रकाशन पूणे, महाराष्ट्र, वर्ष 2000, पृष्ठ -139
6. महिपाल, पंचायतीराजः चुनौतियां एवं संभावनाएं, राष्ट्रपुस्तक न्यास, भारत, वर्ष 2014, पृष्ठ-128.
7. मासिकपत्रिका, योजना,अगस्त 2018, पृष्ठ-48.

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