ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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लाभ का पद

डॉ0 मोहित मलिक
असि. प्रो.
राजकीय पी0जी0 कॉलिज, खैर, अलीगढ

‘आम आदमी पार्टी’ (आप) के 20 विधायकों को संसदीय सचिव के लाभ के पद के कारण दिल्ली विधानसभा की अपनी सदस्यता गँवानी पड़ी। आज्ञाद भारत के इतिहास का यह पहला अवसर है जब लाभ के पद के कारण 20 विधायकों को 21 जनवरी, 2018 को विधानसभा के बर्खास्त किया गया। ‘‘लाभ के पद के आधार पर जया बच्चन को 2006 में राज्यसभा की सदस्यता खोनी पड़ी थी। सोनिया गांधी को भी यूपीए-1 के दौरान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की चेयरपर्सन होने के चलते लोकसभा की सीट से इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव लड़ना पड़ा था।’’1 इस विषय में संविधान लागू होने के बाद विवाद पैदा होते रहें है।
दूसरी ओर हमारे संविधान में लाभ के पद को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। हाँ लाभ के पद का उल्लेख जरूर है लेकिन लाभ का पद होता क्या है और इसके दायरे में कौन-कौन से पद हैं, इसे संविधान में नहीं बताया गया हे। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-102 (1) (ए) कहता है कि सांसद किसी भी ऐसे अन्य पदों पर नहीं हो सकते जहाँ उन्हें वेतन, भत्ते या अन्य दूसरी तरह के फायदे मिलते हों। इसी प्रकार, संविधान के अनुच्छेद-191 (1)(ए) के अनुसार राज्य विधानमण्डल के सदस्यों को भी लाभ के पद पर होने से प्रतिबंधित किया गया है। इसके अलावा, भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून-1952 की धारा 9 (ए) के तहत भी उम्मीदवारों को लाभ के पद पर न होने की बात कही गई है और सांसदों, विधायकों को लाभ के पद ग्रहण करने से बाधित किया गया है, लेकिन लाभ का पद होता क्या है, इसे नहीं बताया है। इस संदर्भ में सरकार को अनुशंसा देने हेतु 1954 में प्रथम लोकसभा अध्यक्ष जीवी मावलंकर द्वारा हिसार (हरियाणा) से सांसद ठाकुर दास भार्गव के नेतृत्व में भार्गव समिति का गठन किया गया और उस अनुशंसा के आधार पर पार्लियामेंट (प्रिवेंशन ऑफ डिसक्वालिफिकेशन एक्ट, 1959 में बना, लेकिन ‘‘इसमें भी ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ की कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं गढ़ी गई। हालाँकि, 1959 के एक्ट में कुछ हद तक लाभ के पद को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया लेकिन यह नाकाफी था, क्योंकि इसमें भी सिर्फ यही बताया गया कि कौन-सा पद लाभ के पद के दायरे में नहीं आता है।’’2 जिन पदों को इस कानून के तहत लाभ के पद से छूट दी गई थी ऐसे पदों में मुख्यतः नेता प्रतिपक्ष, मंत्रिगण, मुख्यसचेतक, योजना आयोग उपाध्यक्ष, महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष आदि शामिल थे। वर्ष 2006 में मनमोहन सिंह के शासनकाल में 56 पदों की नई श्रेणियों को छूट प्रदान की गई जिनमें प्रमुख थे दलित सेना, मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन, डॉक्टर अम्बेडकर फाउंडेशन, वक्फ बोर्ड, राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग। मन्दिर ट्रस्ट, अन्य अनेक आयोग और बोर्ड आदि। वर्ष 2013 में एससी और एसटी आयोगों को भी इसी प्रकार की छूट प्रदान की गई। इन उदाहरणों को देखने के बाद सिर्फ यही कहा जा सकता है कि जो भी पद लाभ के दायरे से बाहर किये गए हैं वे लाभ के पद हैं लेकिन ये लाभ के पद क्यों थे यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। हालाँकि, सर्वोच्च अदालत ने कई मौकों पर लाभ के पद को परिभाषित किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने लाभ के पद को निर्धारित करने के लिये कुछ मानक बनाए हैं, यथा-ऑफिस है या नहीं, प्रॉफिट हुआ है या नहीं तथा क्या सरकार ने नियुक्ति की है और क्या सरकार ही वेतन, भत्ते व मानदेय तथा अन्य सुविधाओं का भुगतान करती है? आदि। ‘अगाथा संगमा’ (मेघालय से सांसद) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि लाभ का आशय उस आर्थिक लाभ से है जो खर्च के लिये देय से इतर होता है और जिसकी प्राप्ति से कोई व्यक्ति इस लाभ को पहँुचाने वाली कार्यपालिका के प्रभाव में आ सकता है। शिबू सोरेन के मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि आर्थिक फायदा लाभ होता है इसलिये चाहे मानदेय हो या अन्य किसी भी प्रकार का भुगतान यह लाभ के पद के दायरे में आता है। वहीं जया बच्चन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वेतन और सुविधा न लेने की दलील को खारिज करते हुए कहा कि ‘‘इससे फर्क नहीं पडता कि लाभ के पद पर रहते हुए कोई सुविधा ली गई या नहीं, बल्कि फर्क इससे पड़ता है कि वह लाभ का पद है या नहीं। इस प्रकार सुप्रीम कोट के विभिन्न फैसलों के आलोक में यदि लाभ के पद को परिभाषित करें तो यही कहा जा सकता है कि मूलतः इसमें तीन तत्त्व हैं- पहला, यह कोई पद होना चाहिये; दूसरा, यह सरकार के मातहत होना चाहिये और तीसरा इससे धारक को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी प्रकार का कोई लाभ मिलता हो।’’3 उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति किसी पद पर है लेकिन वह सरकार से कोई भी वेतन-भत्ता या मानदेय नहीं लेता, सरकारी आवास, परिवहन साधन या सरकारी कर्मचारी का इस्तेमाल नहीं करता, फिर भी अगर उक्त पद पर रहते हुए उसे किसी की नियुक्ति का अधिकार है, बर्खास्तगी का अधिकार है या भूमि आवंटन आदि का अधिकार है तो वह भी लाभ के पद के दायरे में आएगा। किंतु यहाँ एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि कृषि ऋण माफ करना, हज-मानसरोवर यात्रा हेतु सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त होना या फिर दुर्घटना होने पर कोई सरकारी मदद मिलना आदि लाभ का पद नहीं माना जाएगा, क्योंकि एक तो इसमें कोई पद धारण नहीं होता है और दूसरी बात यह कि वह भुगतान आर्थिक नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति सरीखे होते हैं। अतः इस प्रकार की सरकारी मदद लाभ के दायरे में नहीं आती है।
शिबू सोरेन के मामले में दिये अपने निर्णय में न्यायालय ने संवैधानिक उपबंधो 102 (1)(ए) तथा 191 (1)(ए) की व्याख्या करते हुए कहा कि इनका उद्देश्य विधायिका के सदस्यों के कर्त्तव्य और हिंसा के बीच टकराव की आशंका को खत्म करना या कम करना है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विधायिका के संबंधित सदस्य कार्यपालिका से आर्थिक लाभ पाने के कारण उसके उपकार के अधीन न हो जाएँ जिससे उनका विधायी कार्य प्रभावित हो।
यह भी विचारणीय है कि लाभ का पद धारण करने पर हमें किसी विधायी सदस्य को अयोग्य ठहराने की जरूरत क्यों है? हमारे देश में राजनीतिक व्यवस्था की संरचना तीन अंगों पर टिकी है- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, लेकिन इन तीनों अंगों को शक्ति संतुलन के सिद्धांत के अनुरूप संगठित किया जाता है। पृथक्करण के सिद्धांत से तात्पर्य है कि शासन के तीनों अंगों के कार्य-दायित्व और अधिकार एक-दूसरे के प्रति हस्तक्षेपकारी न हों। इसी अवधारणा के आलोक में यदि हम ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ की बात करें तो सरकार के अधीन एक पद होने के नाते यह कार्यपालिका का भाग है और जब कोई विधायी सदस्य कार्यपालक पदाधिकारी होता है तो इससे विधायी कार्य प्रभावित होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसलिये लाभ के पद पर आसीन व्यक्ति को विधायी सदस्यता के लिये अयोग्य माना गया। इसके पीछे आदर्श कल्पना यह थी कि सांसद या विधायक दूसरे कार्य न करें क्योंकि उनका मूल कार्य सदन में होना, विधायी कार्य करना और जनता की आवाज्ञ को उठाना है। अगर विधायिका के सदस्य सरकार के नियंत्रण में होगें तो वे मुखरता से सफलतापूर्वक अपना कार्य सम्पन्न नहीं कर सकतें।
सैद्धांतिक रूप से लाभ के पद के कारण पर जनप्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराए जाने वाले प्रावधान में अवधारणात्मक कमी जरूर है फिर भी इसे पूर्णतया खत्म करने की बात करना सही नहीं है। इसके अभाव में सरकार अपने समर्थकों सांसदो/विधायकों को खुले तौर पर लाभान्वित करना शुरू कर देगी जिससे अतिरिक्त लाभ की इच्छा में सांसदों/ विधायकों का पलायन बढ़ सकता है और सरकार के स्थायित्व पर असर पड़ सकता है। साथ ही, इससे प्रशासनिक और विधायी कार्य भी व्यापक रूप से प्रभावित हो सकता है।
लाभ के पद के तत्कालीन विवाद की जड़ में ‘‘दिल्ली सरकार के 20 विधायकों को संसदीय सचिव जैसे कथित लाभ के पद पर होने के कारण बर्खास्त किये जाने की घटना की प्रमुख भूमिका रही है।’’4
हमारे यहाँ अमूमन ‘सचिव’ शब्द का इस्तेमाल प्रशासनिक अधिकारी के संदर्भ में किया जाता है जबकि अमेरिका और इंग्लैंड आदि पश्चिमी देशों में सचिव (ेमबतमजंतलद्ध और मंत्री शब्द को समानार्थी रूप में ही प्रयोग में लाया जाता है। लेकिन जब हम संसदीय सचिव की बात करत हैं तो इसका आशय भारत मे भी मंत्री शब्द से ही जोड़ा जाता है। यह शब्द मूल रूप से ब्रिटेन से आया है जहाँ की वेस्टमिंस्टर प्रणाली में संसदीय सचिव को मंत्री के सहायक के रूप में स्वीकारा गया है जो अपने विधायी कर्त्तव्यों के वहन के साथ मंत्री की सहायता भी करता है। भारत में भी केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर संसदीय सचिव की नियुक्ति शुरुआत से ही की जाती रही है लेकिन उस वक्त इनकी संख्या इक्का-दुक्का ही हाती थी। हालाँकि, संसदीय सचिवों को मंत्रयों की समस्त सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और सरकार द्वारा इन्हें बाकायदा मंत्री का दर्जा भी दिया जाता है, लेकिन यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि ये तकनीकी रूप से मंत्रिपरिषद के वास्तविक अंग नहीं हो सकते हैं। इसके पीछे कारण यह है कि इन्हें राष्ट्रपति या राज्यपाल नहीं बल्कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नियुक्त करते हैं। प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री ही इन्हें शपथ भी दिलाते हैं और वही इन्हे बर्खास्त भी कर सकते हैं। संसदीय सचिव प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री के प्रति ही उत्तरदयी भी होते हैं और उन्हीं को संबोधित करत हुए ये अपना इस्तीफा भी देते हैं। यानी वास्तविक मंत्री होने की एक भी अनिवार्य प्रक्रिया संसदीय सचिव पर लागू नहीं होती है। इसलिये इन्हें मंत्रिपरिषद का अंग नहीं माना जा सकता है।
सरकार में आने पर राजनीतिक इल अपने सांसदों, विधायकों को उपकृत करने के लिये संसदीय सचिव नियुक्त करते हैं। इसका दूसरा कारण गठबंधन सरकार की मजबूरी भी कही जा सकती है जिसके तहत वह विभिन्न सदस्यों को तुष्ट करने हेतु संसदीय सचिव का पद दे देती है। लेकिन तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण है 2003 में किया गया 91 वाँ संविधान संशोधन जिसके तहत केंद्रीय या राज्य स्तर पर मंत्रिपरिषद की अधिकतम सीमा लोकसभा या विधानसभा के कुल सदस्यों का 15ः निर्धारित की गई। यह संविधान संशोधन इसलिये लाया गया क्योंकि अनेक राज्य अपने यहाँ अत्यधिक मंत्रियों की नियुक्ति कर उन्हें सरकारी सुविधा प्रदान करने लगे, जो कि अनावश्यक था और जनता के पैसों का नाजायज इस्तेमाल भी। हालाँकि उत्तरदायी शासन के लिहाज के यह संशोधन उचित कदम था लेकिन इसने मंत्रियों की नियुक्ति में सरकारों के हाथ बांध दिये। अतः ‘‘संसदीय सचिव इस संशोधन में एक सेंध मारी का प्रयास भी माना जा सकता है।’’5 संसदीय सचिव की नियुक्ति के ज़रिये विभिन्न सरकारों ने एक बाईपास का रास्ता चुना और उदार भाव से अपने सांसदों और विधायकों को उपकृत करने का मार्ग प्रशस्त कर लिया। आज अधिकांश राज्यों में संसदीय सचिव की नियुक्ति की जाती हे जो कि उत्तरदायी शासन के विपरीत आचरण है।
क्या संसदीय सचिव लाभ का पद है तो निःसंदेह इसे लाभ का पद माना जाएगा जब तक कि विधेयक पारित करके इसे लाभ के पद की श्रेणी से बाहर नहीं कर दिया जाता है। संसदीय सचिव लाभ का पद इसलिये है क्योंकि एक तो यह मंत्रिपरिषद का भाग नहीं है, दूसरा इसे सरकार द्वारा ही नियुक्त किया जाता है और तीसरा यह कि इसे धारण करने वाले सदस्यों को कुछ विशेष सुविधा या अधिकार प्राप्त होते हैं। जहाँ तक लाभ के पद के मामले में चुनाव आयोग की भूमिका का प्रश्न है तो यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि संविधान के अनुच्छेद-103 के अनुसार लाभ के पद के मामले में सांसदों की सदस्यता खतम करने के मसले पर राष्ट्रपति चुनाव आयोग की सलाह पर कार्य करता है तथा अनुच्छेद 192 के अनुसार विधायकों के मामले में राज्यपाल चुनाव आयोग की राय निर्णय लेता है। चूँकि दिल्ली एक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी है इसलिये इसके मामले में विशेष यह है कि संविधान के अनुच्छेद-239 एए के अनुसार दिल्ली विधानसभा के सदस्यों को बर्खास्त करने का अधिकार उप-राज्यपाल के होने के बावजूद राष्ट्रपति को दिया गया है।
इस आलोक में यदि देखा जाए तो दिल्ली विधानसभा के 20 विधायकों के चुनाव आयोग की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा बर्खास्त किया जाना कोई अचंभित करने वाला फैसला नहीं हैं, बल्कि संविधानसम्मत फैसला है। हाँ, लेकिन इस निर्णय के पीछे की मंशा और इसका आधार जरूर अचंभित करता है। यहाँ सवाल उठता है कि दिल्ली सरकार के लाभ के पद के मामले में तो फैसला ले लिया गया जबकि ‘‘अन्य राज्यों में संसदीय सचिव की नियुक्ति के ऐसे ही मामलों में इसी प्रकार की त्वरित के ऐसे ही मामलों में इसी प्रकार की त्वरित कारवाई क्यों नहीं की जाती है? क्या यह संवैधानिक नैतिकता का हनन नहीं है?’’6
संवैधानिक नैतिकता का तकाजा यह कहता है कि कानन सभी के लिए एक समान है और विधि द्वारा स्थापित शासन में कहीं भी विभेद की गुंजाइश नहीं है। ‘‘यह बात सच है कि दिल्ली में ‘आज’ की सरकार ने 20 बिधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया जो कि लाभ का पद था, लेकिन ऐसा ही कई राज्यों में है। परंतु किसी भी राज्य में इस आधार पर विधायकां को अपनी सदस्यता नहीं गँवानी पड़ी है।’’7 छत्तीसगढ़ में भी रमन सिंह सरकार ने 11 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया और वहाँ भी हाई कोर्ट ने इसे अवैध करार दिया और मामला खत्म हो गया। इसी प्रकार हरियाणा में 5, राजस्थान में 10, मध्यप्रदेश में 118 तथा अरूणाचल प्रदेश में 31 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया गया पर वहाँ संसदीय सचिव के पद पर नियुक्ति के मामले में ज़्यादा-से-ज़्यादा संबंधित हाई कोर्ट द्वारा उनकी वह नियुक्ति अवैध या रद्द कर दी गई है अथवा नोटिस देकर छोड़ दिया गया। ‘‘लेकिन दिल्ली में हाई कोर्ट द्वारा इन विधायकों की नियुक्ति को ही अवैध करार दिये जाने के बावजूद भी 20 विधायकों को विधानसभा से बर्खास्त किया गया। जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन विधायकों को बाद में बहाल कर दिया। ऐसे में क्या यह संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप उठाया गया कदम कहा जा सकता है जहाँ समान अपराध के लिये एक को ज़्यादा सज़ा दी जाती हो और दूसरे को कम? क्या हरेक राज्य के लिए संवैधानिक नैतिकता अलग-अलग होती है?’’8 दूसरी बात यह कि लाभ के पद संबंधित विधेयक में भूतलक्षी प्रभाव यानी पूर्व की तिथि से उसे लागू करने के मामले में भी संवैधाकि नैतिकता की अवहेलना स्पष्ट होती है। बहुत से राज्यों मेें ऐसा देखा गया है कि लाभ का पद दिया गया है पर कोर्ट नेउनकी नियुक्ति को अवैध ठहराया। उसके बाद राज्य ने कानून बनाकर उसे लाभ के पद से बाहर कर दिया है और आदलत ने भी इस पर अपनी सहमति दे दी। इस मामले में कांता कथूरिया केस, 1969 का उदाहरण दिया जा सकता है। कांता कथूरिया, राजस्थान से कांग्रेस विधायक थीं। लाभ के पद पर उनकी नियुक्ति हुई तो हाई कोर्ट ने उसे अवैध करार दिया। इसके बाद राज्य सरकार कानून ले आई और उस पद को लाभ के पद से बाहर कर दिया। तब तक सुप्रीम कोर्ट में भी अपील हो गई थी और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे स्वीकार कर लिया। तथा विधायक की सदस्यता नहीं गई। ऐसे अनेक मामले हैं, जैसे 2006 में शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया तो लाभ के पद का मामला उठ खड़ा हुआ। इसलिये सरकार ने कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया और शीला सरकार के विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गई। केन्द्र सरकार ने भी 2006 में 56 पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर करने का कानून बनाया और उसे भी पूर्व तिथि से ही लागू किया गया। लेकिन जब इसी प्रकार विधेयक दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की सरकार ने पारित कर उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिये भेजा तो इसे पूर्व तिथि से लागू करने संबंधी प्रावधान के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मंजूरी नहीं दी। यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि संविधान में प्रावधान हे कि सिर्फ क्रिमिनल कानून को छोड़कर बाकी सभी मामलों में भूतलक्षी प्रभाव कानून बनाए जा सकते हैं।
वर्तमान विवाद के समग्र परीक्षण के बाद यही कहा जा सकता है कि लाभ के पद के संदर्भ में सुस्पष्ट कानून बनाए जाने की आवश्यकता है।

संदर्भ ग्रन्थ –
1. अवधेश कुमार, अनदेखी भारी पड़ी; राष्ट्रीय सहारा; नई दिल्ली, 20 जून 2018.
2. हेमन्त कुमार; लाभ का पद; बनाम संवैधानिक नैतिकता; करंट अफेयर्स टुडे; मार्च 2018.
3. जाहिद खान; ‘लाभ का पद; पूरी अवधारणा दी गलत है, सच कहूँ; देहरादून, 27 मार्च 2018.
4. संपादकीय; अरविन्द की मुश्किले बढ़ी; राष्ट्रीय सद्वारा, नई दिल्ली, 23 जून, 2018.
5. हेमन्त कुमार; लाभ का पद; बनाम संवैधानिक नैतिकता; करंट अफेयर्स टुडे; मार्च 2018.
6. हेमन्त कुमार; लाभ का पद; बनाम संवैधानिक नैतिकता; करंट अफेयर्स टुडे; मार्च 2018.
7. लाभ का पद; राज्यों से छिड़ सकती है सियासी जंग; अमर उजारा; नई दिल्ली 22 जून 2018
8. संपादकीय, लाभ हानि; जनसत्ता नई दिल्ली, 20 जून 2018.

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