ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कश्मीर समस्या के समाधान की चुनौतियाँ

डॉ0 प्रवीण कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान विभाग)
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰) कॉलिज,
बुलन्दशहर (उ॰प्र॰)

राजनीतिक जगत् में प्रायः एक उक्ति का बहुतायत में उपयोग किया जाता है कि ‘‘राजनीति में कोई भी स्थाई दुश्मन या दोस्त नहीं होता है।’’ अर्थात् देशकाल, परिस्थितियों, नीतियों, व्यक्तियों आदि के अनुरूप इनकी स्थितियों में परिवर्तन होते रहते हैं। चिर प्रतिद्वंद्वी परम मित्र बन जाते हैं तथा परम प्रगाढ़ता परस्पर प्रबल प्रतिद्वंद्वता में परिवर्तित हो जाती है। ऐसी परिघटनाओं के उदाहरण केवल भारतीय राजनीति में ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में देखें तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में दो बड़े प्रतिद्वंद्वियों- सपा व बसपा का एक साथ चुनाव लड़ना हो अथवा जम्मू-कश्मीर में अपने अभ्युदय एवं विचारधारागत दृष्टि से एकदम विपरीत व प्रतिद्वंद्वी राजनीति करने वाली भाजपा व पीडीपी का मिलकर सरकार बनाने की परिघटना को भी उपर्युक्त राजनीतिक उक्ति के संदर्भ में देखा समझा जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में भी अपने अस्तित्व में आने के साथ ही अरब देशों की आँखों की किरकिरी रहे इजराइल से भी हाल ही में कुछ अरब देशों ने अपने राजनयिक संबंध स्थापित कर अपनी चिर प्रतिद्वंद्विता को तिलांजलि देने के संकेत दिए हैं किंतु ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र होकर विभाजन के फलस्वरूप 15 अगस्त 1947 ई॰ को अस्तित्व में आए दो राष्ट्रों भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में पिछले सत्तर वर्षों के इतिहास को देखकर लगता है कि राजनीतिक जगत् की उक्त प्रचलित उक्ति यहाँ प्रभावहीन बनी रहेगी।
भारत-पाक संबंधों के संदर्भ में बस यही कहा जा सकता है कि इनके बीच की स्थाई शत्रुता का स्तर कम-अधिक होता रह सकता है, उसके मित्रता में परिवर्तित होने की संभावना के बीच सबसे बड़ी बाधा के रूप में प्रबल चुनौती के रूप में विद्यमान है- कश्मीर समस्या। इस समस्या के स्थाई समाधान होने की निकट भविष्य में कोई संभावना नज़र नहीं आती हैं। प्रायः कहा जाता है कि समय के साथ बहुत कुछ बदलता जाता है तथा बड़ी से बड़ी समस्या को भी इच्छा शक्ति के बल पर हल किया जा सकता है किंतु भारत में कश्मीर समस्या की प्र.ति इतनी जटिल एवं बहुआयामी है कि वह समय के साथ सुलझने की बजाए और अधिक उलझाती ही जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण इस समस्या के अभ्युदय से जुड़े विभिन्न पक्षों में प्रारम्भ से ही राजनीतिक दूरदर्शिता एवं यथार्थवादी दृष्टि के अभाव के चलते इसमें विभिन्न विवादास्पद पहलू उद्भुत होते गये। इसकी पृष्ठभूमि को देखें तो भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अन्तर्गत देशी रियासतों को भारत-पाकिस्तान में से किसी के साथ अधिमिलन या स्वायत्त रहने के मिली छूट ने बहुत से देशी राजाओं के मन में अपने अधिकार एवं सत्ता को बनाए रखने की ललक पैदा की। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन राजा महाराजा हरि सिंह की भी यही इच्छा थी। भारत तथा पाकिस्तान दोनों के शीर्षस्थ पर स्थित पहाड़ी रियासत होने के चलते भौगोलिक दृष्टि से उनकी स्वायत्त रहने की आकांक्षा अवश्य कुछ सार्थकता रखती थी किंतु उनके राज्य की अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य प्रजा उनके भारत-पाक दोनों से स्वतंत्र रहने के निर्णय के तो पक्ष में थी किंतु उनकी राजसत्ता को बनाए रखने को कतई तैयार नहीं थी। ऐसे समय ही पाकिस्तान ने कबिलाइयों के रूप में अपनी सैन्य कार्यवाही द्वारा कश्मीर को हस्तगत करने का उपक्रम और रचा, जिससे इस समस्या में भारत-राज हरि सिंह व जम्मू-कश्मीर रियासत की प्रजा के प्रतिनिधित्व स्वरूप शेख अब्दुल्ला के साथ ही चौथे पक्ष पाकिस्तान की भी एंट्री हो गई। ऐसे समय में तीव्रता से बदलते घटनाक्रम में भारतीय राजनीतिक नेतृत्व द्वारा कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने से इसमें पाँचवाँ पक्ष संयुक्त राष्ट्र संघ भी जुड़ गया, जिसके द्वारा दिए गए जनमत संग्रह की निर्धारित शर्तों एवं पूर्व प्रावधानों ने इस समस्या को और उलझा दिया क्योंकि उसके प्रावधानों के अपने-अपने अनुकूल अंश को पकड़कर सभी पक्ष एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहे। ‘‘संयुक्त राष्ट्र में लम्बे समय तक भारत के प्रतिनिधि रहे वी॰पी॰ मेनन ने सेवानिवृत्त होने के बाद सितम्बर 1964 में दिए गए एक साक्षात्कार में कबायली हमले के बाद भारत की नीति को एकदम न्याय संगत बताते हुए कहा कि ‘लेकिन जहाँ तक जनमत संग्रह की बात है, हम पूरी तरह से बेईमान थे।’ उधर मार्च 1991 में पाकिस्तान अधि.त कश्मीर के राष्ट्रपति रहे, सरदार इब्राहिम खान ने इस्लामाबाद में आयोजित एक सेमिनार में कहा कि शुरुआती वर्षों में पाकिस्तान सरकार जनमत संग्रह कराने को टालती रही और इससे बचती रही। पाकिस्तान के प्रबल पक्षधर एलिएस्टर लैम्ब ने भी माना है कि 1948-49 में जब कश्मीर में कबायली अत्याचार की स्मृतियाँ ताजा थीं तो अगर जनमत संग्रह होता तो इसमें पाकिस्तान के लिए यह खतरा था कि न केवल घाटी बल्कि आजाद कश्मीर भी शेख अब्दुल्ला के झंडे तले चला जाए।’’
वस्तुतः कश्मीर समस्या से जुड़े आरम्भिक दौर के विभिन्न पक्षों में प्रायः सभी ने इसके तात्कालिक एवं वास्तविक समाधान की चेष्टा व इच्छाशक्ति को न दिखाते हुए मुद्दे को लटकाने और अपने पक्ष को ही आगे बढ़ाने का प्रयास लिया, जिसके फलस्वरूप यह समस्या सुलझने के बजाए और उलझती चली गई। इससे नये-नये पक्ष व आयाम जुड़ते चले गए। डॉ॰ आर॰एस॰ पाण्डेय इस संदर्भ में लिखते हैं कि ‘‘कश्मीर का प्रश्न अब केवल भारत-पाक का द्विपक्षी मुद्दा नहीं रह गया है। 1962 ई॰ के युद्ध में चीन द्वारा अधी.त लद्दाख क्षेत्र के लगभग 48,320 वर्ग किलोमीटर तथा पाक अधिकृत 5180 वर्ग किलोमीटर कश्मीरी भू-भाग पर अधिकार के बाद चीन भी इसका मुख्य हिस्सेदार बन गया है।’’
इक्कीसवीं सदी में बदलते अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में कश्मीर समस्या में चीन की भागीदारी एवं भूमिका स्पष्ट रूप से उभरकर आने लगी है। वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में पाकिस्तान धीरे-धीरे अमेरिका से दूर जाते हुए राजनीतिक एवं सामरिक दृष्टि से चीन के लिए पूरी तरह समर्पित होता जा रहा है। चीन की महत्त्वाकांक्षी सीपैक परियोजना का महत्त्वपूर्ण हिस्सा विवादित कश्मीरी-गिलगित बलटिस्तान भू-भाग से ही होकर गुजरता है, जिसके चलते इस परिक्षेत्र में चीन अपना प्रभाव व दबदबा कायम करने की हर सम्भव कोशिश में लगा हुआ है और पिछले कुछ वर्षों में प्रायः सैनिक टकराओं से शांत रहने वाली भारत-चीन सीमा पर भी तनावपूर्ण एवं टकराव की स्थितियाँ लगातार बनी हुई है बल्कि कई दशकों बाद भारत-चीन सैनिकों के बीच लद्दाख परिक्षेत्र में हिंसक झड़पों की घटनाएँ भी सामने आई है। इससे पाकिस्तान के साथ-साथ कश्मीर में चीन के साथ भी सैनिक तनाव व टकराव का नया फ्रंट खुल गया है। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय मंचों एवं कूटनीतिक दृष्टि से भारत ने कश्मीर पर अपने पक्ष को मजबूती के साथ रखा है तथा पाकिस्तान द्वारा लाख कोशिशों के बावजूद भी तुर्की व मलेशिया को छोड़कर कोई भी देश, इस मुद्दे पर भारत के प्रतिरोध में खड़ा नजर नहीं आता है। किंतु हाल ही में पड़ौसी देश अफगानिस्तान में अमेरिका के पलायन तथा तालिबानियों द्वारा सत्ता पर काबिज होना कश्मीर समस्या की दृष्टि से एक ओर नकारात्मक अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है क्योंकि इससे कश्मीर में साम्प्रदायिक आधार पर चलाए जा रहे जेहादी एवं आतंकवादी तत्त्वों को एक प्रकार का मानसिक बल एवं बाह्य मदद मिलने की सम्भावना में वृद्धि होने की स्थितियाँ उत्पन्न हो गई है। सुधीर झा भी अपने एक लेख में इस तरह की आशंका व्यक्त करते हैं ‘‘अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे में पाकिस्तान बेहद खुश है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि वह तालिबान की मदद से कश्मीर में आतंकवाद की आग भड़काना चाहता है। एफ.ए.टी.एफ. की ओर से शिंकजा कसे जाने के बाद वह आतंकी कैम्पों को अफगानिस्तान से चलाना चाहता है। . . . जानकारों का मानना है कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान इस्लामिक आतंकवाद का केंद्र बन सकता है। हालांकि सूत्रों का यह भी कहना है कि पाकिस्तान के लिए अपने नापाक इरादों को अंजाम देना आसान नहीं है क्योंकि तालिबान ने कश्मीर पर अपनी स्थिति साफ करते हुए कहा है कि वह इसे द्विपक्षीय और आंतरिक मुद्दा मानता है।’’
वस्तुतः जब सीधे एवं प्रत्यक्ष युद्ध की सामर्थ्य एवं स्थिति न हो तो प्रायः एक अघोषित एवं छद्म युद्ध के रूप में आतंकवाद बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक व्यापक रणनीतिक हथियार बनकर उभरा है। बिजेन्द्र सिंह अपने लेख ‘निम्न तीव्रता संघर्ष एवं कश्मीर: एक विश्लेषण’ में उल्लेख करते हैं कि ‘‘1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में ‘निम्न तीव्रता संघर्ष’ शब्द संयुक्त राज्य अमेरिका के सुरक्षा समुदाय के शब्दकोश में अवतरित हुआ था . . . यह (शब्द) प्रायः वद्धनीय होता है एवं आतंकवाद से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक दबावों तथा आर्थिक एवं राजनयिक तरीके से लेकर विप्लवकारी युद्ध तक विस्तृत होता है।’’
इस ‘निम्न तीव्रता संघर्ष’ की रणनीति का उपयोग अमेरिका ने अफगानिस्तान के रास्ते सोवियत संघ से परोक्ष संघर्ष में बड़ी सफलतापूर्वक किया। पाकिस्तान इस संघर्ष में अमेरिका का एक रणनीतिक साझीदार रहा था। इसी के चलते पाकिस्तान भी जब भारत से सीधे एवं व्यापक संघर्ष में स्वयं को असमर्थ पाता है तो उसके रणनीतिकार भी इस परोक्ष एवं छद्म ‘निम्न तीव्रता संघर्ष’ की रणनीति को भारत के विरूद्ध उपयोग में होते हैं। इसके अनुरूप पहला प्रयोग पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन को पूरी तरह समर्थन एवं सहयोग के रूप में सामने आता है जिससे भारत सरकार द्वारा पूर्ण दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ निपटने से इसका अगला चरण 1990 के दशक में कश्मीर घाटी में साम्प्रदायिक आतंकवाद के रूप में उभरकर आता है। यद्यपि जम्मू-कश्मीर रियासत की जनसांख्यिकीय प्र.ति भी भारत के समान विविधतापूर्ण रही है किंतु उसमें साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा स्वरूप कभी नहीं देखा गया था। रजनी पामदत्त अपनी पुस्तक ‘आज का भारत’ में स्पष्ट उल्लेख करती है कि ‘‘जिस तरह के दंगे अंग्रेजी राज्य में हुए इस तरह के पहले नहीं हुए थे . . . पहले जमाने में एक राज्य दूसरे राज्य से लड़ता था- साइमन रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘‘वर्तमान रियासतों में साम्प्रदायिक दंगों का बहुत कुछ अभाव है- जिन रियासतों के लिए साम्प्रदायिक दंगों की बात कही जाती है वह अक्सर गलत-गलत शब्दावली का प्रयोग किया होता है। मिसाल के लिए 1931-32 ई॰ से कश्मीर की 80 प्रतिशत जनता ने बगावत की। इत्तेफाक से राजा हिन्दू था और जनता मुसलमान। इसके बारे में कहा गया कि यह साम्प्रदायिक दंगा था। अंग्रेजी अखबारों को मानना पड़ा कि यह अजीब बात है कि साम्प्रदायिक दंगा तो हुआ लेकिन उसमें एक भी हिन्दू नहीं मारा गया। (डेली टेलीग्राफ 8 फरवरी 1932)’’
वस्तुतः रजनी पामदत्त अपनी टिप्पणी में यह स्पष्ट करना चाहती है कि यद्यपि भारतीय राज्यों एवं रियासतों के बीच युद्धों की स्थिति सदैव बनी रहती थी किंतु इन युद्धों एवं संघर्षों का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं रहता था। इसी भाँति कश्मीर में भी हुए पूर्ववर्ती संघर्षों की प्र.ति उग्र रूप में साम्प्रदायिक नहीं रही थी किंतु 1990 के दशक में उभरे आतंकवाद का स्वरूप साम्प्रदायिक एवं जेहादी मानसिकता से ग्रसित था। कश्मीर में आतंकवाद के पनपने के समय भारत में केंद्र सरकार के नेतृत्व की भी कुछ नीतियाँ को उत्तरदायी माना जाता है- ‘‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और उसके सहयोगियों द्वारा छेड़े अभियान को इस्लाम और पाकिस्तान से जोड़ने की शुरूआत सन् 89-90 के दौर में ही हुई। पाक एजेंसी आई.एस.आई. ने पाक अधिकृत कश्मीर के जमाते-इस्लामी प्रमुख अब्दुल रशीद तुराबी और तहरीक-जेहादी-ए- इस्लामी के प्रमुख मुजफरशाह जैसे लोगों की सेवाएँ ली। माहौल को राजनीतिक से साम्प्रदायिक रंग देने की इस प्रकार कोशिशें कश्मीर घाटी के लिए बिल्कुल नई थी। कुपवाड़ा, बारामूला, सोपोर और श्रीनगर में कट्टरपंथी तत्त्वों को संगठित स्तर पर जोड़ा जाने लगा। . . . इस दौरान कश्मीर में विदेशी धन का प्रवाह भी बढ़ गया। ए.के.-47 रायफलों और अत्याधुनिक पिस्तौलों की आपूर्ति ने उग्रवादी चक्रियता को आतंक का नया चेहरा दिया।’’
दरअसल नब्बे के दशक में कश्मीर में कट्टर इस्लाम समर्थित वहाबी विचारधारा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ तथा इसके बल पर जेहादी मानसिकता को बढ़ावा मिला जिससे कश्मीर में आतंक के बल पर ‘तथाकथित’ आजादी की लड़ाई का शोर-गुल मचाया गया। समय के साथ आने वाले वर्षों में इस आतंकवाद का दायरा कश्मीर के साथ-साथ भारत के अन्य हिस्सों एवं महत्त्वपूर्ण शहरों में भी विस्तार करता गया। विमान अपहरण, संसद पर आतंकी हमला, मुम्बई में 26/11 का अटैक तथा सीरियल ब्लास्ट की अनेक आतंकी घटनाएँ होती रही। किंतु तत्कालीन केंद्र सरकारों के पास इनसे निपटने की कोई ठोस रणनीतियाँ नहीं दिखाई दी।
भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो दस वर्षीय यू.पी.ए. के शासनकाल के पश्चात् 2014 में पहली बार केंद्र में स्पष्ट बहुमत के साथ भाजपा की सरकार बनी। जिनकी कश्मीर को लेकर एक भिन्न राय थी तथा वे बार-बार अपने घोषणा-पत्र में धारा 370 का मुद्दा उठाते रहते थे। आतंकवाद को लेकर भी उनकी एक शक्ति से निपटने की धारणा रही थी। इतना ही नहीं जब 2015 में केंद्र की भाजपा सरकार ने घटी में अपनी धुर विरोधी पीडीपी के साथ गठबंधन करके राज्य सरकार बनाई तो यह राज्य के लिए एक नई पहल थी किंतु 40 माह तक खींचातानी के साथ चली यह सरकार भी राज्य में शान्ति व्यवस्था एवं विकास को नई दिशा देने में असफल रही और अंततः जून 2018 ई0 में भाजपा ने पीडीपी से अपना समर्थन वापस ले लिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन को लागू करना पड़ा। उर्मिलेश इस संदर्भ में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहते है कि ‘‘सन् 2016 के पूर्वार्द्ध में यहाँ जो हुआ उससे कई मिथक भी टूटे। पहला कि जम्मू में असर रखने वाली भाजपा और घाटी में सघन आधार रखने वाली शान्ति बहाली को बल मिलेगा। दूसरा कि महबूबा मुती घाटी में अलगाववादियों और मिलिटेंट गुटों के एक हिस्से में काफी लोकप्रिय नेता रही है इसलिए उनके मुख्यमंत्री बनने से माहौल शान्तिपूर्ण रहेगा। तीसरा यह कि कश्मीर में अलगाव-आतंकवाद के पीछे सिर्फ पाकिस्तानी साजिशें जिम्मेदार हैं और चौथा कि कश्मीर समस्या सुरक्षा बलों की आक्रामकता और आतंकवादियों को देखते ही गोली मारने से खत्म हो जायेगी, सब कुछ ठीक हो जाएगा।’’
इन सब स्थितियों से यह तथ्य पूरी तरह उभरकर आया कि कश्मीर समस्या की प्रवृत्ति बहुत जटिल है तथा इससे जुड़े बहुत से तत्त्वों की इसके शीघ्र एवं शान्तिपूर्ण हल में कोई विशेष रूचि नहीं है अपितु उनके स्वार्थ इसी से सिद्ध होते हैं कि ये समस्या थोड़ी बहुत आगे-पीछे होकर चलती ही रहे। 2019 के लोकसभा चुनावों में स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण जनाधार मिलने के पश्चात् भाजपा की केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर समस्या के इतिहास में एक और नये अध्याय को जोड़ते हुए 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली विशिष्ट धारा 370 को संशोधित करते हुए जम्मू-कश्मीर से लद्दाख क्षेत्र को अलग करते हुए इन्हें दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया, जिसका की घाटी के क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से भारी विरोध हुआ। किंतु केन्द्र सरकार ने लॉकडाउन लगाकर तथा आतंकवाद के विरूद्ध जीरो टोलरेंस की नीति को अपनाते हुए शक्ति से निपटने की रणनीति को अपनाया। यद्यपि केंद्र सरकार के इन कदमों से कश्मीर समस्या के हल की बजाए उसमें एक और नया मोड़ ही आया है किंतु यह अवश्य है कि इससे अभी तक की सरकारों द्वारा एक नरम व मुद्दे को टरकाने वाले रुख में बदलाव के संदेश स्वरूप ठोस एवं सख्त कदम उठाने की नई पहल भी होती दिखाई देती है।
वस्तुतः कश्मीर समस्या से जुड़े सभी घटकों को यह भली-भाँति समझना चाहिए कि इस प्रकार की समस्या का हल किसी प्रकार की हिंसा, बल प्रयोग, संवैधानिक प्रावधानों या अडियल रवैये के द्वारा नहीं हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि इसके समाधान के विभिन्न राजनीतिक विकल्पों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए। प्रबुद्ध राजनीतिक चिंतक योगेन्द्र यादव अपने लेख ‘राजनीति का विकल्प और विकल्प की राजनीति’ में स्पष्ट संकेत करते हैं कि ‘‘कुछ ऐसे निर्णयों पर आप पहुँचेंगे जो केवल राजनीति में ही लिए जा सकते हैं। इस अर्थ में हमारा युग एक राजनीतिक युग है। राजनीति आज का युग धर्म है और राजनीति हमारा युग धर्म हैं तो राजनीति करना या न करना कोई विकल्प नहीं हो सकता, एक बेहतर किस्म की राजनीति करना ही एक मात्र विकल्प हो सकता है।’’
इस दृष्टि से विचार करें तो कश्मीर समस्या भी हमारे समय की प्रमुख राजनीतिक स्थिति या समस्या है जिससे बचकर आगे नहीं निकला जा सकता है अपितु इसके ठोस एवं व्यावहारिक राजनीतिक हल की दिशा में ही प्रयास करने की आवश्यकता है। यद्यपि वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय एवं भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के सन्दर्भ में विचार करें तो समकालीन राजनीतिक माहौल इसके हल के अनुकूल नज़र नहीं आता है किंतु केंद्र सरकार द्वारा आतंकवाद तथा हिंसक प्रदर्शनों के विरुद्ध उठाए गए ठोस एवं सख्त कदमों का इतना असर अवश्य हुआ है कि कश्मीर के नाम पर भारत भर में होने वाली आतंकी घटनाओं पर अंकुश लगा है तथा कश्मीर घाटी में भी सुरक्षाबलों द्वारा चलाए जाए रहे। ऑपरेशनों में व्यापक स्तर पर आतंकवादियों के मारे जाने से आतंकी घटनाओं में अवश्य कमी आई है तथा उनका मनोबल भी टूटा है। इसके साथ ही केंद्र सरकार द्वारा सीमापार से आतंकी संगठनों को मिलने वाली मदद् के मुद्दे को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी मजबूती के साथ उठाया है, जिससे पाकिस्तान पर भी एक दबाव की स्थिति बनी है तथा कश्मीर मुद्दे पर भी अब उसके समर्थन में दुनिया के दो-चार देशों को छोड़कर किसी का साथ पाकिस्तान को नहीं मिलता है। केंद्र सरकार द्वारा बड़ी आतंकी घटनाओं के बाद पाकिस्तान में सीमा पार कर सर्जिकल स्ट्राइक एवं एयर स्ट्राइक की कार्यवाहियों से भी एक स्पष्ट संकेत गया है कि भारत अब किसी बड़ी आतंकी घटना को चुपचाप, सहने की रणनीति से आगे निकल चुका है किंतु इसके बावजूद भी अभी कश्मीर समस्या के समाधान की निकट भविष्य में आसार नजर नहीं आते हैं क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में इसके समाधान के प्रतिकूल परिस्थितियों ने इसकी चुनौतियों को और अधिक बढ़ा दिया है। उर्मिलेश इस संदर्भ में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं कि ‘‘सामाजिक आर्थिक कार्य व्यापार के रिश्तों को बढ़ाते हुए दोनों देश सरहद और कश्मीर से जुड़े मसलों को हल करने में ईमानदारी दिखाए। दोनों को पहले तनाव के कारणों की शिनाख्त करनी होगी और उन्हें क्रमशः खत्म करने के प्रयास करने होंगे। मसलन एक अच्छी शुरूआत के लिए पाकिस्तान अपने इलाके में अवस्थित जेहादी आतंकी गुटों के शिविरों को बंद करने की पहल कर सकता है। पाकिस्तानी शासकों और कश्मीर के अलगाववादी तत्त्वों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि केंद्र में सत्ता चाहे जिस दल या गठबंधन की हो, भारत में राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं, कानूनविदों, मीडियाकर्मियों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों का एक बड़ा तबका कश्मीर के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव में बजाए संवाद की आवश्यकता पर जोर देता रहा है।’’
वस्तुतः कितनी भी बड़ी एवं जटिल समस्या हो अन्ततः उसका हल तो बातचीत के माध्यम से ही निकलता है उससे पूर्व चाहे उसे कितना ही आक्रामक रूप से हल करने के प्रयास चलते रहे। स्थायित्व एवं शांति के लिए उससे जुड़े सभी पक्षों के मध्य संवेदनशील एवं सौहार्द्रपूर्ण संवाद की सम्भावनाएँ तलाशी जानी चाहिए। भारतीय राजनीतिक प्रतिनिधियों को भी वे चाहे राष्ट्रीय स्तर के हो अथवा राज्य के प्रतिनिधि हो, यथार्थ के धरातल पर रहते हुए मुद्दों को हल करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने चाहिए। कश्मीर के प्रतिनिधियों को भी अब इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनका हित भारत के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंधों में ही आगे बढ़ सकता है। अलगाव या स्वतंत्रता का राग अलापने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसके साथ ही राष्ट्रीय नेतृत्त्व को भी वहाँ की जन भावनाओं को सम्मान देते हुए भारतीय संवैधानिक ढाँचे के अन्दर रखते हुए उन्हें विशिष्ट स्वायत्ता प्रदान करके समस्या के समाधान का प्रयास करना चाहिए। इस राह में एक सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि घाटी की अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य जनसंख्या के बल पर यदि वहाँ के राजनीतिक प्रतिनिधि इस्लामी सरिया व्यवस्था आदि कट्टरपंथी व्यवस्था को प्रचलित करने की महत्त्वकांक्षा पाले रखेंगे तो वह भारतीय लोकतांत्रिक ढाँचे, के प्रतिफूल है और इससे इस समस्या के समाधान की दिशा में कोई प्रगति हो पानी सम्भव नहीं होगी।
संदर्भ ग्रंथ सूची
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स डॉ॰ संजय कुमार एवं अनुराग जायसवाल- ‘21वीं सदी में भारत की सुरक्षा चुनौतियाँ’, महावीर एंड संस, प्रकाशन, गोल मार्किट, दरियागंज, दिल्ली (2007), पृ॰ 135
स सुधीर झा का आलेख, ‘‘तालिबानी राज में कश्मीर तक आएगी अफगान की आग? . . .’’ लाइव हिंदुस्तान डॉट कॉम पर 17 अगस्त 2021,
स डॉ॰ संजय कुमार एवं अनुराग जायसवाल- ‘21वीं सदी में भारत की सुरक्षा चुनौतियाँ’, महावीर एंड संस, प्रकाशन, गोल मार्किट, दरियागंज, दिल्ली (2007), पृ॰ 261
स रजनी पामदत्त (अनुवादक रामविलास शर्मा)- ‘आज का भारत’, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा॰लि॰, विजय चौक, लक्ष्मी नगर, दिल्ली (2000), पृ॰ 405
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स उर्मिलेश- ‘कश्मीर: विरासत और सियासत’, अनामिका पब्लिशर्स एंड स्ट्रिीब्यूटर्स (प्रा॰लि॰), दरियागंज, दिल्ली (2016), पृ॰ 142
स (सं॰) अरूण कुमार त्रिपाठी व प्रदीप कुमार सिंह- ‘वैकल्पिक राजनीति का भविष्य’, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा॰लि॰), दरियागंज, दिल्ली (2016), पृ॰ 245
स उर्मिलेश- ‘कश्मीर: विरासत और सियासत’, अनामिका पब्लिशर्स एंड स्ट्रिीब्यूटर्स (प्रा॰लि॰), दरियागंज, दिल्ली (2016), पृ॰ 133

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