ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

संधारणीय विकास की अवधारणा एवं खाद्य सुरक्षा-एक विवेचना

डॉ0 लाल मृगेन्द्र सिंह बघेल
एसोसिएट प्रोफेसर (अर्थशास्त्र)
एडिटर-इंडियन जर्नल ऑफ न्यू डायमेंशन्स
एवं
डॉ0 संजय अग्रवाल
एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
अर्थशास्त्र विभाग,
जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल पोस्ट-ग्रेजुएट महाविद्यालय, बाराबंकी (उ0प्र0)

सारांश
सन 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पहली बार सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (Millenium Development Goal-MDG) के प्रस्ताव के रूप में संधारणीय विकास लक्ष्य को पारित किया गया और 2015 के पेरिस सम्मेलन में सभी देशों ने स्वीकार किया कि इस संधारणीय विकास के वैश्विक लक्ष्य को समान रूप से प्रचारित करना है। परिणामस्वरूप सितम्बर 2015 में ही संयुक्त राष्ट्र सस्टेनेबल डेवलपमेंट सम्मेलन में 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल को अपनाया गया जिसको प्रारम्भ करने की तिथि 1 जनवरी 2016 और निर्घारित लक्ष्यों की प्राप्ति की तिथि वर्ष 2030 रखी गयी। संयुक्त राष्ट्र संघ की संधारणीय विकास की अवधारणा को दृष्टिगत रखते हुए भारत में खाद्य सुरक्षा बिल 2013 में सदन में पास हुआ। इसप्रकार प्रस्तुत आलेख में सं0रा0सं0 की धारणीय विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत का खाद्य सुरक्षा कानून कितना कारगर है, की विस्तृत विवेचना की गयी है। जिसमें बहुत से पहलूओं को आधार बनाकर विश्लेषण किया गया है और यह पाया गया कि सार्थक दीर्घगामी सतत प्रयासों के बिना संयुक्त राष्ट्रसंघ की संधारणीय विकास के लक्ष्यों की प्रप्ति 2030 तक कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि आधुनिक विकास की प्रक्रिया में जनसंख्या का आधिक्य एवं निरंतर वृद्दि, कृषि जोत का होता छोटा आकार और कृषि की परम्परागत प्रणाली में अपर्याप्त सुधार आदि आज भी सर्वाधिक बड़ी बाधाएं हैं।

प्रमुख शब्दः संधारणीय विकास लक्ष्य, संयुक्त राष्ट्र संघ, खाद्य सुरक्षा बिल, कृषि।

संधारणीय विकास लक्ष्य Sustainable Development Goals-SDG विश्व के अन्तर्राष्ट्रीय विकास सम्बन्धी लक्ष्यों का एक सेट है जो सन 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ (यू0एन0ओ0) के जनरल एसेम्बली की बैठक में पहली बार सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (Millenium Development Goal-MDG) के प्रस्ताव के रूप में पारित किया गया किन्तु इसका वास्तविक क्रियान्वयन 15 वर्ष बाद मूर्त रूप में अस्तित्व में आया जब 2015 के पेरिस सम्मेलन में सभी देशों को यह तय करना था कि संधारणीय विकास के लिए ही संयुक्त राष्ट्र को बनाया गया है और वैश्विक लक्ष्यों को समान रूप से प्रचारित करना है। परिणामस्वरूप सितम्बर 2015 में ही संयुक्त राष्ट्र सस्टेनेबल डेवलपमेंट सम्मेलन में 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल को अपनाया गया जिसको प्रारम्भ करने की तिथि 1 जनवरी 2016 और निर्घारित लक्ष्यों की प्राप्ति की तिथि वर्ष 2030 रखी गयी। धारणीय विकास लक्ष्य से सम्बद्व लक्ष्यों (एसोसिएटेड टारगेट) की वास्तविक संख्या 169 है किन्तु पहली बार 2000 में जब सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य का प्रस्ताव पारित किया गया था तब इसमें 8 प्रमुख लक्ष्य और एसोसिएटेड टारगेट की संख्या 18 रखी गयी थी।
2015 में सं0रा0सं0 के सम्मेलन में 193 देश जिन 17 लक्ष्यों पर सहमत हुए थे उनमें खाद्य सुरक्षा से सीधे सम्बद्व प्रमुख लक्ष्य थेः (1) सम्पूर्ण विश्व से गरीबी के सभी रूपों स्वरूपों की समाप्ति (2) विश्व से भूख की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा एवं बेहतर पोषण और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा (3) स्थायी खपत और उत्पादन पैटर्न को सुनिश्चित करना। ये तीन प्रमुख लक्ष्य सीधे सीधे प्रत्यक्ष रूप से खाद्यान सुरक्षा से जुड़े थे किन्तु दो लक्ष्य और ऐसे थे जो अप्रत्यक्ष रूप से खाद्यान अथवा कृषि के वैश्विक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक की भूमिका का निर्वाह कर रहे थे, वे हैंः (1) भूमि क्षरण और जैव विविधता के बढ़ते नुकसान की रोकथाम, और (2) सभी के लिए समावेशी और सतत आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार एवं बेहतर कार्य को बढ़ावा देना।
यद्यपि खाद्य सुरक्षा की ओर संयुक्त राष्ट्र ने 1961 में खाद्य एवं कृषि संगठन Food and Agriculture Organisation-FAO) की स्थापना की थी जिसके अन्तर्गत विश्व खाद्य कार्यक्रम World Food Pragramme-WFP चलाया जा रहा है जो आपात काल में लोगों के जीवन को बचाने हेतु खाद्य सहायता प्रदान करता है साथ ही प्रभावित लोगों के पोषण स्तर को सुधारने और लचीलापन लाने हेतु समुदायों के साथ मिलकर कार्य करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व खाद्य कार्यक्रम के माध्यम से दो तिहाई कार्यक्रम/योजनाएं ऐसे देशों में संचालित करता है जहां अन्य जगहों की तुलना में जनसमुदाय के तीन गुना ज्यादा कुपोषित हाने की सम्भावना पायी जाती है।
यही नहीं विश्व खाद्य कार्यक्रम आपातकालीन सहायता के साथ-साथ पुनर्वास एवं विकास सहायता पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करता है। इसप्रकार, विश्व खाद्य कार्यक्रम इटली स्थित संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों यथा-खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organisation-FAO) तथा कृषि विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कोष (International Fund for Agricultural Development-IFAD) के साथ मिलकर काम करता है। जिसमेंFAO संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राष्ट्रों को नीतियों के निर्माण एवं धारणीय कृषि का समर्थन करने हेतु योजनाओं के निर्माण में तथा सम्बन्धित देश के कानूनों में परिवर्तन करने में सहायता करता है जबकि IFAD के द्वारा रूरल एरिया में गरीब वर्ग के लोगों के लिए बनी परियोजनाओं में वित्त व्यवस्था एवं पोषण का कार्य सम्पादित किया जाता है। इसप्रकार, खाद्य एवं कृषि संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अग्रणी मानवीय हितों की एक संरक्षक संस्था है जो विपदा आपात की स्थिति में लोगों के जीवन को बचाने और जीवन स्तर में सुधार हेतु खाद्य सहायता भी प्रदान करता है। यही नहीं अपितु यह संस्था पोषण स्तर में सुधार करने और लचीलापन लाने हेतु भी समुदायों के साथ मिलकर कार्य करता है।
ध्यातव्य है कि विश्व खाद्य कार्यक्रम WFP भारत में 1963 से कार्य कर रहा है जो देश में खाद्यान में भारत के आत्मनिर्भर होने के बाद से खाद्य वितरण से लेकर तकनीकी सहायता में भागीदार है। वस्तुतः यह अपने देश में स्वयं की खाद्य वितरण प्रणाली को पारदर्शी जबावदेही और दक्षता की बेहतरी के लिए कार्यरत है ताकि देश के लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को चावल, गेंहू, शक्कर, केरोसीन एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके। साथ ही ग्रामीण के साथ साथ शहरी क्षेत्रों में संचालित सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील स्कूल प्रोग्राम अर्थात मघ्यान्ह भोजन कार्यक्रम के तहत उपलब्ध कराए जा रहे भोजन के पौष्टिक गुणों में वृद्वि करने तथा बहु-सूक्ष्म पोषक तत्वों के सुदृढ़ीकरण करने हेतु कार्यरत है। विश्व खाद्य कार्यक्रम के उक्त प्रयासों के फलस्वरूप पायलट प्रोजेक्ट में यह पाया गया कि केरल में शिशुओं एवं छोटे बच्चों को दिये जाने वाले भोजन में पोषण तत्वों के सुदृढ़ीकरण के चलते कुपोषित बच्चों की संख्या में अभूतपूर्व कमी आयी है साथ ही देश में वितरित किए जा रहे अधिक मात्रा में लौह तत्व युक्त चावल के कारण एनीमिया में 20 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है। इसके अतिरिक्त डब्ल्यूएफपी ने देश के सबसे अधिक खाद्य असुरक्षित क्षेत्रों की पहचान करने के लिये सुभेद्यता विश्लेषण और मैपिंग सॉटवेयर्स का प्रयोग किया है, जो इनके कार्यक्रम की नीतियों एवं राहत कार्यों को उचित रूप से लक्षित करते हैं। भूखमरी को पूरी तरह से खत्म करने के लक्ष्य की दिशा में यह कार्यक्रम देश की राज्य सरकारों की खाद्य सुरक्षा विश्लेषण इकाई की स्थापना में गरीबी एवं मानव विकास निगरानी एजेंसी का भी समय-समय पर समर्थन करता रहा है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की संधारणीय विकास तथा खाद्य सुरक्षा की प्राप्ति में सूचना एवं प्रौद्योगिकी IT Sector  भी महती भूमिका का निर्वहन कर रही है। खाद्य सुरक्षा में प्ज् सेक्टर के प्रमुख योगदान को बिन्दुवार स्पष्ट समझा जा सकता है- (1) इसकी सहायता से देश की राज्य सरकारें विभिन्न फसलों के उम्पादन का, कीमतों का, मौसम में परिवर्तनों का पता लगा सकती हैं। (2) इसके माध्यम से सरकारें न सिर्फ खाद्य सुरक्षा वाले क्षेत्रों का अनुमान लगा सकती हैं अपितु आपात स्थिति में सुरक्षा सम्बन्धी उपाय भी कर सकती हैं। (3) सूचना एवं प्रौद्योगिकी के माध्यम से लोगों के ज्ञान एवं क्षमता में वृद्दि होती है, कृषि से सम्बन्धित तकनीकों का प्रसार एवं विस्तार होता है अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के साधनों में भी वृद्दि होती है।
इसप्रकार, खाद्य सुरक्षा की अवधारणा व्यक्ति के मूलभूत अधिकार को परिभाषित करती है। अपने जीवन के लिए हर किसी को निर्धारित पोषक तत्वों से परिपूर्ण भोजन की जरूरत होती है, महत्वपूर्ण यह भी है कि भोजन की जरूरत नियत समय पर पूरी हो। इसका एक तत्व यह भी है कि आने वाले समय की अनिश्चितता को देखते हुए हमारे भण्डारों में प्रर्याप्त मात्रा में अनाज सुरक्षित हो जिसे आवश्यकता पडने पर तत्काल जरूरतमन्द लोगों तक पहुचाया जा सके। यदि समाज की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी तो लोग अन्य रचनात्मक कार्यो में अपनी भूमिका बखूबी निभा पायेंगे। इस परिपेक्ष्य में सरकार का दायित्व है कि बेहतर उत्पादन का वातावरण बनायें और खाद्यान्न के बाजार मूल्यों को समुदाय के हितों के अनुरूप बनाये रखें। इस सन्दर्भ में मानव अधिकारों की वैश्विक घोषणा 1948 का अनुच्छेद 25(1) के अनुसार हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार को बेहतर जीवन स्तर बनाने, स्वास्थ्य की स्थिति प्राप्त करने का अधिकार है जिसमें भोजन, कपड़े और आवास की सुविधा शामिल है। वहीं दूसरी ओर खाद्य सुरक्षा के मुख्य तत्व हैं-सुसंगठित वितरण व्यवस्था, पोषक आवश्यकता को पूरा करना, पारस्परिक खाद्य व्यवहार के अनुरूप होना, एवं सुरक्षित होना, गुणवत्ता का मानक स्तर के अनुरूप होना।
आजादी के बाद से यद्यपि जीवन निर्वाह के अन्तर्गत उत्पादन बढ़ा है किन्तु गरीबों तक गरीबी रेखा के नीचे के रहने वाले लोगों तक नही पहुंचा पर इसके साथ एक पक्ष धारणीय विकास भी है जिसे नजर अन्दाज कदापि नही किया जा सकता। जिसमें विश्व को भुखमरी गरीबी से निजात दिलाने की बात कही गयी है। हम जानते हैं कि समाज का एक हिस्सा अपनी जरूरत का समान बाजार से नही खरीदता था, वह या तो पैदा करता था या संग्रहित करता था परन्तु अब हर कोई बाजार पर निर्भर है। आर्थिक लाभ कमाने के लिए छोटे-छोटे किसानों ने भी खाद्यान्न फसलों को छोड़कर नकद आर्थिक लाभ देने वाली फसलों पर ध्यान केन्द्रित किया है। यह अत्यन्त विचारणीय तथ्य हैं जो संधारणीय विकास के लक्ष्य को निर्धारित समय सीमा में प्राप्त करने में अवरोधक का कार्य कर सकता है।
विदित है कि भारत में खाद्य सुरक्षा बिल 2013 में सदन में पास हुआ। यह कानून ऐसे दौर में आया है जब कि विश्व की 27 प्रतिशत कुपोषित जनता भारत में रह रही थी। 42 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोते है। 47 प्रतिशत वच्चे कुपोषित है। 5 वर्ष की उम्र के 70 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रसित है। देश में 415 लाख टन अनाज सुरक्षित रखे जाने की क्षमता है। बहरहाल खाद्य सुरक्षा कानून में भारत सरकार ने जो प्रावधान रखे हैं, उनमें प्रमुख हैं- (1) 63.5 प्रतिशत आबादी को सस्ते मूल्यों पर अनाज उपलब्ध कराना, (2) ग्रामीण क्षेत्रों में 75 फीसदी आबादी को इस विधेयक का लाभ दिया जायेगा, (3) गर्भवती महिलाओं, बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं, आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले बच्चों और बूढ़े लोगों को पका हुआ खाना उपलब्ध कराने की व्यवस्था, तथा (4) स्तनपान कराने वाली महिलाओं को प्रति माह 1000 रूपये दिये जाने का प्रावधान है।
इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र संघ की संधारणीय विकास की अवधारणा को दृष्टिगत रखते हुए इस विधेयक के तहत सरकार ने निर्धनों की दो श्रेणियां बनायी गयी हैं-पहला प्राथमिकता वाले परिवार और दूसरा सामान्य परिवार। प्राथमिकता वाले परिवारों में प्रत्येक व्यक्ति को 7 किलो चावल और गेहूं देगी। चावल 3 रूपये और गेहू 2 रूपये प्रति किलो के हिसाब से दिया जायेगा। जब कि सामान्य श्रेणी के लोगों को कम से कम 3 किलो अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे दाम पर दिया जायेगा। इन सबके अतिरिक्त इस विधेयक में ऐसा भी प्रावधान है, जिसके अर्न्तगत सरकार प्राकृतिक आपदा के कारण लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान नही कर पाती है तो योजना के लाभार्थियों को उसके बदले पैसा दिया जायेगा। इस विधेयक के द्वारा राशन व्यवस्था का विस्तार हुआ है। मोटे अनाजों को भी इसमें शामिल किया गया है परिणामस्वरूप आशा की जा रही है कि मोटे अनाजों के उत्पादन में किसानों की रूचि बढ़ेगी।
पर ऐसा नही है कि इस विधेयक में सब कुछ शामिल है, इसमें से सार्वभौमिकीकरण का मुद्दा गायब है। अभी भी यह शहरी क्षेत्र की 50 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्र की 75 फीसदी आबादी तक ही पहुंच पा रही है। इसके साथ ही यह भी तय नही है कि इसमें किन-किन वस्तुओं और किन-किन समूहों को शामिल किया गया है। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह ने कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताया था, दुख की बात है कि इस बिल में अन्यान्य आवश्यक खाद्य पोषक पदार्थो प्रमुखतः दालों को तेल को शामिल नही किया गया। इसके अतिरिक्त बेघर व्यक्तियों के बारें में भी इसमें कोई प्रावधान नही किया गया। इस कानून के लागू होने पर निश्चित रुप से राजकोषीय बोझ भविष्य में और बढ़ सकता है जो धीरे-धीरे करके विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ने पर कम होगा। किसानों को यह भी आश्वासन दिया गया कि खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने पर उन्हे न्यूनतम सर्मथन मूल्य मिलता रहेगा। मण्डियों मे जो भी अनाज आयेगा उसकी खरीद की जायेगी। 2016 के बजट में सं0रा0सं0 की धारणीय विकास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वराज अभियान नामक योजना लाई गई जिसके अन्तर्गत 655 करोड़ रूपए आवंटित किए गए। इसके माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं के गवर्नेंस संरचना को सुधारने का प्रावधान किया गया है।
इसप्रकार भारतीय खाद्य सुरक्षा कानून शहरी क्षेत्र की आधी और ग्रामीण क्षेत्र की एक चौथाई आबादी को कोई भी खाद्य सुरक्षा प्रदान नही करता है। यद्यपि भारत सरकार ने आम आदमी की भूख को प्राथमिकता देकर निश्चित रुप से सार्थक पहल की है। भारतीय अर्थव्यस्था में गरीबी, भुखमरी, कुपोषण के समाधान के लिए भारतीय आर्थिक नीति मंे त्रिविधा दिखाई दे रही है जिसमंे मनरेगा क्रयशक्ति प्रदान करता है, खाद्य सुरक्षा कानून लोगों को भोजन प्रदान करता है जबकि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन लोगों को स्वास्थ्य प्रदान करता है। किन्तु आवश्यकता है इन तीनों को उपयुक्त तरीके से लागू किया जाये जिसमें न्यूनतम रिसाव हो तो निश्चित रुप से भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबी, कुपोषण, भूखमरी जैसी भयावह समस्याओं का समाधान हो जायेगा और सं0रा0सं0 की वैश्विक योजना संधारणीय विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति में भारत सफल हो सकता है।
वैश्विक भूख सूचकांक Global Hunger Index-GHI में भारत का स्थान आज भी अत्यन्त चिन्तनीय है। इस सूचकांक में गरीबी का उच्च स्तर, अल्प आय स्तर, रोजगार के अवसरों की और योग्यतानुरूप रोेजगाार की अनुपलब्धता, कृषि शोध पर अल्प व्यय, खराब आधारभूत संरचना, अपोषकीय भोज्य पदार्थ शामिल है। जिन पर देश को ध्यान देने की आवश्यकता है। खाद्य सुरक्षा बिल से यद्यपि लोगों में सहनशक्ति और आत्मविश्वास का भाव जागृत होगा किन्तु कृषि को आत्मनिर्भर बनाए बिना GHI में सुधार सम्भाव्य नहीं है। डॉ0 एस0 अयप्पन का कहना है कि भारत वर्ष 2050 तक खाद्य सुरक्षा में आत्म निर्भर हो जायेगा। उन्होेने यह भी कहा कि भारत के सामने जनांकिकी, फसलो के वितरण व वातावरण में परिवर्तन, घटते भूमि व जल का स्तर आदि जैसी काफी चुनौतियॉ बनी हुई है पर हमारी शक्ति हमारे युवा जनसंख्या है। अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि उपरोक्त के कारण अर्थव्यवस्था में राजकोषीय घाटे पर भार अधिक आयेगा जो किसी भी विकासोन्मुख राष्ट्र के सही नही है। यद्यपि यह भार मात्रात्मक होगा किन्तु गुणात्मक भार अर्थव्यवस्था के पक्ष मंे आयेगा और उपरोक्त कारणों से सामाजिक विषमताओं में कमी आयेगी तथा अर्थव्यवस्था का पोषणीय विकास होगा। अस्तु स्पष्ट है कि सार्थक दीर्घगामी सतत प्रयासों के बिना संयुक्त राष्ट्रसंघ की मिलेनियम गोल संधारणीय विकास के लक्ष्यों की प्रप्ति 2030 तक कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि आधुनिक विकास की प्रक्रिया में जनसंख्या का आधिक्य एवं निरंतर वृद्दि, कृषि जोत का होता छोटा आकार और कृषि की परम्परागत प्रणाली में अपर्याप्त सुधार आदि इत्यादि आज भी सर्वाधिक बड़ी बाधाएं हैं।
भारत जैसे जनाधिक्य वाले देश में संधारणीय विकास की अवधारणा को सफल बनाने के लिए दीर्घगामी, स्थिर, नवाचारयुक्त योजनाओं-कार्यक्रमों के निर्माण से लेकर सफल क्रियान्वयन तक का दायित्व राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार को करना होगा। कृषि क्षेत्र को आधुनिकतम, अनुलूतम और रोजगारपरक-लाभपरक बनाये बिना कृषि और खाद्य सुरक्षा को स्थायित्व प्रदान नहीं किया जा सकता। खाद्य उत्पादनों के पर्याप्त संसाधनों का पता लगाए बिना तथा भूमिगत संसाधनों का यथेष्ट विदोहन किये बिना सभी जनमानस के लिए स्वस्थ पोषक आहार की उपलब्धता असम्भाव्य है। विकसित राष्ट्रों एवं कृषि आधारित विकसित अर्थव्यवस्थाओं की कृषि क्षेत्र में किये गये प्रयासों, संधारणीय प्रक्रियाओं को लागू किये बिना तथा भूमि, जलवायु के अनुरूप फसलों के निर्धारण के बिना धारणीय विकास के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
भारत में आज भी उसर, पड़ती, पहाड़ी रेतीली और सरकारी अधिग्रहण में पर्यापत मात्रा में भूमि निष्क्रिय, अनुत्पादक पड़ी हुई है जिसका कृषि क्षेत्र में योजनागत उपयोग आज की महती आवश्यकता बन चुकी है। यही नहीं अपितु सिंचाई साधनों का विस्तार आधुनिकीकरण तथा उर्जा के नवीन स्रोतों एवं वर्षा जल संग्रह संसाधनों के उपयोग को प्रोत्साहित कर कृषि फसलों की उपज पैदावार को बढ़ाया जा सकता है तथा उन्नत विकसित कृषि करने वाले देशों की कृषि उत्पादकता से भारतीय कृषि की उत्पादकता का जो अन्तर है उसे कम किया जा सकता है। इसप्रकार स्पष्ट है कि बिना सम्यक, सतत और दीर्घकालिक प्रयासों के बिना संधारणीय विकास के लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है। भारत में प्रचलित परम्परागत पुरानी प्रणालियों में सुधार आज की मांग ही नहीं अपितु आवश्यकता बन चुकी है। सरकार को धारणीय विकास के अनुरूप कृषि सुधार की दिशा में सुझाए गए विविध उपायों को अपनाकर सार्थक प्रयास करना चाहिए।

सन्दर्भ सूचीः
1- LMS Baghel et. al. -“Analysis of Variability & Growth Pattern of Agriculture Output in India: A Seasonal Approach”, Agricultural Situation in India, pp.569-575, N.D., 1997. (ISSN: 0002-1679)
2- LMS Baghel et.al.  IJND, Vol. VII(2), 2017, pp.1-3. (ISSN: 2277-9876)
3. भारतीय अर्थव्यवस्था, मिश्रा एवं पूरी, हिमालया पब्लिकेशन नई दिल्ली, 2013.
4. भारतीय अर्थव्यवस्था, सर्वेक्षण एवं विश्लेषण- डॉ0 एस0एन0 लाल, शिव पब्लिकेशन इलाहावाद, 2013.

5- https://hi.wikipedia.org/wiki/la/kkj.kh;_fodkl_y{;
6- Revati Laul (Sep.7,2013)FSB can help to protect the people from poverty and insecurity- Tehlka.
7- https://www.drishtiias.com

 

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