ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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स्वदेशी आन्दोलन काल में आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना

डॉ0 मुकेश चन्द्र श्रीवास्तव
प्रवक्ता इतिहास
गायत्री पिद्यापीठ पी0जी0 कॉलेज रिसिया, बहराइच

भारत में बीसवी शताब्दी का उदय स्वदेशी आन्दोलन के साथ जु़ड़ा हुआ है। नयी शदी में जन्में इस आन्दोलन से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन न केवल बल मिला, अपितु देश में एक नयी परम्परा की शुरूआत हुयी। यह था स्वालम्बन, गरम पन्थी विचारधारा का उदय। इस आन्दोलन ने समाज के सभी वर्गाें को प्रभावित किया। जिसका प्रभाव भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के राष्ट्रीय आन्दोलन में 75 वर्षों में आने वाले थे।
इस आन्दोलन की शुरूआत बंगाल में 1905 में शुरू हुयी थी। इसका कारण था बंगाल का विभाजन जिसकी रूपरेखा तत्कालीन बाइसराय लार्ड कर्ज़न ने तैयार की थी। चूँकि बंगाल आध्यत्मिक केन्द्र होन के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम का गढ़ था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता बंगाल से थे। वही समस्त राजनीतिक गातिविधियाँ शुरू होती थी। अतः कर्जन का उद्देश्य एक ऐसे गढ़ को समाप्त करना था। जहाँ पर बंगाली आबादी निवास करती थी एवं कलकत्ता को सिंहासनच्युत करना था। उस समय के तत्कालीन ग्रहसचिव राइसले का कहना था ’’अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है। विभाजित होने से कमजोर पड़ जायेंगी हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का विभाजन है। जिससे हमारे दुश्मन कमजोर पड़ जाये और टूट जाएँ’’। इस उद्देश्य से लार्ड कर्जन ने बंगाल का बँटवारा किया। प्रभाव यह हुआ सभी बंगाली एक हो गये। उन्होंने विदेशी वस्त्रों एवं सामानों का बहिष्कार किया। जिसने भारतीयों में स्वालम्बन एवं आत्मगौरव की भावना का विकास हुआ। राजनैतिक तौर पर दो विचारधारा उदारवादी एवं गरमपन्थी विचारधारा का विकास हुआ।
भारत में स्वदेशी आन्दोलन की शुरूआत 1905 में हुयी। स्वदेशी का तात्पर्य अपने देश या अपने देश में निर्मित सामानों/उत्पादों का प्रयोग करना। लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया था। इस विभाजन के प्रस्ताव की खबरें पूरे बंगाल में आग की तरह फैल गयी एवं विरोध की आवाजें उठने लगी। कर्जन ने इस पर प्रतिक्रिया अपने ग्रह सचिव को दी, यदि हमने इस विरोध को और अधिक नही दबाया तो हम बंगाल का विभाजन नहीं कर पायेगें…………….विरोध दबाने का तात्पर्य यह था कि हम ऐसी ताकतों के बढ़ने का अवसर देगें जो भविष्य में हमारे लिये संकट पैदा कर देगें। यह विभाजन मात्र प्रशासनिक तौर पर नहीं था अपितु बंगालियों को अल्पसंख्यक बनाना था। मूल बंगाल में 1.70 लाख बंगाली, 3.70 उड़िया एवं हिन्दी भाषी लोगों को रखने की योजना थी। इसके अतिरिक्त एक कारण था साम्प्रदायिकता अर्थात हिन्दू-मुस्लिम आधार पर बंगाल का विभाजन। स्वयं कर्जन ने मुस्लिमों को रिझाने के लिए ढ़ाका जैसी एक ऐसी शक्ति का विकास जहाँ पर मुसलमान बहुसंख्यक हो, किया।
इस विभाजन ने पूरे बंगाल में आग फैलाने का कार्य किया। हिन्दू-मुसलमानें ने बंगाल विभाजन का खुलकर विरोध किया। उनके घरों में चूल्हें नहीं जले। हिन्दू-मुसलमानों एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधकर सामाजिक-सौहार्द का परिचय दिया। जगह-जगह पर बैठके हुयी। बंगाली समाज के बीच 4000-5000 पर्चें बांटे गये। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी कृष्ण कुमार मित्र, पृथ्वीशचन्द्र राय जैसे नेताओं ने अपने समाचार पत्रों बंगाली के माध्यम से आन्दोलन छेड़ दिया। भारत सरकार को ज्ञापन भेजे गये। ब्रिटिश सरकार का जमकर विरोध हुआ। नेताओं के एक वर्ग जिसमें अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लोकमान्य, बालगंगाधर तिलक शामिल थे। उन्होने स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया। आगे लचकर यही स्वतऩ्त्रता संग्राम आन्दोलन का प्रमुख हथियार बना, जिसे गाँधी जी ने भी अपनाया। उन्होंने इसे ’स्वराज की आत्मा’ कहा। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे ’आत्म शुद्धि’ या ’’आत्मसम्मान’’ की रक्षा से जोड़ा। वन्देमात्रम् को बंगाल विभाजन का प्रमुख हथियार बनाया गया। अरविन्द ने ’’न्यू लैप्स फॉर ओल्ड’’ नामक शीर्षक में काग्रेंस की नरमपन्थी/उदारवादी नीति का विरोध किया। रानाड़े ने सबसे पहले इसके लिए ’’स्वदेशी’’ शब्द का प्रयोग किया।
काग्रेंस जो देश में पूरे आन्दोलन का नेतृत्व कर रही थी। मौटे तौर पर दो भागों में विभक्त हो गई- नरमपन्थी एवं उग्रपन्थी या गरमपन्थी। नरमपन्थी अहिसंक आन्दोलन में विश्वास करते थे, तिलक जिसे भिक्षावृत्ति की राजनीति कहते थे। उनके पश्चिमोन्मुख आचार-विचार के कारण जनता उनसे अलग हो रही थी जबकि गरमपन्थियों ने न केवल आन्दोलन को धार दी अपितु उन्होंने स्वदेशी को अपनाने पर बल दियार उन्होंने रचनात्मक स्वविकास को अपनाया। परिणामस्वरूप भारत में उनके उद्योग धन्धे, स्कूल-कॉलेज खुलें जो स्वदेशी मॉडल पर आधारित थे। इसका प्रभाव सम्पूर्ण जनता मे देखने को मिला। उन्होंने विदेशी वस्त्रों एवं सामानों का बहिष्कार किया। अतः इसे बहिष्कार या बायकॉट आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है।
बहिष्कार आन्दोलन या स्वदेशी आन्दोलन का नेतृत्व यद्यपि गरम पन्थियों के हाथों में था परन्तु उनके विचार रानाडे, नौरोजी, आर0सी0 दत्त पर आधारित थे, अर्थात् उनके विचारों में कोई मौलिकता नहीं थी। हाँलाकि उनके कहने का तरीका कर्कंश था। अरविन्द घोष ने अपने लेख ’’न्यू लैप्स फॉर ओल्ड’’ में अरविन्द ने बाद में बी0सी0 पाल ने बहिष्कार की वहीं अधिक विस्तृत संकल्पना वाली शब्दावली का प्रयोग किया वह था- आर्थिक, शैक्षिक, न्यायिक एवं प्रशासनिक स्वर पर ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध करना। आगे चलकर इस संकल्पना में धार्मिक स्वर का भी प्रस्फुरन हुआ। यह अफवाह फैला कि लीवरपुर से आने वाला नमक जो मॉरीशस से आयतित किया जा रहा है उसकों गाय एवं सुअर के हड्डियों के चूरें से साफ किया जाता है। सम्पूर्ण विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की बात सात किसी भी उग्रवादी नेता के गले नहीं उतर रही थी क्योंकि ऐसा हो सकना वे असम्भव मानते थे। बहिष्कार के माध्यम से वे ब्रिटिश प्रतिष्ठा पर प्रहार भर करना चाहते थे। निरंकुश शासकों की सद्भावना पूर्ण निरंकुशता के प्रति बहिष्कार की भावना केवल मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया भर थी जिसे अमलेश त्रिपाठी ने ’’सद्भावना पूर्ण उदासीनता’’ केवल स्वदेशी उद्योगों की रक्षा होगी (रानाड़े एवं गोखले का चिन्तन यहीं समाप्त हो जाता है।) वरन् राष्ट्र का गौरव भी जाग जायेगा और इस प्रकार जनता में राष्ट्र के कस्याणार्थ आत्मबलिदान की भावना पर जायेगी।
इस बहिष्कार आन्दोलन/स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव-शैक्षिक गातिविधियों, उद्योग धन्धों एवं अर्थव्यवस्था में दिखायी पड़ने लगा। बहिष्कार का आरम्भ सबसे पहले विदेशी वस्त्रों पर दिखायी पड़ा। अगस्त 1905 की तुलना में सितम्बर 1906 में कलकत्ता कस्टम कलस्टर के अनुसार सूती थानों के आयात में 20ःए सूत की लच्छी एवं सूत में 44ः नमक में 11ः सिगरेट में 55ः जूते एवं बूटों की कीमत में 48ः की कमी आयी। मैनचेस्टर से आने वाले कपड़ों की बिक्री में गिरावट देखी गई। जिनकी मांग कस्टम कलस्टर के अनुसार अधिकांशतः मध्यम वर्ग जैसे- बाबुओं, वकीलों इत्यादि के बीच ही था।
स्वदेशी आन्दोलन का असर कुटीर धन्धें पर भी देखने को मिला। जिसने दस्तकारी जैसे उद्योग में नवजीवन का संचार किया। मार्च 1904 में जोगेन्द्रचन्द्र घोष ने एक समिति बनाकर विद्यार्थियों को तकनीकी प्रशिक्षण हेतु बाहर (प्रायः जापान) भेजने के लिए धनराशि का जुटाना। इसी का परिणाम था अगस्त 1906 में बंगलक्ष्मी काटन मिल की स्थापना। चीनी मिट्टी के कारखाने (कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, 1906) क्रोम, टैनिंग, दियासलाई उद्योग एवं सिगरेट बनाने के भी उद्योग खाले गये। 1893 में बंगाल केमिकल्स फैक्ट्री की भी स्थापना की गई थी। इसके लिए बैकिंग-प्रणाली को भी चुस्त दुरूस्त रखने का प्रयास किया गया। कई बैंकों की भी स्थापना की गई- बैंक ऑफ इण्डिया 1906, बैंक ऑफ बड़ौदा 1908, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया 1911, बैंक ऑफ मैसूर 1913। इन बैंकों ने स्वदेशीकर को बढ़ावा दिया तथा नये उद्योग धन्धों के खोलने में सहायता भी प्रदान की।
इस आन्दोलन का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा। सतीशचन्द्र मुखर्जी को राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रधान बनाया गया। देशी भाषा में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए टैगोर ने शान्ति निकेतन एवे सतीश मुखर्जी ने डॉन सोसाइटी की स्थापना की। इन दोनो का उद्देश्य पारंपरिक एवं आधुनिक की सम्मिलित योजना के आधार पर कुछ एक चुने हुए युवकों को ’श्रेष्ठतर संस्कृति’ की शिक्षा देने की थीं। कुछ वर्षों के उपरान्त 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा के आधार पर नेशनल कॉलेज की स्थापना की गई। जिसके प्रथम प्राचार्य बने अरविन्द घोष। पंजाब में लाला लाजपत राय औद्योगिक उद्यम के विस्तार में लगे हुये थे। 1906 में ही अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट्स की स्थापना की थी। इसने प्राचीन भारतीय कला का संरक्षण का कार्य किया। इसका एक और कार्य देशी एवं उभर रहे कलाकारो को संरक्षण प्रदान करना था। नन्द लाल बोस को पहली छात्रवृत्ति दी गई।
इस आन्दोलन में स्त्रियों ने भी भाग लिया। यद्यपि यह आन्दोलन पूर्ण से अपनी छाप छोड़ नही पाया हो, परन्तु इतना तो सच है इस आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार को आर्थिक तौर पर काफी हानि पहुँचायी। राजनीतिक तौर जो इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होने नये रास्ते चुने-अरविन्द घोष पाण्डिचेरी चले गये तथा वहाँ आश्रम की स्थापना की। तिलक को 06 वर्ष का कारबार मिला। वे माण्डले जेल में कै रहे। युवाओं ने इस आन्दोलन में आत्मनिर्भरता की भावना विकास हुआ। अतः स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि स्वदेशी आन्दोलन ने आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जिसने आने वाले स्वतन्त्रता संग्राम के 75 वर्ष में प्रभावी हथियार के रूप में काम किया।

सन्दर्भ ग्रन्थ:-
1. कान्त, मदन लाल वर्मा 2006, स्वाधीनता संग्राम का क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास- नई दिल्ली प्रवीण प्रकाशन पृ0 84, ISBN- 817783-1194
2. चन्द्र विपिन-भारत का स्वतन्त्रता संग्राम हिन्दी माध्यम क्रिर्यान्वयन विश्वविद्यालय, नई दिल्ली पृष्ठ 86-87
3. बंधोपाध्याय शेखर, पलासी से विभाजन तक आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियंट लॉडमैन नई दिल्ली पृष्ठ 271
4. सरकार सुमित, आधुनिक भारत (1885-1947) राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पटना पृष्ठ 135-136
5. शुक्ल राम लखन आधुनिक भारत का इतिहास (स्वतन्त्रता प्राप्ति से देश विभाजन तक) हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन विश्वविद्यालय नई दिल्ली, पृष्ठ 521-522
6. ओझा शिवकुमार (सम्पादक), आधुनिक भारत का इतिहास, बौद्धिक प्रकाशन, प्रयागराज पृष्ठ 278

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