ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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1857 से वर्तमान तक भारतीय किसान आन्दोलन का अन्वेशण परक चिन्तन एवं मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य

डॉ इन्द्रमणि
एसो0 प्रो0 राजनीति विज्ञान
वी0एस0एस0डी0 कॉलेज
कानपुर।

1857 की क्रान्ति भारतीय इतिहास में एक विशेष महत्व रखती है। सर्वप्रथम महाराष्ट्र के विनायक दामोदर सावरकर ने इस क्रान्ति को प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन की संज्ञा से संज्ञापित किया जिससे प्रायः सभी पाश्चात्य विद्वान सहमत नहीं है। वस्तुतः 1857 का आन्दोलन भारत पर हुकूमत कर रहे अंग्रेजों के खिलाफ था। यह आन्दोलन शोषण, अन्यायपूर्ण राजनीतिक भेदभाव, लगान की कमरतोड़ दर, बंधुआ मजदूरी एवं दमनात्मक शासन व्यवस्था के फलस्वरूप हुआ था। तत्समय आन्दोलन एवं क्रान्ति ही अपना हक मांगने का एकमात्र सहारा होता था। यदि आन्दोलन सफल होता था तो कुछ सशर्त सुनवाई होती थी अन्यथा कि स्थिति में आन्दोलनकारी जनों को प्रताणित किया जाता था, गैर मानवोचित व्यवहार किया जाता था। कभी-कभी तो उनकी निर्मम हत्या तक कर दी जाती थी। उल्लेखनीय है कि उस समय वैश्विक स्तर पर मानवधिकार जैसी कोई ठोस कदम उठाने वाली संस्था नहीं थी और न ही भारत जैसे देष में संविधानगत स्वशासन। यद्यपि सुसभ्य समाज का प्रतिनिधि समझे जाने वाले अंग्रेज, जिसकी भारत पर हुकूमत थी, वे 1215 ई0 में मैग्नाकार्टा जैसा दस्तावेज ला चुके थे जो मानवोचित शुभ के लिये पर्याय सा था। उसके बाद तमाम और मानव अधिकार से जुड़े विचार एवं विधेयक अस्तित्व में आये और अन्ततोगत्वा 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा की गयी जो कालान्तर में मानव अधिकार की पहरी बनी परन्तु अंग्रेजों द्वारा भारत में दमनकारी नीति ही प्रयोग में लायी जाती रही।
इस शोध पत्र का मुख्य प्रश्न यह है कि 15 अगस्त 1947 के पूर्व औपनिवेशिक भारत के किसानों एवं किसान आन्दोलनों की क्या स्थिति रही और 15 अगस्त 1947 के आजाद भारत में किसानों एवं किसान आन्दोलनों की क्या स्थिति है।
वस्तुतः 1857 का आन्दोलन एकजुटता का प्रतीक नहीं है। अलग-अलग शहरों एवं अलग-अलग दिवसों में भारतीय जाबाजों ने अंग्रेजो से लोहा लिया था। इस विकेन्द्रित आन्दोलनों को अंग्रेजी हुकूमत ने बेरहमी से कुचल दिया था।
यह आन्दोलन शोषण, अन्यायपूर्ण, राजनीतिक भेद-भाव एवं दमनात्मक शासन व्यवस्था के फलस्वरूप हुआ था। 1857 से वर्तमान सदी में अब तक हम 160 वर्ष व्यतीत कर चुके हैं जिसमें अंग्रेजी हुकूमत एवं 1947 से आजाद भारत की अपनी हुकूमत में जी रहे हैं। इस दौरान कृषि प्रधान देश भारत में अन्नदाता के लिए क्या कुछ बदला है इसकी ऐतिहासिकता का अध्ययन आज उपयोगी एवं परम् प्रासंगिक है क्योंकि जो किसान आन्दोलन अंग्रेजी हुकूमत में हुआ करते थे आज 21वीं सदी के आजाद भारत में भी हो रहे है। जहाँ तक मैं देख रहा हूँ कि वे तब भी हाशिये पर थे और आज भी हाशिये पर हैं। गुलाम भारत में बहुधा तीन प्रकार की व्यवस्थाएँ प्रचलित थी- यथा-(1) जमीदारी प्रथा (2) महालवाड़ी प्रथा एवं (3) रैयतवाड़ी प्रथा। इन सभी में भूमिहारों द्वारा भूमिहीनों अर्थात् किसानों का शोषण होता था। व्यवस्था ऐसी थी कि किसान प्रायः मजदूर किसान होता था दूसरे की भूमि पर खेती करता था। कुछ किसान ऐसे भी थे जिनकी स्वयंकी भूमि थी और वे अपनी भूमि पर किसानी करते थे।
अब आजाद भारत में लोग अपनी भूमि पर किसानी करते है परन्तु अधिकांश किसान आज भी आर्थिक रूप से हाशिये पर है तथा आन्दोलन और आत्महत्या को मजबूर है। परिकल्पना यह है कि व्यवस्था बदली है परन्तु किसानों की तकदीर नहीं बदली।
इस शोध प्रत्र का विस्तृत विश्लेषण दो भागों में विवरणात्मक रूप से किया जा रहा है।
भाग-1 1857 से 1947 तक औपनिवेशिक भारत।
भाग-2 1947 से वर्तमान तक आजाद भारत।
भाग-1 1857 से 1947 तक के औपनिवेशिक भारत में जो महत्वपूर्ण किसान आन्दोलन हुए उसका विवरण, कारण, परिणाम एवं प्रभाव का ऐतिहासिक विश्लेषण निम्नांकित प्रकार से देख सकते है।
यह बात सर्वविदित है कि यूरोपीय कम्पनियाँ हमारे देश में आर्थिक फायदे के लिए अपना उपनिवेश बनाई थी फलतः उनके मुख्य उद्देश्ययों में आर्थिक शोषण का बीज मौजूद था, जो कभी प्रक्षिप्त रहता था तो कभी खुलकर सामने आ जाता था। तात्कालिक ब्रिटिश सरकार ने भारतीय अन्नदाता को भी अपने शोषणजन्य दमनकारी नीति के आगोश में ले लिया था।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अंग्रेजों ने कुछ देशी रियासतों की सहायता से दबा तो दिया परन्तु इसके पश्चात भी भारत में कई जगहों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में दहकती रही जो अनेक स्थानों के किसान आन्दोलन के रूप में प्रकट हुई। निम्नांकित है-
नील आन्दोलन (1859-1860)ः यह आन्दोलन भारतीय किसानांे द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में किया गया। अंग्रेज अधिकारी बंगाल और बिहार के जमींदारो से भूमि लेकर बिना पैसे दिए ही किसानांे को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रकम देकर इकरारनामा लिखा लेते थे जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को ‘ददनी प्रथा’ कहते थे। इस प्रकार भारतीयों का शोषण होता था। उल्लेखनीय है कि नील आन्दोलन के पूर्व से बिजोलिया किसान आन्दोलन चल रहा था और लगभग 50 वर्षों तक किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतो का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया।
पाबना विद्रोह (1873-1876)ः 1859 ई0 में एक एक्ट के तहत पाबना जिले के काश्तकारों को बेदखली एवं लगान वृद्धि निरोधक संरक्षण प्राप्त था इसके बावजूद भी जमीदारों ने उनसे तय सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको जमीन के अधिकार से वंचित कर दिया। जमीदारों की इस ज्यादती का मुकाबला करने हेतु पाबना के युसूफ सराय के किसानांे ने मिलकर 1873 ई0 में एक ‘कृषकसंघ’ का गठन किया जिसका प्रमुख कार्य पैसे एकत्र करना एवं संभाये आयोजित करना होता था। और अपने अधिकारों के विरूद्ध दमनकारी नीतियों का विरोध करना होता था।
कूका विद्रोह: कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज सरकार से लोहा लेने के लिए बानए गये इस संगठन के संस्थापक जवाहरमल थे। 1872 में इनके शिष्य बाबा राम सिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। बाद में उन्हें कैद कर रंगून भेज दिया गया जहाँ पर 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।
दक्कन विद्रोह-(1874 ई0)ः महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिले के गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार ढेर सारे हथकण्डे अपनाकर एवं अंग्रेजो से मिलकर किसानों का भरपूर शोषण करते थे। दिसम्बर 1874 ई0 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की ड़िग्री प्राप्त कर ली। इस घटना पर किसानों ने शाहूकारों के विरूद्ध 1874 में शिखर तालुका के करड़ाह गाँव से जबरदस्त आन्दोलन प्रारम्भ किया।
ताना भगत आन्दोलनः यह आन्दोलन 1914 में बिहार में हुआ था जो लगान की ऊँची दर एवं चौकीदारी कर के विरूद्ध था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक ‘जतराभगत’ थे। इनके अतिरिक्त अन्य नेताओं में बलराम भगत एवं गुरूरक्षित भगत का भी प्रमुख स्थान था।
चम्पारन सत्याग्रहः चम्पारन सत्याग्रह 1917 में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में किया गया । यद्यपि चम्पारन का मामला बहुत पुराना था। चम्पारन के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबन्ध करा लिया था, जिसके अर्न्तगत किसानों की जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे ‘तिनकठिया पद्धति’ कहते थे। किसान इस तुगलकी फरमान से छुटकारा पाना चाहते थे। परिणामतः गाँधी जी के नेतृत्व में यह आन्दोलन सफल रहा।
खेड़ा सत्याग्रहः चम्पारन के बाद गाँधी जी ने 1918 में गुजरात के खेड़ा मेें किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत मांगी लेकिन कोई रियायत नही मिली। परिणामतः गाँधी जी ने सरदार बल्लभ भाई पटेल एवं इन्दुलाल याज्ञनिक के साथ मिलकर 22 मार्च 1918 ई0 में खेड़ा आन्दोलन की बागड़ोर संभाली और किसानों से लगान न अदा करने को कहा जिसमें वे सफल हुये और अंग्रेजी हुकूमत ने आदेश दिया कि वसूली समर्थ किसानों से ही की जाय।
मोपला विद्रोह (1920)ः केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपलाओं द्वारा 1920 ई0 में विद्रोह किया गया। प्रारम्भ में यह आन्दोलन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ था बाद में इसे सामप्रदायिक रंग-रूप दे दिया गया। महात्मा गाँधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आन्दोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता-अली मुसलियार थे। बाद में इसका नेतृत्व स्थानीय मोपला नेताओं के हाथ में चला गया। इस आन्दोलन को भी शीघ्र ही कुचल दिया गया।
बारदोली सत्याग्रहः गुजरात के बारदोली तालुके में 1922 में किसानों द्वारा ‘लगान’ न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। बारदोली आन्दोलन पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन का सबसे संगठित, व्यापक एवं सफल आन्दोलन रहा है। बारदोली में ‘मेड़ता बन्धुओं’ (कल्याणजी और कुँवरजी) तथा दयालजी ने किसानों के समर्थन में 1922 ई0 में आन्दोलन चलाया था। बाद में इसका नेतृत्व सरदार बल्लभ भाई पटेल ने किया। बारदोली क्षेत्र में कापिल-राज जनजाति रहती थी, जिसे ‘हाली पद्धति’ के अर्न्तगत उच्च जातियों के यहाँ पुश्तैनी मजदूर के रूप में कार्य करना होता था।
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि अपने अधिकारों की रक्षा एवं दुराग्रहपूर्ण नीतियों के विरूद्ध विद्रोह, आन्दोलन एंव सत्याग्रह हेतु भारतीयों ने कुछ संगठन बनाने का कार्य भी किया है। परिणाम स्वरूप 1923 में स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने ‘बिहार किसान सभा’ का गठन किया। 1928 ई0 में ‘आन्ध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा’ की स्थापना एन0जी0 रंगा ने की। उड़ीसा के मालती चौधरी ने ‘उत्कल प्रान्तीय किसान सभा’ की स्थापना की। बंगाल में अकरम खाँ, अब्दुर्रहीम, फजलुलहक के प्रयासों से 1929 ई0 में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ की स्थापना हुई। अप्रैल 1935 में संयुक्त प्रान्त में किसान सभा की स्थापना हुई। और इसी वर्ष एन0जी0 रंगा व अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक ‘अखिल भारतीय किसान संगठन’ के गठन की योजना बनायी एवं 1936 में गठन कर दिया।
भाग-2- 1947 से वर्तमान तक आजाद भारत में कृषकों की स्थिति परिस्थिति, आन्देालन, आत्महत्याजन्य, बदहाल आर्थिक स्थिति का सम्यक् विश्लेषण निम्नांकित है जो मानवाधिकार जैसी एजन्सियों के लिए सीधी चुनौती है।
नदी घाटी सभ्यताओं से भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को लेकर उपजा मानव समुदाय अपने संघर्षों को लेकर इतिहासबद्ध रहा है। संघर्षों में ही अधिकार की गन्ध आती है जो नैसर्गिक रूप से मानवीय समुदाय के जड़ में सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहती है। मानवाधिकार वर्तमान युग का कोई नवीन सम्प्रत्यय नहीं है बल्कि इसका बीज वैश्विक सभ्यता एवं संस्कृति में परिलक्षित होता है। सभ्यता और संस्कृति की अजस्र धारा में व्यक्ति की गरिमा, अस्मिता तथा मानवीय प्रतिष्ठा का भाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। इस वैश्विक और सार्वजनीन अवधारणा के भीतर भारत में भी मानवाधिकारों के विविध सन्दर्भ और आयाम प्रकट हुए है। दृष्टान्त के रूप में वैदिक राज व्यवस्था में राजा द्वारा प्रजा का पुत्रवत् पालन एवं ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः‘ रूपी प्रजा-कल्याण का प्रत्यय यह भाषित करता है कि सुखवादी संस्कृति से लेकर भारतीय वैदिक संस्कृति मानव के अधिकार एवं कल्याण के प्रति गम्भीर रही है, इससे भी आगे भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध एवं सम्राट अशोक का उपदेश हो या बाइबिल, कुरान एवं गुरूग्रन्थ साहिब का पवित्र सन्देश, सब में लोकमंगल एवं मानवता के प्रति प्रेम, करूणा एवं आदर का भाव समान रूप से परिलक्षित होता है, हालाँकि मानवाधिकार की वैधानिक प्रविष्टि इंग्लैण्ड में मैग्नाकार्टा (1215) पर हुए हस्ताक्षर से आच्छादित है। तदोपरान्त क्रमशः 1679 में ब्रिटेन में हैबियस कार्पस एक्ट, बिल ऑफ राइट (1689), 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति, जॉन लॉक द्वारा जीवन, सम्पत्ति एवं स्वतंत्रता पर जोर देना, राष्ट्र संघ के चार्टर में मानवाधिकार पर बल दिया जाना और अन्ततः (न्ण्छण्व्ण्) संयुक्त राश्ट्र संघ के चार्टर में मानवाधिकार का विशेष उल्लेख किया जाना, जिसके मद्देनजर महासभा ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा को अंगीकृत किया।
वस्तुतः अधिकार मानव जीवन की वह परिस्थितियाँ हैं जिसके बिना उसका सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है। अधिकार केवल एक अवधारणा नहीं है अपितु यह मानव जीवन एवं उसकी संवेदनाओं से जुड़ी हुई एक मूलभूत आवश्यकता है जिसके अभाव में हम गरिमापूर्ण जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। व्यक्ति के बहुआयामी विकास के लिए जिन अनुकूल एवं महत्वपूर्ण स्थितियों की आवश्यकता होती है, उसी सम्पूर्णता का नाम मानवाधिकार है। किसी भी राष्ट्र में केवल स्वतंत्रता ही महत्व नहीं रखती अपितु उसमें निरन्तर लोकतान्त्रिक मूल्यों का कायम रहना जरूरी है। हमारे पूर्वजों ने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जिसमें न भय होगा, न किसी का शोषण होगा और न ही कोई भूख से मरेगा। परन्तु आज वैश्विक स्तर पर अन्नदाता जिस आर्थिक कुचक्र में फंसा हुआ है, और भारत जैसे देश में आत्महत्या को मजबूर है वह वर्तमान सरकारों के लिये परम् निन्दनीय एवं अत्यन्त गम्भीर है। यह सत्य है कि तीसरा विश्वयुद्ध नहीं हुआ परन्तु जब होगा तो उसके केन्द्र में जल और अन्न ही होगा। ऐसी मेरी परिकल्पना है। जहाँ अन्न नहीं है, अत्यन्त गरीबी है वहीं हिंसा के अंकुर दिखाई पड़ते हैं। आज वैश्वीकरण के युग में, विकास की आपा-धापी में व्यक्ति, व्यक्ति को रौंद रहा है। मंचों पर चर्चा चाहे जितनी आदर्शवादी हो पर सच यह है कि गरीबी मिटाने के बजाए गरीबों को मिटाने का षड़यंत्र चल रहा है। कम से कम भारत में किसानों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये। आत्महत्या उनका शौक नहीं, मजबूरी है।
यह बात काबिले गौर है कि 15 अगस्त 1947 का दिन भारत के आम जनमानस के लिए ऐतिहासिकता भरे पल में सपने बुनने का स्वर्णिम आभास था। अन्नदाता भी पुलकित एवं प्रफुल्लित था। उनको लगता था कि जहाँ एक ओर हम अपने अन्न से भारत का पौरूश पुष्ट करेंगे वहीं दूसरी ओर एक मत से अपने शुभ के लिए सरकार का स्वर्णिम निर्माण करेंगे। उनको क्या पता था कि नीतिगत पतन की शोषणकारी शराब वही है बस बोतल बदली है। बहरहाल उनके दर्द का जिक्र यहाँ पर बांछनीय है।

तेलंगाना का किसान आन्दोलन (1946-9151 ई0)
हैदराबाद रिसायत में तेलंगाना में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह आन्दोलन शुरू हुआ। यहाँ पर किसानों से कम दाम पर अनाज की जबरन वसूली की जा रही थी, जिसके कारण उनके अन्दर एक आक्रोश उत्पन्न हुआ। इस आन्दोलन का तात्कालिक कारण ‘कम्युनिस्ट नेता’ कमरैया की पुलिस द्वारा हत्या कर देना था। किसानों ने पुलिस व जमींदारांे पर हमला कर दिया तथा हैदराबाद रियासत को समाप्त कर भारत का अंग बनाने की माँग की। तेलंगाना कृषक आन्दोलन भारतीय इतिहास के लम्बे छापामार कृषक युद्ध का साक्षी बना। इस आन्दोलन ने भूमि सुधार सम्बन्धी एक नई सर्जना को जन्म दिया जिसे भू-दान गंगा के रूप में पहचान मिली। यह विनोबा जी के हाथों विश्व परिदृश्य पर अनोखी खोज थी।
स्वाधीन भारत के अबतक 70 वर्ष हो चुके हैं किसानों ने अपनी मांगो को लेकर समय-समय पर आन्दोलन करते रहे हैं। आन्दोलन उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत दोनों जगह देखने को मिला है। किसानों को आशा थी कि हमें आजादी मिलेगी तो भूमि का वितरण समाज सम्मत होगा क्योंकि स्वतन्त्रा के साथ ही जमींदारी व्यवस्थायें समाप्त हो चुकीं थी। परन्तु ऐसा नही हुआ स्वतन्त्रा आन्दोलन के दौरान कृषक नेताओं से किये गये भूमि सुधार से जुड़े वादे पूरे नहींे किये गये। आज भी असली समस्या भूमि के सही आवंटन की है। 1973 में छपे आंकड़े के अनुसार देश में 6 करोड़ 30 लाख हैक्टेयर सरप्लस जमीन का अनुमान लगाया गया था, परन्तु 1973 तक मात्र 77 लाख हैक्टेयर जमीन ही सरप्लस ऐलानी गयी थी। इसमें से 47 लाख हैक्टेयर जमीन ही सरकारी कब्जे में ली गई तथा मात्र 27 लाख हैक्टेयर ही भूमिहीन व गरीब किसानों में वितरित की गई। भूमि-सुधारों में की गई एक व्यवस्था के अनुसार खुद-काश्त करते हुए जागीरदारों ने मुजारों को उजाड़ कर उन्हें खेत-मजदूरों का रूप दे दिया तथा खुद पूंजीपति-जागीरदारों के रूप में जमीनों के मालिक बन गये। पीड़ादायक बात यह हुई कि स्वतंत्रता-संग्राम का ज्वलंत नारा ‘‘किसान लहर पुकारती, जमीन जोतने वाले की’’ धीरे-धीरे ठंडा़ पड़ता गया। सिर्फ बंगाल व केरल में ही इस पर कुछ सीमा तक अमल हुआ, जिसका वहां के मुजारा काश्तकारों व छोटे किसानों को बड़ा लाभ मिला। भूमि संघर्ष का दूसरा बड़ा केंद्र बिहार था, जहाँ रणबीर सेना से हुई खूनी झड़पों में प्रसिद्ध किसान नेता तथा विधायक अजीत सरकार की शहादत हुई। पर दुखद बात यह हुुई कि बिहार की दो बड़ी किसान सभाओं ने भुमि-सुधारों की इस रक्त रंजित लड़ाई को धीमा कर दिया। इससे किसान आन्दोलन को क्षति पंहुची है। यदि ऐसा ना होता तो बिहार की आर्थिक व राजनीतिक तस्वीर भिन्न होती।
जहाँ एक ओर इस प्रकार की विद्रूप सामंती-पँजीवादी व्यवस्था ने किसानों के संकट में लकीर बना दी वहीं दूसरी ओर 1991 के आर्थिक सुधार ने लकीर को और चौड़ा कर दिया। भारतीय सत्ताधारी देश के विकास को कारपोरेट मुखी बना कर अपने निजी व वर्गीय लाभों के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था के गला घोंटने वाले फंदे में फसा रहे हैं। इस गठजोड़ को और अधिक मजबूत व टिकाऊ बनाने के लिये व साम्राज्यवादी लूट की तिकड़ी विश्व बैंक, अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विशेषतयः विश्व व्यापार संस्था की समस्त शर्तं खुशी-खुशी स्वीकार कर रहे हैं। वे इन घातक शर्तों को मेंहनतकशों पर लागू करने के लिये हर तरह से झूठ, मक्कारी, धोखाधड़ी तथा अत्याचार करने में कोई झिझक महसूस नहीं करते। यह तिकड़ी, विशेष रूप में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व व्यापार संस्था की शर्तांे के अधीन देश के अर्थिक ढांचे व विदेशी व्यापार में ढांचागत तब्दीलियां की गई हैं। इनके निर्देशों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र लगभग समाप्त कर दिया गया है, गरीब लोगों को सस्ती बुनियादी सार्वजनिक सेवाआंे स्वास्थ्य व शिक्षा देने की जिम्मेदारी निभाने से सरकार पीठ दिखा रही है।
आज किसान आर्थिक रूप से पंगु होता जा रहा है, कालाहाड़ी हो या मन्दसौर या इसी प्रकार के हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में हो रहे किसान आन्दोलन, क्या होगा इससे, सरकारें कभी दमनात्मक रूप दिखायेंगीं तो कभी मौन हो जायेगीं। किसान आकंठ कर्ज में ड़ूबकर आत्महत्या को मजबूर होगा। ऐसा नही कि पैदावार कम है पर उसका सही रख-रखाव, भण्डारण, समर्थन मूल्य एवं समय से भुगतान के अभाव में किसानों की यह दुर्दशा ज्ञापित हुई है।
यदि देश को वास्तव में इनकी चिंता है तो आधारभूत परिवर्तन करने की आवश्यकता है। यथा-
(1) भूमि वितरण पर ठोस कदम उठाना। आचार्य विनोबा भावे जैसा सत्याग्रही (भूदान, ग्रामदान) प्रयास, यद्यपि यह कठिन है पर असम्भव नहीं।
(2) कृषि में नवउदारवादी नीतियों का शिथिलीकरण।
(3) स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर अमल।
(4) सर्वव्यापी जन वितरण प्रणाली लागू की जाय।
(5) सहकारिता आधारित कृषि का विकास।
निष्कर्षतः हम कह सकते है कि औपनिवेशिक भारत में किसानों की स्थिति बदहाल थी, शोषण होता था, हिंसा होती थी। वे दरिद्र नारायण के रूप में देखे जाते थे पर आज के स्वाधीन भारत में जिस तरह से किसान की आमदनी नकारात्मक हुई है तो हम कह सकते हैं कि भूमण्ड़लीकरण, उपनिवेशीकरण की वैश्विक चाल एवं सरकारों की उपेक्षापूर्ण नीतियों से वर्तमान किसान आत्महत्या को मजबूर हुआ है। क्या बदला? कल भी मरते रहे, आज भी मर रहे हैं। आज मरना ज्यादा अफसोसजनक है क्योंकि आज हम आजाद भारत में सुशासन, जनकल्याण एवं मानवाधिकार की बात करते हैं। क्या यही है मानाधिकार जहाँ वे लोग घुट-घुट कर मर रहे है, संत्रास झेल रहे है, वहीं इनके अन्न से अभिजात वर्ग के लोग पंचसितारा होटलों में रोटी तोड़ रहे हैं। क्यों किसान के अन्न का वाजिब पैसा नहीं मिल पा रहा है। कर्ज माफी से क्या होगा? हे कृषि प्रधान देश अपनी अस्मिता बचाओ। किसान नहीं होगा तो हम भी नहीं होंगे।
वास्तव में मानवाधिकार का प्रसंग व्यक्ति की अस्मिता, गौरव एवं प्रतिश्ठा से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में वह व्यक्ति जो किसानी करता है उसकी अस्मिता, गौरव एवं प्रतिष्ठा तीनों दांव पर है, वर्तमान भारतीय सरकारों को गम्भीरता से विचार कर ठोस कदम उठाने की जरूरत है। किसानों की न्यूनतम आमदनी निर्धारित करने की महती आवश्यकता है तभी हम किसानों के अधिकारों को सुरक्षित रख पायेंगे और प्रकारान्तर से अपने को भी। एक समय था जब महाकवि घाघ ने कहा था-
‘‘उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी भीख समान’’
पर आज 21वीं सदी के भारत में एवं मानवाधिकार के युग में खेती मौत को गले लगाने को तत्पर है, बान (व्यापार) चाँद चुमने को आतुर है और चाकरी भ्रश्टाचार एवं सफेदपोस लालफीताषाही के चलते उपभोगवादी संस्कृति का शिकार है। आज भूमण्डलीकरण के युग में शिथिल होती वैश्विक सीमाएँ, अहस्तक्षेप की नीति एवं उत्तम की अतिजीविता ने आर्थिक असन्तुलन इस कदर पैदा कर दिया है कि गरीब किसानों के अधिकार एवं कल्याण की बात करना ही बेमानी सी लगती है। अतः प्रासंगिक होगा कि हम इस पर गहन चिन्तन करें और भूमि वितरण विशयक कुछ उचित कदम उठाकर किसानों के उन्नयन की व्यवस्था करें तभी मन्दसौर और कालाहांडी जैसी घटनाओं पर लगाम लगेगी। अन्यथा कि स्थिति में आजादी पूर्व किसानों की जो माली हालात थी, और जो आज है उसमें सुधार की गुंजाइस कम ही लगती है।

संदर्भ सूची –
1. चन्द्रा, विपिन, भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन।
2. ग्रोबर,बी0एल0, आधुनिक भारत का इतिहास।
3. नेगी, भरत-आचार्य विनोबा भावे।
4. भावे विनोबा, भूदान यज्ञ, ग्रामदान।
5.5- http.//sangramilehar.blogspot.in/2016/04/hindi.htm.?m=1
6. अग्रवाल, अनिल- ‘‘परीक्षा मंथन’’ पत्रिका संस्करण 2005-06
7. मासिक पत्रिका गुलिस्तां- सम्पादक कमरूद्दीन सिद्दकी, नई दिल्ली, अगस्त, 2009
8. समाचार पत्र-हिन्दुस्तान 14/07/2017

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