ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद: स्थापना का वैचारिक आधार और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण

प्रो0 प्रवीण कुमार
प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान विभाग)
डी0ए0वी0 (पी0जी0) काॅलिज, बुलन्दशहर
शोद्यार्थी
श्री राजेश कुमार
विश्व के अनेक सामाजिक राजनीतिक परिवर्तनों के लिये हुये अनेक जन प्रयासों में विद्यार्थी युवा आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। अगर हम भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करें तो आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व      मगध राज्य पर सत्तालोलुप नंद वंश के धनानंद का शासन था। जिसके दमन के विरूद्ध जनता की आवाज बुलन्द करने में युवाओं ने महत्वूपर्ण योगदान दिया। इतिहास इस बात का साक्षी है तक्षशिक्षा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध शिक्षक आचार्य चाणक्य ने इस कार्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और चंद्रगुप्त मौर्य को शासक के रूप में स्थापित किया।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी विद्यार्थी युवाओं ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की है। उनके पराक्रर्म शौर्य और बलिदान की गाथाओं से इतिहास ओतप्रोत है। स्वतंत्रता के पश्चात भी युवा विद्यार्थियों ने समय समय पर देशहित में अपनी आवाज को बुलंद किया है। सर्वविदित है 1974 ई0 में श्री जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में एक जनआंदोलन हुआ जिसमें भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्रों ने सक्रिय योगदान दिया।
इसके पश्चात 1980 ई0 के दशक में असम मंे हुआ, बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरूद्ध हुये जनआंदोलन में भी छात्रों की सक्रिय भागीदारी रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक ऐसा छात्र संगठन है जिसने न केवल उक्त आंदालनों में अपितु स्वतंत्रता के उपरान्त भारत के अनेकों आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की है। स्वतंत्रता के पश्चात अनेक छात्रों गतिविधियों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की एक विशिष्ट भूमिका रही है। वर्तमान समय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद न केवल भारत का बल्कि विश्व के सबसे बड़े छात्र संगठन के रूप में स्थापित हो चुका है, जिसका लक्ष्य राष्ट्र का पुनर्निर्माण है। प्रस्तुत शोध पत्र में उक्त संगठन के वैचारिक आधार और लक्ष्य राष्ट्र पुर्निनिर्माण का सिंहावलोकन किया गया है।
भारत की वैचारिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
यदि विश्व इतिहास पर दृष्टि डाली जाये तो यह सर्वविदित तथ्य सामने आता है कि भारत विश्व के प्राचीनतम राष्ट्रों में से एक है और भारत के पास हजारों वर्षो पुरानी एक संस्कृति निरन्तरता के साथ विद्यमान रही है। जब हम राष्ट्र और नेशन की अवधारणाओं पर चिंतन करते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि राष्ट्र की अवधारणा व्यापक है जो अनेक विभिन्नताओं को समाहित करती है। जबकि नेशन की अवधारणा संकुचित है अर्थात् राष्ट्र और नेशन एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं है। किसी राष्ट्र के निर्माण के लिये तीन तत्व आवश्यक माने जाते है, पहला एक निश्चित भू-भाग, दूसरा उसके एक आत्मभाव से रहने वाला एक समाज व उसके अंतकरण में संबंधित भूमि के लिये श्रृद्धाभाव, तीसरे उनके एक साथ रहने के कारण उत्पन्न विशिष्ट संस्कृति यह सारे तत्व भारत में सदियों से विद्यमान रहे हंै। यह सर्वविदित तथ्य है कि सभी मनुष्यों के व्यक्तित्व समान नहीं होते और उनमें भिन्नता होना प्राकृतिक है परन्तु मनुष्य एक सामाजिक सांस्कृतिक प्राणी भी है, इसलिये वह एकांत में जीवन यापन नहीं करता। भिन्न भिन्न व्यक्तित्व वाले मनुष्यों में जब एक स्तर का सामंजस्य निर्माण होता है तो एक विशिष्ट समाज बनता है परंतु किसी भी भूभाग पर रहने वाला समाज जब चिन्तन, मनन, संवेदनाओं और आकांक्षाओं के स्तर पर एकता और सामंजस्य की अनुभूति करता है तब वह एक राष्ट्र बन जाता है। यह अनुभूति कुछ दिनों महीनों या कुछ वर्षों मंे निर्मित नहीं होती अपितु सदियों में विकसित होती है।
भारत के हजारों वर्षाें के इतिहास में अनेक विद्धान ऋषि मुनि हुए जिन्होंने प्रकृति व ब्रहमाण्ड के रहस्यों को अपने ज्ञान चक्षुओं से उद्घाटित किया और उस ज्ञान के आधार पर यहाँ रहने वाले जन मानस को सुखी जीवन निर्वाह करने हेतु श्रेष्ठतम जीवन मूल्य प्रदान किए।
भारत के राष्ट्रीय जीवन में अनेक जीवन मूल्य स्थापित किये गये हैं जिनके आधार पर सामंजस्य स्थापित हुआ है। इनमें आध्यात्मिकता को सर्वोच्च मूल्य माना गया है और भारत विश्व पटल पर एक आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ है।
स्थापना की पृष्ठभूमि और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण:
यह विदित है कि कालक्रम में भारत पर अनेक विदेशी आक्रमण हुए जिनमें कुछ सफल हुए तो कुछ विफल हुए और विश्व इतिहास में एक ऐसा भी समय आया जब यूरोपीय विस्तारवाद ने विश्व में अपना आधिपत्य स्थापित किया जिसके परिणामस्वरूप भारत में लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों का शासन रहा। अंततः दीर्घकालिक विदेशी दास्तां के बाद 15 अगस्त 1947 को खण्डित भारत स्वाधीन हुआ। स्वाधीन भारत के सामने अब एक नया लक्ष्य था राष्ट्रीय पुनर्निर्माण। भारत के पुनर्निर्माण के कार्य को अपना लक्ष्य मानकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने 1948 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की जिसका विधिवत पंजीयन 9 जुलाई 1949 को हुआ। इसकी प्रथम कार्य समिति के अध्यक्ष ओम प्रकाश बहल थे एवं प्रथम महामंत्री केशव देव वर्मा थे। इसके संस्थापक सदस्य दत्ता जी डिडोलकर, हरवंष राय जी और दत्तोपन्त ठेगड़़ी जी थे। प्रथम दिन से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लक्ष्य स्पष्ट था और वह था राष्ट्र का पुनर्निर्माण और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है उसके सम्बन्ध में भी स्पष्टता थी। इसके लिए स्थान स्थान पर रचनात्मक गतिविधियाँ प्रारम्भ की गयी। शनैः शनैः परिषद के कार्य का विस्तार होता गया और परिषद में तीन प्रकार की गतिविधियों क्रमशः रचनात्मक आन्दोलनात्मक और      प्रतिनिध्यात्मक के माध्यम से अपने कार्य को गति प्रदान की।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने भारत के संदर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्र की अवधारणा को स्वीकृत करते हुए यह माना की भारत प्राचीन काल से ही गौरवशाली राष्ट्र रहा है अतः इसका नवनिर्माण न करके पुनर्निमाण करना है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने तत्कालीन नेतृत्वकर्ताओं के इस मत को अस्वीकार कर दिया था कि हमें भारत का नवनिर्माण करना है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापकों ने उसी समय स्पष्ट कर दिया था कि भारत सनातन काल से राष्ट्र रहा है और हम एक गौरवशाली और समृद्धशाली संस्कृति के वाहक हैं। अतः पुरानी नींव-नवनिर्माण की वैचारिक पृष्ठभूमि में राष्ट्र पुननिर्माण के लिए देश की दिशा निर्धारित की जानी चाहिए।
राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के व्यापक संदर्भ में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने शैक्षिक परिवार की संकल्पना के साथ दलगत राजनीति से दूर रहकर छात्रों के बीच अपने कार्य को गति प्रदान की। परिषद का उक्त लक्ष्य परिषद के वैचारिक अधिष्ठान का आधार है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के महत्वपूर्ण घटक शिक्षा क्षेत्र की पुर्नरचना हेतु देश की युवा शक्ति का इसके अनुकूल बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। परिषद का मानना है कि छात्र, शिक्षक और शिक्षाविद मिलकर ही शैक्षिक परिवार की रचना करते हैं और परिवार के सदस्यों की भांति ही शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षाविद मिलकर एकरूपता से स्वाधीन भारत की शिक्षा प्रणाली का भवन खड़ा कर सकते हैं।
विगत 76 वर्षों से अनवरत रूप से विद्यार्थी परिषद व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र पुननिर्माण के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु गतिमान है । विद्यार्थी परिषद ने अपनी विकास यात्रा में सभी को सम्मिलित करते हुए सामान्य छात्र को केन्द्र में रखा है और परिषद की यह यात्रा अनवरत जारी है ।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1 डाॅ0 राम शरण शर्मा, प्रारंभिक भारत का परिचय, प्रकाशन ओरिएन्ट ब्लैक स्वान, पृष्ठ संख्या 172-173 ।
2. संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार – लोकनायक जय प्रकाश नारायण, लेखक अवध बिहारी लाल, नवभारत प्रकाशन, खजांची रोड, पटना-4, पृष्ठ संख्या 198-199 ।
3. राष्ट्रीय छात्रशक्ति, वर्ष-44 अंक 1, मई 2022, पृष्ठ संख्या 12-13 ।
4. राष्ट्रीय छात्रशक्ति, वर्ष-45, अंक 09, दिसम्बर 2023, पृष्ठ संख्या 5-6 ।
5. ध्येय यात्रा, खण्ड-1, प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 5,6,12,13,18 ।

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