ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

नारी विमुक्ति: वैश्विक संदर्भ

नारी विमुक्ति: वैश्विक संदर्भ
प्रो0 लालबाबू यादव
विभागाध्यक्ष
राजनीति विज्ञान विभाग
जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा

प्रसिद्ध समाजशास्त्री जीन जेकब रूसों ने कहा था कि इन्सान स्वतंत्र रूप से पैदा होता है परंतु वह जन्म लेने के बाद मृत्यु पर्यन्त बेड़ियों में जकड़ जाता है। इन बेड़ियों में जकड़न का सर्वाधिक दुष्प्रभाव स्त्रियों पर ही पड़ताहै। यही कारण है कि प्राचीन काल से आज तक विश्व के विचारकों, दार्शनिकों, रचनाकारों और समाजशास्त्रियों ने न केवल संसार में व्याप्त आर्थिक वैषभ्य, पराधीनता, अन्याय, अशांति उत्पीड़न और शोषण को समाप्त कर एक मानवीय और सुखी संसार के निर्माण के लिए अपने चिंतन को स्थापित किया है। आज आधी दुनिया (स्त्री) की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों का आकलन कर उनकी मुक्ति के संदर्भ में उन्होंने अपनी चिन्ता एवं विचारों की प्रखरता से हमे विस्मित किया है। आदिम युग के मातृसतात्मक समाज में स्वतंत्र और सबल स्त्री के उल्लेख भी जरूर मिलते है लेकिन प्राचीन युग के धर्मगुरूओं और चिन्तकों के स्त्री-संबंधी विमर्श अधिकांशतः उनकी अनुदारता, संकीर्णता और पूर्वाग्रह की ही झलक देते है। पुरूष वर्ग के समान्तर स्त्री की स्वाधीनता और समानता जैसे प्रश्नों पर विश्व-इतिहास में सर्वप्रथम फ्रांस की राज्यक्रांति के समय से ही लिंग-भेद से मुक्त, स्त्री के लिए स्वतंत्रता, समानता और मित्रता के सिद्धान्तों को व्यवहार में चरितार्थ करने की मांग उठने लगी। अलिम्पी दि गूजे (1758-93) जैसे चिन्तक सामाजिक, आथर््िाक और राजनीतिक स्तर पर स्त्रियों के अधिकार देने की मांग उठाते रहे और स्त्रियों पर पुरूषों का वचर््ास्व स्थापित करने वाली शासन-व्यवस्था का विरोध भी लगातार होता रहा। यह भी सच है कि अमेरिकी क्रांति के दौरान मर्सी वारेन और एबिगेल एदमा ने स्त्री की समानता और स्वंत्रता के अधिकारों से जुड़े प्रश्न भी बार-बार उठाये लेनिक उनकी समस्त कोशिशों के बावजूद अमेरिकी संवधिान में ये अधिकार आने रह गये। कहना असंगत नहीं कि इन दोनांे क्रांतियों के पश्चात् स्त्री-मुक्ति के स्वर मंद जरूर पड़ गये किंतु इन्होंने स्त्री-मुक्ति के विमर्श को एक ठोस तार्किक आधार और दिशा देने का ऐतिहासिक कार्य किया।
भारतीय नारी त्रासद परिस्थितियों को सम्पूर्णता के साथ जाॅंचने-परखने और उसके कारणों की गहरी पड़ताल का चुनौतीपूर्ण दुष्कर कार्य, सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों और लेखिकाओं के द्वारा हुआ।
आज का दलित लेखक नारी और दलित के अन्तर्सम्बन्धों के सूक्ष्म तंतुओं पर भी रोशनी डाल रहा है और उसे गहरे मानवीय कोण से देखने की कोशिश कर रहा है। उसके मतानुसार भारतीय नारी सवर्ण, पिछड़ा, दलित, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसााई आदि खेमों में विभाजित है। यदि माक्र्सवादी विचारक इस विभाजन के विरूद्ध है तो डाॅ. सोहिया भी यह मानते थे कि नारी जाति और सम्प्रदाय से परे सम्पूर्णतः नारी जाति ही पिछड़ी है। उनका तो यहाॅं तक मानना है कि दलित नारी सवर्ण नारी की तुलना में अधिक स्वावलंबी एवं स्वतंत्र होती है। क्योंकि दलित स्त्री तो रोजगार की तलाश में घर से निकलकर उन्मुक्त वातावरण में चली गयी है जबकि सवर्ण नारियाॅं असूर्यम्पश्या बनकर घर के अन्दर पराधीनता, प्रताड़ना और उत्पीड़न का नाटकीय-जीवन जीने के लिए अभिशप्त है।
स्त्री विरोधी पुरूष मानसिकता के कारण ही व्यवस्थापिका में नारी-आरक्षण को अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है। रात्रि की पाली में स्त्रियों का काम करने का अधिकार भी कम बड़ा निर्णय नहीं है। स्त्री की मुक्ति स्त्री के जाति, सम्प्रदाय और वर्ग से ही संगठित होकर लड़ने पर ही संभव है। विचारशील और योद्धा पुरूष उनके सहचर हो सकते हैं लेकिन यह लड़ाई उन्हें स्वयं लड़नी होगी।

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