– सुन्दरी देवी
लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ।
भारत एक ऐसा देश है जहाँ पर विभिन्न जातियाँ निवास करती हैं। इसमें कुछ जातियाँ अभी विकास से कोसों दूर जंगल, पहाड़ों पर्वतों पर रहती हैं। जिन्हें हम आदिवासी, जनजाति या आदिम नाम से जानते हैं।भारत एक ऐसा देश है जहाँ पर विभिन्न जातियाँ निवास करती हैं। इसमें कुछ जातियाँ अभी विकास से कोसों दूर जंगल, पहाड़ों पर्वतों पर रहती हैं। जिन्हें हम आदिवासी, जनजाति या आदिम नाम से जानते हैं। हिन्दी उपन्यास एक किसी विधा है जिसमें समाज के अंधेरे-उजाले पक्षों की यथार्थ रूप में अभिव्यक्ति दी गई है। आज के उपन्यासकार न केवल ग्राम्य व शहरी जीवन के यथार्थ को प्रत्यक्ष ला रहे हैं, वरन् दूर-दराज के क्षेत्रों में लुप्त होते उन आदिवासियों के जीवन में भी झाॅक रहे हैं। उस समाज की जीवनशैली की समस्या, संस्कृति, शोषण व जीवन के सत्य को हमारे समक्ष रख रहे हैं। हिन्दी साहित्य में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में स्त्री संघर्ष की शुरूआत होती है। आज स्त्री समाज के समुचित विकास के लिए पुरूषों के कन्धे से कन्धे मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। इसके द्वारा स्त्री अपनी अलग पहचान एवं अस्तित्व बना रही है। नारी संघर्ष, नारी अस्मिता से जुड़ा अहसास है। स्त्री संघर्ष से तात्पर्य है सामाजिक, आर्थिक वैमनस्य झेलती नारी का विरोध और उसके बाहर आने का प्रयास। प्राचीन कालीन समाज में स्त्री को आदर मिलता था, कालान्तर में नारी की स्थिति कमजोर होती गई। लेकिन स्त्री शिक्षा के फलस्वरूप सामाजिक कुप्रथाओं के विरूद्ध आवाज उठाने का साहस करने लगी। घर की चार दीवारी तोड़कर स्त्री अपना अस्तित्व खोजने का धैर्य दिखाने लगी। ये वर्तमान समाज मे अपनी अस्मिता के प्रति सचेत है। फिर भी इस पुरूष सत्तात्मक समाज में स्त्री अब भी पीड़ित है और दलित भी। स्त्री का परिवार, पति, पुत्र और समाज द्वारा अलग-अलग तरीके से शोषण होता है। यदि स्त्री इसका विरोध करें तो समाज उसके खिलाफ जाएगा। जब हम आदिवासी स्त्री की बात करते हैं तो ‘माक्र्स’ का कथन याद आते है ‘‘स्त्रियों की सामाजिक स्थिति से सामाजिक प्रगति को ठीक-ठाक मापा जा सकता है।’’1 आज जब हम भूमण्डलीकरण और वैश्वीकरण के समाज में इस देश के मूल निवासियों की स्थिति को देखते हैं तो पाते हैं कि वह सदियों से जिस स्थिति में था आज भी वैसे वंचित, उपेक्षित एवं अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए मजबूर है। आदिवासी स्त्री की स्थिति तो और भी दुर्दम्य है। यह स्त्रियाँ या तो शराब की भट्टियों पर या जंगल, पहाड़ों पर संघर्श का जीवन जीते मिलती हैं। उनका जीवन आज भी एक विवश आत्म समपर्ण है जंगल, पहाडों क्षेत्रों में बसी आदिवासी स्त्री कभी विस्थापन की त्रासदी सहती है तो कभी पूंजीपति ठेकेदार और अपने समाज की कुप्रथाएं उनका दोहन करती हैं। वे एक तरफ अपनी जाति के भीतर पुरूष वर्ग की अधिसत्ता में रहने को मजबूर हैं। वही दूसरी तरफ तथाकथित सभ्य समाज उन्हें उपभोग की वस्तु मानता है। ये स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक समाज में कठपुतली की तरह हैं, जो अपने जीवन में अन्याय, अत्याचार, अपमान, शारीरिक शोषण, मानसिक उत्पीड़न आदि को सहन करती हैं उनके जीवन में आघातों को सहने और मजबूरी में जीने की सीमाएं कभी समाप्त नही होती। आदिवासी उपन्यास साहित्य में आदिवासी स्त्री के शोषण, संघर्ष, स्त्री प्रताड़ना, मुक्ति की बेचैनी का सच्चा दस्तावेज दिखाई देता है। सर्वप्रथम वृन्दावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास ‘कचनार’ (1952 ई0) में स्त्री संघर्ष को चित्रित किया गया है। जिसमें गोंड स्त्री ‘कचनार’ सतत् संघर्ष तथा अपने सतीत्व की रक्षा कर नारी के अपूर्व शक्ति तथा साहस का परिचय देती है। दूसरा उपन्यास ‘रांगेय राघव’ कृत कब तक पुकारू’ (1957 ई0) जो करनट समाज पर आधारित है। इस उपन्यास में ब्रजप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर बसे गाँव ‘बैर’ प्रदेश के आदिवासी जीवन का चित्रण हैं। मध्ययुगीन समय में गाॅव की संरचना में बड़े जमींदार और ठाकुर अपने वर्चस्व की मानसिकता मे अर्थाभाव और गरीबी से मजबूर हुई करनट स्त्रियों का उपभोग करते हैं। ठाकुरों की शारीरिक हवस के कारण एक परम्परा यह चल पड़ी थी कि करनटों की प्रत्येक लड़की जब जवान होती थी तो उसे ठाकुरों के पास रात बितानी पड़ती थी। ‘राजेन्द्र अवस्थी’ कृत ‘जंगल के फूल’ इस उपन्यास मंे आदिवासी स्त्रियों के जीवन में जो बंधन के दायरा बनाया गया है। उस दायरा में स्त्री संघर्ष करती है। इनका दूसरा उपन्यास ‘सूरज किरन की छाँव’ में चित्रकूट के आस-पास के आदिवासी युवती बंजारी के जीवन व्यथा को चित्रित करती है। चम्पा धान बेचते-बेचते धान बोई से धान माँ बन जाती है ‘मणिमधुकर’ का लघु उपन्यास ‘पिंजरे में पन्ना’ में गड़िया लुहारों के पितृसत्तात्मक समाज की तस्वीर उभरती है जिसमें स्त्रियों की नैतिकता के जातीय नियमों के आधार पर कठोर सजा दी जाती है। सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव कृत ‘वनतरी’ में नायिका आदिवासी जीवन संघर्ष करती है वह अपने जाति पर हो रहे शोषण अन्याय का विरोध करती है। उसी तरह ‘संजीवकृत ‘धार’ उपन्यास की मैना है। साहसी आत्मविश्वासी मैना लोगों की क्रूरता का शिकार बनती है। पूँजीपति ‘महेन्द्र बाबू’ ठेकेदार, पुलिस अधिकारी और दोषपूर्ण व्यवस्था से मैना लड़ती है इसी भाँति, रेत, पार धार, ग्लोबल गाँव देवता आदि उपन्यासों में आदिवासी स्त्री के संघर्षों की नवीन अनुभवों के साथ स्वतंत्र की स्पष्ट उद्घोषण की। इन सभी रचनाकारों में ‘मैत्रेयी पुष्पा’ का भी नाम उनके लेखन की जीवन्तता और प्रासंगिकता के कारण आदर के साथ लिया जाता रहा है। जिन्होंने अपने लेखन के माध्यम से स्त्री शोषण एवं अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाती है। तथा रूढ़िवादी मान्यताओं का खडन कर यथार्थ की उस गहराई तक पहँुच गई है जहाँ पर स्त्री संघर्ष का जीवन जीते हुए जी रही है। ‘अल्मा कबूतरी उपन्यास में लेखिका ने बताया है कि कबूतरा आदिवासी को सभ्य समाज द्वारा अपराधी माने जाने के कारण उसके जीवन में विभिन कठिनाइयाँ है। इनकी स्त्रियाँ कठिनाइयों से जूझते-जूझते जीवन जीती है। अल्मा कबूतरी उपन्यास की स्त्री पात्र वैसे तो अनेक है जिनमें भूरी, भजनी, कदमबाई, अल्मा, संतोले की बहू आदि जिसमें सबसे प्रमुख पात्र भूरी, कदमबाई, अल्मा है। सभ्य समाज द्वारा उन पर होने वाले शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक शोषण से संघर्ष करती हैं इनकी कठिनाइयाँ अलग हैं। अपराधी माने जाने के कारण सभ्य समाज द्वारा होने वाले अत्याचार अन्याय को सहन करना इनकी नियति बन गई है। सभ्य समाज के खिलाफ इनके मन में विद्रोह की भावना होते हुए भी वह अन्याय के खिलाफ आवाज नहंी उठा सकती। अपराधी आदिवासी की स्त्रियाँ बलात्कार पर आँसू नहीं बहाती पीड़ित नहीं होती बल्कि उसे दुर्घटना मानकर भुला देती हैं। मंसाराम कदमबाई से बलात्कार करता है। बलात्कार करके भी पुरूष खुद को दोषी नहीं मानता वह समाज मे शान से रहता हैं। इसमें स्त्री निर्दोश होकर भी अपराधी मानी जाती है। लेखिका इस समीकरण को उलट देती है। कदमबाई खुद को अपराधी नहीं मानती, न गर्भ से खिलवाड़ करती वह मंसाराम के बेटे को जन्म देने का साहस करती है-‘‘गर्भ में बच्चा सधा रहा। न गिराया न गिरने दिया! हौल गर्दिश छाती पर झेलती रही, पेट तक आने नहंी दी’’2 भूरी कज्जा लोगों द्वारा होने वाले अन्याय तथा अत्याचार के खिलाफ विद्रोह करती हैं। बेटे को पढ़ा लिखाकर उसे अच्छा इन्सान बनाना चाहती है। ‘‘बस्ती की सबसे पहली माँ थी भूरी जिसने बेटे को कुल्हाड़ी-डंडा न थमाकर पोथी-पाटी पकड़ाई’’।3 ‘अल्मा कबूतरी’ की प्रमुख पात्र अल्मा सभ्य समाज द्वारा होने वाले शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक शोषण का विरोध करती है पिता की हत्या के बाद संघर्ष शुरू होता अल्मा रामसिंह शिक्षक की एकलौती बेटी है जिसे रामसिंह के द्वारा सूरजभान के कर्ज चुकाने के लिए अल्मा को सूरजभान के यहाँ गिरवी रखा जाता है। रामसिंह अपनी बेटी से कहता है कि ‘‘अल्मा तू गिरवी धरी है, समझे रहना। भला इसमें बुराई भी नहंी हम कबूतराओं में तो यह चलन रहा है-जेवर गहना-बासन और बेटी मुसीबत के समय काम आते हैं।’’4 अल्मा को जिस समाज द्वारा बहिष्कृत माना जाता है उसी समाज में वह संघर्ष का सामना करते हुए वह नागरिक होने का हक तो ले ही लेती है। उसके साथ सभ्य समाज पर शासन करने को भी तैयार होती है। लेखिका के शब्दों में ‘‘श्री रामशास्त्री के निधन के कारण खाली हुई बबीना विधान सभा की सीट के लिए सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से श्री रामशास्त्री की निकटतम सहयोगी और निष्ठावान गाइड अल्मा उम्मीदवार होंगी।’’5 अन्ततः निष्कर्ष मंे हम यह कह सकते हैं कि ‘मैत्रेयी पुष्पा’ ने ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास के माध्यम से आदिवासी स्त्री की जीवन शैली का सभ्य समाज द्वारा घृणित, शोषित और अपराधिक पृष्ठभूमि को उकेरा है। साथ ही घृणित सत्ता राजनीतिक पर भी करारा व्यंग्य किया है। कदमबाई, भूरी एवं अल्मा के चरित्र के द्वारा स्त्री की सहनशक्ति, बुद्धिमत्ता एवं विवेकशीलता का भी परिचय दिया है। आदिवासी समाज की स्त्रियों को अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करती है। आज स्त्रियाँ जागरूक हो रही हैं। अब वह बोलने से व आवाज उठाने से कतई नहंी कतराती है। जरूरत है तो सिर्फ शासन और समाज के सक्रिय सहयोग की। सहायक ग्रन्थः-1 डाॅ माधव सोन टक्के एवं संजय राठौड़ भारतीय साहित्य और आदिवासी विमर्श प्रकाशन-वाणी प्रकाशक 4695, 21ए दरियागंज, नई दिल्ली-1100022 शिवदत्ता वावलकर हिन्दी उपन्यास और जनजातीय जीवन प्रकाशक-सामायिक प्रकाशन 3320-213 रमणिका गुप्ता आदिवासी कौन प्रकाशक- राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 7/31 अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 आधार ग्रन्थः-1 डाॅ0 माधवे सोन टक्के एवं संजय राठौड़ भारतीय साहित्य और आदिवासी विमर्श पृ0692 मैत्रेयी पुष्पा अल्मा कबूतरी-पृ.28 राजकमल प्रकाशन, प्रा0लि0 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-1100023 वही पृष्ठ-75 4 वही पृष्ठ-244 5 वही पृष्ठ-390
पत्रिकाः- 1 सं0 एम. फिरोज अहमद वाघ्.मय (त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका) अक्टूबर-2013 मार्च 2014 आदिवासी विशेषांक-22 सं0 शम्भूनाथ वागर्थ (भारतीय भाषा परिषद की मासिक पत्रिका अंक-284, मार्च-2019)
Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...
Individual authors are required to pay the publication fee of their published
Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.