ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की असफलता के कारण

डा0 डी0आर0 यादव
एसोसिएट प्रोफेसर
बरेली काॅलिज, बरेली

युद्ध और शांति शताब्दियों से अनतर्राष्ट्रीय राजनीति के सर्वाधिक महतवपूर्ण विषय रहे हैं। युद्ध मनुष्य के नकारात्मक पहलू-स्वार्थ, लोभ, हिंसा इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा शांतिपूर्ण मानवीय जीवन के लिए एक अभिशाप है। शांति मनुष्य के सकारात्मक पहलू-प्रेम, सहानुभूति, सहयोग इत्यादि का प्रतिनिधित्व करती है। इन दोनों सांत्वकों के बीच मनुष्य अन्तर्राष्टीय पद्धति की रूपरेखा की कल्पना करता रहा है। लगभग एक शताब्दी पूर्व विक्टर ह्मूगो ;टपबजवत भ्नहवद्ध के विचारों में इस तरह की कल्पना के उदाहरण मिलते हैं। पेरिस में दिये गये अपने भाषण में उनहोंने कहा थाः ‘‘एक दिन ऐसा आयेगा जब युद्ध-भूमि सिर्फ तेजारत के लिए खुले बाजार और नये विचारों के प्रति खुले दिमाग में ही रह जायेगी। एक दिन ऐसा आयेगा जब गोली और बम का स्थान मतदान और राष्ट्रों के व्यापक मताधिकार ले लेंगे। उनकी जगह सार्वभौम सिनेट के पंचनिर्णय फैसलों द्वारा निर्णय लिए जायेंगे। उसका वही महतव होगा, जो संसद का इंग्लैंड में, डाइट का जर्मनी में और विधान-सभा का फ्रांस में है। एक दिन आयेगा जब तोपों को सार्वजनिक अजायबघरों में यंत्रणा के यंत्र के रूप में लोगों को दिखाया जायेगा और लोग आश्चर्य करेंगे कि आखिर यह आया कहाँ से?’’युद्ध और शांति शताब्दियों से अनतर्राष्ट्रीय राजनीति के सर्वाधिक महतवपूर्ण विषय रहे हैं। युद्ध मनुष्य के नकारात्मक पहलू-स्वार्थ, लोभ, हिंसा इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा शांतिपूर्ण मानवीय जीवन के लिए एक अभिशाप है। शांति मनुष्य के सकारात्मक पहलू-प्रेम, सहानुभूति, सहयोग इत्यादि का प्रतिनिधित्व करती है। इन दोनों सांत्वकों के बीच मनुष्य अन्तर्राष्टीय पद्धति की रूपरेखा की कल्पना करता रहा है। लगभग एक शताब्दी पूर्व विक्टर ह्मूगो ;टपबजवत भ्नहवद्ध के विचारों में इस तरह की कल्पना के उदाहरण मिलते हैं। पेरिस में दिये गये अपने भाषण में उनहोंने कहा थाः ‘‘एक दिन ऐसा आयेगा जब युद्ध-भूमि सिर्फ तेजारत के लिए खुले बाजार और नये विचारों के प्रति खुले दिमाग में ही रह जायेगी। एक दिन ऐसा आयेगा जब गोली और बम का स्थान मतदान और राष्ट्रों के व्यापक मताधिकार ले लेंगे। उनकी जगह सार्वभौम सिनेट के पंचनिर्णय फैसलों द्वारा निर्णय लिए जायेंगे। उसका वही महतव होगा, जो संसद का इंग्लैंड में, डाइट का जर्मनी में और विधान-सभा का फ्रांस में है। एक दिन आयेगा जब तोपों को सार्वजनिक अजायबघरों में यंत्रणा के यंत्र के रूप में लोगों को दिखाया जायेगा और लोग आश्चर्य करेंगे कि आखिर यह आया कहाँ से?’’ परन्तु इस तरह की चिन्तन-परम्परा काुी पुरानी है। शांति और सहयोग के आधार पर विश्व-शांति और विश्व एकता की कल्पना लगभग सभी महत्वपूर्ण धर्म-ग्रंथों, दार्शनिकों की कृतियों तथा राजनायकों के चिन्तनों में पायी जाती है। शांति के लिए आकांक्षा एवं शक्ति के प्रयोग से मसलों को हल करने के बजाय विकल्पों की सत्त खोज ने भिन्न-भिन्न युगों में उनकी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न-भिन्न योजनाओं और विचारधाराओं को जन्म दिया। फिर भी विश्व-शांति और सुरक्षा के स्थायी हल के तरीकों पर मतैक्य की स्थापना नहीं हो पायी। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहना शुरू किया कि असंगठित विश्व के राष्ट्र-राज्यों की समस्याओं का कोई           समाधान नहीं निकाला जा सकता। राष्ट्रवाद और प्रभुसत्ता पर आधारित राज्य-व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। अतएव जबतक यह व्यवस्था कायम है तबतक विश्व-शांति व सुरक्षा की खोज अथवा आशा करना मृगतृष्णा के समान है। परनतु कुद लोग इस विचार को उचित नहीं समझते। उनके अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का स्थायी हल संभव हैः यदि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को एक सूत्र में अनुस्युत करने का तरीका अपनाया जाय और इसका सबसे आसान तरीका है, साम्राज्य-स्थापना। इसका तात्पर्य यह है कि किसी अत्यंन्त शक्तिशाली राज्य द्वारा किसी ढंग से विश्व पर प्रभुत्व स्थापित करके एक ऐसे साम्रज्य की स्थापना करना जो ज्ञान और न्याय पर स्थित हो। इस व्यवस्था में राज्यों की बहुलता समाप्त हो जायेगी और विभिन्न राज्यों की प्रभुसत्ता में समायोजन की समस्या नहीं होगी। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय जगत की वास्विकताओं को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विश्व-साम्राज्य पर आधारित किसी विश्व-राज्य की स्थापना एक अव्यावहारिक ही क्या असम्भव विचार है। मार्गेन्थों के अनुसार इस प्रकार का विश्व-राज्य एक बालू पर खड़ा अधिनायकवादी दैत्य होगा जिसकी कल्पनामात्र ही चैंका देने वाली है। एक तीसरा सुझााव विश्व राज्य की स्थापना का है। इसके अनुसार विश्व के पृथक-पृथक भाषा, संस्कृति, इतिहास राज्यनिष्ठा तथा नितियोंवाले संप्रभु राज्यों को एक विश्व-संघ के रूप में एकीकृत कर दिया जाय अर्थात् राज्यों को मिलाकर उनहें संघात्मक व्यवस्था में बदल दिया जाये। विश्व-राज्य अथवा विश्व-संघ की स्थापना के लिए जो तर्क दिए जाते है वे बहुत ही मार्मिक और आकर्शक हैं क्योंकि उनका अभीष्ट एक युद्ध-विहीन विश्व की सृष्टि करना है जहां शांति और प्रचुरता हो। परन्तु आज विश्व-राज्य की स्थापना वास्तविकता नहीं दिखलाई पड़ती। मानव-समाज को इस दिशा में अभी बहुत लम्बी यात्रा हल करनी है। ऐसी स्थिति में एक ऐसे विचार की खेज आवश्यक है जो असंगठित विश्व और विश्व-स्तरीय राजकीय व्यवस्था के बीच का हो। यही वह आवश्यकता है जिसने राष्ट्रों की व्यवस्था के बेहतर कार्यकरण के माध्यम के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को जन्म दिया है। इस प्रकार अनतर्राष्ट्रीय संगठनों की स्थिति साम्राज्य एवं विश्व-स्तरीय राजकीय व्यवस्था के मध्य की है। इसमें न राज्यों का बिलयन होता है, न उन्हें बलपूर्वक अधीन ही किया जाता है। इसमें विभिन्न राष्ट्रीय-राज्यों के बीच स्वेच्छापूर्वक सहयोग होता है जिसमें कि साम्राज्य के समान ही इसमें भी एकता पायी जाती है। यही भी कहा जा सकता है कि वह एकता सर्वराष्ट्रीयता के समान हो सकती है, हालांकि इसकी स्थापना राष्ट्रीय राज्यों के कार्याें से होती है। इस तरह अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विश्व-एकता की स्थापना तो होती ही है, साथ ही, उससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है। चूँकि विभिन्न राज्य स्वयं अपनी कुछ सामान्य समस्याओं के समाधान के लिए कुछ क्षेत्राधिकार अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को देते है, इसलिए उनके राष्ट्रीय अस्तित्व का लोप नहीं होता। पाॅटर ने ठीक ही लिखा है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन वह माध्यम है जिसके द्वारा विश्व एकता तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के बीच समन्वय स्थापित किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनतर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास विश्व-समाज की आवश्यकता का परिणाम है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य न तो पूरी तरह एक दूसरे से अलग रह सकते हैं और न एक दूसरे के अधीन वे अपनी सुरक्षा और आर्थिक प्रगति के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हुए भी अपनी संप्रीाुता को सर्वथा सुरक्षित रखना चाहते हैं। अनतर्राष्ट्रीय संगठन इन परस्पर विरोधी शक्तियों-राष्ट्रीय संप्रीाुता और अनतर्राष्ट्रीय अन्योनयाश्रय के मध्य समझाौते का एक प्रयास है। अन्तर्राष्ट्रीयवाद, लोक कलयाण की भावना, विश्व शांति और सुरक्षा की व्यवस्था, राष्ट्रीय महत्वकांक्षाओं पर रोक और निर्बाध राष्ट्रीय शक्ति पर नियंत्रण की आवश्यकता ने अन्तराष्ट्रीय संगठनों को जनम दिया है। अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में इन संगठनों की उपयोगिता निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है। अनतर्राष्ट्रीय जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू होगा जो इन संगठनो के प्रभाव से अछूता हो। पराधीन राष्ट्रों को मुक्ति दिलाने, युद्धा को संक्रामक रोगों को रोकने तथा लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने की दिशा में इन संगठनों ने उल्लेखनीय कार्य किया है। अनतर्राष्ट्रीय संगठन अपूर्ण अवस्था में ही सही आज के अन्तर्राष्ट्रीय जगत की जगमगाती वास्तविकता है। मान बुद्धि और विवेक ने इससे आगे कोई ऐसा विचार ही नही दिया है जो व्यवहार में उतारा जा सका हो। विश्व-सरकार, विश्व-राज्य अथवा विश्व-समाज जैसे विचार अभी भी कल्पना और आदर्श की ही वस्तु है। राष्ट्रसंघ की स्थापना मानव-इतिहास की अभूतपूर्व घटना थी। इससे पूर्व कभी भी विश्व के राज्यों ने मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना के लिए एक ऐसे विश्वव्यापी तथा शक्तिशाली संगठन का निमार्ण नहीं किया था। यह पहला बहुमुखी संगठन था जो अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलू का स्पर्श करता था तथा जिका कार्य-खेत्र दुनिया के कोने-कोने में फैला हुआ था। आदर्शवादी एवं स्वप्नद्रष्टा विल्सन के आग्रह पर विश्व-राजनीति की दृष्टि से जितनी अच्छी तथा काम की बातें हो कसती थीं, राष्टसंघ के विधान में उनका समावेश किया गया था। यह कहा गया था कि यह संस्था आनेवाली पीढ़ियों की युद्ध के तांडव से रक्षा करेगी तथा एक ऐसी शांति की स्थापना करेगी जो न्याय पर आश्रित हो। इससे अन्तर्राष्ट्रीय जगत में विधि के शासन ;त्नसम व िस्ंूद्ध की स्थापना की आशा भी की गयी थी। राष्ट्रपति विल्सन ने इसके विधान को ‘शांति का संविधान’ तथा ‘शांति की निश्चित गारंटी’ माना था। दक्षिणी अफ्रीका के तत्कालीन प्रधानमंत्री जनरल स्मट्स ने इसके माध्म से अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थायों और संस्थाओं में आन्तरिक रूपान्तरण की आशा व्यक्त की थी। निःसंदेह राष्ट्रसंघ के उदद्ेश्य बड़े ही पवित्र तथा व्यापक थे। यदि राष्ट्रसंघ इन उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल हो जाता तो धरती पर स्वर्ग की स्थापना हो जाती। परन्तु दुर्भायवश ये सभी उदद्ेश्य आदर्शमात्र बनकर रह गये। अपने उद्दीप्त आदर्शों, महत्वाकांक्षी स्वप्नों तथा गौरवपूर्ण उद्देश्यों की प्राप्ति में राष्ट्रसंघ सफल नहीं हो सका वह मानव जाति को युद्ध की विभीषिका से नहीं बचा सका। वह विश्व को न्यायोचित शांति और सुरक्षित प्रजातंत्र देने में असफल रहा। अपने गंभीर प्रयत्नों के बावजूद वह निस्त्रीकरण के अपने स्वपन को साकार नहीं कर सका। राष्ट्रसंघ की स्थापना के 20 वर्ष बाद चैम्बरलेन ने यूरोपीय स्थिति की तुलना ऊँचे पहाड़ों के उस भय से की कि जहाँ पर जोर की आवाज से ही गड़गड़ाहट के साथ पर्वत टूटकर नीचे गिर सकता था। कहने का तात्पर्य यह था कि स्थिति इतनी गंभीर थी कि थोड़ी सी बात से ही संकट उत्पन्न हो सकता था पर, राष्ट्रसंघ उस विनाशकारी स्थिति को रोकने में बिल्कुल असमर्थ रहा। इसके परिणामस्वरूप द्वितीय महायुद्ध शुरू हो गया जिसके आतप से राष्ट्रसंघ का कल्पतरू झुलस कर समाप्त हो गया। इस तरह शांति-स्थापना के लिए मानव का प्रथम प्रयास असफल हो गया। संघ की असफलता को देखकर जिज्ञासु मन में यह प्रश्न उठना स्वाभावित ही है कि आखिर यह असफल क्यों हुआ? इसकी असफलता के कौन-कौन से कारण थे? इस प्रश्न पर भी लेखकों में मतवैभिन्न्य है। कुद लेखकों के अनुसार राष्ट्रसंघ इसलिए असफल हुआ क्योंकि इसके विधान में अनेक दोष वर्तमान थे तो कुद लेखकों की राय में यह राष्ट्रसंघ नहीं था जो असफल रहा वरन् थे जिन्होंने इसकी उपेक्षा की और इसका साथ छोड़ दिया। दूसरे शब्दों में, अपने सदस्य-राष्ट्रों में निष्ठा, साहस और बुद्धिमत्ता के अभाव के कारण राष्ट्रसंघ असफल हो गया। परन्तु ये दोनों विचार एकांगी हैं। वस्तुतः सत्य यह है कि राष्टसंघ की विफलता के कुछ कारण उसके गठन में, विधान में तथा कार्य-पद्धति में निहित थे। इनके अतिरिक्त सदस्य-राज्यों में निष्ठा, साहस एवं बुद्धिमत्ता के अभाव तथा तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के कारण भी राष्ट्रसंघ असफल हुआ। इसीलिए मार्गेन्थों ने संघ की विफलता के लिए निम्नलिखित तीन दुर्बलताओं को उत्तरदायी माना है – (क) सांविधानिक दुर्बलताएँ, (ख) संरचनात्मक दुर्बलताएँ और (ग) राजनीतिक दुर्बलताएँ। यहाँ हम राष्ट्रसंघ की असफलता के विभिन्न कारणों का अलग-अलग वर्णन करेंगे। राजसत्ता की धारणाः राष्ट्रसंघ की विफलता का प्रथम कारण राजसत्ता की धारणा है। आधुनिक राज्य राजसत्ता पर आधारित है। चूँकि राष्ट्रीय सत्ता का आधार राष्ट्रवाद की प्रबल भावना है इसलिए प्रायः सभी राज्य, छोटे अथवा बड़े, अपनी राष्ट्रीय प्रभुसत्ता को सर्वाेच्च स्थान देते है और अपने राष्ट्रीय हित को सर्वाेंपरि मानकर अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में व्यवहार करते हैं। वे अपनी आन्तरिक अथवा बाह्म विषयों में किसी प्रकार के नियंत्रण या अंकुश स्वीकार नहीं करते। वे प्रत्यक्ष या अप्रतयक्ष हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं रहते। अतः राज्यसत्ता का यह सिद्धांन्त सक्रिय अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के विरूद्ध है। जब तक राजसत्ता के सविचार का क्षरण नहीं हो जाता तब तक पूर्ण रूप से अनतर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती परनतु दुर्भाग्यवश राष्ट्रसंघ का संगठन राज्य-संप्रभुसता की ठोस शिला पर आधारित था और इसीलिए कानून की दृष्टि में सदस्य राष्ट्रों के सहयोग पर आश्रित था। जन्म दोष:  राष्ट्रसंघ की विुलता का दूसरा कारण यह भा कि उसका जन्म एक ऐसी संधि के द्वारा हुआ था जो विजेताओं की संधि थी, विजेताओं के लिए अतयन्त कठोर एवं उन पर जबरन लादी गयी। राष्टसंघ की स्थापना को सुनिश्चित बनाने के लिए राष्ट्रपति विल्सन ने इस बात का आग्रह किया था कि संघ के विधान को शांतिसंधियों का अंग बना दिया जाय।उनके आग्रह पर ही राष्ट्रसंघ के            विधान को वर्साय संधि का अंग बना दिया गया। परनतु राष्ट्रसंघ के लिए यह अन्तयन्त दुर्भाग्यपूर्ण कार्य सिद्ध हुआ। संयुक्त राज्य अमरीका का असहयोग ;छवद.बववचमतंजपवद व िजीम न्दपजमक ैजंजमेद्धरू राष्ट्रसंघ की स्थापना में सबसे अधिक रुचि, आग्रह तथा हठ अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन का था। प्रथम विश्वयुद्ध से अमरीका दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली तथा सम्पन्न राष्ट्र के रूप में निकला था। राष्ट्रसंघ के प्रसाद की आधारशिला सामूहिक सुरक्षा का वह सबसे बड़ा स्तम्भ था। किन्तु अमरीकी सिनेट ने राष्टसंघ की सदस्यता के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। जिसके चलते संयुक्त राज्य अमरीका राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं बना। इस कारण राष्टसंघ के भव्य भवन की नींव की ईट गायब हो गयी।’’ राष्ट्रसंघ के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात साबित हुई जी0एम0 गैथर्न हार्डी ने कहा है कि अमरीका का राष्ट्रसंघ से पृथक होना राष्ट्रसंघ की सफलता के मार्ग में सबसे बड़ा रोड था। उनके अनुसार ‘‘ एक बालक यूरोप के दरवाजे पर अनाथों की भाँति छोड़ दिया गया था जिसके चेहरे-मोहरे पर उसकी अमरीकी पैतृकता स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही थी। संरचनात्मक दुर्बलता: सार्वभौमिकता का अभाव ;ैजतनबजनतंस ॅमंादमेे पद संबा व ि                 न्दपअमतेंसपजलद्धरू विश्व-शांति के संरखक के रूप में राष्टसंघ की सफलता के लिए वह आवश्क था कि विश्व के सीाी प्रमुख राष्ट इसके सदस्य होते परन्तु ऐसा नहीं हो सका। प्रारंभ में सोवियत रूस और जर्मनी को राष्ट्रसंघ से अलग रखा गया। जबकि अमरीका जिसके राष्ट्रपति ने इसके निमार्ण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, इसका सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया। सात महान देशों में केवल चार राष्ट्र ही राष्ट्रसंघ के सदस्य बने। सन् 1926 में जर्मनी इसका सदस्य बना लिया गया परन्तु इसके कुछ समय पश्चात् ब्राजील और कांस्टारिका ने इसका परित्याग कर दिया। सन् 1934 में रूस राष्ट्रसंग में प्रविष्ट हुआ परन्तु सन् 1933 में जापान और जर्मन तथा सन् 1937 में इटली ने सदस्यता परित्याग की नोटिस दे दी। सन 1939 में सोवियत रूस को भी राष्टसंघ से निकाल दिया गया। इस तरह संघ के अल्पकालिक जीवन में ऐसा कोई भी अवसर नहीं आया जब उसने सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व किया हो अथवा विश्व की सभी महाशक्तियाँ सदस्य-राज्यों के रूप में इसमें एक साथ बैठी हों संघ हमेशा कुद विशेष राष्ट्रों का गुट बना रहा। राष्टसंघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के लिए सर्वव्यापकता का अभाव इसके सफल कार्य-करण के लिए बहुत बड़ी बाधा थी। शूमाँ ने लिखा हैः ‘‘राष्ट्रसंघ तथा उससे             सम्बन्धि संस्थाएँ कभी भी मानवीय मातृ-भावना की प्रतीक नहीं हो सकीं जो समस्त देशों में अधिसंख्यक लोगों के प्रेम और निष्ठा को उत्पन्न कर सकतीं, जिसके द्वारा उसे प्रतिष्ठा एवं अधिकार विकास हो सकता जिसकी एक प्रारंभिक विश्व सरकार की आवश्यकता थी। त्रुटिपूर्ण धारणओं पर आधारित ;ठंेमक वद ूतवदह ंेेनउचजपवदेद्ध राष्ट्रसंघ की असफलता का एक अन्य कारण यह था कि वह अनेक त्रुटिपूर्ण धारणाओं पर आधारित था जिनकी पूर्ति नहीं हो सकी। प्रथम धारणा यह थी कि युद्धोपरांत प्रत्येक राष्ट्र यह महसूस करने लगे हैं कि उसके राष्ट्रों के सम्मिलित प्रयास द्वारा रोका जा सकता है और इसके लिए वे अपनी-अपनी सम्प्रभुता का कुछ अंश राष्टसंघ को देने के लिए तेयार हैं। परन्तु यह धारणा गलत साबित हुई क्योंकि कोई भी राष्ट्र अपनी सम्प्रभुता का क्षरण करने के लिए तैयार नहीं हुआं दूसरी धारणा यह थी कि सारी दुनिया में जनतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था का बोलबाला हो जायेगा और सीाी देशों की सरकारें जनतंत्रात्मक हो जायेगी। किन्तु, यह धारण भी गलत प्रमाणित हुई। सन् 1930 के बाद अनेक देशों में अधिनायकवादी और फ्रांसीवादी शासनों का विकास हुआ जिनकी प्रकृति जनतंत्रों से पूर्णतया भिन्न थी। इस प्रकार राष्ट्रसंघ की मूल भित्ति ही खत्म हो गयी। तीसरी धारणा यह थी कि विश्व के सभी राज्य राष्ट्रसंघ के सदस्य हो जायेंगे। परन्तु राष्ट्रसंघ का यह विश्व भी पूरा नहीं हो सका। चैथी धारण यह थी कि राष्ट्रों के आपसी समझौतों द्वारा शस्त्रास्त्रों को कम किया जा सकता है। परन्तु राष्ट्रसंघ के संक्षिप्त जीवन-काल में इस आशा की भी पूर्ति नहीं हो सकी। इस प्रकार व्यवहार में राष्ट्रघ की ये सभी आस्थाएँ पूरी नहीं हो सकीं। इन त्रुटिपूर्ण धारणाओं पर आधारित होने के कारण राष्ट्रसंघ सफल नहीं हो सका। असमान शक्ति-स्तम्भों पर आधारित: राष्ट्रसंघ की असुलता का अन्य महत्वपूर्ण कारण यह था कि शांति-स्थापक के रूप में राष्ट्रसंघ जिन स्तंभों पर आधारित था, वे समान रूप से शक्तिशाली और उचित रूप से संतुलित नहीं थे। राष्ट्रसंघ के जीवन के मुख्य चार स्तम्भ थेः (1) निरस्त्रीकरण तथा सैनिक शक्ति पर नियंत्रण, (2) सामूहिक सुरक्षा, (3) अनतर्राष्ट्रीय झगड़ों का शंतिपूर्ण समाधान तथा (4) शांतिपूर्ण परिवर्तन की व्यवस्था। इनमें से आक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की व्यवस्था पर अधिक बल बदया गया जबकि निरस्त्रीकरण और शांतिपूर्ण परिवर्तन सम्बन्धी        उपबन्ध अपेक्षाकृत दुर्बल थे। परिणामस्वरूप निरस्त्रीकरण और शांतिपूर्ण परिवर्तन सम्बन्धी उपबन्ध अपेक्षाकृत दुर्बल थ। परिणामस्वरूप निरस्त्रीकरण अथवा सैनिक शक्ति पर रोक लगाने का काम आगे नहीं बढ़ पाया। निरस्त्रीकरण आयोग की बैठकें होती रही; उसके तत्वाधान में महाशक्तियों के             प्रतिनिधियों की बैठकें एवं विचार विमर्श होते रहे  किन्तु न तो कोई निर्णय लिया जा सका और न कोई कार्रवाई ही ही किसी राज्य ने करने की सहमति व्यक्त की। इसके अलावा सन् 1919 की शांति-व्यवस्था में शांतिपूर्ण परिवर्तन करने की नीति को नहीं अपनाया गया। आर्थिक संकट ;म्बवदवउपब ब्तपेपेद्ध अन्तर्राष्ट्रीय ससहयोग का विकास संतोष के वातावरण में होता है। इसके लिए जनता की संतोषजनक आर्थिक दशा परम आवश्यक है। सन् 1929 के आर्थिक संकट न सारी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था को झकझाोर डाला। वस्तुओं के मूल्य गिरने लगे और विभिन्न देशों के बैंक फेल होने लगे उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गयी। इस संकट का सामना करने के लिए विश्व के देशों में संकुचित राष्ट्रीय भावनाओं का विकास हुआ। आर्थिक प्रतिबंध और संरक्षण की नीति आर्थिक संकट से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक मानी जाने लगी। लगभग सभी देशों में आर्थिक राष्ट्रवाद की शक्तियों का विकास हुआ। इसने जर्मनी में नाजीवाद और जापान में सैनिकवाद को विकसित किया ऐसी परिस्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की सारी बाते हवा में उड़ गयी। यह बात राष्ट्रसंघ के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई। (अपपप) शांतिवाद का विचार ;भ्ंदकपबंच व िच्ंबपपिेउद्ध जी एम0 गैथर्न हार्डी ने अपनी पुस्तक ‘ए शार्ट हिस्ट्री आॅफ इन्टरनेशनल अफेयर्स में राष्ट्रसंघ के विफलता के कुद अनय कारणों की चर्चा करते हैं। शांतिवाद का विचार उनमें से एक है। वे इसे ‘शांतिवाद द्वारा उत्पन्न अड़चन ;ज्ीम भ्ंदकपबंच व िच्ंबपपिेउद्ध कहते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के लोगों में युद्ध-विरोधी भावनाओं का विकास हुआ। वे युद्ध को घृणा की नजर से देखने लगे सन् 1928 के पेरिस समझौते के द्वारा युद्ध को            अपराध घोषित किया गया। इससे आक्रामक राज्यों ने यह निष्कर्ष निकाला कि विश्व का कोई भी राज्य युद्ध मोल लेने के लिए तथ्यार नहीं है। वे यह सोचने लगे कि उनके विरोधी उनके आक्रमणकारी कार्याें का विरोध नहीं करेगे। इससे आक्रमणकारियों को बड़ा प्रोत्साहन मिला। सन् 1931 में जापान ने मंचूरिया पर चढ़ाई की और राष्ट्रसंघ के सदस्य-राज्य कोई प्रभावशाली कदम उठाने में समक्ष नहीं हो पाये। सन 1935 में जर्मनी ने वर्साय-संधि में निहित निस्त्रीकरण-सम्बन्धी उपबन्धों को तोड़ दिया और सन् 1936 में राइनभूमि पर अधिपत्य जमा लिया। मित्र-राज्यों की और से जर्मनी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी। प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व यदि इस तरह की बात होती तो तुरंत ही उसका विरोध किया जाता। उदाहरण के लिए, सन 1911 में जब जर्मनी ने आगादीर संकट उतपन्न किया तो लाॅयड जार्ज ने इसका विरोध करते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि इग्लैड इस कार्रवाई को बरदाश्त नहीं करेगा। फलस्वरूप संकट टल गया। परन्तु युद्ध के बाद किसी भी कीमत पर शांति कायम रखने के संकल्प ने आक्रमणकारियों को की प्रोत्साहन किदया। इसका अर्थ उन्होंने यह लगाया कि मित्र राज्य युद्ध से डरते है। फिर क्या था अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर एक के बाद एक आक्रमण की घटनाएँ घटने लगीं जिन्होने राष्टसंघ के अीााव को बिल्कुल समाप्त कर दिया और उसकी असफलता को अवश्यम्भावी बना दिया। अधिनायकवाद का विकास ;त्पें व िक्पबजंजवतेीपचद्ध राष्ट्रसंघ की स्थापना इस विश्वास पर की गयी थी कि इसके सभी सदस्य राज्य शांति, स्वतंत्रता और प्रजातंत्रवाद के प्रेमी हो गये। किन्तु सन् 1922 में इटली और 1930 के बाद जर्मनी, स्पेन और पुर्तगाल तथा अन्य अनेक यूरोपीय देशों में                अधिनायकवादी सरकारें सत्तरूढ़ हो गयीं। ये सरकारें शांति और समझौते की नीति में नहीं वरन् युद्ध और हिंसा की नीति में विश्वास रखती थीं। वे अपने उद्देश्यों की प्राप्ति पर तुली रहती थी, ‘‘भले ही यह कार्य जेनेवा की सहायता नहीं था। वरन् ये उसे व्यर्थ की मूर्खता समझाती थीं। ऐसे वातावरण में संघ के सफल होने के आशा दुराशामात्र थी। पूर्व नियोजित आक्रमण की तैयारी ;च्तमचंतंजपवद वित च्तमचसंददमक ।हहतमेेपवदद्ध प्रथम विश्वयुद्ध के मूलभूत कारणों पर विचार करते हुए यह समझा जाने लगा था कि युद्ध आकस्मिक घटनाएँ होती हैं। विशेषकर राष्ट्रों के बीच खराव सम्बन्ध होने के कारण ही ये संकट उत्पन्न होते हैं। इसी गलत            धारणा के कारण राष्ट्रसंघ उन आक्रमणकारियों का मुकाबला नहीं कर सका जिनहोंने पूर्व नियोजन के साथ जान-बूझकर आक्रमण की तैयारी कर रखी थी। संघ-विधान की धारा 15 के अनतर्गत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निबटारे की जो व्यवस्था थी, वह काफी विलम्ब करने वाली थी। विचार-विमर्श में ही काफी समय बीत जाता था और तबतक आक्रमणकारियों को युद्ध की पूरी तैयारी करने का अवसर मिल जाता था। धारा 16 के अन्तर्गत भी कोई शक्तिपूर्ण कार्रवाई तब तक नहीं की जा सकती थी जब तक राष्ट्रसंघ यह घोषित न कर दे कि अमुक राज्य ने संघ विधान का उल्लंघन करके युद्ध की घोषण की है। युद्ध होने पर भी कोई राज्य यह कहकर अपना बचाव कर सकता था कि युद्ध उसने शुरू नहीं किया है। इस प्रकार राष्ट्रसंघ यह घोषित न कर दे कि अमुक राज्य ने संघ विधान का उल्लंघन करके युद्ध की घोषणा की है। युद्ध होन पर भी कोई राज्य यह कहकर अपना बचाव कर सकता था कि युद्ध उसने शुरू नहीं किया है। इस प्रकार राष्ट्रसंघ राष्ट्रों द्वारा जान-बूझ कर किये गये आक्रामक कार्याें की रोकथाम करने में सफल नहीं हो सका। संवैधानिक दोष ;ब्वदेजपजनजपवदंस क्ममिबजेद्ध: राष्ट्रसंघ के संविधान में भी अनेक दोष विद्यमान थे। सर्वप्रथम, राष्ट्रसंघ के पास दंड देने की संतोषपूर्ण शक्ति नहीं थी। इसके पास अपनी कोई अन्तर्राष्ट्रीय सेना अथवा पुलिस नहीं थी, जिसके द्वारा वह स्वयं अपने निर्णयों को कार्यान्वित कर सकता। वह अनतर्राष्ट्रीय कानून को भंग करने वालों के खिलाफ जोरदार कार्रवाई करने का सामथ्र्य नहीं रखता था। इसे अपने निर्णयों को कार्यान्वित करने के लिए सदस्य-राज्यों के ऊपर निर्भर रहना होता था जो प्रायः ऐसा करने के लिए बहुत इच्छुक नहीं रहते थे। क्लाॅड के अनुसार राष्टसंघ स्वाश्रित न होकर पराश्रित था अतः सदस्यों के ऐच्छिक सहयोग के अन्त के साथ ही राष्ट्रसंघ का भी अन्त हो गया। राजनीतिक दुर्बलता ;च्वसपजपबंस ॅमंादमेेमेद्ध: सदस्य-राज्यों का उत्तरदायित्वः राष्ट्रसंघ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कमजोरी थी -राष्ट्रों के परस्पर विरोधी हित। राष्ट्रसंघ केवल इसलिए विफल नहीं हुआ कि उसमें विधान-सम्बधी अथवा संगठनात्मक कमजोरियाँ थी। संघ विफल इसलिए हुआ कि दुनिया की शक्तियों में आदर्श, आस्था एवं नीतियों की एकता नहीं थी। वास्तव में राष्ट्रसंघ राष्ट्रों के सहयोग का एक साधन था। इसकी सफलता की एक आवश्यकता शर्त यह थी कि उनमें सम्मिलित राष्ट्र-भेद-भाव भूलकर संघ को सफल बनावें लेकिन उमें इस भावना का नितांत अभाव था। सभी राष्ट्रों का अपना दृष्टिकोण था और वे विभिन्न दृष्टिकोण से राष्ट्रसंघ को अलग-अलग दिशा में ले जाना चाहते थे। वे अपनी राष्ट्रीय हितों को राष्ट्रसंघ द्वारा बताए न्याय के सिद्धांत के भी ऊपर तरजीह देते थे। जब कभी उनके हितों और संघ के सिद्धांतों में विरोध होता था, वे संघ के सिद्धांतों को ही हनन करते थे। इस हालत में राष्टसंघ को असफल होना ही था। इस प्रकार हम देखते है कि राष्ट्रसंघ के असफलता के अनेक कारण बतलाये जाते हैं। परन्तु वास्त में उसकी असफलता का सबसे बड़ा कारण था-राष्ट्रों का विश्वासघात। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रसंघ का विधान दोषपूर्ण था किन्तु उन दोषों के बावजूद राष्ट्रसंघ सफल हो सकता था कि यदि सदस्य-राज्य अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने की इच्छा रखते। दुर्भाग्यवश राष्ट्रसंघ के सदस्यों में इस तरह की पक्की आस्था एवं दृढ़ इच्छा का सर्वथा अभाव था। ऐसी हालत में राष्ट्रसंघ यदि सफल हो जाता तो बड़े आश्चर्य की बात होती। पिटमैन बी0 पार्टर ने ठीक ही कहा है: ‘‘जहाँ तक असफलता हुई, राष्ट्रसंघ की नहीं वरन् संघ के राष्ट्रों की असफलता हुई। कदाचित, इस विषय में राष्ट्रसंघ के वैधानिक दायित्व अथवा वैधानिक सिद्धांत दोषपूर्ण थे। परनतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसके सदस्य सुरक्षा व कल्याण की अभिवृद्धि के लिए अधिक प्रभावशाली ढंग से कार्य नहीं कर सकते थे। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि राष्ट्रसंघ अपने विविध अंगों में से किसी भी अंग के संरचनात्मक दोषों के कारण विफल नहीं रहा। वह शांति और सुरक्षा इसलिए स्थापित नहीं कर सका। क्योंकि मंचूरिया व इथियोपिया के मामलें में र्बिटेन व फ्रांस ने उतने शक्तिशाली ढंग से उसका समर्थन नहीं किया जितना कि उनहें करना चाहिये था।’’ गुड्सपीड ने भी इसी तरह का विचार व्यक्त किया है। उसके अनुसार ‘‘राष्ट्रसंघ की असफलता से सम्बद्ध सबसे मूल प्रश्न सदस्यों द्वारा संघ के प्रति विश्वासघात है। इसमें संदेह नहीं कि राष्टसंघ के विधान में अनेक कमजोरियाँ थीं, उसका प्रारूप त्रुटिपूर्ण था और उसमें अनेक संगठनात्मक दोष वर्तमान थे परनतु इन दोषों के बावजूद राष्ट्रसंघ अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर लेता यदि सदस्य-राज्य ऐसा चाहते। परन्तु सदस्य -राज्यों में इस तरह की इच्छा का सर्वथा अभाव था। राष्ट्रसंघ की असफलता से यह सिद्ध हो गया कि केवल कुछ पवित्र सिद्धांत अथवा नैतिक मूल्यों के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवथा और शांति कायम नहीं रखी जा सकती। निष्कर्ष ;ब्वदबसनेपवदद्ध: उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि अपने सदस्य-राष्ट्रों की निष्ठाहीनता तथा अनेक वैधानिक दोषों के कारण राष्ट्रसंघ युद्धों के निवारण और शांति की स्थापना में सफल नहीं हो सका। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि राष्ट्रसंघ एक अनुपयोगी और व्यर्थ की संस्था थी। अपनी असफलता के बावजूद उसने अपने आपको ऐतिहासिक महत्व की एक महान संस्था प्रमाणित किया। यह पहली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था थी जिसने सर्वप्रथम मानव-जाति को अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और सामूहिक कार्रवाई का पाठ पढ़ाया। इसने अनतर्राष्ट्रीय सहयोग और सौहार्द की एक ऐसी परम्परा का सूत्रपात किया जो अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का अभिन्न अंग बन गया। इसने राष्ट्रों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की आदत डाली। जैसा कि लैंगसम ने लिखा हैः ‘‘राष्ट्रसंघ की सबसे बड़ी देन अनतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना को उन्नत करना था।’’ वास्तव में राष्ट्रसंघ उस प्रयतन की प्रशंसनीय कृति था जिसका उद्देश्य राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रयवाद में सामजस्य स्थापित करना था। यह ऐसी प्रथम संस्था थी जिसमें एक विश्व संघ के बीज निहित थे। गैर-राजनीतिक क्षेत्रों में संघ ने आशातीत सफलता हासिल की और विश्व में अनतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा प्रचार में उसे अपूर्व सफलता मिली। राष्ट्रसंघ का मूल्यांकन करते हुए श्लीचर ने लिखा हैः:ःराष्ट्रसंघ की सफलता और असफलता उस कसौटी पर निर्भर करती है जिस पर इसे कसा जाता है। यदि यह उन आदर्शवादियों की कसौटी हो, जो इसके माध्यम से युद्ध का पूरा निषेघ करना चाहते थे तो राष्ट्रसंघ अवश्य ही असफल रहा है। यदि यह कसौटी संघ के वास्तविक कार्याें, उसकी सीमाओं और मानव जाति पर उसके प्रभाव पर आधारित हो तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि राजनीतिक क्षेत्र में असफलता होने पर भी वह आर्थिक, सामाजिक और मानवीय कार्याें में पर्याप्त सफल रहा।’’ राष्ट्रसंघ की उपलब्धियों की चर्चा करते पिटमैन पाॅटर ने लिखा है। ‘‘भूतकाल में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने जो कुछ किया, यदि उसे मापदंड माना जाय तो राष्टसंघ का कार्य यहा तक कि सुरक्षा के क्षेत्र में भी, उच्चतर का है। वास्तव में वह बहुत थोड़ी विशिष्ट और सीमित क्षेत्रवाली संस्थाओं को छोड़कर अन्य किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के कार्य से उच्च है। राष्ट्रसंघ का सर्वाधिक महतवपूर्ण योगदान इस बात में निहित है कि इसने विश्व को वह बहुमूल्य अनुभव प्रदान किया जिसकी आधारशिला पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के भव्य भवन का निमार्ण किया गया। वालटर ने ठीक ही लिखा है; ‘‘कार्य करने वाली संस्था के रूप में राष्ट्रसंघ मृतक के रूप में है। परन्तु वे आदर्श, जिनको इसने बढ़ावा देने का प्रयत्न किया, और वे आशाएँ जिनको इसने उत्पन्न किया, वे ढंग जिनका इसने निमार्ण किया, और वे साधन जिनकी इसने रचना की, सभ्य संसार के राजनीतिक विचारों के महत्वपूर्ण भाग बन गये और उसके प्रभाव तबतक जीवित रहेंगे जबतक कि मानव जाति राज्यों और राष्ट्रों के विभाजनों से ऊपर एकता का अनुभव करती है।’’

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