ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

अभी एक और गांँधी चाहिए

– डाॅ0 प्रवीण कुमार
एसो0प्रो0 राजनीति विज्ञान
डी0ए0वी0 पी0जी0 काॅलिज, बुलन्दशहर

इस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिवस की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ चल रही है और पूरा भारत सोच  रहा है कि यह देश आजादी मिलने के बाद ऐसे कौन से मुकाम पर आकर खड़ा हो गया है जहां हर आदमी एक-दूसरे से पूछ रहा है कि पिछले सत्तर सालों में हम कितनी दूर चल लिए हैं? ”दरअसल यह हमारे दिमाग का खलल हैं कि गांधी के ‘राम राज‘ को हम प्रतीकों से जोड़कर देख रहे हैं और सोच रहें है कि हम सही दिशा में आगे वड रहे हैं। गांधी की अहिंसा का मजाक उड़ाने में भी कुछ लोग पीछे नहीं रहे हैं और उस शाश्वत सत्य को झुठलाते रहे हैं जो बापू ने कहा था कि ‘ईश्वर वहीं वास करता है जहां सत्य होता है और अहिंसा होती है‘ लेकिन हमने मान लिया है कि यह आदर्शवादी स्थिति  है और हर व्यक्ति को अपना हित साधने के लिए सत्य कैा मनमाने ढंग से उपयोग करने की छूट है। सत्य कहीं आसमान में नहीं छिपा रहता बल्कि वह इसी धरती पर हमें सचेत करते हुए विवेक की राह पर दौड़ाता है। यह गांधी का विवेक ही था कि उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन के समानान्तर भारत के उस सत्य को जाना जो इसके समाज को भीतर से खोखला कर रहा था“1इस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिवस की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ चल रही है और पूरा भारत सोच  रहा है कि यह देश आजादी मिलने के बाद ऐसे कौन से मुकाम पर आकर खड़ा हो गया है जहां हर आदमी एक-दूसरे से पूछ रहा है कि पिछले सत्तर सालों में हम कितनी दूर चल लिए हैं? ”दरअसल यह हमारे दिमाग का खलल हैं कि गांधी के ‘राम राज‘ को हम प्रतीकों से जोड़कर देख रहे हैं और सोच रहें है कि हम सही दिशा में आगे वड रहे हैं। गांधी की अहिंसा का मजाक उड़ाने में भी कुछ लोग पीछे नहीं रहे हैं और उस शाश्वत सत्य को झुठलाते रहे हैं जो बापू ने कहा था कि ‘ईश्वर वहीं वास करता है जहां सत्य होता है और अहिंसा होती है‘ लेकिन हमने मान लिया है कि यह आदर्शवादी स्थिति  है और हर व्यक्ति को अपना हित साधने के लिए सत्य कैा मनमाने ढंग से उपयोग करने की छूट है। सत्य कहीं आसमान में नहीं छिपा रहता बल्कि वह इसी धरती पर हमें सचेत करते हुए विवेक की राह पर दौड़ाता है। यह गांधी का विवेक ही था कि उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन के समानान्तर भारत के उस सत्य को जाना जो इसके समाज को भीतर से खोखला कर रहा था“1 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ‘महात्मा‘ की उपाधि विश्वकवि गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने नहीं बल्कि महान समाज सुधारक स्वामी श्रद्धानंद ने दी थी। यह दावा एक ”राष्ट्रीय दैनिक”2 में आज  प्रकाशित लेख में किया गया। अब तक यह माना जा रहा है कि गुरुदेव ने गांधी जी को पहली बार ‘महात्मा‘ की उपाधि दी थी। ‘जहाँ मिस्टर से गांधी बने ‘महात्मा‘ लेख मंे कहा गया है कि हरिद्वार के निकट कनखल स्थित गुरुकल कांगड़ी में 8 अप्रैल 1951 को गांधी जी का सम्मान समारोह आयोजित किया गया जिसमें उन्हें ‘महात्मा‘ की उपाधि प्रदान की गयी थी। वर्ष 1902 में इस गुरूकुल की स्थापना स्वामी श्रद्धानंद ने की थी जिनका वास्तविक नाम महात्मा मुंशी राम था। उनका जन्म 1856 में जालंधर के तलवान में हुआ था। और निधन 1926 में हुआ था। वह दयानंद सरस्वती के अनुयायी थंे। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तभी से ही महात्मा मुंशीराम  से उनका पत्राचार था। उन्हें जब मुंशी राम के समाज सुधार के कार्यक्रमों की जानकारी मिली तो उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की।  गांधी जी ने 21 अक्टूबर 1914 को दक्षिण अफ्रीका के फोनिक्स आश्रम नेटाल से उन्हें एक पत्र भी लिखा। उन्होंने पत्र में लिखा था मैं यह पत्र लिखते हुए अपने को गुरुकुल में बैठा हुआ महसूस करता हूं। मैं निसंदेह इन संस्थाओं यानी गुरुकुल कांगड़ी, शांति निकेतन और सेंट स्टीफन काॅलेज को देखने के लिए अधीर हूं। मैं उनके संचालकों भारत के तीनों सपूतों के प्रति अपना आदर व्यक्त करता हूं। इसके बाद 08 फरवरी 1951 को पूना से हिन्दी में गांधी जी ने मुंशी राम को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा‘ आपके चरणों में सिर झुकाने की मेरी उमेेद है इसलिए बिना निमंत्रण आने की भी मैं फर्ज समझता हूं। ‘दोनों पत्र गांधी संग्रहालय में उपलब्ध हैं। गांधी जी 5 अप्रैल 1915 को कस्तूरबा के साथ हरिद्वार पहुंचे। छह अप्रैल को गुरुकुल कांगड़ी में जाकर मुंशी राम से भेट करके उनके चरण स्पर्श करके उन्हें प्रणाम किया। 8  अप्रैल को गुरुकुल के मायापुर वाटिका में एक अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया जिसमेें गांधी जी को ‘महात्मा‘ की उपाधि से विभूषित किया गया। उस समारोह में गांधी जी ने मुंशीराम को अपना भाई बताया। गुरुकुल से स्नातक करने वाले सर्वश्री सत्यदेव विद्यालंकर, सत्यकेतु विद्यालंकर आदि ने भी अपने – अपने संस्मरणों में इसका जिक्र किया है। 30 मार्च 1970 में स्वामी श्रद्धानंद पर जारी डाक टिकट में भी इसका जिक्र है। प्रेमचन्द कालीन लेखक रामनाथ सुमन ने भी यही बात अपनी पुस्तक ‘उत्तर प्रदेश में गाधी‘ में लिखी है। गांधी जी उसके बाद और तीन बार गुरुकुल कांगडी गये थे। आमतौर पर यह धारण प्रचलित है कि गांधीजी को पहली बार:महात्मा‘ से संबोधित किया रवीद्रनाथ टेगौर ने। लेकिन धर्मपालजी अपनी पुस्तक में बताते हैं कि दक्षिण अक्रीका से भारत वापस आने पर गांधी को पहली बार ‘महात्मा‘ के रूप में संबोधित किया गया 21 जनवरी 1915 को, गुजरात के जेतपुर में हुए नागरिक अभिनंदन समारोह में। ’’इसमें प्रस्तुत अभिनंदन पत्र में‘श्रीमान महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी‘ जैसे आदरसूचक शब्दों में उनका उल्लेख किया गया। इसके बाद तो उन्हें महात्मा कहने का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि वे पूरे नाम के बदले सिर्फ ‘महात्मा गांधी‘ के रूप मे पहचाने जाने लगे। वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास जाने लगे। वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका मे मोहनदास ने ‘कुली बैरिस्टर‘ के रूप में जातीय स्वाभिमान की रक्षा के निमित जो त्याग और संघर्ष किया उसने उन्हें दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के बीच ‘गांधी भाई‘ बना दिया तो भारत में ‘महात्मा‘। नेलसन मंडेला ने सही कहा था कि भारत ने जिस मोहनदास को दक्षिण अफ्रीका भेजा था उसे दक्षिण अफ्रीका ने ‘महात्मा‘ बना कर भेजा।3 जाहिर है, मोहनदास को ‘महात्मा‘ की उपाधि किसी संस्था या राज्यसत्ता ने नहीं बल्कि लोकमत ने दी जिसे उन्होंने सविनय अवज्ञा के मार्ग पर दूढ़तापूर्वक चलते हुए अर्जित की। आमतौर पर गांधी की सविनय अवज्ञा का मतलब औपनिवेशिक शासन का विरोध करना भर समझा जाता है लेकिन उनकी सविनय सवज्ञा के दो स्तर या दो आयाम थे। प्रथम आयाम का संबंध व्यक्ति द्वारा अपनी आंतरिक बुराइयों, अवगुणों की निरंतर अवज्ञा करते हुए अंतःकरण को शुद्ध चैतन्य से भरपूर करने से था। दूसरे आयाम का संबंध सामाजिक-राजनीतिक अनीतियों का अहिंसात्कम ढंग से प्रतिकार करने से था। गांधी आजीवन सविनय अवज्ञा के इन दोनों स्तरों पर सक्रिय रहे और यही उनके ‘महात्मा‘बनने का सबब बना।   चंपारण सत्याग्रह नील की खेती करने वाले किसानों के अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष के रूप में विख्यात है। इसके एक सदी बाद भी देश का किसान बदहाल है। ’’स्वतंत्रता के बाद गांधीजी के विचारों को दकियानूसी और अव्यावहारिक मान कर दरकिनार कर दिया गया’’4, पर जब हम देखते हैं कि कृषि में उन्नत तकनीक और वैज्ञानिक प्रविधि के प्रयोग के लाभ न केवल सीमांत और लघु कृषकों की पहुंच से दूर हैं बल्कि इनके कारण ये पराश्रित और ऋणग्रस्त हो रहे है तो गांधी के आर्थिक दर्शन के पुनर्पाठ की आवश्यकता बड़ी तीव्रता से अनुभव होती है। स्थिति आज यह है कि सीमांत किसानों के पास आधुनिक कृषि उपकरणों और सिंचाई सुविधाओ को जुटाने के लिए पैसा नहीं है। किराये से इनकी व्यवस्था इन किसानों को करनी पड़ती है। इस कारण लागत मेें वुद्धि होती है। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक भी अपनी बढ़ती कीमतों के कारण सीमांत और छोटे कृषकों पर आर्थिक बोझ डालने लगे है। आधुनिक तकनीक ने कृषि में पशुधन के प्रयोग को विस्थापित किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि अब दूध भी किसानों को खरीदना पड़ रहा हैं।    नमक कानून तोड़ने के लिए महात्मा गांधी ने 1930 मं 12 मार्च को अहमदाबाद के अपने सत्याग्रह आश्रम से दांडी यात्रा शुरू की। विदेशी मीडिया ने इस यात्रा की कामयाबी को लेकर आशंकाएं जतायी थी, लेकिन 61 वर्षीय महात्मा गांधी और उनके 78 सत्याग्रहियों ने उनकी आशंकाओं को निराधार साबित कर दिया। वह 24 दिनों में 340 मील की पदयात्रा करते हुए छह अप्रैल को दांडी पहुंचे।  मुट्ठी भर नमक बनाकर गांधी ने खुद को भले ब्रिटिश हुकूमत की नजर में गुनाहगार बना लिया, ’’लेकिन अपनी हिम्मत और दृढ़ता के कारण वह आजादी के आंदोलन के एकछत्र नायक बनकर उभरे। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने उस समय कहा कि महात्मा जी के त्याग और देशप्रेम को हम सभी जानते ही है, पर इस यात्रा के द्वारा हम उन्हें अब एक योग्य और सफल रणनीतिकार के रूप में भी पहचानेंगे।’’5 गांधी नमक कानून तोड़ने के बाद अहमदाबाद नकम कानून तोड़ने के बाद अहमदाबाद आश्रम नहीं लौटे। वह दांडी के पास ही कराड़ी में एक आम के पेड़ के नीचे खजूर की  पत्तियों से बनी झोपड़ी में ही रहने लगे थे। उन्हें चार मई, 1930 को मध्य रात्रि में गिरफ्तार कर लिया गया। महात्मा गांधी चंपारण में शुरू हुए सत्याग्रह में लगभग में भाग लेने अप्रैल 1971 में चंपारण पहुंचे थे। उन्होंने किसानों को अग्रेंजों के शोषण से मुक्त करने के लिए ’’पहली बार सत्याग्रह आन्दोलन का रास्ता अपनाया, जो अब वैश्विक इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में दर्ज है इसी अभियन के साथ किसानों का मुद्दा भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का अभित्र अंग बना। इससे शुरू हुई प्रक्रिया जमींदारी उन्मूलन तक गयी। इसी आंदोलन ने मोहनदास करमचंद गाँधी को महात्मा गांधी बनाया।’’6 चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही गाँधीजी ने आम भरतीय किसान की तरह का लिवास अपनाया और वंचित तबको से खुद से जोड़ने की कोशिश शुरु की। इससे आम भारतीयों के मन में उनके लिए जगह बनी। गांधी जी ने जिस देश को भयमुक्त किया था, ’’वह आज फिर भयग्रस्त मानसिकता का बंदी है। यह भय बहुत-सी काल्पनिक आशंकाएं पैदा करता है। आशंकाए हमें कायर और क्रूर एक साथ बनाती हैं। वे भयग्रस्त कायर लोग हैं, जो कभी बच्चाचोर मानकर, कभी गोहत्यारा मानकर किसी निरीह-निर्दोष नागरिक  के साथ क्रूरता का बर्ताव करते हैं। गांधी जिस भय से लोगों को मुक्त कर रहे थे, वह 1919-20 में डेढ़ सौ साल के अंग्रेजी दमन से बद्धमूल हुआ था। सौ साल बाद आज हमारा समाज जिस भय से ग्रस्त है, वह राजनीति द्वारा सधे हुए मनौवैज्ञानिक युद्ध की रणनीति से पैदा किया गया है-देश की असुरक्षा का भय, समाज में फैले गद्दारों का भय, और इसके लिए अपने ही समाज के एक हिस्से को शत्रु की तरह प्रचारित किया गया है।’’7   गांधी ने लोगों को भयमुक्त करते हुए बड़े-बड़े आंदोलनों को सुत्रपात किया था, इसके लिए ‘खादी‘ के रूप में राष्ट्रीयता का और चरखा के रूप में स्वदेशी का प्रतीक निर्मित किया था, लेकिन आज बिल्कुल भिन्न उद्देश्य से आंदोलनों का उपयोग करके ‘आस्था‘ और ‘शत्रु‘ के प्रतीक निर्मित किए गए है-मंदिर और मुसलमान। इन हालातों में देश को भयमुक्त करने के लिए गांधी का  अहिंसा और सत्याग्रह का मार्ग ही श्रेयकर है।
सन्दर्भ:- 1. अश्विनी कुमार, गांधी का रास्ता ’जनमत’, पंजाब केसरी, नई दिल्ली, 02 अक्टूबर 20182 देंखे, गांधी जी को महात्मा की उपाधि स्वामी श्रद्धानंद ने दी? पंजाब केसरी, नई दिल्ली, 08 मई 20173. श्री भगवान सिंह, मोहनदास से महात्मा तक, जनसत्ता, नई दिल्ली, 30 जनवरी, 20184. राजू पांडेय, चंपारण से निकला रास्ता, जनसत्ता, नई दिल्ली, 17 अप्रैल, 20185. प्रसून लतांत, एक मुट्ठीभर नमक बनाकर गांधी ने ललकारा था अंगे्रज हुकूमत को, दैनिक भास्कर, नोएडा, 09 अप्रैल, 20186. कुमार कृष्णन, गांधी की विरासत कहाँ तक होगी मददगार, उगता भारत, गौतमबुद्ध नगर, 29 अप्रैल, 20177. अजय तिवारी, फिर चाहिए गांधी , राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 11 सितम्बर, 2019

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