ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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आचार्य कवि ‘‘कृपाराम’’ के काव्य का सांस्कृतिक अध्ययन

डाॅ0 राम मोहन (सहायक प्रवक्ता-हिन्दी)
कृष्णा महाविद्यालय, लालपुर, आजादपुर,
बण्डा, शाहजहाँपुर

आचार्य कवि कृपाराम जी का हिन्दी काव्य जगत में सदैव से सम्मान रहा है। वे रीति काव्य के मर्मज्ञ, विद्वान चिन्तक एवं आचार्य होने के साथ-साथ तत्कालीन संस्कृति के सफल प्रतिनिधि भी हैं। उनका काव्य सांस्कृतिक जीवन रस की गंगोत्री है। इसे समालोचकों ने हिन्दी साहित्य के भक्तियुग में रीति काव्य के अंकुरण के रूप में महत्व प्रदान किया है। जहाँ तक रीति के शाब्दिक अर्थ का सवाल है, इसका अर्थ है गमन प्रणाली जिससे जाया जाये या गतिशील हुआ जाये उसे रीति कहते हैं। मार्ग, पंथ, पद्वति प्रणाली इसके दूसरे पर्यायवाची हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र में विशिष्ट पद रचना को रीति कहा गया है। ‘‘अभिव्यक्ति के विभिन्न मार्ग होते हैं। लेखक अपनी रूचि के अनुसार इन मार्गांे का अनुसरण करते हैं। रीति शब्द इसी अभिव्यक्ति वैभिन्य का घोतक है। वामन से पूर्व रीति के स्थान पर प्रायः मार्ग प्रयुक्त किया जाता था। आज-कल हिन्दी में इसके लिए शैली शब्द का प्रयोग होता है। शैली शब्द की उत्पत्ति भी शील शब्द से हुई है। यह भी लेखक के स्वभाव की ओर ही संकेत करता है। प्राचीन संस्कृत शास्त्र में शैली शब्द किसी व्याख्यान पद्धति के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता था।’’-(1)आचार्य कवि कृपाराम जी का हिन्दी काव्य जगत में सदैव से सम्मान रहा है। वे रीति काव्य के मर्मज्ञ, विद्वान चिन्तक एवं आचार्य होने के साथ-साथ तत्कालीन संस्कृति के सफल प्रतिनिधि भी हैं। उनका काव्य सांस्कृतिक जीवन रस की गंगोत्री है। इसे समालोचकों ने हिन्दी साहित्य के भक्तियुग में रीति काव्य के अंकुरण के रूप में महत्व प्रदान किया है। जहाँ तक रीति के शाब्दिक अर्थ का सवाल है, इसका अर्थ है गमन प्रणाली जिससे जाया जाये या गतिशील हुआ जाये उसे रीति कहते हैं। मार्ग, पंथ, पद्वति प्रणाली इसके दूसरे पर्यायवाची हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र में विशिष्ट पद रचना को रीति कहा गया है। ‘‘अभिव्यक्ति के विभिन्न मार्ग होते हैं। लेखक अपनी रूचि के अनुसार इन मार्गांे का अनुसरण करते हैं। रीति शब्द इसी अभिव्यक्ति वैभिन्य का घोतक है। वामन से पूर्व रीति के स्थान पर प्रायः मार्ग प्रयुक्त किया जाता था। आज-कल हिन्दी में इसके लिए शैली शब्द का प्रयोग होता है। शैली शब्द की उत्पत्ति भी शील शब्द से हुई है। यह भी लेखक के स्वभाव की ओर ही संकेत करता है। प्राचीन संस्कृत शास्त्र में शैली शब्द किसी व्याख्यान पद्धति के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता था।’’-(1)जीवन परिचय- भक्तिकाल में हिन्दी साहित्य को गुण और परिभाषा की दृष्टि से पर्याप्त प्रतिष्ठता मिल चुकी थी तथा उसे विरासत के रूप मंे संस्कृत के काव्य शास्त्र ग्रन्थो की प्रभावशाली परम्परा भी अनायास ही प्राप्त थी, फिर भी इसमें काव्यांग के निरूपण की प्रवृत्ति को अविर्भाव सम्भवतः इस कारण से नहीं हो सका कि तत्कालीन कवियों को या तो इस दिशा में सोचने का अवकाश नहीं था या फिर उन्होने ऐसा प्रयास ही नहीं किया। पं0 सुधाकर पाण्डेय के अनुसार ‘‘कृपाराम का हिन्दी साहित्य में प्रादुर्भाव ऐसी स्थिति में हुआ, जब लोक को हित हरिवंश राधाकृष्ण के प्रेम का पाठ जल और तरंग की भाँति पढ़ा रहे थे, सूरदास का मन कृष्ण के मधुर रस में डूबकर गा रहा था ‘‘मेरो मन अनंत कहाँ सुख पावै‘‘ और जायसी गुनगुना रहे थे ‘‘नैनमाहि है तुहै समाना।’’-(2) हिन्दी साहित्य में ‘‘कृपाराम’’ के सम्बन्ध में उपलब्ध साहित्य का परीक्षण करने के उपरान्त सामान्यतया ऐसा प्रतीत होता है कि उनका जीवनवृत्त अज्ञात है। समस्त हिन्दी जगत् आचार्य चन्द्रवली पाण्डेय की कृति ‘‘केशवदास’’ (सम्वत् 2008) के प्रकाशन के पूर्व तक उनकी कृति ‘‘हिततरंगिनी’’ को सम्वत् 1598 वि0 की रचना मानता रहा है, और रीति साहित्य का आदि उपलब्ध ग्रन्थ भी। ‘‘हिततरंगिनी’’ की ओर हिन्दी जगत् का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय बाबू जगन्नाथ दास ‘‘रत्नाकर’’ बी0ए0 को है। ‘‘हिततरंगिनी’’ (कृपाराम विरचित) शृंगार रस के विवरण का एक अनूठा और प्राचीन ग्रन्थ है। बाबू जगन्नाथ दास बी0ए0 काशी, भारत जीवन प्रेस सम्वत् 1952 ‘‘हिततरंगिनी’’ का यह आवरण पृष्ठ इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान खींचता है कि रत्नाकर जी इसके प्रकाशक मात्र हैं। बाबू श्यामसुन्दर दास बी0ए0 द्वारा सम्पादित ‘‘हस्तलिखित’’ हिन्दी पुस्तकों का द्वितीय त्रैवार्षिक विवरण पहला भाग कृपाराम नामक छह रचनाकारों का विवरण प्रस्तुत करता है। हिततरंगिनी के रचायिता कृपाराम के सम्बन्ध में उसमें इतना संकेत मिलता है कि वे सम्वत् 1598 में वर्तमान थे। साथ ही सम्वत् 2009 की नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष 57 अंक 4 में प्रकाशित 50 वर्षांे की हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थो की खोज के परिचयात्मक विवरण में भी ‘‘हिततरंगिनी’’ को 16वीं शती की ही रचना स्वीकार किया गया है। ‘‘हिततरंगिनी’’ की जितनी भी पाण्डुलिपियाँ अब तक उपलब्ध हुई हैं उन सबका अन्तिम दोहा निम्नलिखित है- ‘‘सिधि निधि शिवमुख चंद लखि, माघ शुद्ध तृतियासु। ‘‘हिततरंगिनी हौ रची, कविहित परम् प्रकासु।। ’’-(3)आचार्य रामचन्द्र शुल्क ने लिखा है- ‘‘इन्होने सम्वत् 1598 में इस रीति पर हिततरंगिनी’’ नामक ग्रन्थ दोहों में बनाया। रीति या लक्षण ग्रन्थों में यह बहुत पुराना है। कवि ने कहा है कि और कवियों ने बड़े छन्दों के विस्तार से दोहो में वर्णन किया है इससे जान पड़ता है कि इनके पहले और लोगों ने भी रीति ग्रन्थ लिखे थे जो अब नहीं मिलते हैं। ‘‘हिततरंगिनी’’ के कई दोहे बिहारी के दोहो से मिलते-जुलते हैं पर इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि यह ग्रन्थ बिहारी के पीछे का है क्योंकि ग्रन्थ में निर्माण काल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है।’’-(4) इस दोेहे में ‘‘सिधि’’ सिद्धियों की संख्या आठ है। ‘‘निधि’’ निधियों की संख्या नौ है। ‘शिवमुख‘ शिव को पंचमुख माना गया है। ‘चन्द’ चन्द्रमा एक है। ‘शुद्ध’ पवित्र               अधिमास वाले वर्ष में एक मास दो बार पड़ता है जिसमें द्वितीय एवं तृतीय पक्ष मधुमास और शेष प्रथम और चतुर्थ पक्ष शुद्ध मास कहलाते हैं इस प्रकार यह संख्या 8951 बनती है ‘अड्कानाम वामको गतिः’ के अनुसार इससे विक्रमी सम्वत् 1598 का बोध होता है। कव्यपरिचय- ‘हिततरंगिनी‘ हिन्दी में नायिका भेद के प्रारम्भिक चरण की उपलब्ध रचना है इसमें उनके दो रूप प्रकट हुये हैं, पहला रूप साहित्य शास्त्री या आचार्य का रूप और दूसरा उनका कवि रूप। उन्होने ‘हिततरंगिनी‘ की रचना का उद्देश्य स्वयं उद्घाटित किया- ‘‘रच्यो ग्रन्थ कविमत धरें, धरें कृष्ण को ध्यान। राखे सरस उदाहरन लच्छन जुत संग्यान।।’’ ‘‘ग्रन्थ अनेक पढ़े प्रथम, पुनि बिचारी के चित्त मैं बरन्यो सिंगार रस, सजन तिहारे हित।।’’-(5)कवि के अनुसार उनकी रचना का उद्देश्य कवियों का परमहित ही यह रस का पूर्ण धाम है                 सम्भवता उनके पूर्ववर्ती एवं समसामयिक साहित्य में भी इस प्रकार की रचना होती थी परन्तु वे अब तक उपलब्ध नहीं हो पायी हैं अतः हिन्दी के रीति साहित्य के वे आदि कवि तथा आदि आचार्य माने जाते हैं। ‘हिततरंगिनी’ की रचना पाँच तरंगो में विभाजित है प्रत्येक तरंग का नामकरण उसमंे वर्णिंत विषय वस्तु के आधार पर किया गया है कृपाराम यद्यपि हिन्दी रीति-साहित्य के प्रथम उपलब्ध कृतिकार हैं तो भी यह तरंगों का वर्गीकरण एक दृष्टि से मौलिक एवं अधिक वैज्ञानिक है। प्रथम तरंग में उन्होने सूत्रवत् उन सभी तत्वों की ओर संकेत किया है और उनकी नाम गणना कराई है, जिनका वर्णन पूरे ग्रन्थ में है। द्वितीय तरंग का शीर्षक यद्यपि ‘स्वकीया दर्शन’ के नाम से है तो भी उसमें अध्याय के आरम्भ में सखी एवं दूती का वर्णन है। प्रथम तंरग के विषय की व्याख्या का विस्तार शेष तरंगों में मिलता है। द्वितीय तरंग के प्रारम्भ में दूती लक्षण, प्रकार चेष्ठा तथा उनके उदाहरण हैं। ये उदाहरण नायिका भेद में नायक एवं नायिका को सूत्रबद्ध करने के लिये सेतु का काम करते हैं। स्वीकीया के लक्षण, भेद, चेष्ठा और उनके दृष्टांत भी इस तरंग में है तृतीय तरंग में परकीया केे लक्षण, चेष्टा, उसके भेद और उन भेदों का विस्तार तथा सबका दृष्टांत उपस्थित किया गया है। चैथे तरंग में बारबधू था सामान्या का दर्शन इसी भाँति विस्तार से कराया गया है। पंचम तरंग में दस प्रकार की नायिकाओं का वर्णन हुआ है। इसमें स्वीया, परकीया एवं सामान्या आपने समस्त विवेचित की गई है। मूलतः कवि ध्येय शृगांर रस का वर्णन करना है शृगांर को घनश्याम के समान गुण और रूप वाला मानते हुये दंपति के आधार पर उसका वर्णन किया गया है- ‘‘गुन सरूप घनश्याम के, सदृस लहे सिंगार। बरनि तिन्हे अवदाति मति, दंपति के आधार।।’’-(6)
सांस्कृतिक अध्ययन- परिवार सांस्कृतिक जीवन की प्रथम इकाई है। कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये तो उससे भी पहले वह एक पारिवारिक प्राणी है। बालक परिवार में जन्म लेता है तथा परिवार में ही उसका पालन-पोषण होता है। परिवार ही उसे सामाजिक प्राणी बनाता है। इस प्रकार बालक को सामाजिक प्राणी बनाने का कार्य परिवार का है। जब बालक का जन्म होता है तो उस समय वह न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक प्राणी, वह केवल मनोशारीरिक प्राणी होता है। परिवार ही उसकी देख-रेख करता है और परिवार में ही उसका सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास होता है। दर्शन कोष के अनुसार ‘‘परिवार निजी जीवन के संगठन का सबसे महत्वपूर्ण अंग है जो दाम्पत्य और रक्त सम्बन्धों पर अर्थात् पति और पत्नी, माँ-बाप और बच्चों, भाईयों-बहिनों तथा अन्य सगे सम्बन्धियों के बीच जो एक साथ रहते हैं और मिलकर घर ग्रहस्थी चलाते हैं, नाना पहलुओं वाले रिश्तों पर आधारित होता है।’’-(7) समाज सरल और या जटिल, सभ्य हो या असभ्य, सभी में परिवार पाया जाता है मनुष्य जन्म से ही परिवार का सदस्य बन जाता है और मृत्यु पर्यन्त तक उसका सदस्य बना रहता है। बिना परिवार के समाज का अस्तित्व बना रहना कठिन है। संसार के प्रत्येक परिवार का आधार एक पवित्र वैवाहिक बन्धन है। सन्तान उत्पन्न होने पर परिवार एवं वंश का विकास होता है। स्त्री-पुरुष का वैवाहिक सम्बन्ध परिवार द्वारा स्वीकृत होता है और इसी के आधार पर उसमें यौन सम्बन्ध स्थापित होते हैं। नर-नारी के संयोग के फलस्वरूप ही मानव की सृष्टि होती है। जिसके फलस्वरूप परिवार की नीव पड़ती है। प्रत्येक परिवार की मुख्य विशेषता रक्त सम्बन्ध भी है। परिवार में एक स्त्री से उत्पन्न हुये सभी बच्चों में रक्त सम्बन्ध पाया जाता है। इसी सम्बन्ध में परिवार का निर्माण होता है। रक्त सम्बन्ध अप्रत्यक्ष रूप  से परिवार के अन्य सदस्यों जैसे बाबा, दादी, चाचा, चाची, भतीजा, भतीजी एवं उनकी सन्तानों आदि से भी होता है।  जिसमें एक परिवार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक दूसरे परिवारों में पहचाना जा सकता है। सामाजीकरण करने वाली एक संस्था के रूप में परिवार का बड़ा महत्व है। इस प्रकार का परिवार व्यक्ति को समाज की संस्कृति के अनुरूप बनाता है। पारिवारिक जीवन में स्त्रिीयों के शृगांर का महत्व सभी कालों तथा पारिवारिक आचार-विचार में मिलता है। कृपाराम ने ‘हिततरंगिनी’ में इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये नायिका और उसका सखी इत्यादि के सौन्दर्य का यथा सम्भव वर्णन किया है। उन्होने आलम्बन योग्य दंपति का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘‘नूतन रूचिकार जुगल छवि, प्रथम बरनिए काहि। प्रभुतन की अति भावती, बरन राधिके वाहि।।’’-(8) पारिवारिक दृश्य से भी नायिकाओं के कुलटा, चतुरा, उठा (वह परकीया जो विवाहित होकर पर पुरुष से प्रेम करती है।) ‘अनूढ़’ इत्यादि रूप माने जाते हैं। कृपाराम की हिततरंगिनी में इनके सन्दर्भ में लिखा गया है। ‘‘परकीया के भेद द्वै, ऊढ़ा और अनूढ़ा। व्याही हित सखि सो कंहे, अन व्याही हित गूढ़।। ‘‘ऊढ़ा के पुनि भेद द्वै, होत किए परकास। परव्याही उपपति निकट, परप्यारी पति पास।।’’-(9)परकीया प्रेम के सम्बन्ध में नायिका की मनस्थिति ऐसी हो जाती है कि वह परिवार के बड़े-बूढ़ों या गुरुजनों की बातों को महत्वहीन समझने लगती है उसे पारिवारिक निंदा की कोई चिंता नहीं रहती – ‘‘ फीके लागत उर अबै, गुरु गुरुजन के बोल। नीके नंद किशोर के, करै सखी चित लोल।।’’-(10)समाजिक व्यवहार और परम्परागत नियमों का नियंत्रण तो परिवार के द्वारा होता ही है साथ-साथ अनुशासन, उचित-अनुचित के आचरण तथा अधिकारो और कर्तव्यों की प्रारम्भिक जानकारी भी परिवार के द्वारा ही दी जाती है। यह परिवार ही है जो शिशु को स्थायी आदतें, अनुशासन, भाषा इत्यादि का ज्ञान कराकर उसका समाजीकरण करता है, कवि ने उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक लोकरीति या सामाजिक प्रचलन के अनुसार ही नायिकाओं के तीन भेद माने हैं- ‘‘तीन भेद नारीन के लोक लीक ते जानि। स्वीया परकीया सुपुनि, बारबधू पहिचानि।।’’-(11)स्वकीया वह नायिका जो केवल अपने पति से ही रति और प्रेम सम्बन्ध रखती है परकीया वह नायिका है जो अपने नहीं, दूसरे पुरुष से भी रति सम्बन्ध रखती है परन्तु ऐसा प्रेमी पुरुष एक ही होता है।            बारबधू वह नायिका है जो अनेक से रति सम्बन्ध रखती है इसे सामान्या भी कहते हैं। सामाजिक दृष्टि से नायिकाओं के उत्तम, मध्यम, और अद्यम नामक भेद किये गये हैं- ‘‘ उत्तम मध्यम अधम तिय, प्रकृति भेद ते जानि। मानवती के भेद सब, कारन ते अनुमानि।।’’-(12)गुण के अनुसार स्वकीया उत्तम नारी समझी जाती है परकीया कुलानुसार मध्यमा नारी जानी जाती है और बारबधू या गणिका अधम नारी समझी जाती है। मध्यकालीन सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में दो खेल बहुत प्रसिद्ध हैं एक आँख मिचैली और दूसरा चैपड़ या चैसर। कृपाराम ने इन दोनों का वर्णन संयोग शृगांर  के सन्दर्भ में किया गया है। इस सन्दर्भ में आँख-मिचैली खेल का संकेत भी दृष्टव्य है- ‘‘खेलत चोरमिहीचनी निज सखि दीठि बचाई। स्याम दुरे तिहि कोन में, दुरत लए उर लाइ।।’’-(13)उपर्यक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कृपाराम जी के काव्य में तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन का अत्यन्त सटीक वर्णन हुआ है उन्होने अपने नायिका भेद वर्णन तथा शृगांर वर्णन में कही भी परिवारिक जीवन की उपेक्षा नहीं की है। स्वकीया नायिका पतिव्रता का ही सांस्कृतिक स्वरूप है।सन्दर्भ ग्रन्थ सूची1. गोविन्द त्रिगुणायत, शास्त्रीय समीक्षा के सिद्धन्त (प्रथम भाग) पृ0सं0- 327, भारती साहित्य मन्दिर फव्बारा, दिल्ली- 1970.2. पं0 सुधाकर पाण्डेय, कृपाराम ग्रंथावली प्रस्तावना पृ0सं0 29 प्रकाशक नागरी प्रचारिणी सभा काशी, प्रथम संस्करण सं0 20263. कृपाराम ‘हिततरंगिनी’ छंद संख्या 400 सम्पादक पंडित सुधारक पाण्डेय नागरी प्रचारिणी सभा काशी, प्रथम संस्करण।4. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ0सं0 (136-137) नागरी प्रचारिणी सभा काशी, संवत् 2040.5. कृपाराम ग्रन्थावली छंद संख्या 3 और 6 सम्पादक पं0 सुधाकर पाण्डेय, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, प्रथम संस्करण।6. कृपाराम, ग्रन्थावली छंद संख्या- 7 सम्पादक पं0 सुधाकर पाण्डेय नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, प्रथम संस्करण।7. डा0 श्याम सुन्दर दास, साहित्या लोचन, पृ0सं0- 28 इंडियन प्रेस प्रा0लि0 प्रयाग 1973 ई0।8. कृपाराम हिततरंगिनी, छन्द संख्या- 13 कृपाराम ग्रन्थावली, सम्पादक पण्डित सुधाकर पाण्डेय, नागरी प्रचारिणी सभा काशी प्रथम संस्करण।9. कृपाराम हिततरंगिनी, छन्द संख्या- 28, 29 कृपाराम ग्रन्थावली, सम्पादक पण्डित सुधाकर पाण्डेय, नागरी प्रचारिणी सभा काशी प्रथम संस्करण।10. कृपाराम हिततरंगिनी, छन्द संख्या- 121 कृपाराम ग्रन्थावली, सम्पादक पंण्डित सुधाकर पाण्डेय, नागरी प्रचारिणी सभा काशी प्रथम संस्करण।11. पं0 सुधाकर पाण्डेय, कृपाराम ग्रन्थावली छन्द संख्या- 364 प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, प्रथम संस्करण।12. डाॅ0 मुन्शी राम शर्मा, साहित्य शास्त्र पृ0सं0- 81 भारत-भारती प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली सन् 1963।13. पं0 सुधाकर पाण्डेय, कृपाराम ग्रन्थावली, छन्द संख्या- 9 प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, प्रथम संस्करण।

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