ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

कठगुलाब उपन्यास में महिला संघर्ष

शोधार्थी
सुप्रिया                                                                                                                                                                                 शोधनिर्देशिका
डाॅ0 अर्चना सिंह (एसो0 प्रो0)
कु0 मा0 रा0म0 महाविद्य़लाय
बादलपुर गौ0बु0 नगर (उत्तर प्रदेश)

समकालीन लेखिकाओं मंे अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी,मृदुला-गर्ग ने अपने साहित्य में नारी जीवन के विभिन्न समस्याओं का वर्णन करते हुए महिलाओं की बदलती हुईं मानसिकता का चित्रण किया है। समाज में रहने वाला व्यक्ति जितना अधिक संघर्ष करता है।उतना ही ज्यादा वह मुश्किलों का सामना करने में सक्षम होता है।महिलाओं का संघर्ष तो माॅं की कोख से ही शुरू हो जाता है, जैसे ही पता चलता है कि आने वाली सन्तान लड़का नहीं लड़की है, तो उसकी भ्रूण हत्या कर दी जाती है,जब कि महिला की कोख में एक दूसरी महिला के जीवन का अकुंर फूटता है तो महिलाओं के संघर्ष की शुरूआत होती है महिला में जागृत चेतना तथा संघर्ष को प्रभावी ढंग से चित्रित करने वाली महिला लेखिका के रूप में मृदुला-गर्ग का नाम सबसे पहले लिया जाता है। मन्नू भण्डारी,मैत्रेयी पुष्पा,मंजुल भगत,नासिरा शर्मा,ने महिला जीवन की विभिन्न समस्याओं को समाज के सामने लाने का प्रयास किया, मृदुला-गर्ग एक सशक्त महिला उपन्यासकार हंै वे अपने उपन्यासों में नारी की स्वंत्रता को विशेष महत्व  देती हैं।समकालीन लेखिकाओं मंे अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी,मृदुला-गर्ग ने अपने साहित्य में नारी जीवन के विभिन्न समस्याओं का वर्णन करते हुए महिलाओं की बदलती हुईं मानसिकता का चित्रण किया है। समाज में रहने वाला व्यक्ति जितना अधिक संघर्ष करता है।उतना ही ज्यादा वह मुश्किलों का सामना करने में सक्षम होता है।महिलाओं का संघर्ष तो माॅं की कोख से ही शुरू हो जाता है, जैसे ही पता चलता है कि आने वाली सन्तान लड़का नहीं लड़की है, तो उसकी भ्रूण हत्या कर दी जाती है,जब कि महिला की कोख में एक दूसरी महिला के जीवन का अकुंर फूटता है तो महिलाओं के संघर्ष की शुरूआत होती है महिला में जागृत चेतना तथा संघर्ष को प्रभावी ढंग से चित्रित करने वाली महिला लेखिका के रूप में मृदुला-गर्ग का नाम सबसे पहले लिया जाता है। मन्नू भण्डारी,मैत्रेयी पुष्पा,मंजुल भगत,नासिरा शर्मा,ने महिला जीवन की विभिन्न समस्याओं को समाज के सामने लाने का प्रयास किया, मृदुला-गर्ग एक सशक्त महिला उपन्यासकार हंै वे अपने उपन्यासों में नारी की स्वंत्रता को विशेष महत्व  देती हैं। कठगुलाब उपन्यास में स्मिता मारियान नर्मदा असीमा इन सभी महिलाआंे को हिम्मतवाली बदले की भावना पृयुक्त व सुलभ हृदय बताया है। इतना दुःख सहने के बाद एक भी नारी आत्महत्या जैसे कार्य नही करती है वे अपनी लड़ाई बखूंबी लड़ती है और अंत मंें गोधड़ को अपनी कर्मभूमि बनाती है और वहांॅ कठगुलाब की झाड़ी लगाकर खुश होती है।उन्हें महिला होने का गर्व भी है उन्होनें भारत में महिलाओं की बालमजदूरी निम्नवर्ग व मध्यम वर्ग की मानसिकता व उनके स्त्री पुरूष सम्बन्धों पर भी प्रकाश डालने की कोशिश की है। कठगुलाब उपन्यास महिलाओं के उस स्थिति की ओर संकेत करता, है जहां वह काठ सदृश कठोर हो जाती है, तथा उसके भीतर स्त्री मन की कोमलता बरकरार रहती है-कठगुलाब की तरह, उपन्यास का हर एक पात्र अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब होता है। भारतीय समाज में स्त्रियाॅ भिन्न-भिन्न प्रकार की पीड़ाआंे एवं संघर्षाे से जूझ रही है। कठगुलाब उपन्यास की पात्र स्मिता जो बलत्कार की शिकार हुई, शारीरिक संतुष्टि के कारण जीजा नर्मदा और स्मिता जैसी सालियों को सताते है। नर्मदा जिसे मजबूरी में अपनी बड़ी बहन व जीजा के साथ रहना पड़ता है और जीजा की अश्लील नजरों का सामना करते करते उसे मजबूरी में जीजा की दूसरी बीबी भी बनना पड़ता है मगर हिम्मत से काम लेने पर वह स्वयं ही  जीजा से अलग रहने का फैसला करती है, लेखिका ने यहंा दो अलग-अलग दृष्टिकोण से एक ही बात समझाई है। ’’एक तो यह कि क्या नारी की आत्मसार्थकता उसकी देह तृप्ति से जुड़ी है ? और दूसरी यह कि जब तक नारी अपने वजूद को अपनी आत्म सार्थकता को नही तलाशेगी तब तक बह वासनात्मक प्रेम और देह तृप्ति के झमेले में उलझी रहेगी’’1      शेक्सपीयर साहेब कहते हैं तिरस्कृत औरत के द्वेश से बढ़कर कोई कोप नही है। मैं कहती हँू तिरस्कार से बढ़कर औरत को कोई मोह नही है। पहले पीछे-पीछे भागकर अवहेलना, अत्याचार, अन्याय की कमाई करंेगी फिर मर्द को शोेषक-शोषक कहकर सारी उम्र रोएगी गरियाएंगी प्रतिशोध की आग में जलंेगी। ऐसा कोप किस काम का, जो शहादत के मोह के नीचे दब जाए।असीमा जो नाम से स्फूर्ति और उत्साह से भरी हुई जान पड़ती है वह पुरूषों से अत्यन्त नफरत करती है मांॅ के दुःखो से पीड़ित असीमा समाज के रिवाजो को तोड़ती हुई उम्र भर कुँवारी रहती है, असीमा कहती है ’’मर्दो की दुनिया में रहने के लिये होम साइन्स नही कराटे की जरूरत है’’2
हिन्दुस्तानी औरत का पत्नीत्व जागने मंे देर कितनी लगती है। ’’अगर तूने स्मिता को ढॅूढ़ने की कोशिश की या फिर कभी अपनी बीवी पर हाथ उठाया तो समझ ले,पीट पीटकर तुझे अपाहिज बना दूँगी’’। मेरे आगे-पीछे कोई नही है और मुझे मारने पीटने में तुझसे ज्यादा मजा आता है उससे बड़ा सुख इस अहसास का था कि मैं किसी भी मर्द को पीट सकती हॅू। हाँ इतना जरूर कहूंगी कि स्त्रियाँ चाहें कितनी भी शोशित, दलित क्यों न हो तमाम उत्कृष्ट अनुभव साधनों पर उनका एकाधिकार पुरूष को एकदम खाली खोखला बनाकर छोड़ देता है, अब देखिए स्त्री का यह माँ बनने का एकाधिकार पुरूष में कितनी भी माया ममता क्यों न हो, वह गर्भ में रखकर मनुष्य प्राणी को जन्म नही दे सकता। स्त्री न चाहे तो उसे यह जानने की जरूरत नही है कि उसके गर्भ में पलने वाले शिशु का पिता कौन हंै। मन प्राण से तो वह स्त्री से जीत नही सकता, इसलिए दैहिक-भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति में अन्य पुरूषो को हराकर स्त्री को हराने का अभियान करता है। असीमा कहती है-“पुरूष का क्या है हरामी किसी भी उम्र में पिता बन सकता है। पर औरत जरा देर हुई नहीं कि माँ बन पाने की अवधि समाप्त’’।3  शायद हर औरत इस उम्ंमीद में जीती है कि कहीं न कहीं ऐसा मर्द जरूर मौजूद है जो उसके परिचित मर्दो से बिल्कुल अलग है और उसका फर्ज है कि उसकी तलाश करंे मृदुला गर्ग ने कठगुलाब में समाज में हावी पुरूष मानसिकता पर निशाना साधते हुए कहा है कि “फिर वही फ्रयाड! परम्परा की मार। पितृसत्ता के बोझ से दबी, अहम् और संस्कार के बीच दुविधा ग्रस्त खड़ी बेचारी नारी! उसें अबला कहें या सबला ? अहंकारी कहें या आत्मपीड़क सुखी जो मर्जी कहिए। मैनें कहा न, फ्रायड बड़ें काम की चीज है’’।4 भारत में महिलाओं के लिए सबसें बड़ी चुनौती है जन्म लेना। भारतीय संविधान ने महिलाओं को समानता के अधिकार तो दिए है, लेकिन सच यह कि उन्हें हर स्तर पर अपने अधिकार पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है चाहें वह ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी शिक्षा के स्तर पर बेटे और बेटियों के बीच अंतर साफ देखा गया। गांव में लड़कियांे की शिक्षा पर खर्च करना बेमानी माना जाता है। आँकड़े बतलाते है कि गांव में लडकियांँ एक-दो साल बाद पढ़ाई छोड़ देती है। जरूरत इस बात की है उन्हें उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने के अवसर दिये जाएॅँ एक बार वे सक्षम बन जाएंगी तो साधनहीन औरतों के लिए काम कर सकेंगी। गाँव व शहर की दलित औरतों के लिए वे सहकारी उद्योग आदि का बन्दोबस्त करवाकर उन्हें अबला से सबला बनाएंगी। “पर यह तभी होगा जब पुरूषों से हस्तान्तरित होकर सत्ता स्त्रियों के हाथो मे आ जाए’’।5 महिलाओं की लड़ाई किसी पुरूष मात्र से ही नही वरन सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक प्रतिकूलताओं के विरूद्ध है जो सदियांे से महिलाओं को अनेक बंधनों मे बांधकर रखती आयी है। लेखिका कहतीं हंै कब वह अपनी दुःख शक्ति का प्रयोग कर बैठेगी उसके बारे में निश्चित कुछ कहा नहीं जा सकता था। वह शान्त बैठी रहती तब भी उसके शरीर से निकलती दुःख की विद्युत तरंगे मुझे भयभीत किए रहती है। मुझे लगता है। अभी वह फर्श पर गिर पडे़गी और जोर से विलाप कर उठेगी।“मैने नही चुना यह जीवनयह अभिशाप मिला मुझे अगम्य से।किस बूते पर सिद्ध बने हो, परमगरू ? देखो, मैनंे सिद्व कर ली दुःख-पिपासा।वही शक्ति है न तुम्हारी।अखंड शान्ति व सुख दो कैसे ? मैं पा चुकी जीवन का एक मात्र आदर्श।परम,पूर्ण, नित्य, अनन्त दुःख !6पुरूष प्रदर्शनकारी है जबकि महिला आत्मकेन्द्रित। एक गुण के आ जाने पर अंहकारी पुरूष प्रचार-कला के द्वारा महान हो जाता है। लेकिन महिला अनके आत्मिक गुणांे के बावजूद उपेक्षित है क्योकि उसे जीने की कला नहीं मालूम। अपराध करके भी पुरूष उसे छिपा लेता है जबकि निरपराध होकर भी महिला अपराध-बोध को ढोने के लिए विवष हैं।“जितने आत्मविश्वास संे,धरती ही पांँ0 रखते तुमउतने ही आत्मविश्वास सेधरती पर चल नहीं पाती हॅू मैंजिस आत्माविश्वास से चलते हो तुम गर्वोन्नतउसी आत्मविश्वास से,क्यांे नहीं सिर उठा पाती हॅू मैं ? तुम करके अनगिनत अपराधजी लेते हो एक सम्मानित जीवन और तरेरते हो आंखेंसच के सूरज कीपर बिना किए कोई अपराधएक अपराध-बोध जीती हॅू मैं”।7 स्त्री से प्रेम करके पुरूष उसे बंधक बना लेता है, आजादी छीन लेता है और उसकी अस्मिता को विलोपित कर सेविका का स्वरूप  सौंप देता है जबकि पुरूष से प्रेम करके महिला सर्वस्व समर्पण ही नहीं करती बल्कि प्रेम के बदले प्रेम का प्रतिदान भी चाहती है। पुरूष का मन इतना अतिगामी है कि स्त्री के संदर्भ में आज भी वह         अंधविश्वास के अँधेरे से बाहर नहीं हो सका है। “यह उसी का हिस्सा है मैं असीमा से सहमत हूँ कि औरत के जीवन का निर्धारण बचपन में ही हो जाता है। शिक्षा मिलने पर उसमें यह आत्मविश्वास पैदा हो सकता है, जिससे वह अपने निर्णय खुद ले सके”।8 वह स्मिता के भीतर आत्म विश्वास जगाती हुई कहती है “स्मिता उसने पुकारा चुप मत रह। बोल! अपनी तकलीफ मुझसे कह। मैं मर्द नहीं होना चाहती। मैं दर्द बाटना चाहती हूँ’’।9 उपन्यास में महिला पात्र पुरूषो सें सताई हुई है। अंततः वह गोधड़ गाँव में जाकर वहाँ के ग्रामीण परिवेश में असुविधाओं के बीच जी रहे इंसानों के जीवन विकास की योजना बनाते है। उपन्यास का अंतिम खण्ड विपिन जो एक पुरूष पर आधारित हैं। विपिन महिला जीवन की समस्या से अवगत है। वह महिलाओं का समर्थन करता है। मैं मर्द भले हूँ,पर हरामी नही, मुझे अपनी मर्दानगी साबित करने का मौका कभी नही दिया गया, फिर भी मैं नामर्द नहीं हूँ। मैं नही जानता कि स्त्री-पुरूष का यह भेद प्राकृतिक है या ऐतिहासिक । लेकिन यह अवश्य जानता हॅू कि वह प्राकृतिक सौन्दर्य हो या कलाकृति उसे भोगने में अनुभूति का जो आनन्द, स्त्री के संसर्ग में मुझे मिला पुरूष के साथ कभी नही मिला।
निष्कर्ष:- मृदुला गर्ग के उपन्यासों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाय तो यह स्पष्ट है कि जिस गहराई से उन्होनें महिला के अन्तर्संबन्ध को, उसकी पीड़ा को वाणी दी है, वह कोई महिला उपन्यासकार ही कर सकती है। मृदुला गर्ग ने अपने उपन्यासों मंे नारी की नयी जीवन दृष्टि को अभिव्यक्ति दी है। आज महिला अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील दिखाई पड़ती है। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो महिला यह कह रही हा,े बस बहुत हो चुका,जुल्म अब और नहीं सहेगें। सदियों से सहते-सहते उसके सब्र का बांध अब टूट चुका है। अब शोषण के प्रति वह अस्वीकार की मुद्रा में है उपन्यास में सभी पात्र महिला होने का गर्व महसूस करती हैं। और पुरूषों से चोट खाकर भी अपराधबोध की जगह प्रतिशोध की भावना ही प्रबल करती है। वे स्वाभिमान से जीतीं हंै उपन्यास में  महिलाओं को उसके शोषण, अत्याचार के प्रतिक्रिया स्वरूप आत्मनिर्भरता तथा पुरूषों के सत्ता के समानान्तर स्वयं को सिद्ध करने के लिए संघर्ष का चित्रण किया गया हमारे समाज में महिलाओं की सामजिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न हैं। वे अपने जीवन में तरह-तरह की पीडा एवं संघर्षों से जूझ रही हंै। उपन्यास में सभी पात्र महिला होने का गर्व महसूस करती हैं। और पुरूषों से चोट खाकर भी अपराधबोध की जगह प्रतिशोध की भावना ही प्रबल करती है। वे स्वाभिमान से जीतीं हंै।         सन्दर्भ ग्रन्थ सूचीः-1-मृदुला-गर्ग के साहित्य में चित्रित समाज,डाॅ0 किरण बाला जाजू (मृदंडा),अमन प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ सं. 512-कठगुलाब उपन्यास,मृदुला-गर्ग, नौवां संस्करण 2016, भारतीय ज्ञानपीठ,पृष्ठ सं. 183-कठगुलाब उपन्यास,मृदुला,-गर्ग,नौवां संस्करण 2016, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ सं0 2154-कठगुलाब उपन्यास,मृदुला-गर्ग, नौवां संस्करण 2016, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ सं0 2305-वही …………………………… पृष्ठ सं0 1966-वही …………………………… पृष्ठ सं0 2197-हिन्दी साहित्य की बैचारिक पृष्ठभूमि, डाॅ0विनयकुमार पाठक, स्त्रीविमर्श, पृष्ठ सं0 138-1398-कठगुलाब उपन्यास,मृदुला-गर्ग, नौवां संस्करण 2016, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ सं0 2349-कठगुलाब उपन्यास,मृदुला-गर्ग, नौवां संस्करण 2016, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ सं0 114

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