ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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गांधीवादी राजनीतिक दर्शन में “राजनीति” और “आधुनिकता”

डॉ. कौशलेन्द्र कुमार सिंह,
एसोसिएट प्रोफेस्सर,
राजनीति विज्ञान विभाग,
जवाहरलाल नेहरु मैमो0 महाविद्यालय
बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
और पवन कुमार,
पी.एच.डी. शोधार्ती,
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात, गांधीनगर

गाँधी का सम्मान करो! भावुक मत बनाओ! पैरी एंडरसन, इंटरव्यू (आउटलुक मैगजीन सितम्बर) गाँधी के राजनीतिक चिंतन की एक महतवपूर्ण विशेषता उनके विचरों में अखण्डता है द्यअमुमन इस सन्दर्भ मे अधिकतर बहस मे उनके रजनीतिक दर्शन के आदर्शो को उनके रजनीतिक जीवन में प्रतिबिंबितहो होने तक सीमित कर देता हैद्य यह मान्यता उनके दर्शन और चिंतन को ‘रुढ़िवाद’ (कांसेर्वतिस्म) और तथाकथित ‘पूंजीवादी आधुनिकतावाद’ (कैपिटलिस्ट मोदेर्निसतिओन) के नकचढ़े चिंतन में जोड़ देती है द्य लेकिन जब हम उनके रजनीतिक दर्शन औरराजनीतिक जीवन को गहराइ से देखते है तो हम उन्ह्ने तार्किक आधुनिकता (रिजनेबल मॉडर्निटी) से जोडती हैद्य इस दृष्टि से उनके राजनीतिक दर्शन की जो अखण्डता है, वह उनके विचारो की अखण्डता का एक संछिप्त पहलु है द्य इसलिए, यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा, कि उनके राजनीतिक विचार ही अपने आप मेआधुनिकता के विचार हैं द्य उनके विचारों कि यह अखण्डता उनकी ‘ज्ञान मीमांसा’ और राजनीति की ‘कार्य पद्धतियों’ (पोलिटिकल स्ट्रेटेजीज) का सार है द्य गाँधी के विचारों की यह गुणवत्ता कभीदृकभी धूमिल हो जाती है द्य क्योंकि, एक तरफ सामान्यतया उनकीव्यक्तिगत आध्यात्मिकता और भावुक महान राष्ट्रवादी राजनेता वाले पहलु पर राजनीतिकरण किया जाता है (बिलग्रामी, २००२ः ७९) इसका प्रभाव उनके राजनितिक चिंतन पर पड़ता है जो उनको रूढ़ीवादी चिंतन के समीप करने में प्रयत्नशील सक्तियों को मजबूत बनाता है एक तरफ यह लेख गाँधी के ‘महात्मा’ और ‘चतुर राष्ट्रवादी नेता’ वाली समझ का आलोचनात्मक अवलोकन करता है द्य दूसरी तरफ यह लेख उनके मूल विचारों की गुणवत्ता, जो की उनकी ‘ज्ञान मीमांसा’ जिसका केंद्र ‘हिन्द स्वराज’ में अंतर्निहित तार्किक आधुनिकता है, का आलोचनात्मक मुल्यांकन करता है ।गाँधी का सम्मान करो! भावुक मत बनाओ! पैरी एंडरसन, इंटरव्यू (आउटलुक मैगजीन सितम्बर) गाँधी के राजनीतिक चिंतन की एक महतवपूर्ण विशेषता उनके विचरों में अखण्डता है द्यअमुमन इस सन्दर्भ मे अधिकतर बहस मे उनके रजनीतिक दर्शन के आदर्शो को उनके रजनीतिक जीवन में प्रतिबिंबितहो होने तक सीमित कर देता हैद्य यह मान्यता उनके दर्शन और चिंतन को ‘रुढ़िवाद’ (कांसेर्वतिस्म) और तथाकथित ‘पूंजीवादी आधुनिकतावाद’ (कैपिटलिस्ट मोदेर्निसतिओन) के नकचढ़े चिंतन में जोड़ देती है द्य लेकिन जब हम उनके रजनीतिक दर्शन औरराजनीतिक जीवन को गहराइ से देखते है तो हम उन्ह्ने तार्किक आधुनिकता (रिजनेबल मॉडर्निटी) से जोडती हैद्य इस दृष्टि से उनके राजनीतिक दर्शन की जो अखण्डता है, वह उनके विचारो की अखण्डता का एक संछिप्त पहलु है द्य इसलिए, यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा, कि उनके राजनीतिक विचार ही अपने आप मेआधुनिकता के विचार हैं द्य उनके विचारों कि यह अखण्डता उनकी ‘ज्ञान मीमांसा’ और राजनीति की ‘कार्य पद्धतियों’ (पोलिटिकल स्ट्रेटेजीज) का सार है द्य गाँधी के विचारों की यह गुणवत्ता कभीदृकभी धूमिल हो जाती है द्य क्योंकि, एक तरफ सामान्यतया उनकीव्यक्तिगत आध्यात्मिकता और भावुक महान राष्ट्रवादी राजनेता वाले पहलु पर राजनीतिकरण किया जाता है (बिलग्रामी, २००२ः ७९) इसका प्रभाव उनके राजनितिक चिंतन पर पड़ता है जो उनको रूढ़ीवादी चिंतन के समीप करने में प्रयत्नशील सक्तियों को मजबूत बनाता है एक तरफ यह लेख गाँधी के ‘महात्मा’ और ‘चतुर राष्ट्रवादी नेता’ वाली समझ का आलोचनात्मक अवलोकन करता है द्य दूसरी तरफ यह लेख उनके मूल विचारों की गुणवत्ता, जो की उनकी ‘ज्ञान मीमांसा’ जिसका केंद्र ‘हिन्द स्वराज’ में अंतर्निहित तार्किक आधुनिकता है, का आलोचनात्मक मुल्यांकन करता है ।२१ वीं शाताब्दी भारत की राजनीति और गाँधी ‘हिन्द स्वराज’ न केवल गाँधी के जीवन और राजनीतिक विचारों को प्रतिबिम्बित करता है बल्कि यह २१ वीं शताब्दी में भारत की राजनीति और यंहा तक की दक्षिण एशिया की राजनीति को समझने के लिए, अगर अतिशयोक्ति नहीं होगा तो ज्ञान मीमांसा है द्य इस शाताब्दी में राजनीति को जानने की अभिलाषाओं को सामान्यतया पश्चिमी यूरोप और दक्षिण अमेरिका की राजनीतिक भाषाओं में अभिव्यक्त किया जाता है द्य लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों के परिणामस्वरुप जो नये राष्ट्र-राज्यों के निर्माण तथा औचित्य, और इनके विरोध वाली अभिव्यक्तियों ने एक अलग आयाम का निर्माण करती है (एंडरसन, २०१२) द्य  इस सन्दर्भ में गाँधी के हिन्द स्वराज को हम इस नई श्रेणी में रख सकते हैं द्य यंहा तक की गाँधी, नेहरु और आंबेडकर के राजनीति के विचारो के गठजोड़ को हम इस नई ज्ञान मीमांसा और कार्य पद्धति का केंद्र मान सकते हैं द्य क्योंकि हिन्द स्वराज का विकास और सार एक सन्दर्भ में हुआ है जो इस कार्य पद्धति के रुपे में राजनीति को समझने के लिया आया है द्य यह संदर्भ न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण दक्षिण एशिया को ब्रिटेन के साम्रज्यवाद से आजादी दिलाने का है द्य जिसमे गाँधी, आंबेडकर, नेहरु और कई क्रन्तिकारी आन्दोलन का संदर्भ है द्य जिसका उल्लेख इतिहासकारों ने किया भी है (चन्द्र, १९८९य सरकार, २००२) द्य इन राष्ट्र-राज्यों के औचित्यों और विरोंधो से जो राजनीति को समझने वाली कार्य पद्धति अथवा अभिलाषा को हम सर्जनात्मक सिद्धान्त कह सकते हैं द्य क्यों ? क्योंकि सर्जनात्मक सिद्धान्त की विशेषता यह है की यह ताथाकथित राष्ट्र-राज्यों को निर्माण करने वाली पूंजीवादी और समर्ज्यवादी व्यवस्थाओं को पूरी तरंह से खारिज करता है द्य दूसरी तरफ यह इन व्यवस्थाओं को स्थापित और इसे बनाये रखने वाली क्षेत्रीय और वैश्विक सक्तियों को भी खारिज करता है द्य कैसे ? सर्जनात्मक सिद्धान्त की सबसे बड़ी विशेषता इसकी “वार्तालाप पद्धति” है इस सन्दर्भ में यह उन विरोधभाषी दृष्टिकोणों को खारिज करता है जो गाँधी और कई आधुनिक राजनीतिक चिंतकों के उपनिवेशवाद विरोधी विचारो को ‘एक पश्चिमी संवाद’ (डेरीवेटिव डिस्कोर्स) बताते हैं (चत्तेर्जी, १९८६) द्य इसप्रकार गाँधी के राजनीति के विचारों को हम सर्जनात्मक सिद्धान्त के दृष्टिकोण से विशलेषण कर सकते हैं द्य तथयात्मक रूप से गाँधी की राजनीति उग्र रूप से पूर्वी और पश्चिमी सभ्याताओं से निकले विरोधाभासों जैसे-औद्योगिक सभ्यता, वित्त पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, न्यू-उपनिवेशवाद, लिंग, नस्ल, जाति, धर्म को अधार बनाकर अस्मिता की राजनीतिकरने वाली व्यवस्थाओं को खारिज करके एक अलग प्रकार के ‘ आदर्श राजनीतिक समुदाय’ के विचार को पर्तिपादित करता हैसैद्धांतिक राजनीति,और गाँधी दर्शन  निरंतर विकास जीवन का नियम है, और जो व्यक्ति खुद को सही दिखाने  के लिए हमेशा अपनी रूढ़िवादिता को बरकरार रखने की कोशिश करता है वो खुद को गलत स्थिति में पंहुचा देता है पारम्परिक रूप से ‘राजनीति’ के अध्य्यन का केंद्र ‘राज्य’ को माना जाता रहा है द्य राज्य शब्द जो प्लेटो, अरस्तु और सुकरात के प्रामाणिक और नैतिक राजनीतिक विचारो का सार रहा है द्य उसको गाँधी के राजनितिक विचारो ने अपनी अराजकतावादी राजनितिक सिद्धान्त से आलोचना करता है द्य सैद्धांतिक रूप से राज्य एक ‘सामाजिक समझौता’ है जैसा की हाब्स, लॉक और रूसो के समझौतावादी राजनितिक विचारो में मिलता है द्य वर्तमान में राजनीति विज्ञान के अध्ययन ने राजनीति को एक ‘कार्यात्मक क्रिया-कलाप’ तक ही सीमित कर दिया है (राय, २०१३ः ७६) द्य इसका दूसरा आलोचनात्मक पहलु यह है की आज वैश्वीकरण और वित्त पूंजीवाद के दौर में राज्य के औचित्य पर कई सारे सवाल खड़े किये हैं द्य आज रज्य को कोई ‘एक अवश्यक बुराई’ और ‘प्रताडना का केंद्र’ मानते हैं द्य यंहा तक की परम्परावादी, मानदंडों एंड नैतिक सवाल भी हैं जैसे ‘हमें राज्य का सम्मान क्यों करना चाहिए?कैसे राजनीतिक पारितोषक को बाँटा जाएगा? वक्तिगत स्वतंत्रता की क्या सीमायें हैं ? (ह्य्वूद, १९९४ः १०) द्य मेरी राय में ये सवाल वैध हैं द्य क्योंकि आज राज्य केवल ‘बाजार प्रभुत्व’ की कठपुतली बनकर रह गया है द्य जहाँ पर बाजार अभियांत्रिकी ने मानवतावादी चिंतन (समाजवाद, स्वतंत्रता, समानता और समतामूलक समाज का अध्य्यन) को धीरे-धीरे खत्म कर दिया है द्य इसका एक बड़ा कारण समकालीन राजनितिक सिद्धांतों में “क्यों अध्य्यन” (यंहा पर स्वतंत्रता का बोध है) के सवाल को “क्या अध्य्यन” (यंहा पर बाजारीकृत स्वतन्त्रता का बोध है) तक सीमित कर दिया है (राय, २०१३ः ७६-९४) द्य  समकालीन राजनितिक सिद्धांतों में गाँधी की राजनीति का विचार इस विरोधाभाषी स्वतंत्रता और कार्यात्मक-क्रियाकलाप से लिप्त राजनीतिक सिद्धान्त और पूंजीवादी रज्य की अवधारणा से  बहुत आगे जा के एक “मानवतावादी सार” और  एक “आदर्श राजनितिक समुदाय” की संकल्पना को अपने ‘हिन्द स्वराज’ में प्रतिपादित करता है द्यहिन्द स्वराज में गाँधी के राजनीतिक आदर्शों के सबसे औचित्य वाले श्रोत टॉलस्टॉय, रुश्किन, थोरौ और एमर्सन हैं द्य इसके आलावा गाँधी के दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण श्रोत ‘गीता’ है जो उनके राजनीतिक दर्शन को ‘एतिहासिक मूल्यों’ में जकड़ने की बजाय, ‘सार’ (एसेंस) और ‘आदर्शों’ को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं (परेल, १९९७ः ÛÛÛपपप)द्य इन सभी पहलुओं का विशलेषण करने के बाद यह प्रत्यछ रूप से श्पस्ट होता है की गाँधी के दर्शन में एतिहासिक रूढ़िवादी अन्धविस्वाशी मूल्यों को कोई स्थान नहीं है द्य दूसरी तरफ गाँधी का हिन्द स्वराज तथाकथित ‘आधुनिक औद्यिगिक सभ्यता’ का उग्र तरीके से आलोचना करता है और यहाँ तक की उसको समाप्त करने पर भी जोर देता है द्य तो सवाल यह है की हिंद स्वराज क्या है? अन्थोनी परेल के अनुसार, “ हिन्द स्वराज भारतीयों के नैतिक पुनरुत्थान और भारत के राजनितिक उत्थान के लिए रास्ता बताता है” गाँधी और आधुनिकताविस्वास को हमेशा तर्क से तौलना चाहिए द्य जब विस्वास अँधा हो जाता है तो मर जाता है द्य गाँधी और आधुनिकता क्यों? गाँधी और आधुनिकतावाद क्यों नहीं? क्योंकि आधुनिक, आधुनिकता और आधुनिकीकरण सबको एक ही मन लिया जाता है द्य आधुनिकता का सार ज्ञान प्राप्त करने और उसका आलोचनात्मक मुल्यांकन से होता है द्य आधुनिक का संबंद समय से है द्य आधुनिकीकरण का सार तकनीकीकरण से जुड़ा है द्य आज सम्पूर्ण वैश्विकवित्त पूंजीवादी विश्व में ‘आधुनिकता’ को एक आयाम से ही विशलेषणकिया जाता है द्य इसमें कोई संदेह नहीं है की तथाकथित ‘आधुनिकतावाद’ ‘राष्ट्र-राज्य’, ‘हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद’, ‘जातिवाद,’ (भारत), ‘लिंग भेद’, ‘नस्लवाद’, पूर्व-पश्चिम का  विरोधाभास, ‘इस्लामिक आतंकवाद’ और ‘अस्मिता की रानीति’ का एक ‘बेजोड़’ (नेक्सस) संगम है द्य तथयात्मक रूप से इन सारी विचारधाराओं का जन्म तथाकथित आधुनिक वित्त पूंजीवाद (फाइनेंस कैपिटलिज्म), अर्थवाद (एकोनोमिस्म), और वैश्वीकरण (ग्लोबालिजेसन) की उपज हैं (मथाई, २०१२ः ९-२८) द्य यह बात डाकिंस ने सपष्ट की है की आधुनिकता इनकी जागीर है, आधुनिकता उनकी जागीर है, इनकी आधुनिकता, उनकी आधुनिकता, अपना विज्ञान, पराया विज्ञान, वैकल्पिक ज्ञान और स्थानीय ज्ञान  ये सभी ‘तार्किकता के दुसमन’ (एनेमीज ऑफ रीजन) हैं (डाकिंस, २००८) द्य जिसके परिणामस्वरुप व्यक्ति, समाज और राज्य को कोई नया आयाम नहीं दे पते हैं द्य इस एतिहस्वादी भ्रूण मानदंडो वाली मानसिकता भारत को आधुनिकता से जुड़ने, पूर्व-पश्चिम की बाइनरी, आन्तरिक सोसण और अपमान से निकलने का कोई विकल्प नहीं देती हैं द्यइस सन्दर्भ में विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल और इमाम बुखारी जैसी मानसिकताओं ने भारत में आधुनिकता विमर्स और इससे सम्बंधित बुनियादी ज्ञान उत्पादन को रुढ़िवादी समाज और देश बनाने में लगे रहते हैं (राय, २०१६ः ३४-३५) द्य इस प्रकार एतिहासिक अन्धविसवासी मानदंडो और रूढ़िवाद के लिए गाँधी के विचारो में न के बराबर स्थान है द्य इससे आगे एक प्रसिद्ध इतिहासकार ने स्पष्ट किया है कि यह कहना कि ‘भारत का विचार’ (द आईडिया ऑफ इंडिया) जो प्रजातांत्रिक स्थिरता, बहुसांस्कृतिक एकता, और भारतीय राज्य की सुरछा छह हजार साल पहले का विचार है केवल एक पौराणिक कथा है द्य कई और           विचारधारा थीं जो काफी खतरनाक थीं (एंडरसन, २०१२ः १८६) द्य वास्तव में अगर आईडिया ऑफ इंडिया पे बात करे तो यह एक दम आधुनिक अवधारणा है द्य जिसको गाँधी ने पूर्ण रूप से खारिज किया है द्य दूसरी तरफ इसको खारिज करते हुए वो बेनेडिक्ट एंडरसन के समीप आते हैं जिन्होंने ‘राष्ट्र-राज्यों ’ को ‘कल्पना समुदाय’ (इम्मजिंड कम्युनिटीज) की संज्ञा दी है (एंडरसन, २००६) द्य ‘राजेंद्र प्रसाद, गाँधी के ‘इंडिया ऑफ माय ड्रीम’ में लिखते हैं की गाँधी सपनो का स्वतंत्र भारत को एक नई दिशा देने का था जो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है  द्य यह प्रक्रिया ‘सत्य’ और ‘अहिंषा’ से ओत प्रोत है  (गाँधी, १९४७ः १) द्य यह अलग बात है की आज धर्मान्धता और धर्म के नाम पर नरसंघार हो रहा है  गाँधी के हिन्द स्वराज की सुरवात ही इस प्रकार की पूंजीवादी सभ्यता, हिन्दुत्व, रूढ़िवादी मानशिकता और राष्ट्र-राज्य व्यवस्था की आलोचना करते हुए एक आदर्श राजनितिक समुदाय को हिंद स्वराज में प्रतिपादित करता है द्य इस राजनितिक समुदाय में गाँधी के लिए आधुनिकता का सम्बन्ध ज्ञान अर्जित करने और उसका आलोचनात्मक मुल्यांकन करने के लिए उनहोंने पूर्ण स्वतंत्रता की बात की है द्य समुदाय इसका अभिन्न अंग है द्य समुदाय एक ‘आंगिक’ परिकल्पना है द्य इसमें सरकारों की भूमिका नहीं होती है या न के बराबर होती है द्य इसलिए गाँधी के भाव में एक आदर्श राजनितिक समुदाय में ‘राजनीति’ जो समाज और राजनीति को परिवर्तित करना चाहती है उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है(राय, २०१६ः ३५) द्य इस राजनीति की भाषा को गाँधी स्पष्ट करते हुए लिखते हैं की “ मैंने राजनीतिक भाषा का उपयोग किया है लेकिन मैंने वास्तव में ‘धर्म की रेखा खीची’ (रूल ऑफ धर्मं) है द्य मेरे हिन्द स्वराज का मतलब ‘रामराज्य’ (डू नॉट कंफ्यूज रामराज्य विथद स्टोरी ऑफ रामायण) है द्य और इससे हमें दूसरों के कल्याण के बारे में चाहत को उजागर करना है’’ (परेल, १९९७ः१७)द्यहाँलाकि, मैं गाँधी का आलोचक हूँ क्यूंकि उनके ‘सत्याग्रह की पद्धति’ में उनकी ‘अस्मिता’ और उनके व्यक्तिवादी निर्णयों का उनकी स्वयं की संघर्स पद्धति और जनमानस को तथ्यों से दूर कर देता है (गाँधी, १९२८ः ९५-१०७) द्य फिर भी उनके संघर्ष पद्धति को जो आज संघर्स का एक असामन्य उदहारण हो सकता है द्य जिसको वो अपनी किताब ‘सबका कलयाण’ में स्पष्ट करते हैं (गाँधी, १९५४) द्य इसको उजागर करने का रास्ता उनके बुनियादी विमर्श जैसे- प्रजातंत्र, समाजवाद, साम्यवाद, लिंग भेद की राजनीति का अंत, योन सम्बन्धी शिच्छा’ वर्ग संघर्स का अंत, श्रम की स्वतंत्रता, जातिवाद का अंत, हड़ताल की स्वतंत्रता,               अधिकार और कर्तव्य का विमर्स, अहिंसक अर्थव्यवस्था, सबका कलयाण और पुरे विश्व शांति को राजनीति के अध्य्यन को केवल राज्य के ‘क्रियाकलाप’ तक सीमित न रखकर उनको ‘बुनियाद ज्ञान’ के परिप्रेछ्य में लाना होगा।आलोचनात्मक मुल्यांकन  अंत में, गाँधी की राजनीति और आधुनिकता, स्रजनात्मक सैद्धान्तिकरण का एक अत्यंत आसामन्य उदहारण है द्य आज समाजकर्म और अध्य्यन का दयुत्व या तो केवल क्रियाकलाप तक सीमित कर दिया गया है और या तो उसके बीच और जीवन में केवल और केवल ‘अंधकार’ और ‘द्वन्द’ है द्य आंशिक रूप से गाँधी की राजनीति और आधुनिकता को हम ‘बुनियादी ज्ञान’ का एक अच्छा उदहारण मान सकते हैं जो एक ‘आदर्श राजनितिक समुदाय’ की अवधारणा का सर्जन करते हैं द्य समुदाय एक स्वस्थ समाज निर्माण की प्रक्रिया शुरू होने की पहली कड़ी होता है द्य और आज पूरी दुनिया में बेहतर समाज-निर्माण का संघर्ष एक नई और तेज धुरी से बढ़ रहा है द्य उसमे गाँधी की राजनीति की समझ और आधुनिकता का बहुत बड़ा योगदान है द्य जो इस प्रक्रिया में सहभागी और सार्थक दीखता है द्य आज जब पूरा विस्व इस सार्थकता को मान दे रहा है तो ये भारतीयों की नैतिक जिम्मेदारी है की              गाँधी-विमर्श को हमें राजनीति के बुनियादी ज्ञान और आधुनिकता आयाम के संधर्भ को आगे करना होगा न की रूढ़िवादिता के अंधकार में।

संदर्भ –

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