ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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‘निराला’ के काव्य की प्रासंगिकता

डा0 मिलेदार राम
असि0 प्रोफेसर (हिन्दी विभाग)
डी0ए0वी0 स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बुलन्दशहर (उ0प्र0)

कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हिन्दी के युगान्तकारी कवि हैं, तथा छायावादी कवि चतुष्टय में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता में नव जागरण का संदेश है, प्रगतिशील चेतना है तथा राष्ट्रीयता का स्वर विद्यमान है। मानव की पीड़ा, परतन्त्रता के प्रति तीव्र आक्रोश उनकी कविता में है, तथा अन्याय एवं असमानता के प्रति विद्रोही की भावना उनमें सर्वत्र व्याप्त है। परिस्थितियों के घात-प्रतिघात ने उन्हें, उदबुद्ध, सचेत एवं जागरूक कवि के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। अन्याय, अत्याचार एवं असमानता के विरूद्ध वे जीवन भर संघर्ष करते रहे।  मानव की पीड़ा ने उनके संवेदनशील हृदय को करूणा से प्लावित कर दिया था। उच्च वर्ग की विलासिता एवं निम्न वर्ग की दीनता को देखकर वे अपने हृदय में गहन वेदना, टीस, छटपटाहट का अनुभव करते थे। फलतः ‘निराला’ द्वारा रचित काव्य की प्रासंगिता वर्तमान में उन्मेषमूलक अर्थवत्ता प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम है।कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हिन्दी के युगान्तकारी कवि हैं, तथा छायावादी कवि चतुष्टय में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता में नव जागरण का संदेश है, प्रगतिशील चेतना है तथा राष्ट्रीयता का स्वर विद्यमान है। मानव की पीड़ा, परतन्त्रता के प्रति तीव्र आक्रोश उनकी कविता में है, तथा अन्याय एवं असमानता के प्रति विद्रोही की भावना उनमें सर्वत्र व्याप्त है। परिस्थितियों के घात-प्रतिघात ने उन्हें, उदबुद्ध, सचेत एवं जागरूक कवि के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। अन्याय, अत्याचार एवं असमानता के विरूद्ध वे जीवन भर संघर्ष करते रहे।  मानव की पीड़ा ने उनके संवेदनशील हृदय को करूणा से प्लावित कर दिया था। उच्च वर्ग की विलासिता एवं निम्न वर्ग की दीनता को देखकर वे अपने हृदय में गहन वेदना, टीस, छटपटाहट का अनुभव करते थे। फलतः ‘निराला’ द्वारा रचित काव्य की प्रासंगिता वर्तमान में उन्मेषमूलक अर्थवत्ता प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम है। निराला-काव्य में छायावादी प्रेमगीत हैं, राष्ट्र प्रेम की अभिव्यंज्जना करने वाले राष्ट्रगीत हैं, मातृभूमि की वंदना एवं उद्बोधन, शोषणमुक्त समाज की संकल्पना है, तथा आध्यात्मिक चेतना, रहस्यम व निश्छल भक्ति से पूरित भाउक भक्तिगीत भी हैं। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक आलोक को बिखेरने वाली उनकी लम्बी कविताओं यथा-‘राम की शक्ति पूजा’ ‘तुलसीदास’, ‘शिवाजी का पत्र’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसी प्रकार जीवन कर्म और मृत्यु सभी के प्रति उदात भाव अभिव्यक्त करने वाली रचना ‘सरोज-स्मृति’ भी है। राष्ट्रीयता, देश की मिट्टी के प्रति श्रद्धा, स्थिति का विश्लेषण और भविष्य के प्रति उज्ज्वल आकांक्षा एक साथ मुखर होती है। प्रश्न उठता है कि ‘निराला’ ने मानव के जिन आदर्शों का स्वप्न देखा था, क्या वह पूर्ण हो गया? साम्राज्यवाद का विरोध, ऊँच-नीच का भेद-भाव, नारी की स्वाधीनता, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा के प्रति नवीन दृष्टिकोण, हिन्दू-मुस्लिम एकता, दीन-हीन एवं शोषितों के प्रति गहन वेदना का जो चित्रण उनके काव्य में दिखाई देता है, क्या आज के समाज ने उसे पूर्ण कर लिया? यदि नहीं तो ‘निराला’ आज भी प्रासंगिक हैं। वैज्ञानिक उपकरणों एवं सुख-सुविधा के साधनों को जुटाकर भले ही हम प्रगति का दावा करें, किन्तु मानवता के मोर्चें पर हम रंचमात्र भी प्रगति नहीं कर सके हैं। आज भी समाज में धार्मिक विद्वेष व्याप्त है। जाति-प्रथा ने अपनी जड़े और मजबूत किया है। समाज में पाखण्ड, ढ़ोंग, अब भी व्याप्त हैं। छल-कपट और विद्वेष ने समाज को आशंकाओं से भर दिया है। शोषक और शोषित का दृश्य आज भी समाज में दिखाई दे रहा हैं जिस नारी-मुक्ति की आवाज निराला ने उठायी थी, वह मुक्त हुई क्या? निराला ने अंधविश्वास एवं रूढ़ियों को मानव समाज के लिए घातक बताया क्या ये ्समाप्त हो गये? जब तक समाज में दोष और अभाव रहेंगे, जिनके विरूद्ध निराला ने आजीवन संघर्ष किया, तब तक निराला के काव्य की प्रासंगिकता बनी रहेगी। संसार में जहाँ-जहाँ सत् है वहीं उसका विपरीत असत् भी उतना ही प्रभावशाली है। आज तो जगह-जगह असत्, सत् को विजित करता हुआ दिखाई देता है, और कारण स्पष्ट है-सत् को समाज का बल नहीं मिलता। इसलिए बिना शक्ति के सत् की रक्षा करना संभव नहीं है। निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से यही संदेश दिया है कि यदि असत् शक्तिशाली है तो सत् को भी शक्ति का संधान करना चाहिए, न कि हार मानकर हम पीछे हट जाय- ‘‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका, जो जानता दैन्य, नहीं जानता विनय कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय’’ ‘निराला’ ने ‘बादल-राग’ कविता में भारत के कृषकों की दीन-हीन दशा का जो चित्रण किया है वह हमारे लिए मूल्यवान और प्रासंगिक है। जी तोड़ मेहनत करने वाले कृषक को आज दो जून की रोटी नसीब नहीं हो पाती। आज वह कृषक आत्महत्या करने को मजबूर है। शोषकों ने उसका सब कुछ चूस लिया है। वे शोषक कृषक-मित्र के रूप में कालनेमि का रूप धारण कर लिए हैं। जो कृषकों के हित के नाम पर विनाश का ही मार्ग दिखा रहे हैं। कृषक जीवन की त्रासदी के सन्दर्भ में लिखी गयी निराला की निम्न पंक्तियाँ आज भी पूर्ण रूप से प्रासंगिक हैं- ‘‘जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर तुझे बुलाता कृषक अधीर ऐ विप्लव के वीर! चूस लिया है उसका सार, हाड़ मात्र ही हैं आधार ऐ जीवन के पारावार!’’ निराला की शोषित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति का चित्रण उनकी ‘भिक्षुक’, ‘तोड़ती पत्थर’ और ‘विधवा’ जैसी कविताओं में हुआ है। भिक्षुक का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं- ‘‘वह आता दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक चल रहा लकुटिया टेक मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली फैलाता।’’ निराला की उपर्युक्त पंक्तियाँ निश्चय ही दीन-हीनों के प्रति हमारी संवेदना को झंकृत करती है। मानव-समाज में ऐसे दीन-हीनों की कमी नहीं है, जो मुट्ठी भर दाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। नारी के प्रति परम्परागत दृष्टि को बदलने का संदेश ‘निराला’ ने अपनी ‘विधवा’ नामक कविता में दिया है। जिस विधवा नारी का सामने पड़ जाना भी अशुभ समझा जाता था, उसी विधवा को निराला ने इष्टदेव के मन्दिर की प्रतिमूर्ति बताया- वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा सी, वह दीप शिखा सी शान्त, भाव में लीन निराला ने विधवा स्त्री के प्रति जो आवाज उठायी थी क्या उसे हमने पूरा किया? शायद नहीं। यदि ऐसा हो जाता तो आज मथुरा के मन्दिरों में विधवाओं की दुर्गति नहीं होती। उन्हें बाध्य होकर वृव्द्धाश्रमों में नहीं रहना पड़ता। काशी के घाट पर भिक्षा हेतु किसी की मुखापेक्षिता की आवश्यकता नहीं होती। कितनी विडम्बना की बात है कि जिस नारी के लिए हमारे धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तत्र रमन्ते सर्व देवता।’’ आज वही नारी अपने ही परिवार में, समाज में शोषण का शिकार हो रही है। पुरूष प्रधान समाज में नारी का शोषण तो निराला के समय से भी अधिक बढ़ गया है जिससे उस कवि की वाणी वर्तमान समय में हमें कुछ सोचने को विवश करती है। इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती हुई उस मजदूरनी का चित्र आज भी श्रीनगर से लेह मार्ग पर पत्थर तोड़ती हुई उस नारी से अलग कैसे हो सकता है, जो अपनी पीठ पर चद्दर में बच्चे को बाँध रखती है। उत्तराखण्ड में तो पर्यटन के दौरान ऐसे दृश्य का दिखाई देना आम बात है, जिसका चित्रण निराला ने इन पंक्तियों में किया था- ‘वह तोड़ती पत्थर। देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार, श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय कर्म रत मन। गुरू हथौड़ा हाथ करती बार-बार प्रहार सामने तरू मालिका अट्टालिका प्राकार।।‘‘ ‘सरोज-स्मृति‘ को निराला की आत्मपरक रचना माना जाता है, परन्तु वह आत्मपरक होते हुए भी समाजपरक बन गयी है। डा0 रमेश मिश्र ने लिखा है कि ‘‘सरोज-स्मृति‘ में समाज की अवस्था उसके फलस्वरूप जीवन की घुटन का भी ऐसा स्वरूप व्यक्त किया गया है जो मानवीय धरातल पर निराला की आवाज सरोज के प्रति न होकर चेतना का वह स्वर है जो मानवीयता के नाते लाजमी और अनुकूल है। ‘निराला‘ अपने गहन अवसाद की भूमि से उठकर विद्रोह के स्वर में सामाजिक चेतना सम्पन्न होकर मानवीय हक और मनुष्यत्व की सार्थकता की माँग करता हुआ संवेदना से विद्रोह तक पहुँच जाता है।‘‘ निराला ने समाज में फैली बुराई, दहेज प्रथा का विरोध करते हुए लिखा-‘‘जो कुछ है मेरा अपना धन पूर्वजों से मिला, करूँ अर्पण यदि महाजनों को, तो विवाह कर सकता हूँ, पर नहीं चाह मेरी ऐसी, दहेज देकर मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर।‘‘ वर्तमान समय में दहेज की समस्या सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी है। इस समस्या के समाधान के लिए तमाम ढिंढोरे पीटे जा रहे हैं, परन्तु यह कम होने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे समय में दहेज के प्रति कही गयी निराला की उपरोक्त पंक्तियाँ निश्चय ही आज के मानव-समाज के लिए प्रासंगिक हैं। ‘कुकरमुत्ता‘ निराला की सफल व्यंग्य प्रधान रचना है। इस कृति में ‘गुलाब‘ धनी वर्ग का तथा ‘कुकुरमुत्ता‘ सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। निराला ने कुकुरमुत्ता के माध्यम से सामाजिक नैराश्य, विषमता और सर्वहारा वर्ग के शोषण को अभिव्यक्ति दी है। वर्तमान समय में भी हमारे सम्मुख एक पूँजीपति वर्ग है, जो गरीबों का शोषण करके दिन प्रतिदिन उन्नत होता जा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत की 80 प्रतिशत पूँजी, 20 प्रतिशत लोगों के पास कैसे पहुँच जाती। वहीं दूसरी तरफ एक ऐसा वर्ग है जो शोषण के कारण दिनांे दिन नीचे गिरता जा रहा है। इसका प्रमाण यह है कि आज भी तीस करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं और उनके एक दिन के भोजन का बजट मात्र 5 से 10 रूपये होता है। मानव-समाज में विषमता की यह खाई जब तक समाप्त नहीं होगी, ‘निराला‘ का काव्य तब तक प्रासंगिक रहेगा और कुकुरमुत्ता गुलाब को इसी प्रकार ललकारता रहेगा – ‘‘अबे, सुन बे, गुलाब भूल मत जो पाई खुशबू, रंगो आब खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतराता है केपीटलिष्ट!‘‘ निराला ने भारत की गरिमामय संस्कृति की उपेक्षा एवं तिरस्कार करके पाश्चात्य सभ्यता की चकाचैंध के मोह जाल में आत्म-विस्मृत हो अंधाधुन्ध दौड़ती भारतीय पीढ़ी को चेतावनी देते हुए इसे सर्व संहारक बताया है- ‘‘तुमने मुख फेर लिया सुख की तृष्णा से अपनाया है सरल ले बसे, नव छाया में, नव स्वप्न ले जगे भूले वे मुक्तगान सामगान, सुधापान!‘‘ आज के युवा पीढ़ी को सचेत करने के लिए निराला की उपर्युक्त पंक्तियां वर्तमान परिपेक्ष में प्रासंगिक हैं। आज हम भारतीय संस्कृति की गरिमा को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का अंधाधुन्ध अनुकरण कर रहे हैं, यह किसी भी प्रकार से भारतीय संस्कृति के लिए हितकर नहीं है। हिन्दी साहित्य में मुक्त छन्द का प्रयोग सर्वप्रथम निराला ने किया। इसलिए उन्हें साहित्यिक क्षेत्र में भी कोप-भाजन का शिकार होना पड़ा। मुक्त छन्द में उनकी लिखी गयी कविता ‘जूही की कली‘ को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पत्रिका ‘सरस्वती‘ में छापने से इनकार कर दिया। उनके मुक्त छन्द को रबर छन्द, केंचुआ छन्द कह कर खिल्ली उड़ायी गयी। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस छन्द में कविता लिखने के कारण निराला का उपहास किया गया, वर्तमान समय में उसी मुक्त छन्द में धड़ल्ले से कविताएँ लिखी जा रही हैं। साहितय में मुक्त छन्द का प्रयोग तो आज निराला के समय से भी अधिक बढ़ गया है। इस कारण से निराला की वह सोच आज के रचनाकारों को एक नई दिशा दे रही है कि ‘‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्माें के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना।।‘‘ हिन्दी साहित्य का वर्तमान समय संक्रमण की बेला से गुजर रहा है। नवीन प्रज्ञा की प्रतिध्वनि में बौद्धिकता साहित्य के मस्तिष्क पर विलास कर रही है। हृदय पक्ष अमानिशा के गर्त में दूबक कर बैठा है। पुरूषार्थ चतुष्टय की आकांक्षी भारतीय साहित्यिक विरासत विद्रूपताओं से ग्रसित है। भक्ति के अजस्र स्त्रोत विलुप्त हो रहे हैं, ऐसे समय में महाप्राण निराला की स्मृति हमें गन्तव्य का बोध कराने के लिए आज भी प्रासंगिक है – ‘‘विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, हे पुरूषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ आराधन से दो उत्तर तुम करो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर …‘‘ वस्तुतः निराला जी ने अपने काव्य को जो विशिष्टता प्रदान की उसका मुख्य कारण उनकी दिव्य दृष्टि थी, जिससे उन्होंने युग की अर्थवत्ता को पहचाना, फलतः काल जयी साहित्य रचा। वह साहित्य वर्तमान समय की समस्याओं को हल करने मंे सक्षम ही नहीं, बल्कि नई दिशा प्रदान करने वाला है। आज नैतिक मूल्यों का जो विघटन समाज में दिखाई दे रहा है, मानवीय मूल्यों का क्षरण जिस तीव्रता से हो रहा है, दीन-हीन शोषित की आज मानव-समाज में जो स्थिति बनी हुई है, उनके विषाक्त प्रभाव को कम करने के लिए निराला के काव्य की आवश्यकता बराबर अनुभव की जा रही है। इस प्रकार से निराला का काव्य प्रासंगित था, प्रासंगिक है और आने वाले समय में भी प्रासंगिक रहेगा।
संदर्भ ग्रन्थ सूची1. डा0 दूधनाथ सिंह-‘‘निराला आत्महन्ता आस्था‘‘- लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद।2. डा0 रामविलास शर्मा-‘‘निराला की साहित्य साधना‘‘ भाग-2 राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली।3. डा0 राममूर्ति शर्मा – ‘‘युग कवि निराला‘‘- साहित्य निकेतन कानपुर।4. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला‘- ‘‘राग-विराग‘-सम्पादक – डाॅ0 राम विलास शर्मा-लोक भारती                                        प्रकाशन इलाहाबाद, सोलहवां संस्करण।

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