ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

भारत में अंग्रेजी शासन के विरोध में हुये जनजातिय विद्रोह से लिये गये कुछ अंश रम्पा व भील

-डाॅ0 रानी देवी

भारत में आदिवासी विद्रोह का मुख्य केन्द्र पूर्वी व मध्य भारत ही रहे है लेकिन दक्षिणी भारत व पश्चिमी भागों के आदिवासी भी शान्त नहीं बैठे उन्होंने भारत से अंग्रेजें को खदेड़ने का प्रयत्न किया जिनमें से रम्पा व भील के विद्रोह पर हम यहां चर्चा करेंगे। भारत में आदिवासी विद्रोह का मुख्य केन्द्र पूर्वी व मध्य भारत ही रहे है लेकिन दक्षिणी भारत व पश्चिमी भागों के आदिवासी भी शान्त नहीं बैठे उन्होंने भारत से अंग्रेजें को खदेड़ने का प्रयत्न किया जिनमें से रम्पा व भील के विद्रोह पर हम यहां चर्चा करेंगे।  रम्पा विद्रोह- रम्पा मद्रास प्रेसीडेंसी में गोदावरी जिले की एजैन्सी में लगभग 80 वर्ग मील का पहाड़ी अंचल था गोदावरी नदी के उत्तरी किनारे से लेकर सिलेरू नदी तक का यह फैला इलाका रम्पा मुट्ठा के नाम से जाना जाता है। इसमें  2000 /- से लेकर 4000 /- फीट तक ऊँची पहाड़िया थी लेकिन चैड़ावराम के उत्तर में स्थित रम्पा थाना एक छोटा सा गांव था और गांव के आस-पास का इलाका मुट्ठा कहलाता था। इस पूरे इलाके के स्वामी को मुट्ठादार कहा जाता था, और उसका निवास स्थान यही था सरकारी दस्तावेजों में इस मुट्ठदार को राजा कहा जाता था तथा यह एक स्थाधीन राजा था। 1787 ई0 में ‘‘सर्किट कमेटी’’ ने लिखा कि यद्यपि रम्पा की जमीदारी राजमुन्दरी की सरकार के अन्दर है लेकिन इसने कम्पनी या निजाम को कभी टैक्स नहीं दिया। (1)रम्पा जमीदारी के साथ अंग्रेजों का संघर्श 19वीं सदी में प्रारम्भ हुआ था। रम्पा के आदिवासियों ने अपने राजा राम भूपति देबू के राज्य में कोई अंसतोष नहीं होने दिया था, वह शांतिपर्वूक जीवन यापन कर रहे थे किन्तु 1844 ई0 के बाद उनमें विद्रोह की भावना पनपने लगी जिसका कारण यहां के मनसबदारों का आदिवासियों के प्रति किया जाने वाला व्यवहार और मनसबदारों का अंग्रेज परस्त होना था। 1835 ई0 में तत्कालीन मनसबदार राम भूपति देबू की मृत्यु हो गयी। उसके एक पुत्री तथा एक नारज पुत्र था मुट्ठदारों ने जमीदारी का उत्तराधिकारी लड़की को माना। (2) उस लड़की ने आजीवन अविवाहित रहने की घोषणा की वह गद्दी पर बैठी लेकिन कुछ समय बाद उसके चरित्र पर संदेह किया जाने लगा तथा उसे भगा दिया गया। ऐसे समय पर जमीदारनी और उसके भाई को अंग्रेजों ने शरण दी तथा उन्हें गुजारा भत्ता देकर उनके राज्य को स्वंय हड़प लिया। जिससे मुट्ठेदारों ने विद्रोह कर दिया कम्पनी सरकार ने विद्रोह को दवा दिया तथा रानी ने अपने भाई मधुवती राम भूपति देबू को मनसबदार बना दिया तथा उन मुट्ठादारों ने उसे इस शर्त पर कि उन सब पर राजस्व 1000 रू मात्र होगा इससे ज्यादा मनसबदार वसूल करने की चेष्टा न करे अपना राजा मान लिया।  परन्तु मनसबदार शीघ्र ही अपने वायदे को भूल गया और उसने मुट्ठदारों के मुट्ठे जब्त करने शुरू कर दिये तथा प्रजा और इन मुट्ठदारों पर कर लगाकर इन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। जिसके कारण 1841 और 1861 ई0 में विद्रोह हुए उसके खिलाफ लोगों को घृणा इतनी भर गयी थी कि जब 1862 ई0 में उसने अपने  मुट्ठे में रहना चाहा तो वहां विद्रोह हो गया बड़ी संख्या में जाकर वहां पुलिस ने दमन किया। (3) मधुवती राम भूपति देबू ने 1879 ई0 तक आठ मुट्ठे जब्त कर लिये तथा राजस्व भी दूना कर दिया उससे ईधन, चरागाह आदि पर कितने ही टैक्स लगाये चूंकि मनसबदार यह सब अंग्रेजों के इशारे पर कर रहा था, इसलिए आदिवासी जनता तथा मुट्ठेदार मनसबदार से ही असंतुष्ट नहीं थे बल्कि उन्होंने अंग्रेजी को भी अपना शिकार बनाया। इसके अलावा अंग्रेजी सरकार ने नया आवकारी कानून लागू किया जिसके तहत घरेलू व्यवहार के लिए ताड़ी का ठेका दिया जाने लगा और अंग्रेज सरकार इन ठेकों से टैक्स वसूल कर माला-माल होने लगी तथा इन ठेकेदारों ने ताड़ी का टैक्स मुट्ठदारों से वसूलना शुरू कर दिया ताड़ी पर लगे टैक्स का नाम (चिगरू पुन्नू) कहलाया दूसरी तरफ मनसबदार ने ऐलान किया कि एक अतिरिक्त कर (मोदालुपुन्नू) उसे देना होगा यह कर (चिगरू पुन्नू) का आधा अथवा दो तिहाई होगा। इन कारनामों के अलावा अन्य बहुत से कारण ऐसे थे जिनके कारण आदिवासियों के विद्रोह की भावना धीरे-धीरे पनपने लगी इसके अलावा विद्रोह की तत्कालीन कारण पुलिस के अत्याचार भी थे इन अत्याचरों से भयभीत लोग कहने लगे हम अपने ऊपर लगाये गये टैक्स बर्दाशत नहीं करेंगे। तीन साल पहले (चिगरू पुन्नू) लागू किया गया था इस साल (मोदालूपुन्नू) की मांग कर रहा है। पुलिस के सिपाही मुर्गियंा छीन रहे हैं हमारा जीना रहना असंभव हो गया है। इससे बेहतर है हम पुलिस के सिपाही को मार डाले और खुद मर जाए। (4) इसके अलावा मैदानी क्षेत्र के साहूकार व व्यापारी तरह-तरह से इन आदिवासियों का शोषण करते थे। आदिवासियों की सरलता तथा निरक्षरता का फायदा उठाकर इन्हें ठगते थे। 5 रू0 के बदले में इन आदिवासियों से कई-कई सौ रू0 के मवेशी तथा उनके घरों से खाद्यान उठा ले जाते थे। यदि वह अदालत में जाते तो उन्हें और भी अधिक सताया जाता था। दीवानी अदालतों की कार्य पद्यति के खिलाफ भी आदिवासियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा था।  यदि वे अंगे्रज अधिकारियों से शोषण के खिलाफ आवाज उठाते तो यह अधिकारी शोषण कर्ताओं का ही साथ देते थे। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने आदिवासियों को प्रत्यक्ष रूप से भी सताया अंग्रेजों ने आदिवासियों की पांरपरिक खेती झूम तथा पड़ पर रोक लगा दी अंग्रेजों की अदालतों से वह इतना डरने लगे थे कि वह राजमुदरी की अदालतों में जाने के बजाय शेर की मांद में जाना ज्यादा पंसद करते थे। अतः इन सब बातों से परेशान होकर आदिवासी एकत्रित होने लगे और विद्रोह का मौका देखने लगे। जिसकी सूचना 9 मार्च 1879 को रम्पा के पुलिस इंस्पेक्टर ने अशान्ति की सूचना आकर कलेक्टर को दी इस सूचना के मिलते ही डिप्टी कलेक्टर और पुलिस सुपरिन्टीडेन्ट कुछ सिपाहियों को लेकर पहाड़ियों की तरफ गया वहां गोकावरम में उन्हें एक मुट्ठदार मिला जिस पर शक किया गया किन्तु उसने अपनी बातों से शंका खत्म कर दी।  इसी के साथ समाचार मिला कि बोदूलूरू के पास कुछ विद्रोहियों ने पुलिस के एक जत्थे को पकड़ लिया है। 13 मार्च को बहुत से पहाड़ी चैजवरम आये उन्होंने अपनी शिकायतें डिप्टी कलेक्टर के सामने सुनाई उसने उन्हें ध्यान से सुना जिससे उसे लगा कि उसकी बातों से पहाड़ी आदिवासी संतुष्ट हो गये है। किन्तु कुछ समय बाद पहाड़ियों ने उसकी बात पर अविश्वास कर उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी और पुलिस को चारों तरफ से घेर लिया हथियारों की बदौलत डिप्टी कलेक्टर अपनी और अपने शिविर की रक्षा करने में समर्थ हुआ तथा उसने अन्य सेना भेजने का आदेश दिया।  17 मार्च 1879 में उसके पास 149 आदमी हो गये तथा 36वीं देशी पलटन इनकी रक्षा के लिये भेजी गयी जिसमें 400 अफसर और सैनिक कोकनद में जहाज से उतारे गये वे जाकर चैड़ावरम में घिरी पुलिस की मदद कर पाये। (5)विद्रोही इतने गुस्से में थे कि किसी भी समझौते को उन्होंने सुनना भी आवश्यक नहीं समझा और न ही अपनी तरफ से कोई भी शर्त मनवाने को कहा उन्होंने जिधर जो भी उचित समझा वहीं किया। इसी समय दो पुलिस वालों की रम्पा में अपने आराध्य देव के आगे बलि देकर यह घोषणा कर दी कि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध से अलग उनके पास कोई रास्ता नहीं है। यह घोषणा सारे रम्पा अंचल में फैल गयी पूरे अंचल में विद्रोह की आग धू-धू कर जल उठी। (6) इस विद्रोह के बाद अंचल के सभी लोग विद्रोह में शामिल हो गये तथा एक साथ अंग्रेजों पर तथा मनसबदारों पर टूट पड़े मुट्ठादारों ने भी विद्रोहियों का ही साथ दिया इस विद्रोह के प्रमुख नेता थे। चन्द्रमा, सरदार जंगम पुलीकान्त समवैया, तम्मान डोरा तथा बीदूलूरू के अम्बुल रेड्डी विद्रोहियों ने आमने सामने के युद्ध के बजाय छापामार युद्ध करना उचित समझा और वह सेना की सीधी लड़ाई के बजाय पुलिस के थानों पर हमला कर लूट कर उन्हें जला देते थे इसके अलावा विद्रोहियों ने उन गांवो को भी लूटा जो अंग्रेजों के साथ देते थे। काफी लूट-पाूट होने के बाद अंग्रेजों ने विद्रोहियों से निपटने के लिए मद्रास से सेना तथा आस-पास के जिलों से पुलिस भेजी इसके अलावा मद्रास इन्फैन्ट्री की 6 रेजीमेंट सैपर्सं और माइनर्स की 2 कंपनियां और हैदराबाद सेना के रिसाले का एक दस्ता तथा पैदल सेना का एक हिस्सा इस अंचल में दमन करने पहंुच गया था। (7)इस विद्रोह को दबाने के लिए जब पुलिस ने अपना दमन चक्र चलाया तथा सैंकड़ों को गोलियों के द्वारा मार दिया गया तथा कितने ही पुलिस द्वारा बन्दी बना लिए गये 29/अप्रैल 1879 को समवैय्या के लिए गिरतार कर लिया गया और उनकी जगह चन्द्रैया ने पूरी कर ली। चेल्लावरम डिवीजन में मई के आरम्भ में उन्होंने कितनी ही बार दुश्मनों को हराया तथा अड्डा तिनेला थाने को उन्होंने जला दिया विद्रोही इतनी बड़ी सेना तथा पुलिस से डटकर मुकाबला कर रहे थे बेशक उनके पास अंग्रेजों जैसे हथियार नहीं थे। इसी बीच रेकपल्ले और दुतचर्ती में भी विद्रोह फैल गया, अंग्रेज इसलिये और भयभीत हो रहे थे कि कहीं पोलावरम् की पहाड़ी जातियां थी विद्रोह न कर दें। इसलिए अंग्रेजों ने अधिक से अधिक सेना मंगाकर विद्रोह को दबाया और चारों तरफ से घेर लिया। इसके अलावा अंग्रेजों ने रम्पा की उत्तरी और पूर्वी सीमा पर कब्जा कर सेना ने गोदावरी और सवेरी के किनारे-किनारे फौजी चैंकिया बैठा दी तथा रैवेन्यू बोर्ड के प्रथम सदस्य सुलीवान को जुलाई 1879 में विद्रोह के कारणों की जांच के लिए रम्पा भेजा गया उसने वादा किया कि अंग्रेज सरकार मुट्ठदारों के साथ न्याय करेगी। अगस्त 1879 तक चन्द्रैया के 70 आदमी पकड़े गये तब कहीं रम्पा में कुछ शान्ति देखी गयी। चन्द्रपैया के 70 आदमी पकड़े जाने से सेना को अपनी ताकत पूरी तरह लगाने का मौका मिला कुछ विद्रोही लड़ते हुय गोल कुण्डा और जयपुर की पहाड़ियों में चले गये नवम्बर में अम्बुल रेड्डी पकड़े गये तथा 1880 फरवरी में चन्द्रैया मारे गये। इनके मारे जाने से विद्रोह की जैसे रीढ़ ही टूट गयी यद्यपितमाम डोरा अभी भी लड़ते रहे और 1880 में विद्रोह शान्त हो गया सुलीवान की सिफारिश के अनुसार मनसबदार हटा दिया गया। मुट्ठादारों को उनके मुट्ठे वापस कर दिये गये रम्पा के आदवासियों ने 1884 में पुनः विद्रोह कर दिया जिसका नेता राजा अनतय्या था उसे अंतर्राष्टीय घटना क्रम की काफी जानकारी थी जो कि उसे राम कथा की प्रेरणा से मिली थी रत्मा आदिवासी विद्रोह रूकने का जैसे नाम ही नहीं लेता था 1900 ई0 में कोश मल्लय्या ने आदवासियों को एकत्र कर स्वंय को अवतार घोषित कर दिया परन्तु जैसे ही उसे असफलता मिली उसका भेद खुल गया और विद्रोह को आसानी से दवा दिय गया। इस प्रकार रम्पा के आदिवासियों का व्यापक संघर्ष समाप्त हुआ यद्यपि 1992-24 में पुनः विद्रोह हुआ जिसने भयानक विद्रोह का रूप धारण कर लिया परन्तु अन्त में रम्पा के आदिवासियों को भी अन्य आदिवासियों की तरह ही हथियार डालने पड़े और अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। -भील विद्रोह- जिस समय रम्पा विद्रोह अपनी पराकाष्ठा पर था तभी विध्वाचल की पहाड़ियों से लेकर दक्षिणी और पश्चिमी घाट तक के भीलों ने भी विद्रोह प्रारम्भ कर दिया अन्य आदिवासियों की तरह ही भील भी खेती से ही अपनी भूमिका चलाते थे। वह अपनी जमीन के मालिक भी थे तथा किसी भी राजा को टैक्स नहीं देते थे इसके अलावा वह आस-पास के धनी जमीदारों को समय-समय पर लूट भी लिया करते थे।  इसी समय जब बाजीराव द्वितीय पेशवा बने तो जसवन्त राव होल्कर ने विद्रोह किया जिसे मराठा सेना ने आकर कुचल दिया तथा भीलों की बस्तियों को उजाड़ दिया तथा इसी समय अरब के सूदखोरों ने भी भीलों को तबाह कर दिया और पिण्डारियों ने तो 1816 ई0 में भीलों को इतना सताया कि वह बर्बाद हो गये। पेशवा की सेना ने उनकी खेती बाड़ी सभी उजाड़ दी। दो साल तक भय के मारे भीलों ने खेती नहीं की परिणाम भंयकर अकाल जैसा हो गया इन सबके अत्याचारों ने भीलों को विद्रोही बना दिया। इतनी परेशानियों के बाद भी भीलों ने एक साथ हथियार नहीं उठाये बल्कि पहले तो वह अपनी जान बचाकर पहाड़ियों में चले गये लेकिन वहां भी सामन्तो सरदारों ने उन्हें चैन से नहीं रहनेे दिया तो मजबूर होकर उन्हें विद्रोह करना ही पड़ा खान देश की स्थिति जब यह चल रही थी तभी अंग्रेजों का अधिकार खान देश पर हो गया जिससे भील और भी अधिक भयभीत हो गये भीलों को जब अपने ही लोगोें ने इतना सताया तो वह विदेशियों पर कैसे इतना विश्वास करते। अतः इन ‘‘शासकों’’ पर भीलों ने विद्रोह कर दिया। ग्राहम ने लिखा- भूतपूर्व देशाी सरदारों को बराबर वादा खिलाफी से क्रुद्ध और अपने परिवारों तथा नाते-रिश्तेदारों के कत्लेआम से बर्बर बन जाने वाले भील आमतौर पर विदेशियों की नई सरकार को संदेह की दृष्टि से देखते थे और व्यवस्था तथा नियन्त्रण के बन्धन में बंधने को पहले से कही कम इच्छुक थे। (8) ग्राहम ने स्वंय स्वीकार किया है कि किसी भी साम्राज्यीं की तरह अंग्रेजों की गुलामी भी ‘‘व्यवस्था तथा नियंत्रण का एक बंधन है’’। अतः उसके अलावा ग्राहम ने सामंतों अथवा राजाओं को बराबर झूठ और दगा बाजी का भी जिक्र किया जिसकी वजह से आदिवासी भील अंग्रेज शासकों को भी संदेह की दृष्टि से देखते थे और किसी भी कीमत पर उनकी अधीनता स्वीकार नहीं करना चाहते थे, तथा उन्होंने यही रास्ता उत्तम समझा कि अंग्रेजों को सत्ता में जमने से पहले ही जंगलों से खदेड़ना शुरू कर दिया जाए। इसलिये इन असंतुष्ट भीलों में उत्तर में संतपुला की पहाड़ियों को अपना अड्डा बनाया और कई गुट बनाये और उनके नेता चुनेे तथा दुश्मनों से बदला लेने के लिये प्रत्येक दिशा में निकल पड़े और अपने शांति पूर्ण जीवन को युद्ध के मैदान में धकेल दिया।  खानदेेश में भीलों का पहला विद्रोह 1817ई0 में हुआ जो कि बाजीराव पेशवा के मन्त्री त्रंयवक के नेतृत्व में हुआ किन्तु पेशवा इस बात को मानने के लिए तैयर नहीं थे। त्रंयवक की प्रेरणा से भीलों ने अंग्रेजों की कोठियों तथा थानों पर लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। बम्बई प्रेसीडेन्सी के लाट एलिफिस्टन ने पेशवा बाजीराव पर दबाव डाला और मांग की कि वे त्रयंवक को अंग्रेजों के हाथ सौंप दे किन्तु पेशवा ने यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया एलीफिस्टन ने लिखा बहुत से लोगों ने त्रयंवक को देखा और उनके दो भतीजों गोड़ा जी दंगल तथा महीपा दंगल, अब विद्रोहियों के नेता है खानदेश के विद्रोहियों की संख्या लगभग 8000 है। (9) एलिफिस्टन का यह प्रमाणित विचार था कि इस विद्रोह के पीछे पेशवा बाजीराव का हाथ है। अतः यदि भीलों को अपनी तरफ मिलाकर सेना में भर्ती कर लिया जाए तो विद्रोह को दबाने में आसानी हो जायेगी। इसमें एलिफिस्टन कम्पनी सरकार का यह फायदा देख रहा था कि भील सरदारों के जरिये भीलों पर कम्पनी शासन लादा जा सकता है। कुछ भील अंग्रेजों के प्रति नरम भी पड़े तथा उन्होंने नादिरसिंह को जो कि कम्पनी, सरकार के कट्टर दुश्मन थे उल्टा सीधा समझाकर दुश्मनों के साथ गिरतार करा दिया। (10) लेकिन भीलों की इस गद्दारी में कुछ लोग ही शामिल थे बाकी लोग विद्रोही ही बन रहे और 1819 में भीलों ने चारों तरफ से विद्रोह किया। इस विद्रोह में गांव का प्रत्येक व्यक्ति विद्रोहियों की ही मदद करता चाहे वह कम्पनी का लगाया चैकीदार ही क्यों न हो। विद्रोह को दबाने का अंग्रेजों ने भरसक प्रयत्न किया फिर भी भील सरदार दशरथ के नेतृत्व में 1820 में भंयकर तूफान उठा जिसका नेतृत्व करने के लिए मशहूर पिण्डारी सरदार शेख दुल्ला ने भी साथ दिया खास बात यह थी कि जो पिण्डारी पहले भीलों पर अत्याचार करने में कसर नहीं छोडते थे वह भी अब अंग्रेजों को भगाने में भीलों का साथ दे रहे थे। इस सम्मिलित शक्ति के मुकाबले को अंग्रेजों ने मेजर मोरिन को भेजा जिसने प्रायः सौ मील लम्बे पट्टी की चैकियों पर कब्जा कर लिया तथा इतना आतंक और भय भीलों में बैठा दिया कि दक्षिण के भीलों ने आत्मसमर्पण कर दिया।  किन्तु 1822 में हिरिया के नेतृत्व में पुनः विद्रोह हुआ ऐसा मालूम पड़ता था कि कम्पनी का शासन समाप्त हो गया किन्तु 1823 ई0 कर्नल राबिन्स ने सेना लेकर विद्रोहियों का मुकाबला किया तथा विद्रोहियों को तितर-बितर कर भीलों की बस्तियों को उजाड़ना शुरू किया और अंग्रेजों ने आंतक राज्य कायम कर दिया। भीलों का कत्ल कर प्राया आग लगाकर बस्तियां नष्ट की जाने लगी और कड़ी से कड़ी सजाऐं दी गयी। इसके बाद 1824 में फिर हालात बिगड़े त्रियंवक के भतीजे गौड़ा जी दगलिया ने सतारा के राजा के नाम पर बागलाना के भीलों के विद्रोह के लिए और मराठा साम्राज्य की फिर से स्थापना में मदद के लिए आवाह्न किया।  इस विद्रोह का लेटिनेट आउटराम तथा कैप्टन रिग्बी ओवान्स ने साम, दाम, दण्ड, भेद से विद्रोह को शांत करने में सफलता प्राप्त कर ली वाद में बहुत से विद्रोहियों को माफ किया गया तथा उन्हें शान्ति के साथ खेती की इजाजत दे दी गयी तथा भीलों की सेना बनाई गयी तथा जमीन का बन्दोबस्त किया गया लेकिन फिर भी भील शान्त नहीं हुये लैटिनेंट आउट राम ने भीलों केा मिलाने का सबसे ज्यादा कार्य किया कई-कई दिनों तक वहां रहता और समझाता कि कम्पनी सरकार भीलों की मदद को आई हैं। आउट राम ने कम्पनी सरकार द्वारा भीलों को बीज तथ्य बैल भी उपलब्ध कराये फिर भी 1826 ई में दांग सरदारों और लोहारा के भीलों ने अंग्रजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया खून खराबा के बाद भी कम्पनी उनका दमन न कर सकी यहां देश मुखों ने उनकी मदद की। आउट राम द्वारा स्थापित भील सेना ने मोर्चा लेना शुरू किया और कंाटे से कांटा निकालने की प्रक्रिया शुरू हुई भील ही भील को मारने लगे अंग्रेजों की रणनीति सफल होती नजर आई। 1828 में 20 साल बाद सर्वत्र शांति नजर आई। इसके बाद धार के राजा ने आउटराम की मदद मांगी आउटराम ने वही पुरानी पद्यति अपनाई तथा धैर्य से उसने मित्रता कर ली किन्तु भीलों का अंत फिर भी नहीं हुआ और वह 1846, 1852 तथा 1857 में लगातार विद्रोह करते हुए बेशक उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा किन्तु वह साम्राज्यिों से लोहा लेते रहे। अवश्य ही वे बुरी तरह दवा दिये गये।
सन्दर्भ:-1. सिंह अयोध्याः भारत का मुक्ति संग्राम भाग 1 पृष्ठ 22 ताना वर्तमान वोटानिकल गार्डेन के पास था उसका पूरा नाम थाना मकवा था। 2. ओमैली, एल0एस0एस0ः हिस्ट्री आॅफ बंगाल, बिहार, एण्ड उड़ीसा, अण्डर ब्रिटिश रूल 1925 का संस्करण।3. पाल, त्रैलोक्य नाथः मोदिनी पुरेर इतिहास खण्ड 3 पृष्ठ 404. पाल त्रैलोक्य नाथः मोदिनी पुरेर इतिहास खण्ड 3 पृष्ठ 415. वसु, योगेश चन्द्रः मोदिनी पुरे इतिहास खण्ड 1 पृष्ठ 2356. सिमिथ लैटीनैटः के नाम वीर भूमि के कलक्टर का 10 जनवरी 1789 का पत्र7. हंटर डवल्यू-डवल्यूः एनाल्स आॅफ रूरल बंगाल पृष्ठ 478. हंटर डवल्यू-डवल्यूः एनाल्स आॅफ रूरल बंगाल पृष्ठ 489. बंगाल डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, सिंह भूमि सराय केला एण्ड खरसवान कलकत्ता 1912 पृष्ठ 2810. बंगाल डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, सिंह भूमि सराय केला एण्ड खरसवान कलकत्ता 1912 पृष्ठ 2811. बंगाल डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, सिंह भूमि सराय केला एण्ड खरसवान कलकत्ता 1912 पृष्ठ 3012. जे0सी0 प्रइासः चुआर रिबेलियन, से उद्धृत पृष्ठ 113. जे0सी0 प्रइासः चुआर रिबेलियन, से उद्धृत पृष्ठ 2

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