ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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मेदिनीपुर के आदिवासी विद्रोह

-डाॅ0 रानी देवी

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1760 ई0 में मीर कासिम से वर्तमान और चटगांव के साथ ही मेदिनीपुर जिले को भी अपने अधिकार में ले लिया। इन अंग्रेज सौदागरों ने अपने शोषण और उत्पीड़न के चंगुल में इस जिले को भी जकड़ लिया जिससे भारतीयों की स्थिति दयनीय होने लगी लेकिन यहां के किसानों ने इसका डटकर मुकाबला किया आदिवासियों ने तो अंग्रेजों से ऐसा संघर्ष चलाया कि राज्य स्थापित करना असंभव कर दिया अतः हम यहां पर मेदिनीपुर के विद्रोह पर चर्चा करते हैं। जिसमें आदिवासियों के साथ कुछ जंमीदारों ने भी किसानों और आदिवासियों का साथ दिया और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1760 ई0 में मीर कासिम से वर्तमान और चटगांव के साथ ही मेदिनीपुर जिले को भी अपने अधिकार में ले लिया। इन अंग्रेज सौदागरों ने अपने शोषण और उत्पीड़न के चंगुल में इस जिले को भी जकड़ लिया जिससे भारतीयों की स्थिति दयनीय होने लगी लेकिन यहां के किसानों ने इसका डटकर मुकाबला किया आदिवासियों ने तो अंग्रेजों से ऐसा संघर्ष चलाया कि राज्य स्थापित करना असंभव कर दिया अतः हम यहां पर मेदिनीपुर के विद्रोह पर चर्चा करते हैं। जिसमें आदिवासियों के साथ कुछ जंमीदारों ने भी किसानों और आदिवासियों का साथ दिया और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया।  मेदिनीपुर में अनेक जातियों के आदिवासी रहते थे जिन्होंने अपने शोषक कर्ता देशी जंमीदारों के विरोध में अनेक बार विद्रोह किये थे।  1696-97 ई0 में मेदिनीपुर जिले के चितवा वरदा परगने के जंमीदार शोभा सिंह और उड़ीसा के पठान सरदार रहीम खां के नेतृत्व में मुगल शासक और वर्तमान के राजा के शोषण के खिलाफ विद्रोह हुआ था। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने किसानों का शोषण इन्हीं जंमीदारों के माध्यम से किया था। यहीं से बंगाल के किसानों और अंग्रेज सौदागरों के बीच संघर्ष हुआ यह आदिवासी युद्ध करते-करते राजमहल, कासिम बाजार, मुर्सिदाबाद, मापदेह, और हुगली पर अधिकार करते हुये कलकत्ता तक पहंुच गये थे (इसके विपरीत स्थिति तान्ना के मुगल दुर्ग को उन्होंने घेर लिया था) (उस वक्त अंग्रेज और पुर्तगाली सौदागरों ने अपने जंगी जहाज और सैनिक मुगल शासक की सहायता को भेजे और इस सहायता के लिये मुगलों से अंग्रेजों को पुरूस्कार भी मिले थे तथा मुगलों ने अंग्रेज सौैदागरों के हाथ कलकत्ता सूतानटी और गोविन्द पुरी बेच दिया। (2) यही आज कलकत्ता कहलाता है।  यहीं से आदिवासी विद्रोही बन गये यह अब तक स्वतन्त्र थे झुम व पड़ विधि से यह जंगलों में खेती करते थे। किन्तु अंग्रेजों ने इनसे टैक्स वसूलना शुरू कर दिया आदिवासी किसानों ने इसका विरोध किया। मेदिनीपुर जिले के बलरामपुर जंमीदारी के केदारकंुड़ परगने में घौड़ई नाम आदिवासी रहते थे आदिम ढंग से खेती कर यह अपनी जीविका चलाते थे तथा जंमीदारों के अत्याचारों के खिलाफ इन आदिवासियों ने कई बार विद्रोह किया। (3)धोड़ई प्रत्येक वर्ष कार्तिक की अमावस्या को अपने सरदार के घर इकट्ठे होकर सरदार को कर देते थे किन्तु उसी क्षेत्र के जंमीदार शत्रुधन चैधरी का पुत्र नरसिंह चैधरी ऐसे ही एक दिन सशस्त्र सैनिकों के साथ आया और आक्रमण कर दिया जिसमें 700/- धोड़ई मारे गये और जहां शव रखे गये तथा जहां उनके सिर काटकर रखे गये उस जगह को मुण्डमारी तथा जहां धड रखे गये उस जगह को गर्दनमारी कहा गया। (4) उसी सम में मेदिनीपुर के जंगलमहाल में खैरा और माझी नामक आदिवासी रहते थे वह भी पुराने ढंग की खेती कर जीवन यापन करते थे। जंमीदार के अत्याचार से वह जमीन के अन्दर घर बना कर रहते थे उनके सरदारों के अलग-अलग अड़्डे होते थे। मुकाबला करने के लिए उनके पास तीर धनुष थे बंगाल में जब अंग्रेज राज्य हुआ अंग्रेजों ने इन्हें भी अपने कब्जे में करने का प्रयन्त किया परन्तु इन आदिवासियों ने अंग्रेजों के वफादार सेवक जंमीदार व अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया तथा बहुत दिनों तक अंग्रेजों से लोहा लेते रहे। (5) विचारणाीय बात यह थी कि आदिवासियों का जंमीदार सदियों से शोषण कर रहा था फिर भी इस विद्रोह में इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंमीदारों का ही साथ दिया और बंगाल में जब अंग्रेजों का राज्य हुआ तो खैरा और माझी किसानों ने अपने आदिवासी समुदाय को एकत्र कर स्थानीय जंमीदारों और अंग्रेज शासकों से बहुत दिनों तक लोहा लिया। उनके पास बन्दूकें नहीं थी फिर भी वह देशी हथियारों से ही अपनी भूमि की रक्षा करते रहे और यदि इन्हें स्थानीय जंमीदार के साथ मिलकर एक युद्ध करने का मौका मिला तो इन्होंने उसमें भी अपनी वीरता का प्रदर्शन किया तथा अंग्रेजों की वर्छी भाला तथा धनुष बाण से ही हैरान कर दिया। मेदिनीपुर में पहाड़िया चोआड़ तथा खौड़ और गौड़ आदिवासी विद्रोह हुय जो कि लगातार लगभग 100 वर्षाें तक चलते रहे किन्तु इनके पास हथियारों की कमी थी जो कि मुख्य कारण था उसकी वजह से अन्ततः अंग्रेजों के      अधीन आना ही पड़ा यहां पर हम खौड विद्रोह की चर्चा करेंगे कि किस तरह अंग्रेजों ने इन्हंे पहाड़ी तथा लूटेरे कहकर बदनाम किया और फिर उनमें आपस में फूट डालकर कैसे सफल हो गये।
खौड़ विद्रोह उड़ीासा के 800 वर्ग मील क्षेत्र फल को खौड माल अंचल कहा जाता है। अंग्रेजों के अनुसार खौड़ जाति में प्रचलित नर बलि तथा कन्या हत्या को बन्द कराने के प्रयास से यह विचलित हुये और उन्होंने विद्रोह किया था किन्तु कुछ इतिहासकारों तथा अंग्रेजों के द्वारा पेश किये गये तथयों से यह स्पष्ट हो गया है कि विद्रोह का मूल कारण खौड़ों का स्वतन्त्रता प्रेम था वह अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं करना चाहते थे अतः इन आदिवासियों ने अंग्रेज साम्राज्यिों के खिलाफ लड़ने में योगदान दिया और कई वर्ष तक दुश्मनों के लिए सिर दर्द बने रहे। खौड़ों के अन्दर प्रचलित नर बलि को मेरिया बलि कहते थे और जिन मनुष्यों की बलि दी जाती थी वे मेरिया कहलाते थे मेरिया खौड़ या ब्राह्मण को छोड़कर किसी भी जाति का हो सकता था। (6) जिस प्रकार बलि के बकरे को खूब खिलाया पिलाया जाता है उसी प्रकार खौड़ लोग मेरिया को खूब खिला-पिला कर पालते थे। सभी उसकी सेवा करते थे तथा उसमें देवी शाक्ति भी समझते थे उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देते थे तथा उसे बालों को नहीं काटा जाता था उसे खरीद कर लाते थे तथा कई वर्षाें तक अपने पास रखकर पाला जाता था युवा होने पर उसे मेरिया लड़की से शादी करने की इजाजत भी दे दी जाती थी किन्तु उनके बच्चे भी मेरिया ही कहे जाते थे तथा उन्हें भी मेरिया बलि को ही पाला जाता था।  खौड़ों को विश्वास था कि इस बलि से फसल अच्छी होती है तथा फसल में कीड़े नहीं लगते यह उनका पृथ्वी की पूजा करने का ढंग था बलि के दिन बलि स्थान पर मेरिया के चारों तरफ खौड़ नाचते तथा पृथ्वी की तरफ सम्बोधित करते हुये कहते ‘‘है ईश्वर यह बलि हम तुम्हे अर्पित कर रहे हैं, तुम हमें अच्छी फसल ऋतुंएो और स्वास्थ्य दो’’। (7) मेरिया के प्रत्येक अंग को खौड़ पवित्र मानते थे सर और आंतो को छोड़कर मेरिया के किसी की भी अंग को काटकर वह अपने प्रिय खेत में गाड़ लेते थे देखते ही देखते मेरिया के शरीर पर मांस खत्म हो जाता था फिर उसे भेड़ के साथ जला देते थे। उसके आंसू बाल, थूक, राख सभी पवित्र माने जाते थे उन्हें वह अपने खेतों में छिड़ते थे।  खौड़ माल क्षेत्र बोद और दासपल्ला रियासतों के अधीन था। दिव्यूट्री महाल के सुपरिन्डटेन्ट रिकेट्स ने 1837 ई0 में रिपोर्ट दी थी की खौड़ों पर उसका कोई अधिकार नहीं है तथा यह भी सुझाव दिया कि प्रचिलत नर बलि तथा कन्या हत्या किस तरह बन्द की जा सकती है। बोद और दासपल्ला के राजाओं के जरिया कुछ मेरिया खौड परिवारों के चंगुल से बचाये गये। 1843 के अन्त में 8वीं देशी पल्टन का लैटीनेंट हिक्स खुर्दा और बालासोर तथा पाइक कम्पनियों का सेनााध्यक्ष नर बलि दबाने के लिए रिकेट्स के उत्तराधिकारी मिल्स का सहायक नियुक्त किया गया। (8) अंग्रेजों ने खौड़ों को समाप्त करने के लिए मेरिया एजेंसी स्थापित की। खौड़ों के केन्द्र बोद को सीधे मेजर मैकफर्सन को सौंपा गया। उसने कार्यभार संभालते  ही 1846 ई0 में बोद गया के सरदारों को सूचित किया कि सरकार नर बलि तथा कन्या हत्या बन्द करना चाहती है। उसकी बातों से प्रभावित होकर 170 मेरिया खौंड़ोंसे लेकर मैकफर्सन को सौंप दिये। इस साल खौंड़ों ने हुक्म शांति से मान लिया। लेकिन बाद में खौंड़ों ने विचार किया कि इस तरह तो अंग्रेज हमें अधीन कर लेगें जमीन छीनकर टैक्स लादने शुरू कर देंगें यह विचार कर एकत्रित है। वीसीपाड़ा में मैकफर्सन के शिविर पर विद्रोह कर दिया और मांग की कि मेरिया उन्हें वापस दिये जाऐ हम उनकी बलि नहीं देगें। किन्तु कम्पनी सरकार को यह घुटने टेकने जैसा था अतः उसने सारे मेरिया बोद के राजा को सौंप दिये तथा खुद भी बोद की सीमा पार कर गुमसर चला गया वोद के खौंड़ों ने यहां इस पर दो बार हमला किया तथा गुमसुर के खौड़ों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को आमंत्रित किया। (9) अंग्रेजों ने खौंडों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही की परन्तु खौंडो ने 1846 ई0 में चक्रवसाई के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया यह विद्रोह 3 साल तक जारी रहा। इसका वर्णन करते हुए ट्राटर ने लिखा है- (गांव जला दिये गये गढ़ों पर कब्जा कर लिया गया सेना ने जंगलों को छान डाला, लेकिन पराजय से हतोत्साहित न होकर खौड अपनी गहरी पहाड़ी में मांदो में मोर्चा लगाये रहे। (10) ब्रिगेडियर डायस के विद्रोह को दमन की जिम्मेदारी दी गयी वह तीन साल की कठिन लड़़ाई के बाद विद्रोह का दमन करने में सफल हुआ निर्वासित नेत साम विसाई को वापस बुलाया गया तथा उन्हें फिर खौंड़ों का राजा बनाया गया तब कहीं जाकर खौड़ शांत हुये परन्तु चक्रवसाई ने संघर्ष जारी रखा। (11)इसके बाद 1855 ई0 में खौंड़ों ने फिर विद्रोह किया और इसके संगठक भी  वहीं चक्रवसाई थे। लगातार संघर्ष के बाद पोलिटिकल ऐजेन्ट लैटीनेंट मैक्डोनाल्ड ने इसे जल्दी ही दवा दिया तथा 15 फरवरी 1855 की घोषणा के जरिये अंग्रेजों ने ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।  इस तरह अंग्रेजों ने नर बलि तथा कन्या हत्या को मुद्दा बनाकर खौंडों केा जनता की निगाह में गिराकर उन पर तरह-तरह के जुर्म लगाये तथा अन्य आदि- वासियों, की तरह उन्हें भी मजबूर कर उनकी भूमि को हड़प कर उन पर अधिकार कर लिया।
सन्दर्भ1. सिंह अयोध्याः भारत का मुक्ति संग्राम भाग 1 पृष्ठ 22 ताना वर्तमान वोटानिकल गार्डेन के पास था उसका पूरा नाम थाना मकवा था। 2. ओमैली, एल0एस0एस0ः हिस्ट्री आॅफ बंगाल, बिहार, एण्ड उड़ीसा, अण्डर ब्रिटिश रूल 1925 का संस्करण।3. पाल, त्रैलोक्य नाथः मोदिनी पुरेर इतिहास खण्ड 3 पृष्ठ 404. पाल त्रैलोक्य नाथः मोदिनी पुरेर इतिहास खण्ड 3 पृष्ठ 415. वसु, योगेश चन्द्रः मोदिनी पुरेर इतिहास खण्ड 1 पृष्ठ 2356. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्सः अंागुल प्र0 257. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्सः अंागुल प्र0 238. चैधरी शशि भूशणः सिविल डिस्टवेंस डयूरिंग ब्रिटिश रूल इन इंडिया का प्रथम संस्करण (1765-1857) प्र0 1119. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्सः अंागुल प्र0 2910. लियोनेल ट्राटरः हिस्ट्री आॅफ इण्डिया खण्ड 1 प्र0 77-79, 102-511. चैधरी शशि भूषण सिंहः सिविल डिस्टवेंस डयूरिंग ब्रिटिश रूल इन इंडिया का प्रथम संस्करण (1765-1857)12. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्सः पृष्ठ 32 कलकत्ता 1912

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