ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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’सार्क SAARC के परिप्रेक्ष में चीन की नीति एवं भारत -एक विश्लेषण’

हरेन्द्र विश्वकर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर(राजनीति विज्ञान)
राजकीय महाविद्यालय पचवस बस्तीं।

’सार्क  के परिप्रेक्ष में चीन की नीति एवं भारत -एक विश्लेषण’ की तरह क्षेत्रीय सहयोग की एक आदर्श संस्थान बनने में नाकाम रहा है इसका कारण है उसके उद्देश्यों एवं उपलब्धियों में भारी अन्तर। लेकिन इस क्षेत्रीय मंडल में गैर दक्षिण एशियाई देशों की बढ़ती दिलचस्पी हैरत में डालने वाली है। सार्क में अंतर्राष्ट्रीय इस शोधपत्र में हम चीन की विदेशनीति में दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय एकीकरण की भूमिका में बने सार्क ;ै।।त्ब्द्ध संगठन के स्थान को विश्लेषित करने का प्रयास करेंगे। चीन, सार्क संगठन का पर्यवेक्षक सदस्य है एवं पूर्ण सदस्य बनने हेतु निरन्तर प्रयासरत है। चीन ने अपने बहुपक्षीय विदेशनीति को आधार बना कर क्षेत्रीय रणनीतिक हितों को सुरक्षित करने हेतु निरन्तर प्रयासरत है।
दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय संरचना में एक संस्थान के तौर पर सार्क, आसियान में दलचस्पी बढ़ी है। यह पर्यवेक्षक बनने की देशों की दिलचस्पी में, और जो पर्यवेक्षक है उनकी वार्ता एवं पूर्ण सदस्य बनने की दिलचस्पी में दिखाई पड़ती है। सार्क के इस विरोधाभास के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण एशिया के भू-राजनैतिक परिश्य के बढ़ते महत्व को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। नतीजतन महत्वपूर्ण प्रभाव के इस क्षेत्र को नजरअंदाज करना अब और व्यावहारिक नहीं दिखता है।
इस स्तर पर ध्यान देने की बात, जो प्रत्यक्ष होती जा रही है वह है भारत के वर्चस्व वाले दक्षिण एशियाई क्षेत्र में चीन के बढ़ते कदम, जिसके द्वारा 2005 में बहुत सोच समझ समझकर प्रदान किये गये अपने पर्यवेक्षक के दर्जे के साथ, चीन अब सार्क के पूर्ण सदस्य बनने की महत्वाकांक्षा रखता है। यह क्षेत्रीय शांति को बढ़ावा देने में रचनात्मक भूमिका निभाने के क्रम में सार्क के साथ ‘‘अधिक व्यावहारिक और कारगर सहयोग‘‘ की बुनियाद डालने की चीन की तेजी से बढ़ती दिलचस्पी में झलकता है,क्योंकि उसने संवाद भागीदार का दर्जा पाने की पूरी कोशिश की थी। सार्क के संगठन में इन सर्वांगीण बदलावो के साथ, दो अलग-अलग स्थ्तिियों का अनुमान लगाया जा सकता है एक ओर,नये सदस्यों एंव पर्यवेक्षकों के साथ विस्तारशील सार्क अधिक से अधिक आर्थिक एकीकरण की दिशा में सहयोग दे सकता है। वहीं दूसरी ओर, इस क्षेत्र के विभिन्न उद्देश्यों वाले नये सदस्यों के प्रवेश के साथ यह शक्ति प्रदर्शन की नई चालों की तरफ ले जा सकता है। इसलिए इन दो उद्देश्यों में चीन किस पाली में है, यह विश्लेषण का बिन्दु है। सर्वप्रथम हम यह देखेंगे कि सार्क संगठन की ऐतिहासिक पृष्ठाभूमि क्या है एवं इसकी संरचना एवं उद्देश्यों पर ध्यान केन्द्रित किया जाना है।
सार्क संगठनः-सार्क का पूरा नाम है ‘‘साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रिजनल को-ऑपरेशन (The South Asion Association For Regional Co-opration) अर्थात् ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ (दक्षेश) ।ं 7, 8 दिसम्बर 1985 को ढाका में दक्षिण एशिया के 7 देशों के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन हुआ तथा ‘सार्क‘ की स्थापना हुई। ये देश हैं- भारत, पाकिस्तान,बाग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव। यह दक्षिण एशिया के 7 पड़ोसी देशों की विश्व राजनीति में क्षेत्रीय सहयोग की पहली शुरुआत थी।1
सार्क विश्व के 3ः भाग को घेरता है, विश्व की 21ः जनसंख्या का एवं विश्व की अर्थव्यवस्था 3.8ः (2.9 ट्रिलियन न्ैक्) भाग रखता है ( 2015 के आंकड़ोें के अनुसार)।2 यह विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला क्षेत्र है। यद्यपि यह क्षेत्र प्राकृतिक साधनों, जनशक्ति तथा प्रतिभा से भरपूर है तथापि इन देशों की जनसंख्या गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण की समस्या से पीड़ित है।
चीन का दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन में रुचि का आधार:-
वास्तव में यह एक शोध का विषय है कि इतने असफल कहे जाने वाले संगठन में चीन सदस्यता हेतु क्यों लालायित है। मलिक के अनुसार “दक्षिण एशिया चीन की एशिया नीति में महत्व के आधार पर उत्तर पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र के बाद तीसरे स्थान पर आता है।”3 यद्यपि चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका के तुलना में दक्षिण एशिया में बाद में प्रवेश करता है लेकिन इसे तेजी से अपने प्रभाव में लाता है। यह क्षेत्र तेजी से चीन की विदेश नीति योजना में महत्वपूर्ण हो जाता है क्योकि यह तमाम तरीकों से चीन के स्थायित्व एवं विकास के साथ जुड़ा हुआ है। आज दक्षिण एशिया चीन के इर्द-गिर्द सबसे ज्यादा परिवर्तनशील क्षेत्रों में है इसके साथ ही यह अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है चीन के उदय के लिए भी। चीन की सीमाएं दक्षिण एशिया के भूटान, भारत, नेपाल, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान देशो के साथ साझा होती है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र एवं कुछ दक्षिण एशिया के देशों में राजनीतिक अस्थिरता चीन के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न कर सकती हैं।
इस तरह से दक्षिण एशिया में चीन के निम्नलिखित हित विदेशनीति लक्ष्यों में सार्क को इतना महत्वपूर्ण स्थान देते हैं-
1. दक्षिण एशिया चीन के दक्षिण पश्चिम सीमांत क्षेत्र तिब्बत ओर सिनजियांग के स्थायित्व के लिए अतिमहत्वपूर्ण है। भौगोलिक तौर पर तिब्बत और सिनजियांग क्षेत्र की सीमाएं दक्षिण एशिया से मिलती है। यदि राजनीतिक और सुरक्षा के स्तर पर दक्षिण एशिया में अस्थायित्व होता है तो इसका बुरा प्रभाव (Spil over effect) चीन को भी झेलना पडे़गा। बीजिंग की मुख्य चिंता का कारण है- पाकिस्तान अफगानिस्तान के जनजातीय क्षेत्रों में East Turtistan Islamic movement (ETIM) एवं चीज विरोधी अन्य विद्रोही समूह शरण लिए हुए हैं।4
चीन को हिंद महासागर से गुजरने वाले दक्षिण एशिया के आस-पास ऊर्जा-व्यापार एवं संचार के समुद्री मार्ग को सुरक्षित करना है। चीन का अधिकांश आयातित तेल अफ्रीका एवं खाड़ी क्षेत्र से, हिंद महासागर होकर आता है। इसके अतिरिक्त इसका व्यापार यूरोप, मध्यपूर्ण एवं अफ्रीका की तरफ बढ़ रहा है साथ ही हिंद महासागर क्षेत्र से गुजरने वाली जहाजों की सुरक्षा में इसकी हिस्सेदारी बढ़ जाती है। चीन के तेजी से बढ़ते व्यापार जुड़ाव के कारण, यह पूरी तरह से अपने व्यापार एवं ऊर्जा मार्गों की रक्षा एवं सुरक्षा पर निर्भर हो गया है।5 इसीलिए दक्षिण एशिया में सार्क  सदस्यों के साथ अच्छे सम्बन्धों को बनाये रखना चीनी विदेशनीति का प्रमुख लक्ष्य बन गया है।
“ks’kax (Sheshang) ने लिखा है कि ‘‘चीनी खनन कम्पिनियाँ पाकिस्तान (ताँबा एवं लोहा) आफगानिस्तान (ताँबा) एवं म्यांमार (तेल एवं गैस) मे आधिकारिक निवेश कर रही हैं। चीन बांग्लादेश में भी गैस क्षेत्र की तलाश में लगा हुआ है।6 इन क्षेत्रों में चीन के निवेशकों एवं कंपिनियों की नजर जमी हुई है। एक तथ्य यह भी है कि चीन एक विनिर्माण अर्थव्यवस्था है जिसके लिए उसे कच्चे माल की बड़ी मात्रा एवं इन संसाधनों का अबाध आपूर्ति चीनी अर्थव्यवस्था के लिए अति आवश्यक है।
दक्षिण एशिया क्षेत्र के बाजार में पहुँच बनाना भी चीन का एक अतिमहत्वपूर्ण उद्देश्य है। वैसे भी यह बात चल रही है कि चीन में अतिरिक्त क्षमता उत्पादन की समस्या पैदा हो गयी है। ऐसे में चीन एवं दक्षिण एशिया के देश मुख्यतः भारत एक दूसरे से व्यापार में पूरक का कार्य कर सकते है। उदाहरण स्वरुप चीन का आर्थिक विकास अति प्रभावशाली ढंग से हुआ है इसका कारण यहाँ का वृहत निर्माण क्षेत्र-मुख्यतः इलेक्ट्रॉनिक उपकरण एवं टेक्सवाइल, जबकि भारत भारत के सन्दर्भ मंे प्ज् उद्योग एवं फार्मा क्षेत्र महत्वपूर्ण है जो इनकी अर्थव्यवस्था को विकसित करने में सक्षम है। यदि दोनों देश आपस में सहयोग करते है तो ये अपने वृहत,सस्ते एवं कौशलयुक्त श्रम तकनीकि उन्नति का पूरा लाभ ले सकते हैं। ये दोनों देश अपना खुद का श्ब्भ्प्छक्प्।श् ब्राण्ड बना सकते है।7 हाँलाकि डोकलाम विवाद के बाद दोनों में दूरी बढ़ी है। सन् 2008 से चीन ने दक्षिण एशिया के सार्क देशों के साथ अनेक मुत व्यापार समझौता एवं मुत क्षेत्र ;थ्ज्।द्ध की पहल कर चुका है।
दक्षिण एषिया,संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चीन को घेरने की रणनीति को बाधित करने के लिए भी अतिमहत्वपूर्ण है। दक्षिण एशिया क्षेत्र में शीतयुद्धोत्तर काल में आर्थिक क्षेत्रवाद का उदय, साथ-ही-साथ भूमण्डलीकरण के प्रभाव में सार्क देश अधिकतम आर्थिक जड़ाव के द्वारा आगे बढ़ सकते हैं अपने विवादित मुद्दों को छोड़ पायें।
दक्षिण एशिया चीन के अति महत्वकांक्षी पहल, बेल्ट वन रोड ;व्ठव्त्द्ध परियोजना, जिसे ठत्प् भी कहते है, के महत्वपूर्ण घटक 21वीं शदी का मैरी टाइम सिल्क रोड ;डैत्द्ध के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। इस पहल के तहत चीन एक रेशम मार्ग बनाना चाहता है जिसके द्वारा को प्राचीन रेशम मार्ग का पुनरुत्थान होगा। यह चीन को केन्द्रीय एशिया, यूरोप एवं बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार ;ठब्प्डद्ध आर्थिक गलियारे से जोड़गा। वस्तुतः डैत् यह लक्ष्य है जिससे वह दक्षिण एशिया क्षेत्र के अनेक बंदरगाह को जोड़गा जिससे व्यापार संवद्धन में तेजी आयेगी।8 इस संदर्भ में बांग्लादेश, श्रीलंका एवं मालदीव पहले ही हामी भर चुके हैं।
इस तरह से समय परिप्रेक्ष्य में चीन की दक्षिण एशिया एवं सार्क नीति का लक्ष्य, चीन के उदय को सातत्य प्रदान करना है और चीन तभी समृद्धि की और प्रगति एवं स्थायित्व परिलक्षित कर सकता है जब उसका पड़ोस भी समृद्ध और स्थायी हो।9 सिनजियांग द्वारा इस संदर्भ में कहा गया है ‘‘शांतिपूर्ण उदय, स्थिर और संवृद्ध दक्षिण एशिया चीन के हितों की पुष्टि करता है और चीन परस्पर लाभकारी विकास एवं समान संवृद्धि प्राप्त करने के लिए दक्षिण एशियाई देशों के साथ अपनी विकास रणनीतियों को संरेखित करने के लिए तैयार है।10 वर्तमान समय में चीन इस क्षेत्र मंे प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है, भारत के प्रभाव को सीमित करना, इस क्षेत्र में चीन के हितों को नुकसान पहुँचाने वाले न्ै। और जापान जैसी संभावित शत्रुतापूर्ण शक्तियों की क्षमता को कम करना एवं बहुसंस्कृतिवाद को बढ़ाना, आदि गतिविधियों को संचालित कर रहा है। इन विविध अन्वेषणाओं को बीच सार्क चीन के उदय को बनाये रखने में एक महत्वपूर्ण मंच हो गया है।
दक्षिण एशिया तेल से धनी मध्यपूर्ण एवं दक्षिण पूर्ण एशिया के मध्य में स्थित है। यह सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से चीन के लिए अतिमहत्वपूर्ण है। दक्षिण एशिया के कुछ देशों की सीमाएं भी चीन के साथ लगती हैं, यह चीन को दक्षिण एशिया से होकर हिन्द महासागर के अंतर्राष्ट्रीय समुद्री लेन पर पहुँचने का वैकल्पिक मार्ग प्रदान करती हैं जो कि चीन के सुरक्षित व्यापार को गति प्रदान करने के लिए खासा महत्वपूर्ण है।11
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई भी कार्यवाही महान उददेश्य की तरफ इशारा करती है। यह उपरोक्त तथ्यों को देखने से स्पष्ट हो जाता है। दक्षिण एशिया में चीन के हितों को विश्लेषित करने के बाद यह समझने में कोई कठिनाई नहीं कि चीन क्यों सार्क का पूर्ण सदस्य बनना चाहता है। लम्बे समय से चीन ने सार्क में पूर्ण रुपेण भागीदारी की इच्छा जाहिर की है पर अभी तक पूरी तरह से नहीं जुड़ पाया है। दक्षिण एशिया का सर्वाधिक शक्तिशली देश भारत इसके प्रति उत्साही नहीं रहा है। भारत चीन को पर्यवेक्षक का दर्जा देने को भी इस कारण तैयार हुआ क्योंकि दक्षिण एशिया के कुछ देश जैसे- श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं नेपाल का बहुत दबाब था। दक्षिण एशिया के छोटे देशों द्वारा चीनी कार्ड खेलना, इस क्षेत्र और सार्क पर भारत के विशाल प्रभाव को संतुलित करने में मदद करता है। जेटली के शब्दों में,‘‘भारत के कई छोटे पड़ोसियों द्वारा चीन को भारत की प्रभावशाली शक्ति के प्रभावी प्रतिद्वंद्वी के रुप में एशिया देखा जाता है।‘‘12 सार्क के ज्यादातर सदस्य चीन को दक्षिण एषिया क्षेत्र में अधिक भागीदारी प्रदान करने के इच्छुक हैं। चीन का विदेश मंत्रालय भी अपने काबिल कूटनीतिज्ञों को सार्क सम्मेना में सहभागिता हेतु भेजता रहता है। ये कूटनीतिज्ञ चीन के क्षेत्रीय लक्ष्यों को तलाशने में सार्क जैसे मंचों से लाभ उठाने का प्रयास करते हैं।13 ये लक्ष्य धीरे-धीरे इस क्षेत्र में भारत के प्रभाव को कम कर सकते हैं।

चीन की सार्क का पूर्ण सदस्यता के विरोध में तर्कः-
चीन के सार्क के साथ सम्बन्ध को विश्लेशित करने के क्रम कुछ तर्क हैं जो मानते हैं कि यदि चीन को सार्क में पूर्ण सदस्यता प्राप्त हुई तो यह संगठन के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा। तर्क इस प्रकार से है-
कुछ विद्वानों को मानना है कि सार्क पहले से ही भारत पाकिस्तान के विवादों के बीच फँसा हुआ है। चीन का सार्क में सम्मिलित चीन-भारत के सम्बन्धों की ंछाया सार्क को बुरी तरह से प्रभावित करेगी। सार्क पहले से ही एक विवादित मंच है और चीन का इसमें होना और विवाद पैदा करेगा।चीन एक अलोकतांत्रिक देश है, जो कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा मानवाधिकार हनन के लिए सर-2 आलोचना का पात्र बन चुका है। उदाहरण स्वरुप सन् 1989 के त्यानमेन चौक की घटना हो साथ ही हाल ही में नस्लवादी भेदभाव पर बनी संयुक्त राष्ट्र की कमुटी ने यह कहते हुए चीन की आलोचना की कि उसने करीब 10 लाख उइगरें (मुसलमानों) को चरमपंथी केंन्द्रो और लगभग 20 लाख को विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में सामूहिक बंधक बना कर रखा है।14 वास्तव में देखा जाय तो इस तर्क में उतना दम नहीं है क्योंकि दक्षिण एशिया के देश कमजोर लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं इनमें से कुछ तो सेना के चंगुल में दिखते है जैसे- पाकिस्तान और बांग्लादेश पाकिस्तान की तत्काल में चुनी गई तहरीक-ए-इंसाफ पार्टों की सरकार के पीछे भी सेना का हाथ बताया जा रहा है।
चीन सार्क देशों के साथ नजदीकी सम्बन्ध दिखता है जो कि सार्क संगठन में इसके प्रभुत्व में वृद्धि करेगा। वास्तव में भारत के प्रभुत्व से भय खाये छोटे देष चीन का समर्थन अपने हितों को सुरक्षित रखने हेतु ही कर रहे हैं। चीन-पाकिस्तान की सदाबहार भिन्नता भारत के प्रभुत्व को संतुलित करने का काम करेगी। इसलिए भारत इसके प्रबल विरोध में है।
चीन, सार्क में बिना पूर्ण सदस्यता के भी सार्थक रुप से जुड़ा रह सकता है, उदाहरण के तौर पर के साथ चीन के अच्छे सम्बन्ध हैं जबकि अभी तक आसियान का सदस्य नहीं है। फिर भी आसियान के संदर्भ में जहाँ के बहुसंख्यक सदस्य चीन को आसियान से बाहर रखना चाहते हैं, वहीं सार्क के आधे सदस्य खुले तौर पर चीन को सदस्य बनाने की वकालत करते हैं। इसके परिणाम स्वरुप लम्बे समय तक चीन को सार्क की पूर्ण सदस्यता से नहीं रोका जा सकता है।
यह भी तर्क दिया जाता है सार्क में चीन की उपस्थिति भारत क सार्क में प्रभुत्व को सीमित की सकती है, जैसे,‘‘संघाई सहयोग संगठन ;ब्ैव्द्ध में रुस के साथ हुआ आज चीन केन्द्रीय एशिया के देशों (उजबेकिस्तान को छोड़कर) के साथ सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार देश बन चुका है एवं इसका निवेश 2012 में 45 विलियन अमेरिकी डालर पहुँच गया जो कि रुस से ज्यादा है।15
इस प्रकार चीन ने सफलतापूर्वक केन्द्रीय एशिया में रुस के प्रभाव को कम कर दिया है, यह सार्क के लिए भी चिंताजनक है। इसके साथ ही चीन निरन्तर महत्वपूर्ण मंचों पर भारत की पहुँच को सीमित करने के लिए प्रयासरत है, जैसे- ।ैम्।छए ।ैम्।छ त्म्ळप्व्छ।स् थ्व्त्ड ;।त्थ्द्ध एवं म्।ैज् ।ैप्। ैन्डडप्ज् एवं न्छैब् लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि सार्क के निर्णय तो सर्वसम्मति से लिये जाते है, तो भारत चीन के प्रवेश पर वीटो कर सकता है।
सार्क में चीन की सदस्यता से उत्पन्न भारत की चिन्ताए:-
भारत दक्षिण एशिया का सबसे ताकतवर देश है। इसी कारणवश उसे इस क्षेत्र में ‘बिग ब्रदर‘ के नाम से भी जाना जाता है। भौगोलिक, आर्थिक, सैनिक, राजनीतिक आदि क्षेत्र में दक्षिण एशिया में भारत एक सुपर पॉवर की तरह अपनी पैठ जमाए हुए इस क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित किये है।
वास्तव में देखा जाये तो भारत के प्रभुत्व वाले क्षेत्र में चीन का प्रवेश भारत के लिए महत्वपूर्ण चिंता का विषय साबित हो सकता है जिसके दक्षिण एशिया का भू-राजनीतिक एवं भू-सामरिक समीकरण चीन के पाले में जा सकता है। वास्तव में चीन भारत के लिए एक असुविधाजनक पड़ोसी एवं प्रमुख सुरक्षा चिंता का विषय बना रहा है। पिछले कई दशकों से चीन भारत चीन-विरोधी आन्दोलन की हवा दे रहा है। दक्षिण एशिया क्षेत्र के ज्यादातर हिस्सों में भारत के हितों में बाधा डाल रहा है, अरुणाचल प्रदेश एवं सिक्किम को भारत के सम्प्रभु क्षेत्र का हिस्सा होने पर प्रश्न उठाता रहा है एवं सीमा विवाद सुलझाने में पूरी निष्ठा नहीं दिखाई है। भारत-चीन के बीच 1962 का युद्ध हो चुका है एवं तत्काल में डोकलाम विवाद भी दक्षिण एशिया में भारत की चिंता को बयान करते हैं।
भारत की चिंताए इस प्रकार चीनी विदेशनीति की बढ़ती हुई रणनीति का नतीजा हैं जो उसके क्षेत्र में विकसित हो रही हैं। चीन को लेकर भारत की चिंताओं का आकलन करते हुए राजश्री जेटली तर्क देते हैं कि:‘‘भारत की भागीदारी न केवल इसमें भूमिका निभाने में है बल्कि इसे बाहरी ताकतों की मौजूदगी और हस्तक्षेप से मुक्त रखने में भी है। सबसे शक्तिशाली दक्षिण एशियाई देश के रुप के दर्जे से अवगत, चीन इस क्षेत्र में उसके अविवादित नेतृत्व को स्वीकार करने के खिलाफ रहा है। इस क्षेत्र में चीन की रणनीति भारत भारत की ताकत और प्रभाव के अतिक्रमण के विषय में भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ाने की ओर प्रवृत्त है और यह भारत की क्षेत्रीय सुरक्षा के परिदृश्य का अभिन्न अंग है।16
विशेष रुप से भारत के लिए चीन का सदाबहार मित्र पाकिस्तान चिंता का विषय बना हुआ है। चीन न केवल पाकिस्तान से सैनिक एवं परमाणु सम्बन्ध मजबूत कर रहा है अपितु पाकिस्तान में बुनियादी ढ़ँाचा क्षेत्र में महत्वपूर्ण निवेशक देश भी है।
सामरिक दृष्टि से चीन ब्च्म्ब् अपने प्रोजेक्ट के द्वारा ग्वादर बंदरगाह के माध्यम से सिल्क रोड़ इकोनोमिक बेल्ट एवं मैरीटाइम सिल्क रोड़ के बीच एक सम्पर्क स्थापित करना चाहता है। ब्च्म्ब् प्रोजेक्ट चीन को पाकिस्तान में सबसे बड़े निवेशक के रुप में स्थापित कर रहा है जिसमें पाकिस्तान की का 20ः के लगभग निवेश किया जा रहा है।17 यह गलियारा च्व्ज्ञ के गिलगिट बल्टिस्तान से होकर गुजरेगा यह भारत के लिए भू-राजनीतिक एवं भू-सामरिक के साथ आर्थिक दृष्टि से भी चिंता का विषय हैं। इस तरह से चीन पाकिस्तान के च्व्ज्ञ पर नियंत्रण एवं मांग को वैधानिकता प्रदान कर रहा है, यह भारत के लिए चिंता का विषय है। यदि चीन सार्क का स्थायी सदस्य बनता है तो इस तरह की गतिविधियों को और प्रभावी तरीके से अंजाम देगा।
इसके अतिरिक्त, चीन की नेपाल, बाग्लादेश एवं श्रीलंका के साथ गहरे होते सम्बन्ध इस बात की सम्भावना तलाशते हैं कि चीन के साथ बहुभिन्न रुपी विकास या अन्य जटिल-गुटबन्दी जैसे चीन,पाकिस्तान नेपाल, बाग्लादेश-श्रीलंका या अन्य रुपों में अस्तित्व में आ सकती है जो भारत के दक्षिण एशिया में हितों को संकट में ड़ाल सकती हैं। इस तरह से चीन का सार्क के साथ घनिष्ट होते रिश्ते सार्क में भारत के सामरिक हितों को प्रभावित करेंगे।
सन् 2014 में भारत ने, यह तर्क दिया कि सार्क के साथ चीन के गठबंधन को नये भागीदारों के साथ सम्बन्धों को सुदृढ़ करने में अपने उददेश्यों को स्पष्ट करना होगा। इसके जरीय भारत ने नई दिल्ली के वर्चस्व वाले सार्क में शामिल होने के चीन के हालिया जोरदार प्रयास को मंद कर दिया। माले में 21 फरवरी 2014 को सार्क के भीतर सुधार की जरुरत की सलमान खुर्शीद की मांग में भारत की स्थिति को देखा जा सकता है। उन्होंने कहां
‘‘सार्क को उन सहभागी देशों के साथ अपने सम्बन्धों की प्रकृति और दिशा पर अपने विचार स्पष्ट करने की

जरुरत है जिसके पास पर्यवेक्षक का दर्जा है। उन्होंने आगे कहा,‘‘ हमारे सब के साथ कुछ पर्यवेक्षक देशों ने प्रशंसनीय कार्य किये हैं, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि आगे बढ़ने से पहले हम इन सम्बन्धों के लिए स्पष्ट नीतिया और उददेश्य तथा उनकी भावी दिशा परिभाषित करे।‘‘18
दक्षिण एशिया की स्थानिक ताकत के रुप में भारत इस क्षेत्र को अपने ‘‘पास का विदेश‘‘ मानता है और वह नहीं चाहता कि बीजिंग उसके अधिकार क्षेत्र में कदम रखें। भारत के लिए सार्क में चीन के प्रति विरोध की नीति का एक प्रमुख कारण चीन की ‘‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स‘‘ रणनीति है। जो चीन भारत को सबसे ज्यादा कमजोर करती है वह है दक्षिण एशिया के सबसे बड़े उपहार-हिन्द महासागर पर चीन की निर्भीक निगाह।19 ‘मोतियों की माला‘ रणनीति के द्वारा कथित तौर पर हिन्द महासागर मंे चीन भारत को घेरने की योजना पर काम कर रहा है हाँलाकि चीन इससे इनकार करता है। सन् 2005 में यू0एस0 सलाहकारी संस्था बूज एलेन हैमिलन ;ठवव्र । ससमद भ्ंउपसजवदद्ध द्वारा ‘‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स‘‘ उपकल्पना दिया गया जिसमें यह माना गया कि चीन अपने नेवल नागरिक मेरीटाइम (समुद्री) आधार ढाँचे के निर्माण द्वारा हिन्द महासागर की परिधि में अपनी नेवल उपस्थिति को बढ़ाने का प्रयास करेगा।20 यह चीन की मुख्य भूमि से सूडान बंदरगाह तक विस्तृत होगा। इसके द्वारा दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देशों में अपनी सैनिक एवं वाणिज्यक सुविधाएं बढ़ाकर चीन भारत को सीमित करने का प्रयास करेगा जिसमें सार्क के लगभग सभी देश उसकी मदद करेंगे। वास्तव में भारतीय मीडिया द्वारा इस सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है।
इसके अतिरिक्त चीन का आर्थिक प्रभुत्व भी कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत करेगा। चीन के निर्यात के कारण उत्पन्न समस्याओं से दक्षिण एशिया क्षेत्र को जूझना पड़ सकता है। चीन के इन निर्यातों का प्रभाव घरेलू क्षेत्र के निर्माण क्षेत्र पर पड़ेगा। इसके परिणामस्वरुप कमजोर अर्थव्यवस्थाएं नीचे गिरने लगेंगी और कच्चेमाल के निर्यातकर्ता के रुप में अपने आप को परिवर्तित कर सकती हैं। जैसी स्थिति केन्द्रीय एशिया के देशों के साथ हुई। इसका असर व्यापार असंतुलन जो कि दक्षिण एशिया केे महत्वपूर्ण देश है वित्तीय वर्ष 2014-15 में 48.45 बिलियन डालर था। यह एक बड़ा असंतुलन है।चीन दक्षिण एशिया क्षेत्र में निवेश, एड ;।पकद्ध लोन आदि भी चुनौतियां उत्पन्न करेगा। उदाहरण स्वरुप श्रीलंका में, अनेक विद्वान तर्क देते हैं कि चीन द्वारा दिया गया बुनियादी ढाँचा लोन के लिए ब्याज 1.53 प्रतिशत से 6.5 प्रतिशत तक वसूला गया, जो कि विश्व बैंक ;।क्ठद्ध एवं एशियाई विकास बैंक द्वारा दिये गये लोन से कहीं महंगा है।
वहीं भारत ने भी दक्षिण एशिया में एड ;।पकद्ध की राशि बढ़ाया है। जहाँ 2017-18 में यह राशि 1779, करोड़ रुपये थी वहीं 2018-19 बढ़कर 1813 करोड़ रूपये हो गयी है। कहीं न कहीं भारत भी प्रयासरत है कि वह अपने प्रभुत्व वाले क्षेत्र में चीन के प्रवेश को अवरुद्ध कर सके लेकिन यह प्रयास और तीव्र गति से करना होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि भारत की अर्थव्यवस्था भी मजबूत स्थिति में हो।
दूसरी तरफ कुछ विश्लेशण कर्तओं का मानना है कि भारत ने अन्य प्रयास भी किये हैं जिससे दक्षिण एशिया के देश उनसे जुड़ सके एवं चीन की सामरिक उपस्थिति को बाधित किया जा सके। विश्लेषकों के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्क के राष्ट्र प्रमुखों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में इसीलिए आमंत्रित किया था जिससे वह अपने पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों की एक नई कहानी लिख सकें। एन0डी0ए0 सरकार ने सर्वप्रथम विदेशी दौरे के लिए भूटान एवं नेपाल को चुना था।
मोदी का यह विचार ठीक उसी समय आया जब चीन सार्क देशों को 40 बिलियन अमेरिकी डालर के सिल्क रोड़ फंड, जो कि बुनियादी ढाँचा निवेश हेतु वित प्रदान करेगा में शामिल होने के लिए प्रयासरत था। इस तरह से हम देख सकते हैं कि भारत भी उस चुनौती को महसूस कर रहा है इसलिए उसने भी तमाम प्रकार के कूटनीतिक दाब खेले हैं जिससे चीन को सार्क का सदस्य बनने से रोका जा सके पर वास्तविक स्थिति यह है कि चीन की कूटनीतिक पकड़ भारत से कहीं कारगर साबित हुई है। इस संदर्भ में लुडान दावा करते हैं कि चीन ने 2005 में जबसे सार्क के पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त किया, उसने ‘‘इस क्षेत्र में एक प्रमुख आर्थिक ताकत के रुप में भारत की पकड़ को कमजोर करने की कोशिश की है।
चीन की सार्क संगठन में स्थायी सदस्यता की दावेदारी की सफल होती रणनीति के पीछे इन समस्त तर्कों एवं विश्लेषणों को समझने के बाद, मुझे दो कारक स्पष्ट हुए हैं-
दक्षिण एशिया की भौगोलिक अवस्थिति जिसमें भारत एक ‘बिग ब्रदर‘ की भूमिका में दिखता है,
चीन की मृदुशक्ति की नीति जिसमें सास्कृतिक कूटनीति, निवेश, एड ;।पकद्ध विकास सहायता पुनर्निर्माण सहायता आदि सम्मिलित हैं।
वास्तव में चीन के लिए दक्षिण एशिया क्षेत्र भू-राजनीतिक, सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण स्थान रखता है। उपरोक्त दो कारकों ने चीन के लिए एक बड़ी ताकत की भूमिका अदा की। भारत का दक्षिण एशिया में आर्थिक एवं भौगोलिक प्रभुत्व दिखाई पड़ता है जिस के परिणामस्वरुप इस क्षेत्र के ये छोटे देश भारत से हमेशा भयभीत रहते है एवं इस क्षेत्र में अपने मृदुशक्ति की रणनीति द्वारा इन देशों को भारत के विरूद्ध एक संतुलनकर्ता के रुप में अपनी पहचान बनाई है।
मेरा मानना है कि इस क्षेत्र में भारत को सार्क देशों के दिल में अपनी एक भली छवि बनाने का प्रयास करना होगा। भारत को ‘बिग ब्रदर‘ के स्थान पर ‘‘एल्डर ब्रदर‘‘ के रुप में दक्षिण एशिया के देशों के साथ पेश आना होगा।
शीतयुद्धोत्तर काल में जब आर्थिक शक्तियाँ प्रभाव में है चीन की आर्थिक स्थिति अत्यधिक मजबूत स्थिति को दर्शाता है।

Reference
1- http://idsa.in/issuebrief/south-asian-zombie-thefutility-ot-reviving…
Access on- 15Aug2018.
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15- Sharma, Rajkumar , “China’s Bid to Join SAARC : lesson from shenghai cooperation orgnisation,” see on http://usiblog.in/2015/01/chinas-bid-to-join-saarc accesed on august 2020.
16- Mishra, N.B., “China’s South Asia Policy,” ,Sumit Enterprises, New Delhi, 2015 p-203.
17- Dutta, Sujit (2011) “China in SAARC? To What effect a Response to the Debate .” Strategic Analysis , Vol-35 pp-493-501.
18- ibid.
19- Tamil Guardian(colambo)2014, ‘Sri Lanka owes US$ 2.6 billion to one Chinese Bank,” see on http://www.tamilguardian.com/article.asp?articleid.
20- “How India and China are vying for infuance in South Asia”, may 31,2018 Times Of India – see on https://www.google.co.in/amp/s/m.timesofindia.com/india/now-india-and-china-are-vying-for-influance-in-southasia

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