ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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1857 की क्रान्ति में बहराइच जनपद की चर्दा रियासत का योगदान

डॉ0 मुकेश चन्द्र श्रीवास्तव
गायत्री विद्यापीठ पी0जी0 कॉलिज, रिसिया बहराइच

उत्तर प्रदेश में 75 जिलों में शुमार बहराइच जनपद राजनीतिक दृष्टिकोण से उथल-पुथल का केन्द्र बिन्दु रहा है। यह जनपद उत्तर की ओर से नेपाल राज्य को छूता हुआ है, जिसके साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध है। इस जनपद को हिमालय का लहलहाता क्षेत्र एवं वन सम्पदा की अकूत सम्पत्ति इसको चार चांॅद लगाते है। यही कारण था कि दूसरे राज्य के राजाओं का यह शिकार गृह था।
इस शस्य श्यामला धरती पर ब्रहमा जी ने एक यज्ञ एवं ऋषियों का एक सम्मेंलन अयोजित किया था। यही कारण था कि प्राचीन आख्यानों में बहराइच जनपद का नाम ब्रहा्राइच था। भगवान राम के छोटे पुत्र लव को यहंॉं शासक नियुक्त किया गया था। पुराणों के अनुसार यहंॉ राजा जनक के गुरु अष्टावक्र का निवास स्थान था। जब पाण्डवों को अज्ञातवास मिला तो उन्होंने माता कुन्ती सहित यहॉ निवास लिया था। यहॉं पर श्रावस्ती में भगवान बुद्ध ने चौबीस चौमासे अर्थात् सर्वाधिक वर्शाकाल गुजारे थे। कभी श्रावस्ती उत्तरी कौशल महाजनपद का हिस्सा था, जहंॉं पर बुद्ध के समकालिक प्रसेनजित ने शासन किया था। भरों ने इस जनपद को खूब बढाया, किन्तु जैसे ही गुप्तांे का पतन हुआ भरांे अथवा भारशिवों का भी आंशिक पतन हो गया। परन्तु इनका शासन बना रहा। इसका एक नाम भराइच है कहा जाता है यहॉं भरो का शासन था।
इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल ने अपने अन्धकार युगीन भरत में भरो का समीकरण भारशिवों से जोडने का प्रयास किया है।
तेरहवी- चौदहवी शताब्दी में अवध रियासत के बनने के बाद इस क्षेत्र में राजपूतों एवं मुसलमानों का शरण स्थल बन गया। ग्याहरवी शताब्दी में सैय्यद सलाल गाजी जो रिश्तें में महमूद गजनवी का भांजा था। उसने जेहाद के नाम पर बहुत से हिन्दू क्षेत्रों को रौंदा और जबरन मुसलमान बनाया। वर्ष 1034 ई0 में भरनरेश महराज सुहेलदेव के हाथों मारा गया।
आजकल दरगाह शरीफ के नाम से प्रसिद्व स्थान पर दफनाया गया जहॉं रियारतें एवं मन्नतों का सिलसिला आज भी जारी है। कहा जाता है कि यहॉं पर पहले सूर्यकुण्ड था।
जब भारत में अंग्रेजों का शासन शुरु हुआ तो कुछ रियासतों एवं मराठों ने संगठित होकर औपनिवेशिक सत्ता को उतार फंेकने का जिम्मा उठाया। उस समय के यदि ऐतिहासिक दस्तावेजों को देखे तो पता चलता है तो तमाम छोटी रियासतों एवं अवध रियासत ने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था। यद्यपि वे हारें परन्तु स्वतन्त्रता की प्यास और तीव्र होती गई। अवध के रियासत के विद्रोह का नेतृत्व नवाब वाजिद अली शाह के जनानाखाने में महकपरी के उपनाम से विख्यात बेगम हजरत महल ने की चॅंूकि नवाब का पुत्र विरजिस कद्र अभी अल्पण्यवस्यक था। अतः शासन की बागडोर बेगम के हाथों में थी।
बेगम का साथ स्थानीय सामन्तों एवं रजवाडों ने भी दिया। जिसमें इस जनपद के बौण्डी राज्य के रैंकवार शासक हरदत्तसिंह, चर्दा के जनवार क्षत्रिय राजा जगजीत सिंह बाराबंकी के अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रान्ति में बलभद्र सिंह शामिल थें । जब अंग्रेजो ने बेगम को पराजित कर दिया तो वह चहलारी के रास्ते बौण्डी भागी जहंॅंा वह महीनों रही। चहलारी नरेश बलभद्र सिंह इस युद्ध में खेत रहे। बौण्डी में ही बेगम ने रानी विक्टोरिया के खिलाफ ऐतिहासिक ऐलान भी किया था।
जब बौण्डी में अग्रंेजो को बेगम के होने की सूचना मिली तो वह नानपारा में शरण के लिए भागी किन्तु रियासत के तत्कालीन शासक ने इन्हे शरण देने से इन्कार कर दिया। अन्ततः उन्हें बाध्य हाकर चर्दा में शरण लेना पडा।
चर्दा राज्य की स्थापना का श्रेय भरों को दिया जाता है। चर्दा के 18 वीं शताब्दी के शासक जनवार क्षत्रिय थे। कहा जाता है कि ये क्षत्रिय राजपूत पावागढ, गुजरात से बरियार शाह से वहॉं आये। ये मुगल बादशाह के रिसालदार थे। भरों की कौम कब्जे में नही आ रही थीं अतः उन्हे हरनें के लिए भेजा जिन्हें उन्होंने हराया। तब इन्हे पुरस्कार स्वरुप जागीरें मिलीं। यद्यपि मूल राज्य इकौना था परन्तु बाद में बलरामपुर, गंगवल एवं पयागपुर की जागीरे हुई। जिसमें सबसे बडी रियासत बलरामपुर थी। इस तरह से जनवारों का अपना प्रभुत्व बढा। चर्दा राज्य यद्यपि छोटी थी परन्तु प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इसके तत्कालीनशासक जोत सिंह का महत्वपूर्ण योगदान है। जो अपने पिता महीपत सिंह की मृत्यु के बाद 1846 ई0 में शासक बने। जोता सिंह के पिता दुनियापत सिंह को यहॉं की जागीर मिली थी। यद्यपि दुनियापत सिंह के पिता बरारशाह जो मुगल सेना में रिसालदार थे, को यहॉं पर भरों को पराजित करने के लिए भेजा था। इनके पंॉंच पुत्र थे, जिन्हे अलग-अलग रियासतें बॉंट दी गई थी। पयागपुर, बलरामपुर, संगरागढ (बस्ती), गंगवल एवं चर्दा। जिसमे बलरामपुर स्टेट बडी थी। गंगवल से ही पयागपुर स्टेट बनी।
जब 1857 क गदर शुरु हुआ तो अवध की बेगम हजरतमहल ने अपने अधीनस्थ राज्यों से सहायता मंॉगी। बलरामपुर रियासत ने सहायता देने से इन्कार कर दिया। विद्रोह शुरु हुआ तो बेगम चहलारी नरेश से सहायता मॉंगी। अग्रंेज सेना चूॅकि बेगम का पिछा कर रही थी तो चहलारी नरेश नेेे बेगम की सुरक्षा का बचन दिया। इस युद्ध में चहलारी नरेश जो अभी नवयुवक ही थे ,रवेत रहे। तब बौण्डी रियासत ने उन्हे शरण दी, इसके बाद अग्रेजों को उनके वहॉं होने की सूचना दी। तब वह नानपारा रियासत होते हुए चर्दा राजा के यहंॉं शरण ली। उन्होंने अन्त तक क्षत्रिय धर्म का पालन भी किया।
सन् 1846 ई0 में महाराज महीपत सिंह की मृत्यु के बाद जब राजा जगजोत सिंह शासक बने उस समय सम्पूर्ण देश में अराजकता का वातावरण व्याप्त था।देश में अग्रेंजो का विरोध हो रहा था। अतः 1857 के गदर में उन्हें भी भाग लेना पडा।
सन् 1857 में जब संगठन बना और बागी घेषित नानाराव पेशवा बाजीराव द्वितीय एवं बेगम हजरत महल ने इनके किलों में शरण ली तो उन्होंने उनकी भी रक्षा की। यद्यपि अग्रंेजो ने बहुत लालच दिया परन्तु जगजोत सिंह तस-से-मस न हुए। इसपर अग्रंेजों ने उनपर हमला कर दिया। नाना साहब को उन्हांेने अपने बहनोई गोण्डा नरेश देबीवख्श सिंह की संरक्षकत्व में गोरखाली (नेपाल) भेज दिया।
सारे महल को घेर लिया गया अग्रेजो ने लार्ड हार्डिग के नेतृत्व में एक छावनी जमोग नामक स्थान पर रख दिया। जमोग का पूर्ववर्ती नाम जमाऊ है। ऐसा स्थान जहॉं पर सेना जमा थी। स्वंय राजा जगजोत सिंह ने एक टुकडी सेना की सहायता से लडे परन्तु जब महल के अन्दर रसद इत्यादि सामग्री समाप्त हो तो उन्होंने देशी शराब डालकर आग लगा दी। राजा अपने परिवार एवं यथासंभव धनराशि लेकर सुरंग के सहारे मस्जिदिया जंगल में स्थित अपने किले में आये। चर्दा छोडने के उपरान्त राजा ने यह प्रतिज्ञा की जब वे देश से अग्रेंजो को खदेड नहीं देंगे तब तक किलें में वापस नहीं आयेंगे।
अग्रंेंजो ने मस्जिदिया किलें पर जब आक्रमण कर दिया फिर ये नानपारा के पश्चिमोंत्तर कोने पर जंगल के किनारे अपने बरगदहा किले में गयें, वहां भी इनका पीछा किया। उन्होंने संकट झेलना स्वीकार किया परन्तु अग्रेंजो को सामने समर्पण करने से इन्कार कर दिया। परन्तु बाद में वे नेपाल भाग गये। लार्ड हार्डिग ने कई बार नेपाल राजा के लिखा-पढी की। दिल्ली दरबार होने से पूर्व जगजोत सिंह को बुलाया गया। उन्होंने नेपाल नरेश से कहा कि 1857 के वीर जोतसिंह को अवश्य ले आइये। इनको बागी कहलाने से माफी मिली। पर राजा जगजोत सिंह ने कहा कि जब तक अग्रेंज यहॉं से चले नही जायेगें तब तक मैं चर्दा में पैर नही रखूॅंगा। दमखल देख वायसराय संशकित हो गया और कही भी 10 आदमियों से अधिक एवं अधिकतम् एक गॉंव में तीन दिन ही निवास कर सकेगंे का फरमान जारी कर दिया।
यद्यपि भारत के प्रथम स्वतन्तत्रा सग्राम में चर्दा के राजा जगजोत सिंह ने जो बलिदान दिया वह भारतीय इतिहास अक्षुण्ण है। आज भी उनकी संतानें दो राष्ट्रों नेपाल के ढोढ़ गॉंव एवं उ0प्र0 के बाबागंज के पास दुविधापुर में विपन्नता की स्थिति में रह रही है। उन्हें यथोचित् सम्मान नही मिला। खेद है कि वीर योद्धा के नाम पर इस जनपद में न तो कोई विद्यालय है न कोई संस्था। चर्दा किला का ध्वंसावशेष अपने राजा की वीरता का कहानी बयां करता है। चर्दा नामक एक विधानसभा का अस्तित्व नये परसीमन के बाद आया है। व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि राजा को यथेचित सम्मान सरकार को करना चाहिए ताकि आने वाली सन्तति इस जिले की विरासत को समझ सकें।
प्रस्तावित शोध में बहराइच जनपद की विरासत को उजागर करने का प्रयास किया जायेगा।
अध्ययन के उद्धेश्यः- प्रस्तावित शोध के उद्ेश्य निम्नवत् है-
1. 1857 की कान्ति का नये तरीके से शोध करना।
2. क्रान्ति बहराइच जनपद के योगदान का मूल्यांकन करना।
3. 1857 की क्रान्ति में बहराइच जनपद की विरासत को नये पीढी के समझना।
4. 1857 की क्रान्ति में बहराइच जनपद की चर्दा रियासत के योगदान पर चर्चा करना।
5. अध्ययन में उत्पन्न समस्त भ्रान्तियों एवं पूर्वाग्रहों को दूर करना।
परिकल्पनाः- प्रस्तावित शोध में निम्नलिखित परिकल्पनायें निर्धारित की गई है-
1. 1857 क्रान्ति वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पूर्ण प्रसंागिक है।
2. वर्तमान परिस्थितियों में 1857 की क्रान्ति अधिक उपयोगी है।
शोध पद्धतिः- 1857 की क्रान्ति के अध्ययन हेतु दो प्रकार की पद्वतियों का प्रयोग किया जायेगा।
1. विषयवस्तु विश्लेषणः- प्रस्तावित शोध में उन सभी ग्रन्थों का अध्ययन किया जायेगा जिसमें क्रान्ति के उद्वेश्य, विस्तार, परिकल्पना आदि की चर्चा की जायेगी। विषयवस्तु विश्लेषण के मूल्य परक् विश्लेषण की आवश्यकता अनुक्रम विश्लेषण आदि सोपानों से विश्लेषण करके आधुनिक युग मंे उसके प्रभाव की चर्चा की जायेगी।
2. समालोचनात्मक अध्ययनः- अन्य विचारकों/विद्वानों के 1857 की क्रान्ति पर उपलब्ध विभिन्न मतों को इस अध्ययन का आधार बनाया जायेगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी पुर्नस्थापना पर बल दिया जायेगा।
प्रस्तावित शोध में निम्नलिखित अध्यायों में प्रस्तुतीकरण की योजना है, जो बाद में प्रस्तुत की जायेगी।

सन्दर्भ ग्रन्थ –
प्राथमिक स्त्रोतः-
– Gregory Fremont- Barnes 2007- Essential histories, The Indian Rebellion 1857-1858- osprey.
– Majunder, Rajit k.(2003),- The Indian Army and the making of the Punjab, Delhi Permanent Black P.7-8 ISBN- 817824-059-9
– Bandyopadhyay 2004- P. 171 (Bose $ Jalal 2003) P.90
. ठंदकलवचंकीलंल 2004. च्ण् 171 ;ठवेम $ श्रंसंस 2003द्ध च्ण्90
द्वितीयक स्त्रोत
1- श्रीवास्तव कन्हैया लाल- बहराइच जनपद का खेजपूर्ण इतिहास
2- नागर अमृतलालः 1857 का गदर, साहित्य पब्लिकेशन्स
3- सावरकर वी0डी0- भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम
4- सिंह अयोध्या- भारत का मुक्ति संग्राम
5- ग्रोवर बी0एल0- आधुनिक भारत का इतिहास
6- चन्द्र विपिन- भारत का स्वतन्त्रता संग्राम

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