ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

प्रवासी जीवन की विविध संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती हिन्दी ग़ज़ल

सुनील कुमार (पूर्व छात्र)
हिन्दी विभाग,
चौ॰ चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उ॰प्र॰)

साहित्य विचार, चेतना और संवेदनात्मक अनुभूतियों की परस्पर आबद्ध अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम रहा है। चेतना की अनुपस्थिति में विवेक का अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा चिंतन सही-गलत का निर्णय करने की स्थिति में नहीं रह पाता। इस दृष्टि से साहित्य के लिए चेतना सम्पन्न दृष्टि नितांत अपरिहार्य है। चेतना-चिंतन के मिश्रण से ऐसे विचारों की उत्पत्ति हो पाती है जिनकी अभिव्यक्ति साहित्य की विभिन्न विधाओं एवं रचनाओं के रूप में हमारे सामने आती है। चेतना विस्तार को किसी सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है वे सीमाएँ चाहे फिर किसी सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, धर्म आदि की हो अथवा देश की। देश की सीमाओं के पार से आ रही इन्हीं संवेदनात्मक चेतना एवं चिंतन की साहित्यिक अभिव्यक्तियों को आजकल ‘प्रवासी साहित्य’ की संज्ञा से अभिहीत किया जाने लगा है।
प्रवासी साहित्य के स्वरूप एवं उसके विविध संवेदनात्मक आयामों को हिंदी ग़ज़ल के माध्यम से विश्लेषित करने से पूर्व एक संक्षिप्त दृष्टि पात ‘प्रवासी साहित्य’ पर कर लेना भी उचित ही जान पड़ता है, जिससे उसकी संवेदनात्मक पृष्ठभूमि को समझ पाना सहज रहेगा। ‘प्रवासी’ शब्द ‘प्रवास’ शब्द का विशेषण है ‘‘जो ‘वस’ धातु में ‘प्र’ उपसर्ग लगने से बनता है। ‘वस’ धातु का प्रयोग का अर्थ ‘रहने से’ है। ‘प्र’ उपसर्ग लग जाने से इसका अर्थ बदल जाता है। ‘प्रवास’ शब्द का अर्थ हैः विदेश गमन, विदेश यात्रा, घर पर न रहना। किसी दूसरे देश या बेगानी धरती पर वास करने वाला व्यक्ति प्रवासी है।’’
‘प्रवासी शब्द भी अपनी एक सुदीर्घ यात्रा तय करता आया है इसके अर्थ एवं स्वरूप को लेकर विभिन्न समय व देशकाल में परिवर्तन होता आया है। सामान्य रूप से किसी भी कारण से अपना देश छोड़कर प्रदेश में वास करने वाले व्यक्ति के लिए ‘प्रवासी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यहाँ प्रवासी के साथ-साथ प्रचलित ‘अप्रवासी’ ‘आप्रवासी’ शब्दों को भी समझ लेना उचित जान पड़ता है। डॉ0 कृष्ण कुमार इस संदर्भ में लिखते हैं ‘‘प्रवास एवं इसके विभिन्न स्वरूपों के साथ अनेकानेक भ्रांतियाँ फैल चुकी है, यहाँ तक की इसके सही और व्यापक अर्थ को सीमित कर अब केवल ‘विदेश में रहने वालों को ही’ प्रवासी समझा जाने लगा है। कुछ साहित्यकार बन्धुओं के अनुसार गलत होते हुए भी प्रवासी शब्द का यह अर्थ अब रूढ़ हो गया है। दुख व डर दोनों है कि किस प्रकार गलत चीजों को सही मानकर लोग चलने लगते है। ‘प्रवास’ के स्थान पर अप्रवास या प्रवासी के स्थान पर अप्रवासी शब्द का प्रयोग। इनका कोई अस्तित्व है ही नहीं, न शब्द कोशो में ही पाए जाते है।’’
‘प्रवासी के साथ-साथ प्रचलित इन ‘अप्रवासी’ व ‘आप्रवासी’ शब्दों के भ्रम को समझ लेना भी आवश्यक है। हिंदी में ‘प्र’ उपसर्ग का प्रयोग विशेषता का द्योतक है। जैसे प्रबल-विशेष बल, प्रदान-विशेष दान इसी क्रम में ‘वास’ का अर्थ हुआ रहना तथा ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से बने ‘प्रवासी’ का अर्थ हुआ विशेष प्रकार का वासी। ‘अप्रवासी’ शब्द भ्रांतिपूर्ण है क्योंकि हिंदी में ‘अ’ उपसर्ग का प्रयोग नकारात्मक या विलोम अर्थ को ध्वनित करता है जैसे सफल से असफल, संतोष से असंतोष आदि। इस दृष्टि से अप्रवासी का अर्थ तो हुआ जो प्रवास में न हो। वस्तुतः यहाँ उचित शब्द अप्रवासी है ही नहीं यह शब्द ‘आप्रवासी’ है। ‘‘आप्रवासी’ शब्द नकारात्मक नहीं है। यह आ प्रत्यय तो- ‘से’, ‘तक’ यह पूर्णता के भाव को अभिव्यक्त करता है। जैसे ‘आजन्म’ में ‘से’ का भाव, आमरण में ‘तक’ का भाव। अर्थात आप्रवासी यानी पूर्ण रूप से प्रवासी। . . . जो कुछ समय के लिए विदेश जाते है वह तो प्रवासी हुए, पर जो सदा के लिए वही रह गये वे आप्रवासी हुए। पर जन सामान्य प्रत्यय और उपसर्ग आदि झंझटों में कहाँ पड़ता है उसे प्रवासी अच्छा लगा तो सरकार को भी प्रवासी दिवस घोषित करना पड़ता है।’’
भाषिक दृष्टि से देखे तो ‘आप्रवासी’ शब्द सही अर्थ को ध्वनित करता है किन्तु जनसामान्य में भाषा प्रयोग सरलता की ओर आकृष्ट रहता है तदानुरूप ‘प्रवासी शब्द ही अधिक प्रचलन में रहा है। वस्तुतः भारतीय प्रवासियों की स्थितियों एवं उनके प्रवासी होने के स्वरूप में पर्याप्त विभिन्नताएँ है। भारतीयों का प्रवास भी कई चरणों एवं रूपों में हुआ है। जिसे मुख्य रूप से चार रूपों में समझा जा सकता है। प्रथम चरण के प्रवास की शुरूआत ब्रिटिश उपनिवेश के समय 1830 ई0 के लगभग हुई जब भारतीयों को गिरमिटिया मजदूर के रूप में फिजी, मारीशस त्रिडिनाड, गुआन, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में ले जाया गया इनमें अधिकतर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल के निवासी थे ये गरीब अशिक्षित थे किन्तु वे अपने साथ भारतीय संस्कृति, मूल्यों अपनी भाषा को भी ले गए और उसे कई पीढ़ी बीत जाने पर भी आज तक सँजोए हुए है। ‘‘दूसरे चरण का प्रवास बीसवीं शताब्दी के मध्य से माना जाता है जब भारतीय विकसित देशों जैसे ब्रिटेन, अमेरिका कनाड़ा, आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड की ओर प्रवास किए। इस चरण में प्रवास करने वाले भारतीय शहरी मध्य वर्ग से थे और अच्छे-पढ़े-लिखे पेशवर थे। तीसरे चरण का प्रवास 1970 ई0 के आस-पास प्रारम्भ हुआ। इस चरण में मुख्यतः सउदी अरब, कुवैत, यूनाइटेड अरब, अमीरात, बहरीन, कतर तथा लीबिया आदि देशों में हुआ।’’ चौथे चरण का प्रवास भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप भारत के उच्च शैक्षणिक संस्थानों आई0आई0टी0 और आई0आई0एम0 से पढे लिखे, उच्च शिक्षित लोगों का दुनिया के विभिन्न विकसित विकासशील देशों की ओर हुआ। प्रशासनिक दृष्टि से प्रवासी भारतीयों को तीन मुख्य श्रेणियों में रखा गया है- ‘‘प्रथम श्रेणी एन0आर0आई0 (छवद त्मेपकमदज प्दकपंद) या अनिवासी भारतीय की है जिनके पास भारतीय नागरिकता है तथा उसी के पासपोर्ट पर वे व्यवसाय, रोजगार एवं व्यापार के लिए भारत भूमि से दूर 182 दिनों से अधिक समय से किसी विदेशी भूमि पर अपना निवास स्थान बनाए हुए है अथवा अन्य परिस्थितियों के चलते विदेशों में अनिश्चित अवधी तक निवास कर रहे है। दूसरी श्रेणी में पी0आई0ओ0 (च्मतेवद व िप्दकपंद व्तपहपद) अर्थात् जिन्हें भारतीय मूल के व्यक्ति की संज्ञा प्रदान की गई है। इसमें वे व्यक्ति आते है जो पहले भारतीय पासपोर्ट पर विदेश गए और फिर वहाँ की नागरिकता ग्रहण कर ली। इसके अन्तर्गत वे भारतीय भी सम्मिलित किए जाते है जिनके माता-पिता दादा-दादी या इनमें से कोई भी पहले भारतीय नागरिक रहा हो। तीसरे श्रेणी ओ0सी0आई0 (व्अमतेपमे ब्पजप्रमद व िप्दकपं) की है जिसमें उन भारतीय को सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें 26 जनवरी 1950 को भारतीय नागरिकता प्राप्त थी और वे विदेशों में जाकर बस गए। यह योजना 2 दिसम्बर 2005 को लागू की गई थी इन भारतीयों को पासपोर्ट के साथ अपना ओ0सी0आई0 कार्ड रखना होता है जिसके तहत विदेशी नागरिकता प्राप्त करने पर भी उसे भारत में आने के लिए वीजा लेने की आवश्यकता नहीं रहती।
अस्तु प्रवासी साहित्य के स्वरूप एवं संवेदना को समझने के पूर्व उसकी पृष्ठभूमि का एक विंहगम अवलोकन अपरिहार्य सा प्रतीत होता है क्योंकि इसी के आलोक में हम उसे भली-भांति विश्लेषित करने का प्रयास कर सकते है। ‘प्रवासी साहित्य’ को स्पष्ट करते हुए डॉ0 विशाला शर्मा लिखती है- ‘‘प्रवासी साहित्य हिंदी साहित्य की एक धारा है और नवयुग का साहित्यिक विमर्श है और इसकी खास विशेषता है विदेशी भूमि पर बैठकर लिखने के बाद भी इसमें देशीपन है और इस बात का द्योतक है कि परायी संस्कृति और समाज के बीच रहकर हम अपनी मातृभूमि को नहीं भूलते।’’
प्रसिद्ध कथाकार, आलोचक, चिंतक डॉ0 रामदरश मिश्र ने अक्षरम् संगोष्ठी में प्रवासी साहित्य के संदर्भ में कहा था कि प्रवासी साहित्य ने हिंदी को नयी जमीन दी है और हमारे साहित्य का दायरा दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की तरह ही विस्तृत किया है। इस रूप में उत्तर आधुनिकता के फलस्वरूप अस्तित्व में आए विभिन्न विमर्श मूलक साहित्यिक धाराओं-स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, वृद्ध विमर्श पर्यावरण-विमर्श, किसान-विमर्श, आदिवासी-विमर्श आदि में प्रवासी विमर्श भी चर्चा परिचर्चा, संगोष्ठियों का विषय बना हुआ है। कई बार कुछ विद्वान व प्रवासी साहित्यकार इस पृथक पहचान व धारा पर आपत्ति भी उठाते है। उनका आग्रह रहता है कि साहित्य तो साहित्य उसे विभिन्न वर्गों में बाँट कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसका उत्तर देते हुए प्रो0 कृष्ण किशोर गोस्वामी लिखते है- ‘‘लेकिन यह पूरी तरह ठीक नहीं है। प्रवासी साहित्य और भारतीय साहित्य में बुनियादी फर्क यह है कि भारतीय साहित्य विदेशों को कल्पना के आधार पर देखता है और प्रवासी साहित्य यथार्थ के धरातल पर विवेचना करता है। भारतीयों के संघर्ष और उनके मनोविज्ञान को जितनी प्रमाणिकता के साथ प्रवासी साहित्य प्रस्तुत करता है उतनी प्रमाणिकता के साथ भारतीय साहित्य प्रस्तुत नहीं कर सकता। साहित्य अनुभूति की कोख से जन्म लेता है और प्रवासी साहित्य में अनुभूतियों तथा भोगा हुआ यथार्थ दृष्टव्य भी होता है।’’
प्रवासी साहित्य इन्हीं अनुभूतियों और भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति दशकों से करता आ रहा है किन्तु सूचना व संचार तकनीकी की क्रान्ति के फलस्वरूप आज उसके संचरण, प्रचार-प्रसार को व्यापक गति प्राप्त हुई है। प्रवासी साहित्य की अभिव्यक्ति काव्य, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, नाटक, यात्रावृतांत आदि विभिन्न विधाओं में प्रचुर मात्रा में हुई है किन्तु ग़ज़ल के रूप में उसकी संवेदनाओं का प्रस्फुटन भूमंडलीकरण उदारीकरण के विस्तार के चलते पिछले दो-तीन दशकों में ही उभर कर आना प्रारम्भ हुआ है। वस्तुतः देश विदेशों में हिंदी कविता गीत ग़ज़ल एवं कवि सम्मेलनों-मुशायरों के आयोजनों के चलते प्रवासी साहित्यकारों का ध्यान भी हिंदी ग़ज़ल के माध्यम से अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की ओर आकृष्ट हुआ। ग़ज़ल काव्य की एक छन्दबद्ध एवं अनुशासित विधा है जिसे उसके उसी स्वरूप में अपनाने की चुनौती एक साहित्यकार के सम्मुख सदैव बनी रहती है। मुक्तक काव्य की विधा होने के चलते मात्र दो पंक्ति के शेर में अपनी बात इस अंदाज से कहना कि सामने वाला अचम्भित सा विमुग्ध खड़ा रह जाए, ग़ज़लकार के लिए एक लम्बी मानसिक सृजनात्मक प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक बना देता है। ‘‘रघुपति सहाय फिराक की दृष्टि में ग़ज़ल ‘असंबद्ध कविता है’ इस बात पर कुछ लोगों को आपत्ति भी है कि असम्बद्ध शे’रो को एक ही कविता में क्यों रखा जाए लेकिन अर्थ की दृष्टि से असंबद्ध शेर भी एक ही काफ़िए-रदीफ़ में बंधे होने और एक छंद में कहे जाने के कारण एक ध्वन्यात्मक वातावरण की सृष्टि कर देते हैं। जिसमें विभिन्न शेरों का अर्थ अच्छी तरह उभर कर आता है।’’
इस दृष्टि से प्रवासी साहित्य में हिंदी ग़ज़ल भी अब अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण रूप बनकर उभर रही है। प्रवासी काव्य प्रेमी साहित्यकारों की एक पीढ़ी धीरे-धीरे हिंदी ग़ज़ल को भी अपनी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने के प्रति आकृष्ट हुए है। देवी नागरानी, भारतेन्दु विमल, सोहन राही, प्राण शर्मा, महावीर शर्मा, डॉ0 अंजना संधीर आदि बहुत से प्रवासी हिंदी ग़ज़लकारों की एक पूरी जमात है जो ग़ज़ल के अंदाज-ए-बयाँ को अपनाकर अपने जीवन के अनुभवों, संवेदनाओं को शेरों में ढालकर कहने में सृजनरत् है। उनके विषय में ज्यादा कुछ कहने से बेहतर होगा कि हम अपने शोध पत्र के मूल विषय ‘प्रवासी हिंदी ग़ज़ल में अभिव्यक्त संवेदनाओं के विविध आयामों’ पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। प्रवासी साहित्य के विषय में प्रो0 कृष्ण किशोर गोस्वामी द्वारा अपने लेख ‘प्रवासी हिंदी साहित्य: अस्मिता की चुनौतियाँ’ में कहा गया कथन सत्यप्रतीत होता है कि ‘‘यह साहित्य में इन देशों की माटी की गंध, वहाँ की जीवन शैली के साथ-साथ दो संस्कृतियों के संस्करीकरण एवं आत्मसातीकरण, सांस्कृतिक अलगाव, सामाजिक विच्छेदन, अतीत की स्मृतियों और उत्तर-उपनिवेशिक गाथा का सम्मिश्रण भी दिखाई देता है। इस साहित्य में कही न कहीं इन देशों में बसे प्रवासियों की दुविधा और ऊहा पोह की झलक भी मिलती है . . . लेकिन इस साहित्य की यह विशेषता बताना आवश्यक है इसके लेखक कल्पना लोक में विचरण नहीं करते बल्कि यथार्थ और वास्तविकता का चित्रण करते है।’’
यद्यपि ग़ज़ल एक कोमल भावनाओं और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की विधा रही है किन्तु प्रो॰ कृष्ण किशोर गोस्वामी का कथन प्रवासी हिन्दी ग़ज़ल के संदर्भ में भी सत्य प्रतीत होता है। अपनी मूल प्रेममूलक संवेदना एवं प्रवृत्ति के साथ-साथ प्रवासी हिन्दी ग़ज़लकारों ने अपने समय व समाज की तल्ख सच्चाईयों को भी अपने अश्आरों में ढ़ालकर उजागर किया है। प्रवासी जीवन को अपने विशिष्ट संघर्ष और कदम-कदम पर मिलने वाली चुनौतियों, तिरस्कार, भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण से भी दो-चार होना पड़ता है। देवी नागरानी ने प्रवासियों की इस पीड़ा को कुछ यूँ बयाँ किया हैं-
‘‘न जाने रोज़ कितनी बेबसी बर्दाश्त करते है
अगर सच पूछिए तो जिन्दगी बर्दाश्त करते है
बड़े बेबस परिंदे है कि उनके पर कतरने पर
सितमरानी भी ये सैयाद की बर्दाश्त करते है।’’
देवी नागरानी एक संवेदनशील ग़ज़लकार है। उनके इस शेर में संघर्षशील प्रवासी जीवन का एक कारुणिक दृश्य उभरता है। दरअसल प्रवासी जीवन के विविध रूप है। हम प्रायः उच्च शिक्षा प्राप्त साधन सम्पन्न कुशल प्रवासियों के चकाचौंध भरे जीवन की खुशफहमी में विदेशों में कार्यरत उन कम पढ़े-लिखे अकुशल या सामान्य से कार्यों में लगे मजदूरों, कारीगरों, चालकों आदि के जीवन संघर्ष को नहीं देख पाते हैं। शायरा ने उनके जीवन की पीड़ा को बहुत सहज व मार्मिक रूप से अभिव्यक्त किया है। ‘जिन्दगी बर्दाश्त करते’ पदबंध महज़ एक उनकी स्थिति की विड़म्बना को ही नहीं दर्शाता बल्कि हमारे सामने एक ऐसा खामोश दृश्य बिम्ब प्रस्तुत करता है, जिसकी अनुगूँज हमारे जहन में देर तक सुनाई देती रहती है। कई बार समाचार-पत्रों, इन्टरनेट आदि के माध्यम से सुनने में आता है, विशेषकर खाड़ी देशों में गए मेहनती प्रवासियों के सन्दर्भ में कि वहाँ उनके पासपोर्ट उनसे लेकर रख लिए जाते हैं और कई बार उन्हें अमानवीय दशाओं और व्यवहार का सामना करना पड़ता है। उन्हें इन देशों को दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है। ‘देवी’ के शेर में ‘बेबस परिंदे’ और उनके ‘पर कतरने’ के सैयाद के सितम को भी उनके बर्दाश्त करने की मार्मिक पीड़ा व विड़म्बना को भी देखा जा सकता है। महावीर शर्मा परदेश में नए-नए सपने संजोकर कर जाने वाले प्रवासियों के सपनों एवं संघर्षों को गाथा को अपने शेरों वर्ण्य-विषय बनाते है-
‘‘सोचा था बयाबान में इक आशियाँ बनाएँ हम
पीछा ना छोड़ा आ गई ये अपनी ही परछाईयाँ
गुलशन से की थी दोस्ती पर खार दामन में मिले
हर कदम पर अनगिनत मिलती रही रुशवाइयाँ।’’
ये पंक्तियाँ प्रवासी जीवन में कदम-कदम पर मिलने वाले संघर्ष तथा चुनौतियों के साथ ही वहाँ पर होने वाले भेदभाव को भी उजागर करती है। प्रायः जब व्यक्ति विदेश को प्रस्थान करता है तो उसकी आँखों में वहाँ के बड़े रंगीन सपने समाएँ रहते है किन्तु वहाँ जाकर वह जब कठोर यथार्थ की भूमि पर कदम रखता है तो एक अलग ही दुनिया से दो-चार होना पड़ता है जो उसके कदम-कदम पर नए-नए इम्तहाँ लेती है। भारतेन्दु विमल प्रवासी जीवन की इन स्थितियों को कुछ इस तरह बयाँ करते हैं-
‘‘आज मेरी जिंदगी का है ये कैसा इम्तिहाँ
मेरी मंजिल पूछती है तेरी मंजिल है कहाँ
रातभर जागा सुबह से हो रही है गुतगूँ
अब परिन्दे भी समझने लग गए मेरी जबाँ
गर सितारे तोड़कर लाने की होती शर्त तो
मान भी लेता मगर वो माँगते है कहकशाँ।’’
भारतेन्दु विमल ने बड़ी ही संजीदगी व गम्भीरता के साथ प्रवासी जीवन के कदम-दर-कदम होने वाले संघर्ष को तो बयाँ किया ही है। साथ ही इस विरोधाभास को भी उजागर किया है- ‘‘मंजिल ही पूछती है कि तेरी मंजिल है कहाँ’’ यह प्रवासी जीवन की एक कशमकश एवं विरोधाभाषी भरी स्थिति है, जिसका उल्लेख प्रायः नहीं किया जाता किन्तु हिन्दी ग़ज़ल प्रवासी जीवन के तमाम विरोधाभाषों, विड़म्बनाओं को तथा भेदभावपूर्ण स्थितियों को हमसे साझा करती है। रात-रात भर जगाने की जीवन शैली को उजागर करने के साथ ही तनाव भरे जीवन में स्वाभाविक कहकशाँ लगाने की शर्त को विमल ने सितारे तोड़कर लाने से भी दुष्कर बात के रूप में दर्शाकर बिन कहे भी बहुत कुछ कह दिया है। यहाँ ‘कहकशाँ’ शब्द हमारे जहन में एक पूरा दृश्यबिम्ब बनकर उभरता है। प्रवासी साहित्य में प्रवास के संघर्ष के साथ-साथ जिस बिन्दु को मुख्य रूप में चित्रित किया जाता है वह है अपने छूटे हुए देश, सम्बन्धों, घर-परिवार, मित्र आदि के प्रति स्मृति दंश की स्थिति। डॉ॰ विशाला शर्मा इस सन्दर्भ में अपने लेख ‘प्रवासी विमर्श और सुषुम बेदी का उपन्यास’ में लिखती हैं- ‘‘पराए देश में जाकर उनकी सभ्यता और संस्कृति के साथ तालमेल बैठाना सरल नहीं होता। ऐसे में प्रवास कर विदेश गया व्यक्ति नास्टेल्जिया का शिकार हो जाता है अर्थात् अपने घर, राष्ट्र या राष्ट्र के प्रति एक मोहोविष्ट स्थिति।’’
प्रवासी हिन्दी ग़ज़लकार भी अपने देश की माटी, घर-परिवार, संस्कार, संस्कृति से अछूते नहीं रहे हैं। प्रायः सभी प्रवासी ग़ज़लकारों में इस स्मृतिदंश की पीड़ा और मोहोविष्ट स्थिति की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। ग़ज़ल को यूँ तो एक असम्बद्ध काव्य की संज्ञा प्रदान की जाती है क्योंकि इसके अन्तर्गत प्रत्येक शेर अपनी पृथक सत्ता एवं अर्थवत्ता रखता है तथा वह विषय एवं कथ्य में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ा हो सकता है। किन्तु प्रवासी ग़ज़लकारों को यह नास्टेल्जिया की दशा इतनी व्यथित व अविष्ट करती है कि उनकी बहुत-सी सम्पूर्ण ग़ज़ल के शेर अघांत इसी मनोदशा को अभिव्यक्त करते है। इस संदर्भ में प्राण शर्मा की एक ग़ज़ल के चंद शेर देखिए-
‘‘हरी धरती, खुले गगन को छोड़ आया हूँ
कि कुछ सिक्कों की खातिर मैं वतन को छोड़ आया हूँ
विदेशी भूमि पर माना लिए फिरता हूँ तन लेकिन
वतन की सौंधी मिट्टी में मैं मन को छोड़ आया हूँ
पराये घर में कब मिलता है अपने घर के जैसा सुख
मगर मैं हूँ कि घर के चैन-धन को छोड़ आया हूँ
कोई हमदर्द था अपना कोई था चाहने वाला
हृदय के पास बसते हमवतन को छोड़ आया हूँ।’’
प्राण शर्मा की यह सम्पूर्ण ग़ज़ल बड़ी सहजता व तारतम्यता के साथ अपना देश छोड़ने की पीड़ा के मर्म को उजागर करती है। विदेशी भूमि पर भी उसकी सुखद स्मृतियों के आने और उनमें मन के डूब जाने की बेखुदी के साथ-साथ परदेश में न मिलने वाले सुख व अपनेपन की कचोट को अभिव्यक्ति प्रदान करती है। इस सन्दर्भ में हिन्दी सिनेमा की प्रसिद्ध फिल्म ‘नाम’ में पंकज उदास द्वारा गाई गई बेहद लोकप्रिय हुई नज़्म ‘‘चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है’’ की स्मृति जहन में कौंध जाती है। महावीर शर्मा भी अपनी कई ग़ज़लों में देश की मिट्टी से बिछुड़ने की पीड़ा का दर्द बयाँ करते हैं-
‘‘जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गये
आँधी कुछ ऐसी चली नक्शे कदम भी खो गये
खो गई वो सौंधी-सौंधी देश की मिट्टी कहाँ?
वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए
हर तरफ ही शोर है ये महफिले-शेरों-सुखन
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गये।’’
यहाँ ‘नक्शे-कदम के खो’ जाने के माध्यम से ग़ज़लकार ने वतन छूटने के बाद वापसी के आने के रास्ते खो जाने की अर्थात् परदेशी बनकर जीने की पीड़ा को बहुत ही मार्मिक रूप में चित्रित किया है। देश की मिट्टी का आकर्षण तो है ही साथ ही प्रवासी जीवन शैली में ‘भीड़ में भी अकेले’ एवं अजनबी होते जाने की विरोधाभाषी स्थितियों को भी उसकी पूरी तल्खियत के साथ बयाँ किया है। अपने वतन, बीते बचपन, संगी-साथी को याद करते हुए प्रायः सभी प्रवासी ग़ज़लकारों के यहाँ इस तरह के अश्आरों की भरमार है। डॉ॰ अंजना संधीर की ग़ज़ल के चंद मिसरे काबिल-ए-गौर है-
‘‘निकले गुलशन से तो गुलशन को बहुत याद किया
धूप को छाँव को आँगन को बहुत याद किया
जिक्र छेड़ा कभी साखियों ने जो झूलों का यहाँ
हमने परदेश में सावन को बहुत याद किया
उसके साये में मुझे चैन से नींद आती थी
मैंने ऐ माँ तेरे दामन को बहुत याद किया।’’
कदाचित प्रवासी साहित्य के प्रत्येक स्वरूप में वह चाहे गद्यात्मक हो अथवा काव्यात्मक अपनी मातृभूमि के प्रति एक जुड़ाव एवं उसकी माटी की सुगंध को पूरी शिद्दत के साथ महसूस और अभिव्यक्त किया गया है। प्रवासी हिन्दी ग़ज़ल भी इसका अपवाद नहीं रही है। राजेन्द्र यादव ने प्रवासी साहित्य को ‘संस्कृतियों के संगम की खूबसूरत कथाएँ’ कहा था हालाँकि यह साहित्य संस्कृतियों का संगम मात्र ही नहीं है बल्कि कई अर्थों में उनकी टकराहट और उससे निकलने वाले जीवन मूल्यों एवं इन मूल्यों की प्रतिष्ठा की स्थापना का भी साहित्य है। प्रायः पाश्चात्य संस्कृति का विश्लेषण बहुत विद्वान दूर बैठकर कर देते है किन्तु प्रवासी साहित्यकार यथार्थ के धरातल पर उसकी अनुभूति एवं अपने भोगे हुए यथार्थ की कसौटी पर उसे कसकर जो निथरकर आता है, उसकी प्रामाणिक अभिव्यक्ति करते हैं। प्रवासी ग़ज़लकार भी उसी अनुभवशील दृष्टि से बिना किसी पूर्वाग्रह के भारतीय एवं प्रवास के देश की संस्कृति एवं मूल्यों का बड़ी संजीदगी से विश्लेषण अपनी रचनाओं में हमारे सम्मुख रखते हैं। निस्संदेह कुछ तो आकर्षण एवं बात प्रवासी जीवन में है जो व्यक्ति को बाँधें रखती है। भारतीय प्रवासी कृतघ्न नहीं होते हैं, वे जिस मिट्टी में रहते है, जहाँ की हवा में साँस लेते हैं, उसके प्रति अपनी निष्ठा, कृतज्ञता एवं उसकी खूबियों की भी दिल-खोलकर प्रशंसा करते हैं। तेजेन्द्र शर्मा की एक ग़ज़ल के चंद अश्आर इसकी ताकीद करते हैं-
‘‘जो तुम न मानो मुझे अपना हक तुम्हारा है
यहाँ जो आ गया इक बार, बस हमारा है
कहाँ-कहाँ के परिन्दे बसे हैं आ के यहाँ
सभी का दर्द मेरा, दर्द सब खुदारा है।
यह घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना
मुझे तुम्हारा, तुम्हें अब मेरा सहारा है।’’
विभिन्न देशों से आकर बसने वाले प्रवासियों के बीच एक आत्मीयता तथा दुःख-दर्द बाँटने की बात तेजेन्द्र शर्मा करते हैं। साथ ही वे परदेश को अब बेगाना न कहने की भी इल्तज़ा करते है क्योंकि यह बड़ी विड़म्बनापूर्ण स्थिति होती है कि जब हम इस द्वंद्व में जीते है कि हम बेगानों के बीच है वह बेगानापन चाहे अपने परिवार में, समाज में, महसूस हो या फिर परदेश में। अतीत चाहे जो रहा हो किन्तु वर्तमान दौर में पाश्चात्य जगत् में मानवाधिकारों, न्याय, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता एवं मानवीय गरिमा को लेकर बड़ी सजगता दिखाई देती है। वहाँ परम्परागत रूढ़ियों एवं धर्म आदि के नाम पर होने वाले भेदभावों से दूर इंसान को इंसान के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी प्रवासी ग़ज़लकारों को आकर्षित करती है। कदाचित इसी के चलते बहुत से प्रवासी अपने देश एवं समाज के प्रति आत्मीयता के बाद भी प्रवासी जीवन के प्रति आकृष्ट रहते है। तेजेन्द्र शर्मा की एक ग़ज़ल इसी तरह के द्वंद्व एंव भावों को उजागर करती है-
‘‘वतन को छोड़ इस शहर से बनाया रिश्ता
यहाँ मगर न कोई यार, न याराना है।
मगर वो कुछ तो है जो मुझको यहाँ रोके है
इसी को अब मुझे अपना वतन बनाना है।
यहाँ समझते है इन्सान को सभी इंसाँ
तभी तो अब मुझे वापिस न गाँव जाना है।’’
प्रवासी साहित्य के विषय में बड़ी संजीदगी से यह कहा जाता रहा है कि वह कोरी कल्पना-कानन में विचरने में या एक भावात्मक संसार के सृजन की अपेक्षा यथार्थ के धरातल पर अपना स्वरूप ग्रहण करता है। भारतीय जनमानस में गाँव और उसके जीवन के प्रति एक ऐसा ही भावात्मक एवं स्वर्णिम आकर्षण रहा है किन्तु तेजेन्द्र शर्मा द्वारा बहुत विनम्रतापूर्वक यह आग्रह करना कि ‘मुझे वापिस न गाँव जाना है।’ इसी यथार्थवादी चेतना की अभिव्यक्ति है। साथ ही वहाँ कि मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा को भी ‘इन्सान को इंसाँ समझने’ के जीवन मूल्य की ग़ज़लकार बिना किसी लाग-लपेट के बड़ी गम्भीर, गहन, सहज व शालीनता के साथ प्रशंसा भी करता है। पाश्चात्य जीवन शैली में प्रेम पर किसी प्रकार के जाति, धर्म, परम्परा, मर्यादा के पहरे नहीं है। हम भले ही उसके स्याह-श्वेत पक्षों को लेकर वाद-विवाद, प्रतिवाद करते रहे किन्तु स्वच्छंद एवं सहज प्रेमाभिव्यक्ति वहाँ के जीवन का अंग है। सम्भवतः इसी के चलते वहाँ वेलेन्टाइन-डे जैसे विशेष दिन मनाने का भी प्रचलन रहा है। इस प्रेमोत्सव तथा उपहार के परिदृश्य को भी महावीर शर्मा अपनी ग़ज़ल में कुछ इस तरह बयाँ करते है-
‘‘ये खास दिन है प्र्रेमियों का प्यार की बातें करों
कुछ तुम कहो कुछ वो कहे इज़हार की बातें करों
ये कीमती सा हार जो लाए हो वो रख दो कहीं
बाहें गले में डालकर इस हार की बातें करों।’’
यद्यपि भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो प्र्रेम कोई प्रदर्शन की वस्तु नही है तथा न ही वह किसी कीमती उपहार या किसी दिन विशेष की प्रतीक्षा का मोहताज है किन्तु पाश्चात्य भाग-दौड़ भरी जीवन शैली में हर मनोभाव के लिए कुछ विशेष दिन के आयोजन का प्रचलन भी है। इसी की परिणति है वहाँ मनाए जाने वाले विभिन्न विशेष दिन- मदर डे, फादर डे, वेलेन्टाइन डे आदि। महावीर शर्मा जहाँ इस दिन के प्रेमपूर्ण खुले वातावरण एवं उमंग को व्यक्त करते है। वहीं प्राण शर्मा इसका प्रतिपक्ष रचते है। वे पाश्चात्य जीवन की इस उच्छृंखला व अमर्यादित परिदृश्य के प्रति अपनी असहमति प्रकट करते है-
‘‘आँखों में कुछ तो लाज हो प्यारे/कुछ तो ऐसा समाज हो प्यारे
मन को अच्छा लगे सुधा जैसा/चाहे कोई रिवाज हो प्यारे।’’
प्राण शर्मा के इन शेरों का स्वर कोई बहुत ज्यादा लाऊड नहीं है बल्कि ये बहुत संजीदगी और धीमें से एक सहज एवं मानीखेज़ बात सामने रखते है कि प्रेम कोई प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। भले कोई रिवाज हो किन्तु प्रेम में भी एक मर्यादा, शालीनता, निजता का ध्यान रखा जाना आवश्यक है तभी यह भाव अमृत तुल्य है अन्यथा बंद मुट्ठी लाख की है जो वो खुल जाने पर खाक की प्रतीत होने लगती है। इस नसीहत के पीछे कहीं न कहीं भारतीय संस्कार प्राण शर्मा को उद्वेलित करते हैं। प्रवासी ग़ज़लकारों के अवचेतन में रची-बसी भारतीय संस्कृति, संस्कार, मूल्य, अवसर पाते ही उनके शेरों में झलक उठते है तथा वे विदेश में बैठकर भी कहीं न कहीं उनको बचाए रखने की जद्दोजहद में रहते हैं-
‘‘सच बात गर कहूँ तो बुरा मानते है लोग
गाँवों में पनघट की वो जीनत नहीं रही
अब कोई बैठता नहीं पीपल की छाँव में
पीपल की जैसे अब कोई कीमत नहीं रही।’’
परदेश में रहकर भी अंजना संधीर के जहन में भारतीय गाँवों, पनघट, पीपल की छाँव के महत्व व उनकी कीमत में होने वाले क्षरण के प्रति चिन्ता स्पष्ट झलकती है। ऐसे ही देवी नागरानी की ग़ज़लों में भारतीय मूल्यों व संस्कारों की बानगी के साथ-साथ पाश्चात्य जगत् की त्वरा, प्रतिस्पर्द्धा, कृत्रिमता एवं अतिमहत्वाकांक्षी जीवन-शैली के खोखलेपन को भी न केवल उजागर किया है, वरन् उसके सामने बड़ी विनम्रता के साथ प्रश्नचिह्न भी लगाया है-
‘‘यूँ तो रौनक हर तरफ है फिर भी दिलजला नहीं
क्या बताएँ हम किसी को क्या कमी महफिल में है।
पूछो उससे बोझ हसरत का लिए फिरता है जो
क्या मजा उस जिंदगी में गुजरी जो किलकिल में है।’’
प्रवासी ग़ज़लों ने पाश्चात्य जगत् की चकाचौंध भरे दूर से दिखाई देने वाले ग्लैमर एवं स्वच्छंदता की मारीचिका के पीछे छिपी अतृप्ति, असंतोष, अकेलेपन, संवेदनहीनता की स्थितियों को भी अनावृत्त कर हमारे सम्मुख प्रकट किया है। प्रवासी साहित्यकार भारतीय को उनकी कमियों से भी अवगत कराने में पीछे नहीं है क्योंकि ये वो संवेदनशील व्यक्ति है जिनके पास भारतीय व पाश्चात्य दोनों ही जीवन-पद्धति एवं संस्कृति को नजदीक से अनुभूत करने का अवसर रहा है, जिसका तटस्थ भाव से विश्लेषण कर ये बहुत मूल्यवान चिंतन को प्रकट करते है। प्राण शर्मा अपनी एक नज़्म में भारतीय जनमानस को संदेश देते हुए कहते है-
‘‘क्यों कर रहे हो तुम उल्टे तमाम काम
अपने दिलों की तख्तियों पे लिख लो ये कलाम
जो कौमे एक देश की आपस में लड़ती है
वे कौमें घास-फूँस की मानिंद सड़ती है
ये प्रण करो खाओगे रिश्वत कभी नहीं
बेचोगे अपने देश की इज्जत कभी नहीं।’’
अस्तु प्रवासी हिन्दी ग़ज़ल की रेंज बहुत व्यापक है उसकी जद् में प्रवासी जीवन एवं उसकी विविध संवेदनाओं की ही मुखर अभिव्यक्ति नहीं हुई है अपितु देश-दुनिया के तमाम समसामयिक घटनाक्रमों एवं मुद्दों को लेकर भी वह सजग व सृजनशील बनी हुई है। कमलेश्वर ने प्रवासी साहित्य पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि रचना अपने मानदंड खुद तय करती है इसलिए उसके मानदंड बनाए नहीं जाएंगे। यह बात प्रवासी हिन्दी ग़ज़ल के सन्दर्भ में भी सत्य प्रतीत होती है। प्रवासी हिन्दी ग़ज़ल भी किन्हीं बने बनाए मानदंडों को लेकर नहीं चलती। प्रायः प्रवासी साहित्य प्रवासी ग़ज़ल जैसे विशेषणों को देखते ही यह अनुमान लगाने का प्रयास किया जाने लगता है कि अमुक ग़ज़लों या साहित्य में इस तरह की बातें संवेदनाएँ चित्रित हुई होंगी किन्तु प्रवासी ग़ज़ल इन पूर्वानुमानों को गलत साबित करती है। इन ग़ज़लों की कैनवास बहुत व्यापक है जिसके अन्तर्गत प्रवासी जीवन व उससे जुड़ी तमाम संवेदनाओं, उनके संघर्ष, अकेलेपन, अपने पीछे छूट आए परिवार, समाज, देश की स्मृतियों, नए परिवेश, समाज व मूल्यों में स्वयं के सामंजस्य एवं मिस फिट होने की मनोव्यथा के साथ ही साथ वैश्विक दुनिया में होने वाली उथल-पुथल एवं तमाम समसामयिक मुद्दों को लेकर प्रवासी ग़ज़लकार सचेत व संवेदनशील बने हुए है। प्रवासी कविता पर जहाँ कई बार यह आक्षेप लगाए जाते हैं कि उसमें सपाट बयानी तथा संस्कृतनिष्ठता के प्रति दुरूहता हावी रहती है जिससे भावों की धारा प्रवाह में एक बाधा सी बनी रहती है वहीं प्रवासी हिन्दी ग़ज़ल इन आक्षेपों से विमुक्त जान पड़ती है और इसमें भावों एवं भाषा की रवानगी सहज व स्वाभाविक प्रतीत होती है जो बड़ी सादगी व संजीदगी से अपनी बात कहने की कोशिश करती है।

सन्दर्भ सूची
– (सं0) जाहिदुल दीवान, ‘प्रवासी साहित्य और भारतीय संस्कृति’, एकेडमिक पब्लिशिंग नेटवर्क, मंडावली, दिल्ली, 92, पृ0सं0 9
– विश्म्भरा, विश्व हिंदी भाषा लेखक संघ में दिए लेख, ‘प्रवासी हिंदी और प्रवासी साहित्य के अन्तर्सम्बन्ध’ 12 दिसम्बर, 2012
– अनिल जोशी, ‘प्रवासी लेखन नयी जमीन नया आसमान’, वाणी प्रकाशन दरियागंज, दिल्ली, 37-38
– (सं0) जाहिदुल दीवान, ‘प्रवासी साहित्य और भारतीय संस्कृति’, एकेडमिक पब्लिशिंग नेटवर्क, मंडावली, दिल्ली, 92, पृ0सं0 16
– डॉ0 विशाला शर्मा, त्रैमासिक ई-पत्रिका, ‘अपनी माटी’, वर्ष 3, अंक-24, मार्च, 2017
– गिरीश पंकज, शोध हिंदी वर्ड प्रेस कॉम के लेख ‘प्रवासी साहित्य और मानवाधिकार, 23 जनवरी, 2017
– सरदार मुजावर, ‘हिंदी ग़ज़ल की नई दिशाएँ’, राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, पृ0सं0 94
– प्रो0 कृष्ण किशोर गोस्वामी, ‘गर्भनाल’ प्रवासी भारतीयों की ई-पत्रिका, 1 नवम्बर, 2019
– देवी नागरानी- दिल से दिल तक (ग़ज़ल संग्रह), कविता कोश डॉट कॉम से।
– महावीर शर्मा- कविता कोश.वतह
– भारतेन्दु विमल- पुरवाई डॉट कॉम इन्टरनेट से उद्धृत
– डॉ॰ विशाला शर्मा- अपनी माटी (त्रैमासिक ई-पत्रिका), वर्ष 3, अंक 24, मार्च 2017
– प्राण शर्मा- कविता कोश
– महावीर शर्मा- कविता कोश
– डॉ॰ अंजना संधीर- ‘संगम’, पार्श्व पब्लिकेशन, अहमदाबाद, गुजरात, पृ॰ 246
– (सं॰) दीक्षित दनकौरी- ग़ज़ल: दुष्यन्त के बाद (भाग-तीन), पृ॰ 205
– (सं॰) दीक्षित दनकौरी- ग़ज़ल: दुष्यन्त के बाद (भाग-तीन), पृ॰ 205
– महावीर शर्मा- कविता कोश
– प्राण शर्मा- कविता डॉट कॉम ओ.आर.जी. से उद्धृत
– डॉ॰ अंजना संधीर- संगम, पार्श्व पब्लिकेशन, अहमदाबाद, पृ॰ 339
– देवी नागरानी- चरागे-दिल, पृ॰ 128
– प्राण शर्मा- कविता कोश डॉट कॉम ओ.आर.जी. से उद्धृत

Latest News

  • Express Publication Program (EPP) in 4 days

    Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...

  • Institutional Membership Program

    Individual authors are required to pay the publication fee of their published

  • Suits you and create something wonderful for your

    Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.