ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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इक्कीसवीं सदी में भारत-नेपाल सम्बन्धों का बदलता स्वरूप

 डॉ0 प्रवीण कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर
डी0ए0वी0 (पीजी) कॉलिज,बुलन्दशहर

मानव जीवन ने अपनी विकास यात्रा के विभिन्न चरणों को पार करते हुए इक्कीसवीं सदी में भी दो दशकों का सफर तय कर लिया है। इस विकास यात्रा में मानव-जीवन के विविध पक्षों- सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक-सांस्कृतिक आदि में व्यापक उतार-चढ़ाव एवं क्रांतिकारी परिवर्तनों के दौर आए है, किन्तु कुछ मूलभूत व्यवस्थाएँ और प्रक्रियाएँ चिरकाल से मानवीय जीवन का अभिन्न अंग बनी रही है। यद्यपि उनके स्वरूप में युगानुरूप विविध परिवर्तन अवश्य दृष्टिगोचर होते रहे हैं। राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत ऐसी ही एक अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया है- विभिन्न राज्यों के मध्य परस्पर सम्बन्धों के संचालन की गतिविधियाँ जिन्हें आधुनिक राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत-राजनय या विदेश नीति के नाम से अभिहीत किया जाता है।
यद्यपि राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनय का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि राज्य नामक व्यवस्था के अस्तित्व में आने का समय है किन्तु आरम्भिक दौर में इसकी भूमिका व महत्ता की उपेक्षा कर राज्य को केन्द्रीय स्थिति में रखकर ही सम्पूर्ण गतिविधियों को संचालित व विश्लेषित किया जाता रहा। यद्यपि समय-समय पर विभिन्न विद्वानों ने राज्य संचालन हेतु विभिन्न नीतियों व नियमों का संकेत किया है तथापि भारतीय सन्दर्भ में विचार करें, तो आचार्य चाणक्य ने स्पष्ट रूप से राज्यों के मध्य परस्पर सम्बन्धों के संचालन की प्रक्रिया का व्यापक एवं सैद्धान्तिक विवेचन प्रस्तुत किया है। उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र के ‘‘सातवें अभिकरण का विषय राज्य की परराष्ट्र नीति से सम्बन्धित है। सैन्य पद्धति के अन्तर्गत वैदेशिक नीति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना का बहुत श्रेय आचार्य कौटिल्य को ही है। युद्ध संचालन हेतु पर राष्ट्र विभाग की स्थापना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मनु की भांति उन्होंने वैदेशिक सम्बन्धों की स्थापना के अन्तर्गत छः प्रकार की नीतियाँ-सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वैदभाव का विवेचन किया है और विदेश नीति का इन सिद्धान्तों के अनुरूप क्रियान्वयन करने के लिए चार उपायों- साम, दाम, दण्ड और भेद कार्यों के प्रयोग पर बल दिया है।’’
चाणक्य द्वारा प्रतिपादित-षाड्गुण सिद्धान्त तथा मंडल सिद्धांत भी विभिन्न राज्यों के मध्य सम्बन्धों के संचालन की प्रक्रिया की गहन व सूक्ष्म विवेचना हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि प्रत्येक युग में राज्य द्वारा अपने परराष्ट्र सम्बन्धों के संचालन की प्रक्रिया का अपना विशिष्ट महत्व रहा है किन्तु बीसवीं सदी में आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के उदय तथा साम्राज्यवादी विस्तार की प्रवृत्ति के ह्रास की स्थिति में राज्यों के मध्य परस्पर सम्बन्धों के संचालन में उनकी विदेश नीति अर्थात् राजनय (कूटनीति) की भूमिका एवं महत्ता स्पष्ट रूप से उभरकर आई है। पैडलफोर्ड तथा लिंकन विदेश नीति को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि ‘‘विदेश नीति उस प्रक्रिया का मुख्य तत्त्व है, जिसके द्वारा एक राष्ट्र अपने विशेष लक्ष्यों तथा उद्देश्यों को ठोस कार्य-दिशा देता है तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने तथा बनाए रखने का यत्न करता है। (थ्वतमपहद च्वसपबल पे जीम ामल मसमउमदज पद जीम चतवबमेे इल ूीपबी ं ेजंजम जतंदेसंजमे पजे चतवनकसल बवदबमपअमक हवंसे ंदक ंबजपवद ंदक जव ंजजंपद जीमेम वइरमबजपअमे ंदक चतमेमतअम पजे पदजमतमेजेण्)’’
आधुनिक समय में विशेषकर बीसवीं सदी में हुए दो विश्व युद्धों में हुई भीषण जन-धन की हानि ने पर राष्ट्र सम्बन्धों के संचालन में विदेश नीति तथा राजनय की भूमिका की ओर राजनीतिक जगत् को और अधिक गम्भीरतापूर्वक चिंतन करने को प्रेरित किया क्योंकि अपने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति की दृष्टि से दूसरे राष्ट्र पर आधिपत्य स्थापित करने अर्थात् युद्ध करने के भीषण परिणाम भी स्पष्ट रूप से वैश्विक पटल पर दृष्टिगोचर हो चुके थे। विनाशक हथियारों एवं परमाणु युद्धों की भयावहता में राजनय की महत्ता और अधिक बढ़ गई है। ‘‘जो राष्ट्र आधुनिक युद्ध के सम्भाव्य परिणामों के प्रति सचेत है उनकी विदेश नीतियों का लक्ष्य अवश्य ही शान्ति होगा। विदेश नीति का संचालन अवश्य ही इस प्रकार होना चाहिए कि शांति-संरक्षण सम्भव हो सके तथा युद्ध का आरम्भ अवश्यम्भावी न हो जाए। सम्पूर्ण प्रभुसत्ता-सम्पन्न राष्ट्रों की एक समाज में सैनिक शक्ति विदेश-नीति का एक आवश्यक यंत्र है। तथापि विदेश-नीति के यंत्र को विदेश-नीति का स्वामी नहीं बनना चाहिए, जिस प्रकार शांति सम्भव करने के लिए युद्ध लड़ा जाता है उसी प्रकार शान्ति को स्थायी बनाने के लिए विदेश-नीति का संचालन होना चाहिए।’’
युद्धों को टालने तथा शान्ति को स्थायित्त्व प्रदान करने की दृष्टि से बीसवीं सदी के मध्यांतर से विदेश नीति तथा राजनय की महत्ता व भूमिका में निरन्तर वृद्धि होती आई है। विदेश-नीति तथा राजनय परस्पर घनिष्ठता के चलते ही सामान्य रूप से इन्हें एक-दूसरे के पर्याय के रूप में भी प्रयुक्त कर लिया जाता है किन्तु इनके सूक्ष्म विभेद व सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए सर विक्टर वैलेजली लिखते है- ‘‘कूटनीति विदेश नीति है अपितु इसके कार्यान्वयन का एक साधन है। दोनों एक दूसरे के पूरक है क्योंकि एक के बिना दूसरा व्यर्थ है। . . . विदेश नीति जहाँ पर रणनीति है, कूटनीति वहाँ पर रण-कौशल है . . . विदेश नीति विदेशी सम्बन्धों की आत्मा है तथा कूटनीति वह गतिविधि है जिसके माध्यम से विदेश नीति को लागू किया जाता है। अन्य राष्ट्रों के साथ सफल सम्बन्ध बनाने के लिए किसी राष्ट्र का तर्क संगत विदेश नीति के साथ दक्ष कूटनीति का अवश्य ही समावेश करना होता है।’’
अस्तु विदेश नीति के संचालन एक कार्यान्वयन की दृष्टि से राजनय (कूटनीति) की महत्ता स्वयंसिद्ध है तथा विभिन्न अवसरों पर विदेश-नीति की सफलता-विफलता बहुत कुछ राजनयिक गतिविधियों पर ही निर्भर होती है। अपने स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही भारत ने अपनी विदेश नीति के रूप में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त को सर्वोपरि स्थान प्रदान किया है तथा इसी के चलते अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी तथा सोवियत संघ के नेतृत्व वाले साम्यवादी गुटों से तटस्थता की नीति अपनाते हुए भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति को अपनी विदेश नीति का मुख्य आधार स्वीकार किया। ‘‘बाहरी अथवा आंतरिक दोनों ही कारणों ने विदेश नीति के विकल्प के रूप में गुट-निरपेक्षता का चुनाव करने के लिए नए तथा पुराने राष्ट्रों को प्रेरित किया। इनमें से कुछ कारण समय-समय पर बदलते रहे हैं। फिर भी, गुटनिरपेक्षता की नीति जारी रही क्योंकि सरकारों के बदलने के बावजूद यह राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करती रहती है।’’
भारत ने भी अपनी विदेश-नीति के आधार स्वरूप गुट निरपेक्षता की ही नीति को अपनाया तथा विश्व की पूँजीवादी व साम्यवादी महाशक्तियों के द्विध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में आक्रामकता एवं वर्चस्व की राजनीति से इतर अपने पड़ोसी व छोटे-बड़े देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के साथ आगे बढ़ने की नीति को अपनाया। इस सन्दर्भ में नेपाल-भारत के लिए ऐतिहासिक, भौगोलिक व सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत ही सन्निकट तथा महत्वपूर्ण देश रहा है। दोनों देशों के मध्य बीसवीं सदी में भी सम्बन्धों में बीच-बीच में उतार-चढ़ाव के दौर आते रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण नेपाल की स्वयं में राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त विचलन की स्थिति भी रही है। जहाँ परम्परागत राजशाही व ग्राम पंचायत व्यवस्था तथा सत्ता के लोकतांत्रिकरण के मध्य खींचातान चलती रही है। यद्यपि भारत नेपाल में एक स्वस्थ व स्थिर लोकतांत्रिक-राजनीतिक व्यवस्था का पक्षधर रहा है, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से इसके लिए उसके नेपाल की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप न करने की ही नीति का अनुसरण किया है। इक्कीसवीं सदी में भारत-नेपाल सम्बन्धों की व्यवस्थित रूप से समझने के लिए हम भारतीय राजनीति में विभिन्न सरकारों के कार्यकालों के आधार पर उनका विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे तो समुचित रहेगा।
भारतीय राजनीति ने इक्कीसवीं सदी में प्रवेश अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन0डी0ए0 की सरकार के साथ किया, जिसे देश के अन्दर तथा अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में बहुत-सी कठिनाईयों व मुद्दों से दो-चार होना पड़ रहा था। 1998 ई0 में हुए परमाणु परीक्षणों के बाद अन्तर्राष्ट्रीय जगत की नाराजगी व प्रतिबंधों के साथ ही 1999 ई0 में पाकिस्तान से कारगिल-युद्ध, दिसम्बर 1999 ई0 में भारतीय नागरिक सेवा के एक हवाई जहाज प्ब्.814 का काठमांडू से उड़ान के पश्चात् आतंकवादियों द्वारा अपहरण की घटना से भारत-नेपाल सम्बन्धों में विगत सदी के अंत में कुछ शिथिलता की स्थिति विद्यमान थी। यद्यपि जुलाई 2000 में नेपाली प्रधानमंत्री श्री गिरिजा प्रसाद कोइराला द्वारा की गई भारत यात्रा से नई सदी में भारत-नेपाल सम्बन्धों को नई दिशा देने के वातावरण का निर्माण करने का प्रयास भी हुआ। किन्तु इक्कीसवीं सदी के प्रथम वर्ष में ही नेपाल की राजनीति में एक बहुत बड़ी दुर्घटना हुई। ‘‘1 जून, 2001 के दिन नेपाल के महाराजा श्री वीरेन्द्र, महारानी ऐश्वर्या तथा शाही परिवार के कुछ अन्य सदस्यों की शाही महल के अन्दर युवराज देवेन्द्र द्वारा हत्या कर दी गई तो इससे नेपाल की राजनीति में एक भारी अस्थिरता पैदा होती दिखाई दी। कुछ तत्वों ने इसे भी भारत विरोधी रंग देने का प्रयास किया। कई एक माओवादी तथा चीन समर्थक गुटों ने इसे एक षड्यंत्र कहा तथा भारत का कुछ हाथ होने अथवा हस्तक्षेप होने की अफवाह फैलाने का यत्न किया।’’
वस्तुतः नेपाल में भी बहुत से भारत-विरोधी तत्व व गुट विद्यमान हैं, जो समय-समय पर विभिन्न मुद्दों को लेकर भारत विरोधी गतिविधियों व वातावरण सृजन करने में संलिप्त रहते हैं। इस राजनीतिक घटनाक्रम में श्री ज्ञानेन्द्र नेपाल को नए महाराजा के रूप में गद्दी मिली, जिसका राजंतत्र विरोधी जन-समूहों तथा सक्रिय माओवादी गुटों ने प्रतिरोध किया तथा विभिन्न स्थानों में हिंसक घटनाएँ एवं सरकारी मशीनरी व व्यवस्था को भारी हानि पहुँचाने के प्रयास भी होने लगे। ऐसी स्थितियों का सामना करने के लिए कोइराला के स्थान पर श्री शेर सिंह देउबा को नेपाल का प्रधानमंत्री बनाया गया। इसी दौरान अगस्त 2001 में भारतीय विदेश मंत्री श्री जसवंत सिंह ने नेपाल की त्रि-दिवसीय यात्रा की, जिसमें आपसी सहयोग तथा एक-दूसरे के विरूद्ध गतिविधियों के संचालन में अपने भू-भाग का उपयोग न करने देने के दृढ़ प्रयास करने का आश्वासन दिया गया। माओवादियों की हिंसक कार्यवाहियों की स्थिति को देखते हुए, नवम्बर 2001 में नेपाल में आपातकाल की घोषणा कर दी गई तथा सेना व पुलिस का माओवादियों के विरूद्ध ठोस कार्यवाही करने की छूट प्रदान कर दी गई। भारत ने यद्यपि सीधे सैनिक हस्तक्षेप व सहायता की स्थिति से बचते हुए नेपाल के राजनीतिक नेतृत्त्व को अपना सहयोग व समर्थन प्रदान किया। वर्ष 2002 भारत-नेपाल सम्बन्धों की गर्मजोशी का वर्ष रहा। जनवरी 2002 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन में भाग लेने अटल बिहारी वाजपेयी नेपाल गए तथा वहाँ के प्रधानमंत्री देऊबा से भी उनकी द्विपक्षीय वार्ता हुई, जिसके पश्चात् नेपाली प्रधानमंत्री ने मार्च 2002 में भारत की छः दिवसीय यात्रा की जिसमें आपसी सहयोग, व्यापार तथा सीमा मतभेदों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने पर व्यापक सहमति बनी। मई 2002 में भारतीय सेना प्रमुख जनरल एस0 पद्मानाभन ने भी नेपाल यात्रा की तथा वहाँ के सेना प्रमुख से वार्ता की जो भारत-नेपाल के द्विपक्षीय सैनिक सम्बन्धों की दृष्टि से एक सकारात्मक कदम रहा। जून 2002 में ही नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र ने भी भारत की यात्रा की।
वस्तुतः अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अटल बिहारी को एक सुदृढ़ राष्ट्रवादी नेता के साथ-साथ अपने पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के लिए नई पहल करने वाले नेता के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने भारत के चिर-प्रतिद्वंद्वी रहे, पाकिस्तान के साथ भी भारत के सम्बन्धों को नई दिशा देने का प्रयास किया। उनके कार्यकाल में भारत-नेपाल सम्बन्धों को भी नई ऊँचाइयाँ प्रदान करने के अनेक प्रयास किए गए तथा नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व का प्रयास भी इस दिशा में सकारात्मक ही रहा। किन्तु नेपाल में व्याप्त माओवादी हिंसक आन्दोलन तथा भारत विरोधी तत्वों ने इन सम्बन्धों को गर्मजोशी के साथ आगे बढ़ने में अनेक व्यवधान उत्पन्न किए।
वर्ष 2004 में भारत में हुए आम चुनावों में जनता ने बदलाव की बयार का दामन थामते हुए एन0डी0ए0 की जगह यू0पी0ए0 के हाथों में सत्ता की चाबी सौंपी तथा अगले दस वर्षों तक प्रधानमंत्री रहे। डॉ0 मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत-नेपाल सम्बन्धों में कई उतार-चढ़ाव के दौर आए। मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल के दौरान तो नेपाल में राजनीतिक स्थिरता तथा खींचतान का दौर ही चलता रहा तथा वहाँ नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र पर लोकतंत्र की बहाली का निरंतर बढ़ता दबाव, माओवादियों के विरोध प्रदर्शन तथा नेपाल के बड़े भू-भाग पर नियंत्रण कर लेने के पश्चात् राजधानी काठमांडू व बड़े नगरों की नाकेबंदी की विवादित स्थिति के समक्ष अन्ततः राजा ज्ञानेन्द्र को झुकना ही पड़ा तथा अप्रैल 2006 में ‘‘सात राजनीतिक दलों की ओर से प्रधानमंत्री चुने गए गिरिजा प्रसाद कोइराला को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाते हुए देश में नवीन संविधान के निर्माण हेतु संविधान सभा के निर्वाचन का रास्ता साफ कर दिया गया। इस समयावधि के दौरान एक अंतरिम संविधान लागू किया गया, जिसके तहत एक संविधान सभा का गठन हुआ था। इस संविधान के तहत निर्देशित हुआ था कि पूर्ण संविधान 28 मई, 2010 तक लागू हो जाना चाहिए, किन्तु संविधान सभा के सदस्यों के बीच सहमति न बन पाने के कारण इस समय सीमा को एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया था . . . इन उपायों के बावजूद संविधान सभा पूर्ण संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करने में असफल रही और 28 मई 2012 को चार साल की अवधि में संविधान न बना सकने के कारण संविधान सभा को भंग कर दिया गया।’’
तदुपरांत नवम्बर 2013 में नेपाल में दूसरी संविधान सभा के गठन के लिए चुनाव हुए तथा इसके समक्ष जनवरी 2015 तक पूर्ण संविधान का निर्माण करने का लक्ष्य रखा गया। नेपाल की इन राजनीतिक अनिश्चितता की परिस्थितियों में भारत-नेपाल सम्बन्ध एक सामान्य स्तर पर चलते रहे, उनमें कोई विशेष प्रगाढ़ता दृष्टिगोचर नहीं हुई। इसका एक मुख्य कारण नेपाल में जारी संवैधानिक संकट की स्थिति रही तथा दूसरे नई दिल्ली भी सम्भवतः इस दृष्टि से कुछ शिथिल ही रही। इसका दूसरा बड़ा कारण नेपाल की राजनीति में माओवादी दलों द्वारा सत्ता प्रतिष्ठानों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना भी रहा, जो कि विचारधारात्मक दृष्टि से चीन की ओर झुकाव रखते थे। दिसम्बर 2009 में प्रधानमंत्री बने माधव कुमार नेपाल ने भारत-नेपाल सम्बन्धों में दशकों से चली आ रही परम्परा कि नेपाल का प्रत्येक प्रधानमंत्री अपनी पहली अधिकारिक विदेश यात्रा के लिए भारत को ही चुनते थे कि दरकिनार करते हुए अपनी पहली अधिकाधिक विदेश यात्रा के लिए चीन को चुना। मनमोहन सिंह स्वयं अपने दस वर्ष के कार्यकाल में अधिकारिक रूप से नेपाल यात्रा पर नहीं गए। इस प्रकार हम देखें तो मनमोहन सिंह का युग भारत-नेपाल सम्बन्धों को नई सदी में नई ऊँचाईयों पर ले जाने की दृष्टि से उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता है।
भारत में मई 2014 में हुए आम चुनावों में एक नवीन राजनीतिक परिदृश्य उभारकर आया, जिसमें कई दशकों बाद एक पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार अस्तित्व में आई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में ही अपने पड़ोसी सार्क देशों के सभी राज्याध्यक्षों को आमंत्रित कर आपसी सम्बन्धों को एक नवीन दिशा प्रदान करने का प्रयास किया। अपने शपथ ग्रहण के कुछ सप्ताह के पश्चात् ही नरेन्द्र मोदी ने अगस्त 2014 में नेपाल की अधिकारिक यात्रा की तथा इस दौरान वहाँ के सभी बड़े व प्रमुख व्यक्तियों से मुलाकात व परिचर्चा कर दोनों देशों के सम्बन्धों को नई ऊँचाइयाँ प्रदान करने की अपनी मंशा जताई।
अप्रैल 2015 में नेपाल में आए प्रचंड भूकम्प के बाद भारत ने बढ़-चढ़कर नेपाल की सहायता की। किन्तु भारत की इस दरियादिली का भारत-नेपाल सम्बन्धों में सकारात्मक योगदान होता उससे पूर्व ही नेपाल के नवीन संविधान के कुछ प्रावधानों को लेकर असंतुष्ट मधेसियों ने आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। सितम्बर 2015 में इस संविधान के लागू होते ही इस प्रतिरोध ने और अधिक उग्र रूप ले लिया। इस मधेशी आन्दोलन ने भारत से नेपाल को जाने वाली सामग्रियों के मार्ग को अवरूद्ध कर दिया तथा इस आर्थिक नाकेबंदी से भारत-नेपाल सम्बन्धों पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वहाँ एक व्यापक वर्ग में इस विचार को बल मिला कि यह सब भारत की शय पर हो रहा है, जिससे नेपाल में भारत विरोधी तत्वों को अपनी स्थिति मजबूत करने का और सुनहरा अवसर मिला तथा नेपाल-चीन की ओर और अधिक झुकाव रखने लगा, जिससे एक बार तो भारत-नेपाल सम्बन्ध अपने निचले स्तर पर पहुँच गए। यद्यपि प्रधानमंत्री बनने के पश्चात् श्री के0वी0 ओली ने फरवरी 2016 में अपनी पहली विदेश यात्रा के रूप में भारत को चुना। ‘‘इस दौरे का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों के बीच आई गलतफहमियों को दूर करना तथा रिश्तों को मजबूत करने का प्रयास था। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच अलग-अलग समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, परन्तु इस मौके पर परम्परा के अनुसार कोई साझा बयान दोनों देशों की तरफ से जारी नहीं हुआ।’’
इसके अगले ही माह ओली ने चीन की यात्रा की तथा इस दौरान दोनों देशों में 10 समझौते हुए जिनमें कुछ रणनीतिक दृष्टि से भारत के लिए चिंताजनक भी है, जिनमें पारगमन परिवहन सम्बन्धी समझौते के तहत चीन ने नेपाल को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हेतु अपने बंदरगाह के उपयोग पर सहमति दी। यद्यपि नेपाल की भौगोलिक स्थिति तथा चीन के साथ उसकी सीमाओं की जटिलता को दृष्टिगत रखते हुए उसके लिए भारत के मार्गों से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करना सहज व सुगम है किन्तु इक्कीसवीं सदी में तेजी से बदलते अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में नेपाल जैसा छोटा-सा देश भी अपनी राष्ट्रवादिता तथा चीन व भारत के मध्य अपनी स्थिति की महत्ता का रणनीतिक लाभ उठाने की नीति का अनुसरण करने लगा है। विचारधारात्मक दृष्टि से भी नेपाल में सत्ता पर काबिज माओवादी पार्टी के के0पी0 ओली स्वयं को चीन की ओर झुका हुआ पाते हैं, वहीं दूसरी ओर चीन भी नेपाल में भारत विरोधी इस लहर को भुनाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता है तथा वह नेपाल में तकनीकी व व्यापारिक विनिवेश की विभिन्न परियोजनाओं में अपनी भागीदारी निरन्तर बढ़ाता जा रहा है, जिससे भारत के इस अभिन्न मित्र राष्ट्र को चीन अपने पाले में खड़ा कर भारत पर एक रणनीतिक बढ़त व दबाव की स्थिति बना सकें। भारत द्वारा संचालित नेपाल की विकास परियोजनाओं की धीमी प्रगति के चलते नेपाल में चीन की स्थिति व प्रभाव में निरन्तर मजबूती आती जा रही है तथा इस वर्ष भारत-चीन के बीच सीमा पर जारी गतिरोध के बीच नेपाली नेतृत्व द्वारा भारत-विरोधी निर्णयों व बयानबाजी को देखकर ऐसा आभास होता है कि भारत-नेपाल सम्बन्ध एक बार पुनः अपने निचले स्तर की ओर जा रहे हैं। मई 2020 में नेपाल की कैबिनेट की मंजूरी के बाद एक संशोधित राजनीतिक मानचित्र जारी किया गया, जिसमें भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाथुरा को नेपाली भू-भाग के रूप में दर्शाया गया है। इतना ही नहीं भारत में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पश्चात् सदियों पुराने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के अवसर पर भी के0पी0 शर्मा ओली ने भानु जयंती के कार्यक्रम में विवादित बयान दिया कि भगवान राम भारतीय न ही नेपाली थे। ओली ने कहा ‘‘हमारा हमेशा से ही मानना रहा है कि हमने राजकुमार राम को सीता दी। लेकिन हमने भगवान राम भी दिए। हमने राम अयोध्या से दिए, लेकिन भारत से नहीं। उन्होंने कहा कि अयोध्या काठमांडू से 135 किलोमीटर दूर बीरगंज का एक छोटा-सा गाँव थोरी था।’’
वस्तुतः पिछले कुछ वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक नवीन प्रवृत्ति के उभार को स्पष्ट रूप से अनुभूत किया जा सकता है कि प्रायः दुनियाँ के सभी महत्वपूर्ण देशों में अपनी परम्परागत छवि एवं विचारधारा से इतर तात्कालिक रूप से राष्ट्रवाद की धारणा को प्रमुखता दी जा रही है तथा अपने देश में भी राष्ट्राध्यक्षों पर इस धारणा का दबाव स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। इसका एक कारण यह भी है कि इक्कीसवीं सदी में सूचना व तकनीकी क्रांति ने इनका विस्तार एक आमजन तक पहुँचा दिया है, जो विभिन्न राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय व प्रतिक्रिया व्यापक रूप से प्रकट करता है। ऐसे में किसी भी देश के राजनीतिक नेतृत्व द्वारा अपने कूटनीति के संचालन में अपने देश की जनांक्षाओं का दबाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। नेपाली राजनीतिक नेतृत्व (विशेषकर निवर्तमान प्रधानमंत्री) ओली को अपने देश में भी राजनीतिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है इसलिए वे समय-समय पर ऐसे विवादित बयान देते रहते हैं, जिससे कि वहाँ की जनता की राष्ट्र भावना का उपयोग अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए किया जा सके। किन्तु इस तरह की बयानबाजी व कार्य भारत-नेपाल सम्बन्धों की दृष्टि से तथा दोनों देशों के दूरगामी हितों की दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का यह एक अटल सत्य है कि हम अपने मित्र शत्रु तो बदल सकते है किन्तु अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते है। अतः भारत व नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व को यह बात भली-भाँति समझनी होगी कि भारत व नेपाल के सहयोगपूर्ण व परस्पर मधुर सम्बन्ध दोनों ही देशों के विकास, समृद्धि एवं शांति व्यवस्था के लिए परमावश्यक है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ0 एस0एल0 शर्मा तथा डॉ0 बी0एस0 शर्मा- भारतीय राजनीतिक विचारक, पंचशील प्रकाशन, जयपुर-1997, पृ0सं0 51
2. यू0आर0 घई तथा वी0 घई- भारत की विदेश नीति, न्यू एकेडमिक पब्लिशिंग कम्पनी, जालंधर, पृ0 02
3. हंस जे0 मॉरगेन्थाऊ- राष्ट्रों के मध्य राजनीति (अनुदित पुस्तक), हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, चतुर्थ संस्करण-2003, पृ0 666
4. यू0आर0 घई तथा वी0 घई- भारत की विदेश नीति, न्यू एकेडमिक पब्लिशिंग कम्पनी, जालंधर, पृ0 16
5. एम0एस0 राजन- गुटनिरपेक्षता आन्दोलन और सम्भावनाएँ, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृ0 32
6. यू0आर0 घई तथा वी0 घई- भारत की विदेश नीति, न्यू एकेडमिक पब्लिशिंग कम्पनी, जालंधर, पृ0 458
7. प्रभात खबर.डॉट कॉम की डिजीटल डेस्क से 25 सितम्बर, 2015 के एक लेख संविधान के बाद नेपाल।
8. विवेकानन्द इन्टरनेशनल फाउंडेशन की वेबसाइट (ूूूण्अपपिदकपंण्वतह) पर 6 अप्रैल 2016 को प्रकाशित लेख ‘‘सम्बन्ध सुधारने के लिए नेपाली प्रधानमंत्री का भारत दौरा’’ से उद्धृत।
9. ूूूण्इींेांतण्बवउ से उद्धृत

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