ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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डॉ. अम्बेडकर के राज्य और सरकार संबंधी विचार

डा0 अभिलाश सिंह यादव
एसोसिएट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान
महामाया राजकीय महाविद्यालय
धनुपुर, हण्डिया, प्रयागराज।

डॉ. अम्बेडकर का राज्य व्यवस्था में विश्वास:-
डॉ. अम्बेडकर राज्य को जनतांत्रिक व्यवस्था में एक आवश्यक संस्था मानते थे विशेषकर अशांति और विद्रोह के समय इसका उत्तरदायित्व बढ़ जाता उन्होंने समाज को अधिक महत्व दिया लेकिन फिर भी राज्य का महत्व कम नहीं होता उसका महान कार्य ‘‘समाज की आंतरिक अव्यवस्था और ब्राह्म प्रतिक्रमण से रक्षा करना है’’1 राज्य का अपना एक क्षेत्र है जिसमें उसकी गतिविधियॉ मान्य होती है हॉलाकि डॉ. साहेब राज्य को निरपेक्ष शक्ति के रुप में नहंी मानते थे उसका स्थान गौण है। उन्होंने कहा ‘‘किसी भी राज्य में एक ऐसे अकेले समाज का रुप धारण नहीं किया जिसमें सब कुछ आ जाए या राज्य के प्रत्येक विचार एवं क्रिया का स्रोत हो’’ वे राज्य व्यवस्था को मानव हित की सेवा के दृष्टिकोण से देखते थे, राज्य जनसाधारण की सेवा का एक माध्यम है।
डॉ. अम्बेडकर हीगल, हाब्स, ग्रीन, बोसांके आदि से जिन्होंने राज्य के निरपेक्ष सिद्धांत को माना, सहमत नहीं थे इन विद्वानों के अनुसार ‘‘राज्य एक साधन नहीं है वरन एक साध्य है जिसके स्वयं इतने शक्तिशाली अधिकार होते हैं कि किसी भी व्यक्ति के संधर्ष के साथ वह अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है। व्यक्ति स्वयं अपने अधिकारों का स्रोत नहीं है वह राज्य से अपने अधिकार प्राप्त करता है अतः उसके अधिकार का होना असंभव है जो उसे राज्य के साथ संधर्ष में डाल दे राज्य का निरपेक्ष सिद्धांत यह कहता है कि राज्य सर्वोच्च सत्ता हुए बिना कार्यवाही कर सकता है। राज्य एक प्राकृतिक एवं अंतिम मानव संस्था है और अपने अंतिम विकास के चरन में वह ‘‘सर्वशक्तिमान एवं निरपेक्ष’’ दोनों ही है। डॉ. अम्बेडकर केवल इतना आवश्यक मानते थे कि राज्य एक मानव संस्था है लेकिन वह सर्वशक्तिमान एवं अंतिम आधार है। यह बात उन्हें स्वीकार नहीं थी क्योंकि विचार एवं क्रिया के अन्य स्रोत भी है अर्थात जनता ही उसका अंतिम आधार है। कोई भी राज्य संगठन या सरकार जनता के द्वारा उसकी था आज्ञापालन पर निर्भर होती है। राज्य की सत्ता के प्रति आज्ञापालन की भावना महत्वपूर्ण बात है राज्य व्यवस्था की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि लोग उनके कानूनों का पालन करें। डॉ. अम्बेडकर, जेम्स ब्राइस, की इस बात से सहमत थे कि शक्ति या दबाव के द्वारा राज्य अपने को मजबूर बना सकता है लेकिन अनेक साधनों में से एक है। यह निर्विवाद तत्व नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा, ‘‘राजनीतिक समुदायों को उत्पन्न करने उनकी अच्छी दिशा में ढालने, उनको विस्तृत रुप देने तथा उनको एकत्रित करने में दबाव से अधिक महत्वपूर्ण आज्ञा पालन की भावना है। आज्ञापालन की भावना जो सरकार के कानूनों का पालन करें। डॉ. अम्बेडकर जेम्स ब्राइस की बात से सहमत थे कि शक्ति या दबाव के द्वारा राज्य अपने को मजबूत बना सकता है। लेकिन दबाव अनेक साधनों में से एक है। यह निविवाद तत्व नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा, ‘‘राजनीति समुदायों को उत्पन्न करने उनकी अच्छी दिषा में ढालने, उनको विस्तृत रुप देने तथा उनको एकत्रित करने में दबाव से अधिक महत्वपूर्ण आज्ञापालन की भावना है आज्ञापालन की भावना जो सरकार के कानूनों तथा नियमों के प्रति प्रदर्शित की जाती है, व्यक्ति और सामाजिक समुदायों की कुछ मनोवैज्ञानिक धारणाओं पर निर्भर करती है’’ 2
यह आज्ञापालन का भाव आलस्य, सम्मान, सद्भावना, बुद्धि और भय के सम्मिश्रण से उत्पन्न होता है। ये गुण या भावनायें सापेक्ष है और राज्य तथा समाज की परिस्थितियों पर निर्भर होती है। राज्य और जनता दोनों ही किसी व्यवस्था को भली-भांति संचालित करने में सफल हो सकते हैं।
राज्य व्यवस्था की सुदृढता के लिए जनता के द्वारा सम्मान तथा सद्भावना का होना आवश्यक है सरकार के प्रति आज्ञापालन का भाव शान्ति व्यवस्था के लिए जरुरी है इन बातों के बिना न कोई सरकार, न कोई जनतंत्र या समाजवाद सफल हो सकता है। इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने कहा ‘‘ सरकार की सत्ता के प्रति सरकार की सुदृढता के लिए आज्ञापालन की भावना उतनी ही आवश्यक है जितनी कि राजनीतिक दलों की राज्य के मौलिक तत्वों पर एकता। किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए यह असंभव है कि वह राज्य व्यवस्था को कायम रखने के लिए आज्ञापालन के महत्व को अस्वीकार करे राज्य के कानूनों में विश्वास न करना, अराजकता में विश्वास करने के सामान है।’’3
डॉ. साहब ने जनता की भलाई के लिए राज्य व्यवस्था के अत्यन्त आवश्यकत बताया इसके लिए यह भी जरुरी है कि लोग राज्य के कानूनों तथा नियमों के प्रति आज्ञापालन की भावना बनाये रखें। डॉ. अम्बेडकर ने इस सिद्धांत का स्वागत किया कि ‘‘वह सरकार उत्तम है जो कम से कम शासन करती है’’ लेकिन वे व्यूरो के उस सिद्धांत को मानने के लिए तैयार नहीं थे जो यह कहता है कि ‘‘वह सरकार उत्तम है जो बिल्कुल ही शासन नहीं करती है’’ राज्य का शासन बिल्कुल न हो, यह अराजकता के लिए खुला मार्ग है। राज्य व्यवस्थित और हस्तक्षेप के बिना, बहुत सी चीजों एवं व्यक्तियों को वह स्थान नहीं मिल पाता है जिसके लिए वे उपर्युक्त हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि डॉ. साहेब राज्य या सरकार को निरपेक्ष मानते थे उनका कहना था कि लोगों को किसी भी सरकार के अन्याय पूर्ण व्यवहार के समस्त झुकना नहीं चाहिए। सरकार कभी-कभी गलत काम भी कर सकती है और यदि जनता के विचार ठीक है तो उसे संघर्ष करना चाहिए।
बाबा साहेब की सम्मिति में, राज्य और उसका संगठन सामाजिक गतिविधियों की संस्थायें हैं। उनका मूल उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज की भलाई करना है। ब्राह्म अतिक्रमणों से रक्षा करना राज्य का परमआवश्यक कार्य है। राज्य व्यवस्था, उसकी आवश्यकता तथा सामर्थ्य में अटूट विश्वास प्रकट करते हुए, उन्होंने कहा कि उसके मुख्य कार्य निम्नलिखित होने चाहिए:-
1. ‘‘प्रत्येक व्यक्ति के जीवित रहने, स्वतंत्रता तथा आनंद के अधिकारों को बनाये रखना राज्य का काम है।
2. विचार एवं उसका व्यक्त करने तथा धर्म की स्वतंत्रता बनाये रखना राज्य का काम है।
3. सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक असमानताओं को दूर करना और शोषित वर्गो को सुविधायें देना राज्य का काम है और
4. प्रत्येक नागरिक के लिए यह संभव करना कि वह भूख प्यास तथा भय से मुक्त रहें। राज्य का काम है। 4
समाधान, राज्य समाजवाद
डॉ. भीमराव अम्बेडकर को देश में उत्पन्न होने वाले हालात का आभास था इसलिए उन्होंने विधान सभा में कहा: ‘‘यदि गरीबी मिटाना है तो देश की अर्थ व्यवस्था को समाजवादी सिद्धांतों पर चलाना होगा। इसी उद्देश्य से उन्होंने संविधान सभा में ‘‘राज्य समाजवाद’’ नामक अपनी एक योजना पेश की इस योजना के मुख्य मुद्दे इस प्रकार थे।
‘‘संविधान के कानून में ही यह नियम शामिल किये जाये’’
1. जो उद्योग मूल उद्योग है अथवा जिनको मूल उद्योग घोषित कर दिया जायेगा वे राज्य के प्रभुत्व में होंगे और राज्य द्वारा ही चलाये जायेंगें।
2. जो उद्योग मूल उद्योग नहीं है किन्तु जो बुनियादी उद्योग है उन पर राज्य द्वारा स्थापित नियम द्वारा चलाये जायेंगे।
3. बीमा राज्य का एकाधिकार होगा और राज्य प्रत्येक व्यस्क नागरिक के, अपने वेतन के समानुपात से, जिसे विधान सभा में निष्चित करेंगी, जीवन पालिसी लेने पर मजबूर करेगा।
4. कृषि राज्य उद्योग होगा।
5. राज्य इन उद्योगों, बीमा और कृषि-भूमि को निजी व्यक्तियों से चाहे वे उनके स्वामी या अस्वामी हो अथवा यह उनके पास गिरवी हो, उन्हें भूमि में उनके अधिकार के अनुसार नियमपत्र के रुप में क्षतिपूर्ति अदा करके अपने अधिकार में कर लेगी। इसमें भूमिपत्र अथवा ऋण पत्र का मूल्य निर्धारित करते समय संकट, संभावित अथवा बिना कमाया मूल्य था। अनिवार्य-अभिग्रहण की कोई कीमत शामिल नहीं की जायेगी।
6. राज्य इस बात का निर्णय करेगा कि नियम पत्र रखने वाला कैसे और कब नगद अदायगी का अधिकार होगा।
7. नियमपत्र रखने वालो अपने नियम पत्र पर सूद का हकदार होगा सूद की दर कानून द्वारा निर्धारित होगी और राज्य वह नगदी धन अथवा पदार्थ के रुप में, जैसा समझे अदा करेगा।
कृषि उद्योग को निम्नलिखित आधारों पर संगठित किया जायेगा
1. राज्य समस्त कृषि योग्य भूमि को एक निश्चित मापदंड के अनुसार फार्मो में विभाजित करेगा पुनः गॉवों के विभिन्न परिवारों से मिलकर बने समूहों को बतौर काश्तकार ये फार्म निम्नलिखित शर्तो पर दिये जायेंगे।
क. फार्म पर सामूहिक ढ़ंग से खेती होगी।
ख. फार्म पर कार्य राजकीय नियमों एवं आदेषों के अनुसार चलेगा।
ग. फार्म पर आय खर्चो का भुगतान करने के पष्चात जो उत्पादित धन बचेगा वह नियमानुसार काश्तकारों में विभाजित किया जायेगा।
2. भूमि देहातियों को बिना किसी जाति या सम्प्रदायिक भेदभाव के इस ढ़ंग से दी जायेगी कि न कोई भूस्वामी होगा न कोई भूमि ठेके पर लेकर खेती करने वाला, गुजारा और न कोई भूमिहीन मजदूर।
3. राज्य इन सामूहिक फार्मो में खेती करने के लिए पानी पशुओं, औजारों, खाद, बीजों आदि के रुप में पूंजी जुटाने के लिए बाहृय होगा।
4. राज्य फार्म के उत्पादन खर्चों पर निम्नलिखित उदग्रहण वसूल करने का अधिकार होगा।
क. माल गुजारी, नियमपत्र वालों के लिए पूंजमंत्र माल के संभरण के लिए कुछ भाग और
ख. राज्य को अधिकार होगा कि जो काश्तकार नियमो का उलघंन करेगा अथवा जो राज्य द्वारा खेती बाड़ी के साधनों का सर्वोत्तम प्रयोग करने जानबूझकर उपेक्षा दिखये अथवा जो सामूहिक खेती बाड़ी की योजना को हानि पहुॅचाये, उसके लिए दण्ड से निर्धारित कर सकें’’ 5।
उपरोक्त योजनामें राज्य के प्रभुत्व में सामूहिक ढ़ंग से खेती बाडी के साथ कृषि मे और औद्योगिक दोनों में संषोधित रुप में, राज्य समाजवाद की प्रस्तावना की गयी इस योजना में कृषि और उद्योग क्षेत्रों में, पूंजी लगाने का दायित्व राज्य पर सौंपा गया है।
4.2 डॉ0 अम्बेडकर और संसदात्मक सरकार:-
यह निर्विवाद सत्य है कि डॉ. अम्बेडकर जीवन भर समाज-सुधारक एवं सेवक दोनों ही रहे। उनकी प्रेरणा का स्रोत वे लोग थे जो निर्धन, असहाय तथा शोषित थे उन्होंने सदैव राज्य सरकार से आग्रह किया कि वह अल्पसंख्यक लोगों को बहुसंख्यक लोगों के दबाव एवं दोषपूर्ण शासन से बचाये। उन्होंने जो कुछ भी किया वह राष्ट्र की एकता के लिए किया। समाज-विरोधी तथा राष्ट्र विरोधी तत्वों को, जिससे मानव एकता छिन्न-भिन्न होती है, समाप्त करने का भी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘एक भारतीय होने के नाते भारतीय राष्ट्रवाद में रुचि होने के कारण मैं स्पष्ट कह देना चाहता हॅू कि मैं सरकार के एकात्मक रुप में विश्वास करने वाला हॅू और ऐसे सुझाव का छिन्न-भिन्न करने का विचार मुझे प्रिय नहीं है। एकात्मक सरकार भारतीय राष्ट्र के निर्माण में बहुत ही प्रभावशाली रही है।’’ 6
डॉ. अम्बेडकर संसदात्मक सरकार के प्रबल समर्थक थे उन्होंने माना कि बिट्रेन में जिस प्रकार की संसदीय प्रणाली है वह भारत में उपयुक्त रहेगी। संसदीय प्रणाली भारत के लिए कोई नवीन बात नहीं है भारत में कई ऐसे काल आए, जब कि जनतंत्रीय प्रणाली प्रचलित थी, पर कालान्तर में वह लुप्त हो गयी। डॉ. अम्बेडकर ने यह कहा, ‘‘आज संसदीय सरकार की बात हमारे लिए विदेशी प्रतीत होती है। यदि हम गॉवों में जाये तो मालूम होगा कि लोग यह नहीं जानते कि वोट क्या है? पार्टी क्या है? जनतंत्र प्रणाली उन्हे विचित्र प्रतीत होती है। इसलिए हमारे सामने यह समस्या है कि इस प्रणाली को कैसे बचाया जाय, जनता को हमें शिक्षित बनाया है और उसे संसदीय जनतंत्र तथा संसदात्मक सरकार के लाभ बताने हैं’’ 7।
डॉ. अम्बेडकर ने संसदीय प्रणाली को इसलिए पसंद किया कि यह ऐसी सरकार है, जिसे जनता स्वयं चुनती है। यह ऐसी प्रणाली है जो भारत में प्रचालित थी और यह जनतांत्रिक है जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है:-
डॉ. अम्बेडकर तीन संसदीय लोकतंत्र की विषेशतायें बतायी है:-
1. इसमें किसी को वंशागत शासन (भ्मतमकपजंतल त्नसम) का अधिकार नहीं होता, बल्कि शासन की शक्तियां जनता के निर्वोचित प्रतिनिधियों को प्राप्त होती है।
2. दूसरे, इसमें कोई अकेला व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि वह सर्वज्ञ है तथा सारे कानून बनाने और सारा शासन संभालने में समर्थ है। और
3. इसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों-विधायकों (स्महपेसंजवते) और मंत्रियों (डपदपेजमते) को जन साधारण का विश्वास प्राप्त करना पड़ता है और निश्चित अंतराल के बाद इस विश्वास का नावीनीकरण (त्मदमूंस) जरुरी होता है’’ 8
जहॉ गॉधी जी शक्तियों के विकेन्द्रीकरण और पंचायत राज के समर्थक थे, वहॉ अम्बेडकर ने देश की एकता और अखंडता के हित में एकात्मक शासन प्रणाली का समर्थन किया। गॉधी जी को आशा थी कि गांवों को पूर्ण स्वायत्ता मिल जाने पर वहा स्वच्छ प्रशासन स्थापित हो जाएगा, परन्तु डॉ. अम्बेडकर ने व्यक्ति के अधिकारों पर बल देते हुए यह तर्क दिया कि गॉव को शासन की इकाई बना देने पर व्यक्ति का अस्तित्व दब जाएगा। अम्बेडकर का दावा था कि गॉव तो जहालत, तंगदिली और संप्रदायवाद के अड्डे हे ग्राम प्रशासन पुनरुत्थान का विचार विनाशकारी होगा।
डॉ. अम्बेडकर का विचार था कि संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए यह जरुरी है कि सामाजिक आर्थिक जीवन में घोर विशमताएं न हो, अर्थात समाज में ऐसा न हो कि सारा बोझ कुछ वर्गो पर डाल दिया जाए और सारे विशेषाधिकार किसी अन्य वर्ग के हिस्से में आ जाए ऐसा भेदभाव सामाजिक दरार को जन्म देता है जिसमें खूनी क्रांति के बीज अंकुरित होने लगता है संसदीय लोकतंत्र की सफलता की दूसरी शर्त है। बहुदलीय प्रणाली और प्रभावशील विपक्ष अंततः लोकतंत्र में अल्पमत पर बहुमत के अत्याचार की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। अल्पमत में सुरक्षा की भावना लोकतंत्र का आधार स्तंभ है। अंत में, संसदीय सरकार का अर्थ है कि ‘‘जो लोग राज्य के मुखिया को सलाह देना चाहते हैं उन्हें जनता का विश्वास समय-समय पर प्राप्त करते रहना चाहिए’’ डॉ. साहब ने बताया कि ब्रिटेन में पहले आम चुनाव सात साल बाद हुआ करते थे लेकिन लोगों ने इस प्रणाली के प्रति विद्रोह किया वे चाहते थे कि वार्षिक चुनाव हो। उनकी मनोभावना तो ठीक थी यदि ऐसा करना संभव होता यह संभव नहीं था क्योंकि संसदीय चुनाव बहुत ही खर्चीले होते हैं। अतः एक प्रकार का समझौता हुआ और पांच वर्ष की अवधि चुनाव के लिए निश्चित हुयी। सब प्रतिनिधियों को पांच साल के पश्चात जनता का विश्वास प्राप्त करना पड़ता है। इस प्रकार विश्वास प्राप्त करना, जनतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है।
4.3 डॉ. अम्बेडकर व राज्य का संघीय आधार:-
भगवान बुद्ध का अनुसरण करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने मध्यम मार्ग को राजनैतिक क्षेत्र में भी माना और कहा कि गुण दो अतिशयवादी कोटियों के बीच मिलता है। उनके विचारों में यही मुख्य बात है जो उनके सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों का आधार है। राजनीतिक के क्षेत्र में बाबा साहेब एकात्मक और संघीय सरकार के बीच का एक रुप प्रस्तुत किया उन्होंने अपने दृष्टिकोण से सरकार और राज्य का एक ऐसा संघीय रुप रखा जो केंद्रीय सरकार और उसकी विभिन्न इकाइयों के संतुलन पर आधारित है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, उन्होंने एक संघीय संविधान का प्रतिपादक किया और कुछ ‘‘मैं यह अनुभव करता हॅू कि यह संविधान कारगर है यह परिवर्तनशील है और यह इतना सबल है कि देश को युद्ध के समय और शांति के समय संगठित रुप से रख सकता है। वास्तव में यदि मैं कहॅू यदि नये संविधान में बातें गलत सिद्ध हो तो कारण यह नहीं कि हमारा संविधान दोषपूर्ण है, हम केवल इतना ही कहेंगे कि मनुष्य दोष पूर्ण है।’’ 9
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार संविधान की दृष्टि में संघीय सरकार और राज्य सरकारों मेंघनिष्ठ संबंध है हांलाकि दोनों के कार्य क्षेत्र भिन्न है दोंनों की शक्तियां अलग-अलग है। यह संघीय आधार छोटे-छोटे राज्यों का बनावटी रुप नहीं है। और न राज्य सरकारें केन्द्रीय सरकार की एजेन्सियां हैं जो केन्द्र से ही शक्ति ग्रहण करती हो केन्द्रीय तथा राज्य दोनों सरकारें संविधान से अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को प्राप्त करती है। दोनों के लिए संविधान ही शक्ति का स्रोत एवं प्रेरणा है। कोई भी राज्य सरकार अपने कार्य-क्षेत्र में केन्द्रीय सरकार के अधीन नहीं है। केन्द्र तथा राज्यों के आपस में ऐसा सहयोग तथा तालमेल रखना है कि जनता की स्वतंत्रतायें बनी रहें और समाज की भौतिक प्रगति हो तथा आर्थिक समृद्धि बढ़े।
डॉ. अम्बेडकर ने संघीय तथा एकात्मक सरकार को भारतीय परिस्थिति में उपयुक्त बतलाया और कहा, ‘‘एक भारतीय होने के नाते, भारतीय राष्ट्रवाद में रुचि होने के कारण मैं स्पष्ट कर देना चाहता हॅू कि मैं सरकार के एकात्मक रुप में विश्वास करने वाला हूँ और ऐसे सुझाव को छिन्न-भिन्न करने का विचार मुझे प्रिय नहीं है एकात्मक सरकार भारतीय राष्ट्र के निर्माण में बहुत ही प्रभावशाली रही है।’’10
डॉ. अम्बेडकर का संघीय दृष्टिकोण में केंद्रीयकरण तथा विकेन्द्रीकरण का मध्यम मार्ग अपनाया गया जिसके कारण निम्नलिखित हैः-
1. केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में अधिकृत शक्तियों का न्यायोचित विभाजन है।
2. प्रत्येक सरकार अपने कार्य क्षेत्र में स्वतंत्र है और
3. संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गयी है। जिसका मुख्य कार्य, केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच झंगड़ो का निपटारा करना है।
विद्वान डाक्टर के संघवाद के प्रत्यय का अर्थ है कि राज्य शांति के समय एक संघ का काम करता है और संकटकालीन अवस्था में वह एकात्मक बन जाता है उनके अनुसार भारतीय के दो अर्थ है:
1. ‘‘यह किसी ऐसे समझौते से नहीं बना जो विभिन्न राज्यों में हुआ है और
2. जो भी राज्य है उन्हें संघ से प्रथक होने की स्वतंत्रता कतई नहीं है।’’
संक्षेप में एकात्मक सरकार भारतीय राश्ट्र को टूटने और विभक्त होने से बचा सकती है।
सन्दर्भ सूची
1. डॉ. जाटव डी. आर., डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक दर्शन, प्रकाशन समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), 1996, पृ0 173
2. डॉ. नागर पुरुषोत्तम, भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, प्रकाशन राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर, 1999, पृ0 691
3. डॉ. जाटव डी.आर., डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक दर्शन, प्रकाशन समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), 1996, पृ0 175
4. डॉ. नागर पुरुषोत्तम, भारतीय समाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, प्रकाशन राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर, 1999, पृ0 692
5. बाली एल.आर., डॉ. अम्बेडकर ने क्या किया? प्रकाशक भीम पत्रिका डॉ. अम्बेडकर मार्ग जालन्धर भारत, 1991, पृ0 137
6. डॉ. जाटव डी.आर., डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक दर्शन, प्रकाशन समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), 1996, पृ0 178-179
7. डॉ. नागर पुरुषोत्तम, भारतीय समाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, प्रकाशन राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर, 1999, पृ0 692
8. डॉ. गाबा ओम प्रकाश, राजनीतिक चिंतन की रुपरेखा, प्रकाशक मयूर पेपर बाक्स, नोएडा, 2001, पृ0 425
9. डॉ0. जाटव डी.आर., डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक दर्शन, प्रकाशन समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), 1996, पृ0 182
10. डॉ. नागर पुरुषोत्तम, भारतीय समाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, प्रकाशन राजस्थान
हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1999, पृ0 695

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