ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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‘‘नागार्जुन के काव्य में युग एवं परिवेश की संवेदनशील चेतना’’

डा0 वाई0सी0 यादव
असि0 प्रोफेसर (हिन्दी विभाग)
डी0ए0वी0 पी0जी0 कॉलिज
बुलन्दशहर (उ0प्र0)

रचनाकार एक संवेदनशील सचेतन द्रष्टा एवं महान विचारक भी होता है, वह अपने देश के अनेक परिदृश्यों सामाजिक आन्दोलनों राजनीतिक उथल पुथल तथा धार्मिक विद्रूपताओं का जहाँ चश्मदीद गवाह होता है वहाँ आधुनिक युग की सुलभ संचार माध्यमों से वैश्विक घटनाओं का श्रोता, पाठक, स्मरण करता तथा प्रस्तोता भी होता है, अगर वह जन कवि की उपाधि से विभूषित होना चाहता है जनता का बेताज बादशाह बनना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण विश्व की दलित शोषित उत्पीड़ित तथा क्रान्तिरत जनता की पीड़ा को आत्मसात कर सम्प्रेषण के द्वार पर लाना होगा, रचनाकार अपने युग की राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं समस्याओं से अनुप्राणित भी होता है और उन्हें वाणी भी देता है।
युगीन परिवेश रचनाकार के व्यक्तित्व का विधायक होता है, नागार्जुन की कृतियों का पड़ताल करने पर पता चलता है कि उनमें लगभग सात दशकों का पुराण छिपा हुआ हैं।
नागार्जुन ने जब सन् 1924 में हिन्दी साहित्य जगत में प्रविष्ट हुए देश में कांग्रेस का प्रभाव बढ़ता जा रहा था कांग्रेस में दो दल बन गये थे गरम दल एवं नरम दल गमर दल वाले तिलक लाला लाजपत राय, विपिन चन्द पाल थे जो पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे।
नरम दल वाले गोखले फिरोज शाह मेहता सुरेन्द्र बनर्जी आदि भारत में पार्लियामेन्टरी ढ़ंग से उत्तरदायी सरकार का गठन करना चाहते थे। अब युग वर्ग गाँधी जी अहिंसावादी नीति का विरोध कर सशक्त संघर्ष द्वारा भारत को आजादी दिलाना चाहता था, कांग्रेस के नेतागण शसस्त्र संघर्ष के विरोध में थे, परिणामस्वरूप सुभाषचन्द्र बोस आदि जैसे युवक नेताओं को कांग्रेस से त्यागपत्र देकर अलग होना पड़ा आगे चलकर सुभाषचन्द्र बोस जी ने विदेशों में रहकर आजाद हिन्द फौज की स्थापना की और सन् 1942 में कांग्रेस सरकार के प्रति उग्रजन आन्दोलन छेड़ दिये।
इसी बची देश में गाँधीवादी विचारधारा का प्रवाह क्षीण हो चला था और समाजवादी विचारधारा जड़ पकड़ने लगी थी। सन् 1936 में लखनऊ कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित नेहरू ने समाजवाद का महत्व विशद किया। समाजवाद विचारधारा से मध्यवर्ग एक प्रक्रियावादी शक्ति है औ उसे नष्ट करना चाहिए। मार्क्सवाद शोषक और शोषित इन दोनों वर्गों को मानता है शोषक और शोषित इन दोनों वर्गोंके अपने स्वार्थ के कारण वर्ग संघर्ष अनिवार्य है।
इस प्रकार साम्यवादी दल वर्ग संघर्ष में क्रान्ति या हिंसा प्रयोग को अनैतिक नहीं मानता कांग्रेस समाजवादी दल ने राष्ट्रीय के लिए हिंसा को आविष्कार किया था किन्तु दूसरे साम्यवादी दलों ने सशस्त्र क्रान्ति हिंसा आदि तत्वों को राजनीतिक अस्त्र के रूप में महत्व दिया है।
उपन्यासकार नागार्जुन देश में चलने वाले इस राजनीतिक आन्दोलन से अछूते नहीं रहे। उनके उपन्यास ‘रतिनाथ की चाचाी’ ‘बलचरण’ ‘बऊण के बेटे’ -बाबा बटेसर नाथ’ तथा ‘अभिनन्दना’ आदि उपन्यासों में इसका सुन्दर चित्रण किया है।
सन् 1936-39 में बिहार में किसानों का जोरदार आन्दोलन चला। नागार्जुन ने इस आन्दोलन का मार्मिक चित्रण ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास में किया है।
सन् 1939 में जर्मनी द्वारा दूसरा महायुद्ध छेड़ दिया गया। भारत का प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कोई सरोकार न था परन्तु भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन होने के कारण उसे भी उसमें अनिक्षा से भाग जाना पड़ा। भारतीय जनता रूस की विजय में अभिरूचि रखती थी और लाल सेना के प्रति भारतीय जनता के मन में आदर का भाव था।
‘‘उपन्यासकार नागार्जुन भी रूस की विजय से प्रभावित हुए ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास में इसका वर्णन किया है। ‘चाची तारा चरण से कहते हैं मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूँ मगर इतना समझती हूँ कि पच्चीस साल में रूस वालों ने अपने यहाँ जो नया संसार बसाया है उसके अन्दर जाकर राक्षसों की बड़ी से बड़ी फौज भी मार खा जायेगी।’1
नागार्जुन ने 15 अगस्त 1947 के दिन की प्रसन्नता ‘बाबा बटेसरनाथ’ उपन्यास में जीवनाथ के माध्यम से व्यक्त की है। 15 अगस्त 1947 के दिन जीवनाथ अपने घर के सामने लम्बे बांस की ध्वजा गाड़ी थी और तिरंगा झण्डा फहराया था। लोगों ने दो शेर बतासे बाँटे थे।
सन् 1962 में चीन ने देश पर आक्रमण किया। चीनी आक्रमण के बाद लिखे गये ‘उग्रतारा’ उपन्यास में नागार्जुन ने यह विचार व्यक्त किया है ‘‘देश की दौलत के नुकसान पहुँचाने वाले हमारा वैसा ही दुश्मन है जैसा कि हमारी सीमाओं के अन्दर घुस पैठ करने वाला हम न उसको छोड़ेंगे न इसको छोड़ेंगे।’’2
सारांश यह है कि उपन्यासकार नागार्जुन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं से प्रभावित हैं।
इस काल का भारतीय समाज ग्राम पंचायतों जाति व्यवस्था और संयुक्त परिवारों द्वारा नियन्त्रित होता था। भारतीय समाज अनेक रूढ़ियों रीति-रिवाजों एवं सामाजिक कुरीतियों से ग्रस्त था। समाज युगानुरूप अपने को परिवर्तित न कर सका। जाति-पांति वर्ण व्यवस्था तथा छुआ-छूत में लोगों का विश्वास था नारी की ओर देखने की दृष्टि हेय थी। उसका स्थान भोग्या मात्र था, समाज में या परिवार में वह स्वतंत्र नहीं थी, पति-पिता या भाई पर वह आश्रित थी, विधवा नारी की तो सोचनीय स्थिति थी पति की मृत्यु के बाद सती होकर चिता पर नष्ट होना गौरव की बात मानते थे।
अंग्रेजी शिक्षा शासन प्रणाली और समाज पद्धति से भारतीय समाज में भी तीव्र पविर्तन आया। अंग्रेजी शिक्षा से विभूषित नया युग वर्ग सामाजिक कुप्रथाएँ तोड़ने का प्रयास करने लगा अब भारतीय समाज दो स्पष्ट वर्ग में विभक्त हो गया प्राचीन परम्पराओं से जकड़ा हुआ भारतीय वर्ग अब भी वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था, और सामाजिक परम्पराओं को अनिवार्य मानता था। उसमें विश्वास रखता था, नया शिक्षित वर्ग इन परम्पराओं के विरूद्ध है इन परम्पराओं को तोड़कर समाज में पर्याप्त सुधार का काम राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, महादेव गोबिन्द रानाडे, स्वामी दयानन्द, महात्मा गाँधी, ज्योतिष फूले जैसे लोग करने लगे।
इन लोगों ने अनेक सामाजिक संस्थाओं की स्थापना की ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन आदि इसमें प्रमुख थे, भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़िवादी मान्यता तथा धार्मिक अन्वविश्वासों को दूर करने का महत्वपूर्ण कार्य इन संस्थाओं ने किया साथ्ज्ञ में ही स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन कर उन्हें सामाजिक दर्जा देने का काम भी ये संस्थाएँ कर रही थीं। इन संस्थाओं के कार्य से भारतीय जनता के सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन आया, परन्तु प्राचीन संस्कारों और परम्पराओं से ग्रस्त दूसरे वर्ग का यह नया परिवर्तन मायने नहीं था।
भारतीय जीवन पर औद्योगिक प्रगति का भी प्रभाव पड़ा गॉवों के उद्योग उजड़ गये, लोग पेट भरने के लिए गॉव को छोड़कर शहर में जाने लगे परिणामतः गॉव दिन ब दिन उजड़ते गये और शहर में ज्यादा भीड़-भाड़ होने लगी, पाश्चात्य शिक्षा प्रभाव से भारतीय संयुक्त परिवार टूटने से नारी की दशा शोचनीय बन गयी। अब नारी को जीने के लिए आर्थिक संघर्ष करना पड़ा नारी शिक्षा अनिवार्य हो गयी, शिक्षित नारी नौकरी की तलाश में आने लगी।
विधवा विवाह समाज में बल पकड़ने लगा। इस प्रकार आजादी के पहले और आजादी के बाद नारी की स्थिति में काफी परिवर्तन आने लगा।
‘‘इस बदले हुए सामाजिक परिवेशों का उचित प्रभाव नागार्जुन पर रहा और उनकी अभिव्यक्ति उनके उपन्यासों में भी हुई, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा को उन्होंने मान्यता दी तथा उसका प्रसार उन्होंने अपने उपन्यासों में किया ‘उग्रतारा’ उपन्यास में विधवा उगनी का विवाह विधुर कामेश्वर के साथ किया तथा ‘दुखमोचन’ उपन्यास में माया और कपित का अन्तर्जातीय और विधवा विवाह किया। ‘नई पौध’ उपन्यास में गॉव के नवयुवक अनमेल विवाह का विरोध करते हैं। साठ वर्षीय बूढ़ा दूल्हा चतुरा चौधरी का विवाह वह तेरह वर्षीय नवयुवती विशेषरी के साथ नहीं होने देते। इस उपन्यास में नयी चेतना सड़ी गली सामाजिक परम्पराओं पर विजय प्राप्त करती है।’’3
प्राचीन भारत में भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार गॉव था, रोज के दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं का उत्पादन गॉव में ही होता था। लोगों के बीच परस्पर का आदान-प्रदान करके विनिमय किया जाता था, गॉवों में कलात्मक वस्तुओं की निर्माण होता था। इन वस्तुओं का निर्यात यूरोप में किया जाता था। भूमि गॉव की सार्वजनिक सम्पत्ति और कृषि की संयुक्त प्रथा प्रचलित थी। धन का बँटवारा आपस में किया जाता था। कहने का मतलब यह है कि भारतीय गॉव स्वावलम्बी था।
भारत में कच्चे माल पर्याप्त थे। अंग्रेज यहाँ से माल आयात करके अपने यहाँ ले जाते थे। वहां शुद्ध करके महंगे दामों पर यहां निर्यात कर देते थे। यहां के लघु उधोग धन्धे भी नष्ट कर दिये गये परिणाम यह हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था टूटने लगी।
‘‘संवेदनशील हृदय के कथाकार नागार्जुन देश की आर्थिक विपन्नता तथा निरन्तर शोषण के शिकार बने हुए किसान मजदूर की दुर्दशा से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने अपने उपन्यासों में इस पीड़ित वर्ग की पीड़ा को शसक्त अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने बिहार के किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया। इस आन्दोलन के कारण कई बार जेल भी गये। ‘रतिनाथ की चाची’ बलचनमा तथा ‘बाबा बटेसर नाथ’ उपन्यासों में इसका जीवन्त चित्रण अंकित किया है। इस उपन्यास में किसान और जमींदारों के मध्य घटित संघर्ष एवं कृषकों में शोषण के विरूद्ध पनपती हुई चेतना उपन्यासकार के समाजवादी चिन्तन का ही परिणाम है।’’4

विषय सूची
1. नागार्जुन के नारी पात्र – सं0 प्रो0 अर्जुन धरत, पृ0 20
2. नागार्जुन के नारी पात्र – सं0 प्रो0 अर्जुन धरत, पृ0 20
3. नागार्जुन के नारी पात्र – सं0 प्रो0 अर्जुन धरत, पृ0 23
4. नागार्जुन के नारी पात्र – सं0 प्रो0 अर्जुन धरत, पृ0 26

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