ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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बौद्ध साहित्य में स्त्री

ब्रजेश कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर (इतिहास विभाग)
डी.ए.वी. पी.जी. कॉलेज, बुलन्दषहर।

किसी राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण तथा विकास में स्त्री का योगदान बहुत महत्वपूर्ण होता है। भारत के धार्मिक शास्त्रों में स्त्री को परम इष्ट की श्रेणी में रखा है। ब्राह्मण शास्त्रों में लिखा गया है कि जहां नारी की उपासना होती है वहां देवता निवास करते हैं1। आरण्यक ग्रन्थों और उपनिशदों में कुछ विदुशी नारियों की कहानियां प्राप्त होती हैं। उनसे सर्वसाधारण नारी समाज की सम्मानित स्थिति का अंदाजा हमें नहीं कर लेना चाहिये। प्रत्येक भारतीय साहित्य में किसी ना किसी रूप में नारी को पुरूषों से हीन समझा गया है, भोग को वस्तु मानकर अपमानित किया गया है। जिस तरह समाज में शूद्रोें की स्थिति दासता और सेवावृत्ति में हम पाते हैं, उसी तरह नारी की स्थिति भी ग्रह-प्रबन्ध और पति सेवा में ही विशेष रूप से देखते हैं। ऐसी स्थिति का पता हमें उत्तर वैदिक काल से बुद्ध के काल तक प्राप्त होता है। मनु स्मृति में स्त्रियों के अधिकार, कार्य और सामाजिक स्थिति से हम भली भांति परिचित हैं। शोडश संस्कारों में स्त्री के लिये एकमात्र विवाह संस्कार ही था। गुरूग्रह-वास विद्याध्ययन उनके लिये वर्जित था। जवानी की तो बात ही क्या, बचपन और बुढ़ापे में भी नारी स्वतन्त्र नहीं मानी जाती थी।
ऋग्वेद में स्त्री की निन्दा में उसे दुर्बल चित्त वाली, अविश्वसनीय भेड़ियों के जैसे हृदय वाली और मैत्री के अयोग्य बताया है2। कुणाल जातक की गाथाओं में नारी के प्रति बहुत अपमानपूर्ण कथन प्रस्तुत किये गये हैं। नारी एकान्त मिलने पर पाप करती है। यदि कोई न मिले तो लूले लंगड़े के साथ भी संभोग करती हैं। वे पानी की धार के समान होती हैं। ये न उपकार को समझती हैं और न ही कर्त्तव्य को न माता को, न पिता को, न भाई को। जिस प्रकार खुली हुई नदी किसी एक या दो आदमियों की नहीं होती उसी प्रकार स्त्रियां भी किसी एक या दो की नहीं होती।3
महात्मा बुद्ध ने भी प्रारम्भ में स्त्रियों को संघ प्रवेष की भी आज्ञा नहीं दी थी। बाद में अपने प्रिय शिष्य आनन्द के कहने पर उन्होंने आज्ञा दे दी थी। परन्तु इसके साथ ही साथ उन्होंने संघ में प्रवेश करने वाली स्त्रियों के लिये आठ कठोर नियम भी बना दिये थे। इस पर भी उन्होंने कहा था कि आनन्द अब धर्म चिरस्थायी न रह सकेगा। जहां स्त्रियां ग्रहस्थ जीवन का परित्याग कर ग्रह विहीन जीवन में प्रवेश करने लग जाती हैं वहां धर्म चिरस्थायी न रह सकेगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि महात्मा बुद्ध का स्त्रियों पर अधिक विश्वास नहीं था। परन्तु यह आलोचना स्त्री के कामिनी रूप की है। बौद्ध साहित्य में अनेक सुयोग्य और सुशिक्षित स्त्रियों के उदाहरण भी पाते हैं।
सुजाता जातक में तो पत्नी को मानव के लिये माता, बहन, मित्र, दासी सभी रूपों में सेवा करने के लिये स्वीकार किया गया है। आई0पी0 हार्नर पत्नी के कर्त्तव्यों के सन्दर्भ में लिखते हैं कि ‘‘पति के सभी प्रिय सम्बन्धियों की देखभाल करना तथा ग्रह कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न करना, अपने पति के कोश स्वर्ण चांदी की देखभाल करना था4’’ गौतम बुद्ध कुमारियों को उपदेश देते हुये कहते हैं कि कुमारियों को इस प्रकार सीखना चाहिये कि माता-पिता जिस पति को सौंपे, उससे पहले सोकर उठने वाली होगी, उसके पीछे सोने वाली होगी, आज्ञा में रहने वाली होगी, प्रिय बोलने वाली होगी। ‘सम्बुल जातक’ के राजा की पटरानी सम्बुला अपने पति के कोढ़ी हो जाने पर उसके साथ वन में सेवा करने के लिये गयी। उसके जख्मों पर औषधियों का लेप लगाती थी। पति के लिये अपार कष्ट भोगते हुए, उसके खा चुकने पर, सुगन्धित जल लाकर, स्वयं फलाहार करके, लकड़ी के पत्तों का बिस्तर बनाकर अपने पति के उस पर लेट जाने पर, पति के पांव धोती, सिर, पीठ और पैरों आदि को दबाकर एक ओर लेटी रहती थी5। जातकों में पतिव्रता नारी को पूजनीय बताया गया है। सुरूचि जातक में पतिव्रता सुमेधा के दर्शन करने के लिये देवता आये और कहा कि अगले जन्म में तू देवता बनेगी।
बौद्ध साहित्य में कन्याओं को शिक्षा देने की समुचित व्यवस्था का ज्ञान नहीं मिलता, परन्तु बहुत सी शिक्षित कन्याओं का उल्लेख अवश्य मिलता है भिक्षुणी खेमा अपने समय की अत्यन्त विदुषी महिला थी। उनकी विद्वता की प्रशंसा सुनकर स्वयं कौशल नरेश प्रसेनजित उसकी सेवा में लग गया था। सुभद्रा नाम की दूसरी भिक्षुणी का संयुक्त निकाय में उल्लेख है। वह अपने व्याख्यान के द्वारा अम्रत की वर्षा करती थी। जातक अमरा और उदुम्बरा नामक विदुषी स्त्रियों का उल्लेख करते हैं। भद्राकुंड केशा राजगृह के एक धनी श्रेष्ठी की पुत्री थी, भिक्षुणी धर्म स्वीकार करने के पश्चात उसने अपनी विद्वता के कारण बड़ी ख्याति पायी थी। थेरीगाथा में बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा रचित गीतों का संग्रह है। इनसे उनकी विद्वता, पवित्रता और अन्तः संतुष्टि प्रकट होती है। इन भिक्षुणियों में सुमा, सुमेधा और अनोपमा प्रसिद्ध हैं।
बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि तत्कालीन वेश्यायें भी पर्याप्त रूप से शिक्षित और सुसंस्कृत होती थीं। इस सम्बन्ध में आम्रपाली का उल्लेख विशेष महत्वपूर्ण है। यह वैशाली की प्रसिद्ध गणिका थी। जब महात्मा बुद्ध वैशाली गये तो आम्रपाली ने उन्हें अपने घर पर भोजन के लिये आमन्त्रित किया। महात्मा बुद्ध के उपदेश सुनकर आम्रपाली बुद्ध की शिष्या बन गई। इन उदाहरणों से कन्याओं की उच्च कोटि की शिक्षा देने की उचित व्यवस्था ज्ञान नहीं होता। तक्षशिला जैसा विश्वविद्यालय केवल लड़कों के लिये ही निश्चित था। कन्याऐं यहां शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकती थीं। अल्तेकर लिखते हैं कि बचपन में कन्याओं का विवाह किये जाने के कारण नारियां शिक्षा-विहीन रहती थीं6।
बौद्ध साहित्य में कन्या का पिता, कन्या का विवाह करके पति के घर में भेजना अपना धर्म मानता था तथा चाहता था कि शुद्ध, पवित्र कन्या पति के घर जाये तथा बराबर वाले कुल व जाति मिले। कन्याओं का विवाह छोटी उम्र में कर दिया जाता था उस समय कन्या के लिये विवाह योग्य आयु 16 वर्ष थी। कन्या अधिक उम्र में पति पाने को अभिशाप समझती थीं समान आयु के पति-पत्नी के भी उदाहरण प्राप्त होते हैं। कन्या का विवाह अपने भांजे के साथ करने का भी प्रचलन था। ‘महावेस्सन्तर जातक’ के राजकुमार वेस्सन्तर का विवाह भी अपने मामा की लड़की राजकुमारी माद्री के साथ हुआ था और एक अन्य जातक में एक व्यभिचारिणी रानी एक लूले को अपना पति बताते हुये उसे अपनी बुआ का लड़का बताती है7। परन्तु माता की बहन की लड़की से विवाह और पिता के भाई की लड़की से विवाह व्यवहार रूप में प्रचलित नहीं था। जातकों में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जहां एक व्यक्ति से उत्पन्न भाई-बहन भी विवाह सम्बन्ध में बंध गये। उदय जातक में राजकुमार उदय ने अपनी मौसेरी बहन राजकुमारी उदय भद्रा से विवाह किया जो उसकी सौतेली माता से उसके पिता द्वारा उत्पन्न थी।
सामान्य रूप से हमें वैदिक युग से बौद्ध युग तक एक पत्नी प्रथा के प्रचलन में विश्वास करना चाहिये। परन्तु यह अवश्य प्रमाणित है कि हर युग में समाज के प्रत्येक वर्ग में बहुपत्नी प्रथा उपस्थित रही है। जातक कालीन राजाओं के अन्तःपुर में सैकड़ों हजारों पत्नियां रहती थीं। पतिव्रता नारी अपने जीवन को तभी सार्थक समझती थी जब उसका पति खुश हो। नारी का श्रृंगार पति के लिये ही था। भारतीय नारी का पति के बिना कोई अस्तित्व नहीं था। नारी की सेवा, जीवन, सर्वस्व जहां पति के लिये था, वहां नारी का कर्त्तव्य घर के अन्य सभी सदस्यों के प्रति प्रेमपूर्वक पालन पोषण व संरक्षण का था। नारी का मुख्य कर्त्तव्य ग्रह कार्यों की पूर्ति था तथा नारी से आशा की जाती थी कि वह पति के साथ सहृदय होकर व्यवहार करे तथा उसके भाईयों-बहनों के प्रति आदर करते हुये सास की सेवा करे। रानी माद्री ने सास-ससुर के चरणों में सिर झुकाकर अभिवादन किया। एक वधु अपनी सास की सेवा अपनी मां के समान करती थीं।
बौद्ध साहित्य में मां के रूप में नारी का बहुत सम्मान किया गया है। नारियों ने अपनी संतान की रक्षा के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया। ‘चुल्लसुतसोम जातक’ का राजा सुतसोम जब प्रब्रज्या लेने के लिये चल पड़ता है। तो उसकी मां बिलख-बिलख कर रोते हुये कहती है कि मैंने तुझे बड़ी कठिनाई से जन्म दिया है। तू मुझे बिलखती छोड़कर प्रव्रज्या लेने जा रहा है। ‘महावेस्सत्तर जातक’ में रानी अपने पुत्र के वन गमन के अवसर पर रोते हुये विलाप करती है। जिस प्रकार चिड़िया घोंसले को खाली देखकर रोती है, दुखी होती है, इधर-उधर भागती है। उसी प्रकार मैं व्यथित हूँ। मेरे लिये अच्छा है मैं विश खा लूं अथवा पर्वत से गिर पडूं या रस्सी बांधकर मर जाऊं8।
नारी का यह समर्पण अपनी कोख से उत्पन्न सन्तति के लिये ही रहा है। सौतेली माताओं ने अपनी सौतेली सन्तानों को बहुत तंग किया है। नारी का बहन रूप भी सदैव त्यागमय और आदर्शमय रहा है। ‘उच्दुंग जातक’ एक राजा एक नारी के पति, पुत्र, भाई को चोरी में पकड़े जाने पर उस नारी के अनुनय-विनय करने पर किसी एक को छोड़ने का वायदा किया, तो उसने अपने भाई को छोड़ने की प्रार्थना की। सिविजातक के राजा की सभी लड़कियां अपने भाई के वन जाने पर उसकी बांहें पकड़कर रोने लगीं। जातकों के अध्ययन से पता चलता है कि विधवाओं को परिवार में अथवा समाज में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। उसके भरण पोषण का भार परिवार के सदस्यों पर था। सती-प्रथा का प्रचलन नहीं था विधवा विवाह होते थे। परन्तु विधवा विवाह प्रचलन में कम था। तरूण नारियां जो विधवा हो जाती थीं वे पुनः विवाह करती थी। पति-पत्नी एक दूसरे से तलाक भी ले सकते थे। पुरूष को पुनर्विवाह में नारी आसानी से मिल जाती थी परन्तु नारी प्रायः पूर्व पति के पास रहने का प्रयास करती थी।
बौद्ध साहित्य में नारियों की दुष्टता एवं अनाचारों के बहुत उदाहरण प्राप्त होते हैं। ‘संयुक्त निकाय’ के महासाल सुत्त से पता चलता है कि नारियों ने अपने वृद्ध ससुर को अपने पतियों से कहकर घर से बाहर निकलवा दिया9। ‘नलिनिका जातक’ में भी राजकुमारी नलिनिका ने सम्भोग क्रियाओं व नारी अंगों से अपरिचित ऋशि को व्यभिचार में फंसाने के लिये अपने गुप्तांग में खाज बताते हुये खाज मिटाने के लिये कहा – न मंत्र योग से न मसाज से ही और न औषधि से ही ब्रह्मचारी इसे ठीक कर सके हैं, यह जो तेरा मृदु अंग (गुप्तांग लिंग) है उससे खाज को दूर कर, ऋशि ने परोपकार के लिये उससे मैथुन क्रिया कर ली10।
जातकों में दुश्चरित एवं कुलटा नारियों के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं ऐसा लगता है कि जातकों का उद्देश्य जानबूझकर स्त्री जाति पर कीचड़ उछालना रहा है वैसे यह बात अलग है कि सामान्य नारी को छोड़कर प्रत्येक युग में कुछ दुष्ट स्त्रियों के इस प्रकार के रूप देखने को मिल जाते हैं परन्तु हम सम्पूर्ण नारी जगत के इस प्रकार के चरित्र को स्वीकार नहीं कर सकते। नारी जाति से बौद्ध धर्म की प्रगति में कोई बाधा आयी हो। बौद्ध दर्शन में नारी के प्रति इस प्रकार की विचार धारा के सन्दर्भ में मदनमोहन सिंह लिखते हैं – ‘पुरूष का विवेक नारी के निकट विनिष्ट हो जाता है। इसी धारणा को अंगीकार करने के कारण बौद्ध धर्मग्रन्थों में नारी का वर्णन सर्वत्र दुराचारिणी के रूप में किया गया है11।
अनादि काल से समाज में पुरूष ने अपनी भोग प्रवृत्तियों के लिये नारी को वैश्या के रूप में प्रयोग किया है। बौद्ध साहित्य में गणिकाओं, वैश्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। नगर की शोभा वृद्धि में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। ये राजा और उच्च घराने के लोगों का मनोरंजन करती थीं। संगीत नृत्य, गायन, वादन चित्रकला एवं अन्य कलाओं में निपुण होती थीं। सत्यकेतु विद्यालंकार गणिका, वैश्या के राजकीय महत्व को स्पष्ट करते हुये लिखते हैं, ‘‘गणिका, राजा के दरबार में नियुक्त होती थी, राजा के मनोरंजन और सेवा का कार्य करती थी। राजकीय सेवाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से मनोरंजन करने वाली नारियों को ‘रूपा जीवा’ कहते थे। रूपा जीवा का प्रधान कर्त्तव्य नृत्य, नाट्य, संगीत आदि द्वारा लोगों का मनोरंजन करना होता था। यद्यपि वे भोगों के लिये अपने शरीर को उनको अर्पित किया करती थीं12।
नगर गणिका के पद पर अति सुन्दरी नारी की नियुक्ति की जाती थी। नगरवासी और आम जनता तक अपने नगर की गणिका के सौन्दर्य और कलाओं पर गर्व का अनुभव किया करते थे। गणिका-अभाव किसी भी प्रमुख नगर के जीवन की महती त्रुटि समझी जाती थी। जातकों में चारित्रिक गुणों से सम्पन्न तथा दुराचारिणी दोनों प्रकार की वेश्याओं के उल्लेख मिलते हैं। वेश्याओं में भी कोमल हृदय, मान-अपमान की अनुभूति होती थी। कुछ वेश्याओं ने एक हजार कार्षापण रिश्वत देकर नगर कोतवाल से अपने मनभावन व्यक्तियों को छुड़ाया। सुन्दर वेश्याओं से रमण करने के लिये अपार धनराशि व्यय करनी पड़ती थी। कुछ वेश्याओं की फीस एक हजार कार्षापण प्रतिदिन थी। अपार धन सम्पत्ति की स्वामिनी ये वेश्यायें ऐश्वर्यशाली, विलासमय जीवन व्यतीत करती थी। ऐसा महसूस नहीं होता कि ये वेश्यायें किसी भी तरह सामान्य स्तर से कम थी। सुलसा, सामा, आम्रपाली सभी समाज में सामान्य स्थान रखती थीं। यद्यपि सामान्य जनता के द्वारा घृणा की दृष्टि से अवश्य देखी जाती थीं। इनके प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को मदनमोहन सिंह भी अभिव्यक्त करते हुये लिखते हैं – ‘समृद्ध गणिकाओं को खूब धन, आदर और यश मिला। प्रायः समाज चांदी-सोने के थोड़े से टुकड़ों के बलने में शरीर-विक्रय के कार्य को हेय दृष्टि से देखता था13।
नारी के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करने के बाद स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय नारी का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। नारी का जीवन पति, पति के परिवार, गृह सम्बन्धी कार्य, सन्तान उत्पत्ति तक ही सीमित हो गया था। नारी का सामाजिक स्थान पुरूष की अपेक्षा सदैव गौण ही रहा। वह पराधीन तथा निर्धन ही कहलाती थी। किसी न किसी पुरूष के अधिकार में रहना उसके लिये अनिवार्य माना जाता था। वह प्रायः पिता पति और पुत्र के अधिकार में ही रहती थी। नारी को पति के बाद अपनी सन्तान का पालन करने में ही लगे रहना था। सन्तान के पूर्ण व्यस्क बनने तक उसे अपनी स्वतन्त्र विचारधारा का परित्याग करना अनिवार्य था। नारी प्राचीन भारत में स्वतन्त्र सम्पत्ति की अधिकारिणी भी नहीं थी। नारी को दहेज में माता-पिता से जो धन मिलता था, उसी पर पैत्रक धन के रूप में उसका अधिकार रहता था।
नारी का त्याग, बलिदान एवं पतिव्रत धर्म समाज का उज्ज्वल पक्ष रहा है। गौतमबुद्ध ने स्वयं कहा है कि ‘स्त्रियों में अनेक गुण हैं, संसार में प्रथम उन्हीं की उत्पत्ति हुई है, उन्हीं में बीज अंकुरित होते हैं तथा उन्हीं से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अपने प्राण देकर भी उन्हें प्राप्त होने वाला कौन मनुश्य उनसे विरक्त है।
जातकों में नारी के सभी पक्षों का अध्ययन करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि समाज में स्त्रियों का सम्मान था। राजघरानों एवं उच्च घरानों में बहु-विवाह का प्रचलन था। विधवाओं को पुनर्विवाह को छूट थी। सामान्यतः कन्याओं का विवाह युवती होने पर ही होता था। पत्नियां अपने पतियों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर उनका सहयोग करती थी। वैसे समाज में दुराचारिणी, कुलटा एवं व्यभिचारिणी महिलाओं के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं, परन्तु उसके लिये हम सम्पूर्ण नारी जाति को दोषी नहीं ठहरा सकते। स्त्रियां धार्मिक, पतिव्रता, विदुशी एवं ललित कलाओं व अन्य सामान्य कलाओं में अति निपुण होती थी।
भारतीय नारी सदैव ही श्रृद्धा का पात्र रही है। वह पृथ्वी के समान सभी सुख-दुख सहती रहती है। पति को सर्वस्व अर्पण कर देती है। परिवार संचालन, सन्तान के पालन-पोषण में अपनी इच्छाओं का त्याग कर निष्पक्ष रूप से ग्रह कार्यों में संलग्न रहती है। मनुष्य सदैव ही नारी से प्रेरणा पाता रहा है। मनुष्य का नारी के बिना जीवन अधूरा है। कुछ अपवादों को छोड़कर नारी सदैव ही धर्मपरायण रही है। अस्तु, नारी की सुरक्षा करना मानव-धर्म है।
सन्दर्भ ग्रन्थ –
1. महाभारत अनु0, 81/5-6
2. वनमाला भावलकर, महाभारत में नारी, पृष्ठ-14
3. कैलाश चन्द्र जैन, प्राचीन भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक अध्ययन, पृष्ठ 104
4. आई.बी. हार्नर, वीमेन अण्डर प्रिमिरिव बुद्धिज्म, पृष्ठ 42
5. कैलाश चन्द्र जैन, प्राचीन भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक अध्ययन, पृष्ठ 108
6. ए.एस. अल्तेकर, दी पोजीशन आफ वीमेन इन इण्डियन सिविलाइजेशन, पृष्ठ 16
7. कैलाश चन्द्र जैन, प्राचीन भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक अध्ययन, पृष्ठ 107
8. वही, पृष्ठ 113
9. संयुक्त निकाय (हिन्दी अनुवाद) 7/2/4, पृश्ठ 141
10. कैलाश चन्द्र जैन, प्राचीन भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक अध्ययन, पृष्ठ 112
11. मदन मोहन सिंह, बुद्धकालीन समाज और धर्म, पृष्ठ 59
12. सत्यकेतु विद्यालंकार, मौर्यकालीन साम्राज्य का इतिहास, पृष्ठ 399
13. मदनमोहन सिंह, बुद्धकालीन समाज और धर्म, पृष्ठ 64

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