ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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भारतीय संघीय व्यवस्था की नूतन प्रवृतियां

डा0 नीलम गुप्ता

शोध निर्देशिका, राजनीति विज्ञान, विभाग

बरेली कालेज, बरेली

अनिल कुमार गुप्ता

शोधार्थी

राजनीति विज्ञान, विभाग

बरेली कालेज, बरेली

संघवाद एक ऐसी शासन व्यवस्था है जो राष्ट्रीय एकता तथा राज्यों की स्वायत्तता के बीच सुन्दर समन्वय तथा सामंजस्य स्थापित करता है। एक विद्वान ने इसे शाक्तियों के विभाजन का तरीका बताया है जिसमें क्षेत्रीय एवं केन्द्रीय सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र एवं सहयोगी होती है।1
भारतीय संघीय व्यवस्था का स्वरूप संविधान विशेषज्ञो के बीच बहस एवं विवाद का विषय रहा। भारतीय संघीय व्यवस्था भारतीय परिस्थितियों एंव तात्कालिक परिवेश के अनुरूप स्वीकार की गयी जबकि संघीय व्यवस्था के विशेषज्ञ इसे आदर्श संघीय व्यवस्था अमेरिका के उदाहरण से तुलना करके भारतीय संघीय व्यवस्था को अर्द्वसंघीय शासन व्यवस्था कहते है। जबकि भारतीय संविधान द्वारा स्थापित संघीय व्यवस्था पर खुले मन से अध्ययन किया जाए तो हम ‘नारमन डी.पामर’ के इस कथन से ‘‘भारतीय गणतंत्र एक संघ है तथा उसकी अपनी विशेषताएँ है जिन्होने संघीय स्वरूप को अपने ढंग से ढाला है।’’2 इस प्रकार प्रो0 एलेक्जेण्ड्रोविच के अनुसार भारत एक सच्चा संघ है तथापि अन्य संघो के भांति इसकी अपनी कुछ निराली विशेषताएं है।
ब्रिटिश सरकार के आगमन से पूर्व भारत की संास्कृति, सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि से विशेष स्थिति थी। मजबूत राजनीतिक संस्थान नही थे, राजा के आदेश ही वहां के गावों तथा अन्य स्तर की शासन व्यवस्था का संचालन करते थे। इस युग में केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकार द्वारा शासन सत्ता का संचालन होता था। इस शासन व्यवस्था का सभी स्तरो पर विभाजन बहुत बारीकी से किया गया था। प्राचीन मध्य भारत में समाज मे शक्तियों का विकेन्द्रीकरण था लेकिन यह संस्थागत नही था। समाज मे जात-पात, सामाजिक कुरीतियां विद्यमान रही।
अंग्रेज भारत को अपने साम्राज्यवादी शिंकजे मे जकडे़ रखना चाहते थे। भारतीय नेताओ ने दोनो के मध्य सामंजस्य एवं एक लिखित संविधान का प्रस्ताव रखा। भारतीय शासन अधिनियम 1919 के द्वारा भारत में दोहरा शासन अर्थात केन्द्र एवं स्थानीय स्तर पर अलग-अलग सरकारों की व्यवस्था की गयी। प्रान्तो को शाक्तियां सौपी गयी।
1935 के शासन अधिनियम के द्वारा भारत मे प्रस्तावित संघीय व्यवस्था देशी रियासतो के समर्थन से स्थापित होनी थी। चूँकि देशी रियासतो ने इस प्रकार की व्यवस्था मे रूचि नही ली इसलिए 1935 के अधिनियम का यह प्रावधान आस्तित्व मे नही आया। 1946 मे कैबिनेट- मिशन ने भारत के लिए जो शासन व्यवस्था का प्रारूप जारी किया उसमें एक ढीले-ढाले संघीय व्यवस्था का प्रावधान था जो भारत के एकता व अखण्डता के लिए चुनौती प्रस्तुत करता।
बडे़-बडे देशों में जहां भाषायी, धार्मिक, नृजातीय विविधता एवं विभिन्नता पायी जाती है वहां संघीय शासन पद्वति अधिक उपर्युक्त समझी जाती है। भारत एक ऐसा ही देश है जहां उपरोक्त विविधता अपनी सम्पन्नता के साथ विद्यमान है। भारत में ऐसे परिवेश मे एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित को गयी जो विविधता तथा सत्ता के विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था करता हो। संघीय शासन व्यवस्था अपने परिवेश के अनूकुल परिवर्तन कर अपनाया गया। भारतीय संविधान सभा ने भारत के लिए एक अनोखी संघीय व्यवस्था की स्थापना किया जो भारत की एकता एंव अखण्डता बनाये रखने के साथ-साथ प्रान्तो की स्वायतता सुनिश्चित करता है।

यद्यपि भारतीय संविधान मे संघ शब्द का प्रयोग नही किया गया है लेकिन भारतीय संविधान में कतिपय संघीय विशेषताएं पायी जाती है-
(1) संविधान की सर्वोच्चता
(2) शक्तियों की विभाजन
(3) दोहरी पहचान
(4) स्वतन्त्र एवं सर्वोच्च न्यायपालिका
(5) उच्च सदन का होना
(6) संविधान संशोधन प्रणाली
(7) अतः सरकारी फोरम
(8) संघवाद की प्रक्रियात्मक विशेषताएं
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान एक पूर्ण संघात्मक प्रणाली की स्थापना करता है। डा0 पायली के अनुसार भारतीय संविधान के संघीय न होने पर विवाद उठाने का कोई कारण समझ मे नही आता। संविधान संघवाद की कसौटी पर खरा उतरता है।3
संविधान सभा के अनेक सदस्यो के अनुसार संविधान मे संघात्मक सिद्वान्त को नृशंसतापूर्ण हत्या की गई है। वे ऐसा भारतीय संविधान में पाये जाने वाले कतिपय एकात्मक लक्षणो के आधार पर कह रहे थे। भारतीय संविधान में पाये जाने वाले एकात्मक लक्षण निम्न है-
(1) इकहरी नागरिकता।
(2) शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में।
(3) संघ एवं राज्यों के लिए एक ही संविधान।
(4) केन्द्रीय संसद द्वारा राज्य की सीमाओं मे परिवर्तन।
(5) एकीकृत न्याय व्यवस्था।
(6) राज्यपाल की नियुक्ति का प्रावधान।
(7) नीति आयोग पहले योजना आयोग तथा वित्त आयोग जैसे प्रावधान।
(8) अनुच्छेद 356 तथा राष्ट्रीय आपात जैसे प्रावधान।
ये सारे प्रावधान भारतीय संविधान मे एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करते है जो राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को मजबूत करते है।
भारतीय संघीय व्यवस्था के विकास को विभिन्न चरणो मे देश जा सकता है-
सन् 1947 से 1967 तक के समय को भारतीय संघीय व्यवस्था के केन्द्रीयकरण का युग कहा जाता है। इस युग मे संवैधानिक संस्थाओ पर राजनीतिक नेताओ का व्यक्त्वि हावी था। एक केन्द्रीकृत दलीय व्यवस्था संघ एवं राज्यों मे विद्यमान थी जिससे विवाद की गुजाइंश नही रही। नेहरू के व्यक्त्वि तथा नेतृत्व शक्ति को कोई राज्य विरोध करने का साहस नही कर सकता था। राष्ट्रीय विकास परिषद तथा योजना आयोग ने केन्द्रीकरण को बढ़ावा दिया। तमाम संस्थाएं एंव सम्मेलन जैसे वित्त आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद, राज्यपालो का सम्मेलन, मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन इत्यादि पर पं0 नेहरू तथा उनके मंत्रिमण्डल का प्रभाव था ये संस्थाएं तथा सम्मेलन सिर्फ अनुमोदन या स्वीकृति के लिए थे। भारतीय संघीय व्यवस्था के सहयोगी संघवाद के ढाँचे को निम्न संविधानिक तथा संविधानेतर व्यवस्था से बल मिलता है-
(1) राज्य सरकारों को निदेश। (2) संघ के कृत्यों का प्रत्यायोजन।
(3) अखिल भारतीय सेवाएं। (4) सहायता एवं अनुदान।
(5) अंतराज्य परिषद। (6) अंतराज्य वाणिज्य आयोग (अनुच्छेद 307)।
(7) राष्ट्रीय एकता परिषद। (8) नीति आयोग (योजना आयोग)।
(9) राष्ट्रीय विकास परिषद।
1967 के आम चुनाव मे कई राज्यो मे गैर कांग्रेसी सरकारें बनी। ये सरकारे संघ सरकार के नियंत्रण मे उस सीमा तक नही बनी रहना चाहती थी जिस सीमा तक कांग्रेस की सरकारे बनी रहती थी। इस कारण आद्योगिक संस्थानो की स्थापना या भाषा को लेकर संघर्ष या केन्द्रीय रिजर्व पुलिस को लेकर मतभेद हो विवाद बना रहा।
केन्द्र एवं राज्यो के बीच विवाद के बाद भी सहयेाग बना रहा। इसे ही ग्रेनविल आस्टिन ने ‘‘सहकारी संघवाद’’4 कहा। सहयोगी संघवाद का प्रमुख लक्षण केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों की एक दूसरे पर निर्भरता है। इस व्यवस्था मे केन्द्रीय सरकार शक्तिशाली होती है। लेकिन राज्य सरकारे भी कमजोर नही होती। भारतीय संविधान विभिन्न प्रावधाने के द्वारा भारत मे सहयोगी संघवाद की व्यवस्था करता है। जैसे राष्ट्रपति, राज्य सरकार की सहमति से बिना विधायी मंजूरी के कोई भी कार्यपालिका कृत्य किसी राज्य को सौंप सकता है।5
राज्य का राज्यपाल भारत सरकार के सहमति से राज्य के किसी विषय के संबंध मे उस राज्य की सीमा के भीतर कोई कृत्य संघ सरकार या उसके अधिकारिकयों को सौंपे सकता है।6
1971 से 1980 तक समय मे केन्द्रीय सरकार की शक्तियों मे बढ़ोत्तरी हुई। राष्ट्रीय आपातकाल मे पूरे देश मे एकात्मक व्यवस्था लागू हो गयी। आपातकाल में मुख्यमंत्रियो पर राष्ट्रीय आला कमान का जबरदस्त दबाब था। 1980 के लोकसभा के चुनाव के दौरान केन्द्रीय सरकार ने नौ (09) राज्यो के गैर काग्रेसी सरकारो को भंग कर दिया। इस प्रकार राज्यो की स्वायत्तता अब केन्द्र के रहमो-करम पर निर्भर हो गयी। लगने लगा कि देश मे एकात्मक शासन व्यवस्था लागू है।
1989 के चुनाव मे एक कमजोर केन्द्र सरकार का गठन हुआ। क्षेत्रीय दलो ने सरकार के समर्थन की कीमत वसूलने के लिए सौदेबाजी करना शुरू किया। इसलिए इस दौर को ‘सौदोबाजी का संघवाद7 कहा गया। केन्द्र की जनता सरकार एक दुर्बल सरकार थी क्योंकि यह विभिन्न घटको से बनी एक गठबन्धन सरकार थी। अतः राज्यो की सरकारों ने सौदेबाजी का निरन्तर प्रयास किया। यहां तक कि कातिपय गैर जनता दल की राज्य सरकारों ने ‘राज्य स्वायत्तता’ का नारा बुलन्द किया।
वित्तीय स्रोतो के वितरण को लेकर पश्चिमी बंगाल की सरकार ने सदैव केन्द्रीय सरकार से दबाब एवं सौदेबाजी की भाषा मे बात किया।
प्रसिद्व इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के अनुसार ‘सौदेबाजी की राजनीति न तो अच्छी, न तो बुरी राजनीति है हर कोई यह भी उम्मीद करता है कि अल्पमत सरकार मे गठबन्धन के साझेदार जमकर मोलभाव करेगें। समस्या तब होती है जब मुख्य पार्टी इतनी कमजोर हो कि छोटी पार्टियो के कमाऊ मन्त्रालयों के दबाब को बर्दाश्त नही कर पाए।’8
भारतीय संघीय व्यवस्था अपने वर्तमान दौर मे एक सशक्त केन्द्र के साथ आत्मनिर्भर राज्य की तरफ बढ़ रही है यद्यपि राज्य अपने साथ भेदभाव एवं उपेक्षा का आरोप लगाते है। आज वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के दौर मे तेजी से होते आर्थिक सुधारो ने भारत को एक समान कर प्रणाली अपनाने पर मजबूर कर दिया है। जी0एस0टी0 को लागू कर पूरा देश को एक बाजार मे बदल दिया गया जिससे राज्यो की स्वायत्तता प्रभावित हुई तो उनके केन्द्र पर निर्भरता बढ़ गयी। केन्द्र सरकार ने राज्यो को केन्द्रीय करो में हिस्सेदारी बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दिया जिससे राज्यों की आर्थिक स्थिति बेहतर हुई।
आज के दौर मे राज्य ज्यादा वित्तीय संसाधन की मांग करता है।
राज्यो की मांग है कि केन्द्र राज्यों की अनुमति के बिना केन्द्रीय पुलिस बल या पैराभिलिट्री राज्यो मे न भेजे। केन्द्र का यह कदम राज्यो की स्वायत्तता मे हस्तक्षेप होता है।
राज्य राज्यपाल की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते है। राज्यपाल की नियुक्ति मे मुख्यमंत्री की सलाह भी लेनी चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र के प्रारम्भ के दिनों से ही दो महत्वपूर्ण विमर्श सामने रखे जाते है। प्रथम विविधतापूर्ण समाज को एकता के सूत्र मे बॉधना जो उनकी परंपरागत संस्कृति को बनाये रखें साथ ही राजनीतिक व्यवस्था भी उनके पूर्णतः सचेत रहे।
राजनीतिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण इस प्रकार प्रसारित किया जाए जो सभी को उनके दायित्व व उत्तरदायित्व सहित समाहित करे। भारतीय संघवाद एक लचीले प्रकार की व्यवस्था को स्वीकार करता है जिसमें कुछ इकाईयो को विशेेष दर्जा दिया जाता है। जिसका आधार सांस्कृतिक या ऐतिहासिक हो सकता है। सी0 टारलटन का मानना है कि किसी निकाय को ज्यादा शक्ति देने या असमान रूप दे शक्ति वितरित करने से अलगाववाद की भावना का विकास हो सकता है। भारत मे अधिकतर राज्यों की शिकायत इस सन्दर्भ मे देखी जा सकती है।
स्टीफेन भारतीय संघवाद को समर्थन करत हुए यह मानते है कि भारत मे संघवाद का जन समर्थन प्राप्त है। हालाकि टारलटन का मानना है कि भारतीय संघवाद संप्रदायवाद तथा अलगावाद को बढ़ावा देता है। इस क्रम मे रेखा सक्सेना का मानना है कि संघवाद बहुराष्ट्रीयता का परिचायक है जहां प्रत्येक नागरिक अपनी-अपनी पहचान के अनुरूप राष्ट्र की संस्कृति को सुरक्षित करते है। संघवाद वर्तमान परिपेक्ष्य मे एक चर्चित विचार-विमर्श के रूप मे सरकार और शासन के बीच विद्यमान रहा है। भारतीय लेाकतंत्र तथा भारतीय राष्ट्र के व्यापक संचालन मे संघवाद एक महत्वपूर्ण व्यवहार है। भारतीय संघवाद, भारतीय संस्कृति तथा भूमण्डलीयकरण के दौर मे भागीदारी तथा प्रतिनिधित्व तथा मतदान व्यवहार मे आए परिवर्तन के आयामों की अभिव्यक्ति है।
भारतीय सघंवाद की सबसे अधिक सही व्याख्या यह होगी कि विभिन्न कालों में इसके विभिन्न रूप व्यवहार में देखने को मिलते है। भारत में एक प्रकार का संघवाद नहीं है अपितु अनेक प्रकार के संघवाद है। एक ही समय पर अलग-अलग राज्यों से केन्द्र के भिन्न-भिन्न संबंध रहे है। कभी इन सम्बन्धों की व्याख्या सहयोगी संघवाद के आधार पर तो कभी एकात्मक संघवाद और कभी सौदबाजी वाले संघवाद के आधार पर की जाती है। ये तीनों प्रवृत्तिया समय काल के आधार पर भारतीय संघवाद में प्रभावी रही है।
संबंधित पुस्तकंे
1. सी0एच0एलेक्जेड्रोबिचः कांस्टीट्यूशनल डेवलैपमेंट्स इन इंडिया, 1957, पृ0-157-70
2. के0सी0वेयर: फेडरल गर्वमेंट, 1951, पृ0 28
3. लिविंग स्टोनः फेडरेशन एण्ड कास्टीट्यूशनल चेंज, 1956, पृ0-6-7
4. ग्रेनविल आस्टिनः दि इंडियन कांस्टीट्यूशन 1966, पृ0 187
5. जैनिवसः सम करेक्टरिस्टिक्स ऑफ दि इंडियन कांस्टीट्यूशन, पृष्ठ 155
6. एम0पी0सिंहः इण्डियन पालिटिक्स कांस्टीट्यूशनल फाउडेशन एण्ड इन्सीट्यूशनल फक्शनीईग, न्यू दिल्ली पी0एस0आई0, 2011, पृ0-201
7. ज्योति इन्द्रा, दास गुप्ता, इण्डियास फेडरल डिजाइन एण्ड मल्टी कलच्रल नेशनल कांस्ट्रक्शन-2001
8. अतुल कोहलीः द सक्सेस ऑफ इण्डिया स डेमोक्रेसी, न्यू दिल्ली, कैम्बरिज न्यू दिल्ली,

सन्दर्भ सूची –
1- के0सी0 व्हेयरः फेडरल गर्वनमेण्ट, पृ0 10
2- नारमन डी0पामरः द इण्डियन पोलिटिकल सिस्टम, पृ0
3. एम.वी.पायलीःभारतीय संविधान, पृष्ठ संख्या-189
4- ग्रेनविल आस्टिनः दि इंडियन कांस्टीट्यूशन, 1966 पृष्ठ सं0 187-188
5- भारतीय संविधान अनुच्छेद 258(1)
6- भारतीय संविधान अनुच्छेद 258 (क)
7- मारिस जोन्सः गर्वनमेण्ट एण्ड पालिटिक्स ऑफ इण्डिया, 1971, पृ0सं0 150
8- रामचन्द्र गुप्ताः इण्डियाटेुड, दिल्ली पब्लिकेशन 2000, पृ010

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