ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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हिन्दी दलित कहानी का सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यांकन

शोधार्थी – प्रताप सिंह
आर0बी0डी0 महिला महाविधालय बिजनौर
एम0जे0पी0यू0 बरेली

किसी भी साहित्य की सामाजिकता वर्ग विशेष की नहीं होनी चाहिए, तथा सहित्य को मानवता के हित में, तथा उसके पक्ष में में खड़ा होना चाहिए, परन्तु कुछ अपवादों को छोडकर इतिहास का शायद ही ऐसा समय और काल हो जिसमे सहित्य मानवता के लिए या सबके लिए लिखा गया हो। साहित्य की यह बिडम्बना रही कभी वह राजा-महाराजाओं, और कभी सत्ता-सम्पन्न सामन्तो के लिए, कभी रसिक समाज के मनोरंजन के लिए, तो कभी युद्ध वर्णन और शोर्य, पराक्रम के दिखाने के लिए, कभी सुरा-सुन्दरी को महत्व और प्रेम-प्रसंग के लिए साहित्य लिखा जाता रहा है।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लिखा गया राष्ट्रीय साहित्य और समाजवादी-मार्क्सवादी साहित्य अवश्य भिन्न है। वहीं साहित्य की देश-प्रेम मुक्ति-चेतना के देश को विदेशी हुकुमत से आजाद तो करवा लिया। पर यहां की बहुसंख्यक जनता जिसमें दलित समुदाय शामिल था, उसको सामाजिक-संास्कृतिक गुलामी से निजात नहीं दिला सका! इन सबके वाबजूद सहित्य जब सामाजिक-सरोकारों से जुड़ा तो वह सामान्य और शोषित-पीड़ितों के साथ हो गया। दलित साहित्य भी कुछ उसी तरह का साहित्य है। मगर इसकी अधिसंख्यक जनता आज भी मानसिक गुलामी, गरीबी, असमानता और सामाजिक-सांस्कृति रूढ़ियों में कैद है।
दलित साहित्य के सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकी जी ने ‘दलित की सामाजिक प्रति बद्धता‘ में लेख लिखा है।
‘‘यदि आज समस्त भारतीय साहित्य का समग्र दृष्टि से मूल्यांकन करे तो उंगलियो पर गिने जाने वाले साहित्यकार ही मिलेंगे, जिनके दलितों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई पड़ी है, जो अपने आप में चौकाने वाला तथ्य है। साहित्य को समाज का दपर्ण कहने वाले साहित्यकार सही अर्थों में साहित्य का दर्पण बनाने में असमर्थ रहे है। हिन्दी की स्थिति तो और भी सोचनीय है। कबीर, रैदास निराला और प्रेमचन्द को छोडकर कितने साहित्यकार है। जिन्होंने इस देश के उस समाज पर दृष्टिपात किया है, जो युगों-युगांे से घोर अमानवीय जीवन जी रहा था।‘‘(2)
मौजूदा समय में दलित समुदाय डॉ. अम्बेडकर के प्रयास से पढ़-लिखकर अपने बारे में खुद सोचने लगा हैै। आज दलित समाज, बाबा साहब की चेतना और विचारों के प्रभाव, तथा संवैधानिक अधिकारों के कारण पद लिखकर आगे बढ़ रहा है। तथा इसके साथ ही सम्पूर्ण सामाजिक और ऐतिहासिक परम्परा में अपने-आपको अलग-थलग पाता है मुख्य धारा के इतिहास में उनके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर वे गर्व करें। दलित साहित्य ऐसे ही लोगों की सामाजिक-ऐतिहासिक पड़ताल है। अतएव इसकी सामाजिकता और सामाजिक प्रतिबद्धता पारम्परिक साहित्य से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ती है। ऊपरी तौर पर देखने से दलित साहित्य का सरोकार केवल दलित समाज तक ही दिखाई पड़ता है। परन्तु इसकी गहराई में मानव मुक्ति संग्राम छिपा हुआ है। इसलिए उसके सरोकार भी अखिल मानवता से है।

हिन्दी दलित कहानियों में भारतीय सामाजिक व्यवास्था में वर्ण-व्यवस्था, छुआ-छूत, जातिपांत के कारण हाषिए की जिन्दगी व्यतीत कर रहे दलित समाज की महत्वाकांक्षा और जीवन सघर्श को चित्रित किया गया है।
हिन्दी दलित कहानी के पात्र अपना जीवन अपने तरीके से नहीं जी पाते बल्कि जीने के लिए कठिन परिश्रम तथा पारम्परिक समाज द्वारा तैयार की गई व्यवस्था में जीने को मजबूर है।, हिन्दी दलित कहानियों में दलितों की सामाजिक स्थिति एक दम साफ और स्पश्ट है। दलित कहानी के पात्र गरीब, मजबूर, लाचार और समाज से बहिस्कृत, तिरस्कृत, वेदना, यातना से युक्त जीवन व्यतीत कर रहे है। तथा साथ ही साथ दलित समाज शिक्षा से भी वंचित है। दलित वर्ग के जीवन की सुबह और शाम को भोजन की चिन्ता रहती है। मजबूरी, बेगारी गन्दे कार्य करना दलितों का पेशा है इन सबके बाबजूद भी वे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सवर्णों के यहाँ- बेगारी, मजबूरी करने तथा शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न सहकर भी अपने बच्चों को शिक्षा देना चाहते है। गरीब और समाज में लाचार दलित ये नहीं चाहता कि हमारे बच्चे भी हमारी तरह रुढ़िवादी और परम्परावादी सामाजिक जीवन जिये। तथा इस सामाजिक व्यवस्था से अलग तरह का जीवन जियें।
रमणिका गुप्ता कहती है: ‘‘ये कहानियाँ सामाजिक बदलाव को आने का आहवान करती कहानियाँ है। इन कहानियों में आक्रोश है, आग है, लावा है, गुस्सा है तो साथ-साथ संवेदना, मानवीयता और सब्र भी है, न्याय की उत्कट लालसा है, समानता की तीव्र ललक है, भाइचारे की भावना है, तो आदर पाने की इच्छा भी बलबŸाी है।’’(3)
यह कथन दलित जीवन के सामाजिक रुप रेखा ही बदल देता है। तथा दलित सवर्णाे द्वारा बनाई गई सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ अपना जीवन यापन करने को तैयार है, दलित समाज का सत्य क्या है और अतीत के साथ उस ‘सत्य’ का सम्बन्ध क्या है। दलित कहानियाँ यह सब सच बंया करती है।
अस्पृश्यता दलित समुदाय से जुड़ी सबसे बड़ी सच्चाई है। तथा भारतीय समाज में इसे स्थापित करने में वर्ण एवं जाति केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था की सबसे बड़ी भूमिका निभा रही है। दलित समाज का पूरा सत्य ‘वर्ण-व्यवस्था’ एवं जातिपांत केन्द्रित असंगत सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़ा है।
ओम प्रकाश वाल्मीकी की कहानी, ‘सलाम’ और ‘पच्चीस चौका डेढ सौ’ में दलित समाज के यथार्थ का चित्रण है।
कावेरी जी की कहानी ‘सुमंगली’ को देखा जाय तो एक दलित स्त्री का सामाजिक जीवन का क्या सच है तथा समाज में उसका क्या स्थान है। उसकी बेवसी, लाचारी का देखा जा सकता है।
सूरजपाल चौहान की कहानी ‘घाटे का सौदा’ आत्म विश्लेषण की कहानी है। जिसमें पढ़े-लिखे दलित सामाजिक भेद भाव के भय से जाति छुपाकर रहने को बाध्य है।
हिन्दी दलित कहानी में संस्कृति की खोज के प्रश्न को मोहनदास नैनिशराय की आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ में देखा जा सकता है। अपनी पीड़ा की लेखक ने इन शब्दों में व्यक्त किया है।
‘‘हम लम्बे समय से अपमान सहते आये थे, पर गुनहगार न थे हम। हम हारे हुए लोग थे, जिन्हें आर्यों ने जीतकर हाषिए पर डाल दिया था। हमारे पास अंग्रेजों के द्वारा दिये गये तमगे, मेडल, पुरस्कार न थे। हमारे पास था, सिर्फ कड़वा अतीत और जख्मी अनुभव। मन और शरीर पर चोट पड़ती तो वे ही जख्म हरे हो जाते है। सदियों से गर्दिशों में रहते-रहते हम अपने इतिहास से कट गये थे। अपनी संस्कृति, भूल गए थे।’’ (4)
दलित साहित्य प्राचीन संस्कृति कला साहित्य का तिरस्कार करता है। मानवता की सच्चाई को सामने लाने के लिए दलित लेखक कोशिश करते है। दलितों, मजदूरों और संघर्षरत अन्य शोषितो, जनमानस की स्थिति क्या है, उनके प्रति अपना उŸार दायित्व महसूूस करते है। पारम्परिक संस्कृति दलितों को स्वीकार नहीं मुन्शी प्रेमचन्द ने कहा है।
‘‘संस्कृति अमीरों, बेफिक्रों और पेट भरों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राण-रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है उस संस्कृति में क्या था, जिसकी वे रक्षा करते जनता मूर्छित थी और उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती गयी, वह देखने लगी की यह संस्कृति लुटेरो की थी, जो राजा बनकर, विद्वान बनकर जगत-सेठ बनकर जनता को लुटती है।’’(5)
इसलिए सदियो के शोषण, प्रताड़ना, द्वेष और वैमनस्य के भेदभाव तले दबा दलित समाज भारत की सांस्कृतिक विरासत और समाज व्यवस्था को आज इसी दृष्टि से देखता है। दलित चेतना को जहाँ भी सम्मान और समानता की वृŸिा दिखाई पड़ी, उसने उसे वहां अपना आधार बनाया है। यह चेतना बाबा साहब के सिद्धान्त और मान्यताओं में विष्वास करती है। इसलिए हिन्दी दलित कहानियों की सामाजिकता वहीं है, जो बाबा साहब की समाजिकता थी। बाबा साहब लोकतन्त्र में, सामाज के लिए समानता, स्वतन्त्रता, बन्धुत्व, चाहते थे। तथा दलित समुदाय के वह प्रेरणा और चेतना के स्त्रोत थे। दलित कहानियाँ सामाजिकता, समाज-व्यवस्था जिसमे, जातिपांत, छुआछूत अश्पृस्यता, आदि में आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहती है। दलित कहानियों का सच समाज का नंगा सच है। जिसे कदापि नकारा नहीं जा सकता है। दलित साहित्य ने समाज के सबसे निचले पायदान पर मौजूद शुद्र या दलित को अपने साहित्य में स्थान दिया है। हिन्दी दलित कहानी समाज-व्यवस्था को तोड़ने का वादा तो नहीं करती पर उस व्यवस्था से आक्रान्तजनों के सम्मान और सामाजिक समानता की बात जरूर करती है।
ओम प्रकाश वाल्मीकी जी ने लिखा है:
‘‘कला और साहित्य के नियम भौतिक जगत तथा मानव समाज के विकास के साथ-साथ निश्चित नियमों के अनुसार परिवर्तित होते है तथा अपने समय और सामाजिक परिवेश के अनुसार वह साहित्यिक कृतियों का सृजन करता है’’(6)
यहाँ पर स्पष्ट है कि दलित साहित्य अम्बेडकर वादी सोच और विचार तथा साथ ही चेतना पर आधारित है। इसलिए इसकी सामाजिकता वर्तमान समाज व्यवस्था को एक सिरे से खारिज करती है तथा साथ ही दलित साहित्य का इतिहास बोध भी मुख्य धारा के इतिहास से बिल्कुल भिन्न है। यदि दलित समुदाय को मुख्य धारा द्वारा समानता और सम्मान नहीं मिलता है, तो वह अपने दलित समुदाय के लिए मुख्य धारा से भिन्न व्यवस्था, संस्कार, संस्कृति रचेगा।
दलित साहित्य की स्पष्ट मान्यता है कि ऐसी संस्कृति सम्पूर्ण भारतीय समाज का प्रति निधित्व नहीं कर सकती, जिसमें समाज की सारी सहूलियतें, सारी सुख-सुविधा के साधन किस खास वर्ग के लिए जुटा दी गई है। इसलिए तथा-कथित मुख्य धारा की संस्कृति एकांगी है। दलित साहित्य के ऐसे विरोधी और प्रतिरोधी तेवर देखकर लगता है कि वह प्रत्येक पारम्परिक और रूढिवादी, कला, साहित्य और संस्कृति का तिरस्कार करता है तथा साथ ही सम्पूर्ण पूर्ववर्ती साहित्य को सवर्णो का साहित्य कहकर पूरी तरह खारिज करता है। दलित साहित्य एक अलग समाज और संस्कृति की बात करता है।
दलित कहानिकारों का मानना है कि यह साहित्य न तो वैकल्पिक साहित्य है और न वह कोई समानान्तर परम्परा या संस्कृति ही गढ़ना चाहता है। यहाँ पर दरअसल, सारी लड़ाई संस्कृति के पाठ और उसकी- पुर्नव्यवस्था को लेकर है। भारत की प्रचीन संस्कृति, जो विशुद्ध रुप से प्राचीन साहित्य और धर्म ग्रन्थों की व्याख्या पर आधारित है। इनके पाठ-प्रतिवाद प्राचीन काल से होते रहे है। अतः यहाँ पर स्पष्टतः दो परम्पराओं और विचार धाराऐं समानान्तर चलती रही, जिनके द्वन्द्व और घात-प्रतिघात से अनेक छोटी-बड़ी विचार धाराऐं बनती-बिगड़ती रही है।
निष्कर्ष –
हिन्दी दलित कहानीकार बाबा साहब की चेतना और विचार को लेकर आगे बढ़ा, यह चेतना लोकतन्त्र में समानता, बन्धुत्व, स्वतन्त्रता, पर आधारित है। यहाँ पर दलित लेखक सामाजिक क्रान्ति को सांस्कृतिक क्रान्ति में प्रति फलित देखना चाहता है। दलित लेखकों के अनुसार संस्कृति सदियों से चली आ रही वस्तुओं की श्रृंखला नहीं है, जिसे वह ज्यों का त्यों, स्वीकार कर ले, बल्कि वह जानता है कि संस्कृति विरासत में या नैसर्गिक रुप में नहीं मिलती। प्रत्येक व्यक्ति सामाजीकरण द्वारा अपनी संस्कृति के बारे में सीखता है।
अतः शिक्षित दलित समुदाय की संस्कृति वही नहीं हो सकती, जो वर्ण व्यवस्था, जातिपांत, हुआ छूत पर आधारित अधिकांश हिन्दू समाज की संस्कृति है। इसलिए आज का दलित कहानिकार एक नई प्रति संस्कृति के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है।
सन्दर्भ –
1. डॉ0. पुरुषोŸाम सत्यप्रेमी: दलित साहित्य और सामाजिक न्याय पृष्ठ-104
2. ओम प्रकाश वाल्मीकी: दलित साहित्य और सामाजिक न्याय पृष्ठ-75
3. रमणिका गुप्ता: दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, पृष्ठ-117
4. मोहनदास नैमिशराय: अपने-अपने पिंजरे, भाग-1 पृष्ठ-18
5. प्रेमचन्द: दलित साहित्य का समाज शास्त्र, पृष्ठ-87
6. ओम प्रकाश वाल्मीकी: दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र पृष्ठ-59

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