ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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बांग्लादेश का अभ्युदय एवं भारत में शरणार्थी समस्या : एक ऐतिहासिक राजनीतिक विश्लेषण

                                            मनोज कुमार सिंह
                                           एम० ए०, नेट (राजनीतिशास्त्र)
दिसम्बर, 1971 में बांगलादेश का एक सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में प्रादुर्भाव भारतीय उपमहाद्वीप के समकालीन इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसने दक्षिण एशिया उप-महाद्वीप के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के स्वरूप में दूर तक तथा गुणात्मक परिवर्तन कर दिया। इसके प्रादुर्भाव ने धार्मिक मान्यता पर आधारित द्वि-राष्ट्र विचारधारा को घातक चोट पहुँचाई। इसने पाकिस्तान को विभाजित किया तथा भारत की बराबरी का प्रयत्न करने वाले एक बड़े मुस्लिम देश से पाकिस्तान एक छोटा-सा देश बन गया जिसके सामने गम्भीर सामाजिक व आर्थिक पुनर्संरचना की समस्याएँ थीं। अनेक विद्वान ऐसा मानते हैं कि पाकिस्तान का विखण्डन कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी बल्कि यह एक ऐतिहासिक मूल का सुधार तथा भू-राजनीतिक आवश्यकता की पूर्ति थी क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण ही एक राजनीतिक भूल थी और 1200 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित दोनों इकाइयों का जुड़ा रहना एक राष्ट्र के निर्माण में भू-राजनीतिक तत्वों की भूमिका की अवहेलना थी।
प्रायः ऐसा माना जाता है कि राष्ट्र के निर्माण तत्वों- समान परम्परा, समान संस्.ति, भू-भागीय सम्पर्क,      धर्म एवं भाषा में से धर्म को छोड़कर कोई बांगलादेश को अपने पूर्ववर्ती राष्ट्र पाकिस्तान के साथ, आबद्ध नहीं किये हुए था। इतना ही नहीं, कुछ विद्वानों का मत है कि बांगलादेश का प्रादुर्भाव उपमहाद्वीप की राष्ट्रीयता के संबंध में लाहौर प्रस्ताव की मूल अन्तर्वस्तु का मूर्त रूप है। बंगाली लेखकों ने तो इस दिशा में कुछ अधिक ही उत्साह दिखाया है। उनके अनुसार पूर्व बंगाल या पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तान के केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध चलने वाले सभी जनतांत्रिक एवं प्रादेशिक स्वायत्तता का आन्दोलन ‘बांगलादेश’ का ‘राष्ट्रीय-स्वतंत्रता आंदोलन’ था। इन लेखकों में बांगलादेश तथा पश्चिम बंगाल दोनों भू-प्रदेश के लोग शामिल हैं। किन्तु उपयुक्त कथ्य एक सम्प्रभु राष्ट्र बांगलादेश के निर्माण से संबंधित स्वस्थ तत्वों को उजागर नहीं करते और न किसी ‘ऐतिहासिक मूल’ अथवा ‘भू-राजनीतिक आवश्यकता’ के परिप्रेक्ष्य में सही उत्तर देते हैं।
जहाँ तक सामान्य भाषा, सामान्य सांस्.तिक परम्परा तथा भू-भागीय सम्पर्क अथवा सरहदी एकता की बात है, विश्व के मानचित्र पर कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि इन तत्वों के अभाव में भी सम्प्रभु-राष्ट्र अवस्थित रहे है,  और साथ ही इन तत्वों के रहते हुए भी एक राष्ट्रीय समुदाय विभिन्न सम्प्रभु राष्ट्रों के अन्तर्गत बँटे रहे हैं। हैन्स कून ने इसके सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि –
राष्ट्र समाज के ऐतिहासिक विकास की उपज है। यह सही है कि सामान्यतः राष्ट्रीयता की अनेक विशेषताओं में भाषा, समान परम्परा एवं संस्क्रति, राजनैतिक ऐक्यबद्धता तथा भौगोलिक अखण्डता प्रमुख हैं और राष्ट्र के अस्तित्व के लिए इनमें से सभी तत्व का योग आवश्यक है। राष्ट्रीयता इतिहास की जीवन्त शक्तियों की उपज है। इसलिए यह हमेशा परिवर्तनशील होती है। कभी स्थिर नहीं होती और इसलिए यह अत्यन्त जटिल होती है। कोई जाति या कबीला एक राष्ट्र नहीं होता। बल्कि ऐतिहासिक रूप से संघटित जन-समुदाय एक राष्ट्र होता है। यह आकस्मिक अथवा क्षणभंगुर समूह नहीं होता बल्कि स्थायी जन समुदाय होता है जो सामान्य नियति पर आधारित (या सामान्य नियति द्वारा) एक सामान्य सामुदायिक स्वरूप (राष्ट्रीय कैरेक्टर) से बँधा होता है। सामुदायिक या राष्ट्रीय स्वरूप एक बार या हमेशा के लिए स्थिर बना नहीं रह सकता। राष्ट्र के ये तात्विक स्वरूप भाषा, संस्.ति, भोगौलिक अखण्डता, संघटित मनोवृत्ति, आर्थिक जीवन पद्धति एवं परिस्थितियों के साथ बदलते रहते हैं। फिर भी एक निश्चित समय में अपनी मौजूदगी के कारण ये किसी राष्ट्र के स्वरूप पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहते।
उपरोक्त दृष्टान्त से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से उद्भूत एक स्थायी जनसमुदाय है, जिनका निर्माण सामान्य भाषा, भू-भाग, आर्थिक जीवन-पद्धति तथा एक सामान्य संस्कृति में उद्भूत एवं प्रदर्शित एक संघटित मनोवृत्ति के आधार पर होता है।
मौलाना आजाद की उस भविष्यवाणी में भी बांगलादेश के प्रादुर्भाव की सच्चाई ढूंढने का प्रयास किया गया जिसमें उन्होंने जिन्ना एवं उनके साथियों का ध्यान पाकिस्तान के दोनों घड़ों (पश्चिमी और पूर्वी) की विसंगतियों एवं तदनन्तर परिणामों की ओर खींचा था। श्री जिन्ना और उनके अनुयायी यह महसूस करते नहीं लगे थे कि भूगोल उनके खिलाफ है। दोनों क्षेत्रों (पश्चिम पाकिस्तान और पूर्व बंगाल) के बीच भू-भागीय सम्पर्क का कोई बिन्दु नहीं है। इन दोनों क्षेत्रों की जनता मात्र धर्म को छोड़कर हर लिहाज से एक-दूसरे से विल्कुल अलग हैं। यह जताना जनता के साथ सबसे बड़ी धोखाधड़ी है कि धार्मिक सभ्यता उन इलाकों को ऐक्यबद्ध कर सकती है जो भोगौलिक, आर्थिक, भाषाई एवं सांस्कृतिक रूप से अलग हैं। कोई भी आशा नहीं कर सकता कि पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान अपने सारे मतभेदों को भुला देंगे और एक राष्ट्र बन जाएँगे।
उपरोक्त भावनात्मक अन्तर्विरोध पाकिस्तान के भाषा-विवाद पर बुनियादी रूप से काम कर रहा था। बंगला भाषा को भी पाकिस्तान की एक राजकीय भाषा के रूप में मान्यता का प्रश्न सबसे पहले 25 फरवरी, 1948 को पाकिस्तान संविधान सभा में उठा। अल्पसंख्यक हिन्दू बंगाली सदस्य डी० एन० दत्त ने एक संशोधन के द्वारा मांग की कि संविधान सभा की कार्यवाही उर्दू के साथ-साथ बंगला भाषा में भी चलायी जाय। सरकार की ओर से इस संशोधन का विरोध करते हुए प्रधानमंत्री लयाकत अली खाँ ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया कि पाकिस्तान का निर्माण उपमहाद्वीप के करोड़ों मुसलमानों की मांगों का परिणाम है। उपमहाद्वीप के इन करोडों मुसलमानों की भाषा उर्दू है। इसलिए यह कहना कि देश के एक हिस्से में रहने वाली पाकिस्तान की बहसंख्यक जनता की भाषा पाकिस्तान की राजभाया हो गलत होगा। पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र है इसलिए इसकी राष्ट्रभाषा मुसलमानों की सामान्य भाषा होगी।
पश्चिम पाकिस्तान द्वारा पूर्व पाकिस्तान का आर्थिक शोषण
भारी दमन के प्रारम्भिक दौर में लोग आन्दोलन छेड़ने की स्थिति में नहीं थे। इस बीच मार्शल लॉ प्रशासन ने अपनी वैधानिकता प्राप्त करने के प्रयास में अक्टूबर, 1959 में एक नयी शासन पद्धति- स्थानीय स्वायत्तशासी निकाय प्रणाली की स्थापना की जिसका नाम ‘बेसिक डेमोक्रेसी‘ दिया गया। इस नयी प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक दस हजार की आबादी पर एक यूनियन काउन्सिल की स्थापना के साथ 8126 यूनियन काउन्सिल की स्थापना की गई। प्रत्येक यूनियन काउन्सिल की सदस्य संख्या दस होती थी। जिन्हें बेसिक डेमोक्रेट कहा जाता था। प्रत्येक बेसिक डेमोक्रेट का निर्वाचन एक हजार की आबादी पर सार्वजनिक वयस्क मताधिकार द्वारा होता था। सैनिक प्रशासन के अन्तर्गत चेसिक डेमोक्रेट द्वारा प्रशासनिक विकास से संबंधित स्थानीय स्व-शासन और बहुत से     संवैधानिक कार्यों का सम्पादन होता था।
बेसिक डेमोक्रेट 1962 में घोषित संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति चुनाव के लिए निर्वाचक मंडल के सदस्य बनाये गये। दोनों प्रादेशिक इकाईयों में डेमोक्रेट की संख्या बराबर थी। इनकी कुल संख्या 80 हजार थी जो चालीस-चालीस हजार की संख्या में दोनों प्रदेश में बँटे हुए थे। पूर्व पाकिस्तान में सरकारी कार्यक्रम को लागू करने के लिए प्राप्त धनों के दुरुपयोग के अवसर का लाभ उठाकर बेसिक डेमोक्रेटों ने ग्रामीण इलाके के एक ‘नव सम्पन्न वर्ग‘ में अपने को दाखिल कर लिया। रहमान शोभन ने लिखा है कि ‘‘बेसिक डेमोक्रेट 1964 तक स्पष्ट रूप से परिलक्षित एक विशिष्ट सामाजिक आर्थिक वर्ग के रूप में उभर कर सामने आ गया जिसे हम नव-मुस्लिम कुलक अथवा जोतदार वर्ग कह सकते हैं। इसी वर्ग के हाथ में ग्रामीण क्षेत्रों की राजनीतिक आर्थिक सत्ता केन्द्रित हो गयी और 1963 में अयूब ने जब कन्वेंशन मुस्लिम लीग को स्थापना की तो ये बेसिक डेमोक्रेट उसके प्राथमिक सदस्य बनाये गये।
मार्शल लॉ प्रशासन के चौथे वर्ष के प्रारम्भ से जन असंतोष प्रकट होने लगा। 30 जनवरी, 1962 को ‘‘पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए अवांछनीय गतिविधि‘‘ के अन्तर्गत सुहरावर्दी को गिरतार कर लिया गया। इस गिरतारी के विरोध में ढाका में छात्रों एवं नागरिकों का स्वतः-स्फूर्त आन्दोलन फूट पड़ा। पूर्व बंगाल के अन्य शहरों में भी यह आन्दोलन फैल गया। हड़ताली तथा आन्दोलनकारी छात्रों ने सुहरावर्दी तथा अन्य राजनीतिक बन्दियों की तुरन्त रिहाई, मार्शल लॉ की वापसी एवं संसदीय जनतंत्र की पुनः बहाली की मांग करते हुए प्रदर्शन किए। हालाँकि राष्ट्रपति अयूब ने इन छात्र-आन्दोलनों की मांगों को ‘‘कलकत्ता एवं अगरतल्ला से कम्युनिस्टों का उकसावा‘‘ बताकर रद्द कर दिया, फिर भी, मार्शल लॉज प्रशासन के प्रति बढ़ते जन-असंतोष के उभार को देखकर इन्होंने । मार्च, 1962 को पाकिस्तान के लिए एक नये संविधान की घोषणा की। अध्यक्षीय पद्धति पर आधारित इस संविधान में राष्ट्रपति के पास अधिकाधिक अधिकार केन्द्रित किये गये । बहुत सीमित अधिकार के साथ जनप्रतिनिधिक संस्था राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय एसंम्बलियों की भी स्थापना की गई। राष्ट्रपति तथा केन्द्र एवं राज्यों की विधान सभाओं के लिए बेसिक डेमोक्रेसी द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन के प्रावधान शामिल किये गये। अयूब शासन काल को संवैधानिक निरंकुशता का समय कहा जाता है। अयूब ने अपने संविधान की घोषणा के समय दलविहीन राजनीतिक पद्धति पर जोर दिया और 1962 के प्रान्तीय एवं नेशनल एसेम्बलियों के चुनावों के बाद भी राजनीतिक पार्टियों पर बंदिशें कायम रहीं।
पाकिस्तानी सेना की दमनात्मक कार्रवाई का आरम्भ
याह्य खाँ के प० पाकिस्तान रवाना होने के तुरन्त बाद 25 मार्च की आधी रात से कुछ , पाकिस्तानी सेना बिजली की तरह पूर्व पाकिस्तान में टूट पड़ी। पाकिस्तानी सैनिकों का सबसे पहला निशाना ईस्ट पाकिस्तान रायफल्स बना। ढाका के पीलखाना में जब ईस्ट पाकिस्तान रायफल्स जवान सो रहे थे, चारों तरफ से प० पाकिस्तानी सैनिकों ने उन पर हमला बोल दिया और पूरे बैरक को ध्वस्त कर दिया गया। राजरबाग पुलिस स्टेशन को भी पूर्ण रूप से अत्याचार का शिकार बनाया गया। उस दिन पूरी रात शस्त्रास्त्रों की आवाज सुनायी देती रही।
ईस्ट पाकिस्तान रायफल्स के बाद दूसरा निशाना ढाका विश्वविद्यालय परिसर था। 26 मार्च को टैंक, मशीनगन तथा ग्रेनेड के साथ सिपाहियों ने परिसर में प्रवेश किया। छात्र परिषद् की शयनशाला इकबाल हाल में घुसकर सैनिकों ने सभी छात्रों को मार डाला। उन्होंने हिन्दू छात्रों के निवास जगन्नाथ हाल में 1 छात्र को छोड़कर वहाँ उपस्थित सभी 107 छात्रों को मार डाला।  दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक प्रो० जी० सी० देव के घर में प्रवेश कर सैनिकों ने वहाँ उपस्थित सभी छात्रों की हत्या कर दी। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय के जाने-माने बुद्धिजीवी स्टेटिस्टिक्स के विभागाध्यक्ष प्रो० मनीरुज्जमाँ, इतिहास के विभागाध्यक्ष प्रो० अली, अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष प्रो० ज्योतिर्मय गुहा ठाकुर, अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष प्रो० हुदा, भौतिकी के अध्यक्ष प्रो० इन्सान अली तथा अंग्रेजी के शिक्षक डा० मुनीम तथा सायल सायन्स के अध्यक्ष प्रो० फजलुरर्हमान खान की निमर्म हत्या कर दी गई । राय बाजार और नया बाजार को सम्पूर्ण रूप से जला दिया गया। ढाई हजार से 3500 की संख्या के बीच लोगों की हत्या की गई। 36 घंटे के रक्तपात के बाद 27 मार्च को ढाका में कर्फ्यू में ढील दी गई। कर्फ्यू में दी गई इस ढील ने पूरे शहर में भाग-दौड़ की स्थिति उत्पन्न कर दी। लोग ढाका छोड़कर गाँवों की तरफ भागने लगे। बूढ़ी गंगा के सदर घाट को करीब 2 लाख लोगों ने पार किया। पाकिस्तानी सेना का दमन जारी रहा। 28 मार्च की रात को ईस्ट पाकिस्तान रायफल्स की एक पलाटून को रेसकोर्स मैदान में लाइन में खड़ा करके गोली से उड़ा दिया गया। ढाका से भाग कर लोगों ने गिंजरा बाजार में शरण ली थी। पाकिस्तानी सेना के द्वारा सदर घाट की लम्बी दूरी से गिंजरा पर गोली-बारी शुरु हुई और सम्पूर्ण गिंजरा बाजार को नष्ट कर दिया गया। लोगों का अनुमान था कि 5 से दस हजार की संख्या के बीच लोग मारे गये।  एक सप्ताह के अन्दर ढाका से आधी आबादी भाग गयी तथा 30,000 व्यक्तियों का कत्ल कर दिया गया। ढाका से साढ़े नौ मील दूर डेमरा गाँव में 12 वर्ष से लेकर 40 वर्ष के बीच की सभी औरतों के साथ बलात्कार किया गया तथा इसी उम्र समूह के सभी मदों को मार दिया गया।
पाकिस्तानी सैनिकों की इस दमनात्मक और अत्याचारपूर्ण कत्लेआम के विरोध में प्रतिरोध स्वरूप स्वतः स्फूर्त ढंग से सम्पूर्ण देश में मुक्तिवाहनी का गठन शुरु हो गया। ईस्ट बंगाल रेजिमेन्ट के 3 हजार अर्द्ध सैनिक दस्तों, ईस्ट पाकिस्तान रायफल्स के 17000 जवान, पुलिस के 24000 जवान एवं अन्सार, मुजाहदिन आवामी लीग के हजारों स्वयंसेवकों तथा युवाओं ने प्रत्येक जिले तथा अनुमण्डल में मुक्तिवाहिनी का गठन कर अपने को उनमें शामिल किया। पाकिस्तानी सेना द्वारा कार्रवाई प्रारम्भ करने के बाद करीब एक सप्ताह से अधिक समय तक ढाका को छोड़कर पूर्व पाकिस्तान के सम्पूर्ण हिस्से में इनकी प्रत्यक्ष प्रतिरोधात्मक कार्रवाई सफलतापूर्वक होती रही। दिनाजपुर और ठाकुर गाँव में भीषण संघर्ष हुए। सैदपुर, पार्वतीपुर तथा रंगपुर में असहयोग आन्दोलन के समय से ही लड़ाई शुरु थी। कुष्टिया और चाझोडांगा में प्रारम्भिक अवधि में  पाकिस्तानी सैनिकों को मार डाला गया तथा दो सप्ताह तक पाकिस्तानी सैनिकों से इस क्षेत्र को मुक्त रखा गया। जैसोर में भी प्रारम्भिक प्रतिरोध सफल रहा तथा सेना को छावनी में वापस जाना पड़ा। खुलना और बेनापोल के बीच बांगलादेश साइन बोर्ड के साथ ट्रेनों का आवागमन प्रारम्भ था। फरीदपुर तथा बारीसाल में भी प्रतिरोधात्मक कार्रवाई के दौरान प्रारम्भिक सफलता मिली। राजशाही में पुलिस ने प्रतिरोधात्मक कार्रवाई में बड़ी वीरता दिखाई तथा अंततोगत्वा शारदा नदी पार कर भारतीय सीमा में प्रवेश करने में सफल हो गयी। शारदा नदी एक युद्ध-मैदान के रूप में परिणत हो चुकी थी।
बांग्लादेश सरकार का स्वरूप अध्यक्षात्मक था। शेख मुजीबुर्रहमान को राष्ट्रपति तथा सैय्यद नजरुल इस्लाम को उपराष्ट्रपति बनाया गया। शेख मुजीब की अनुपस्थिति में सैय्यद नजरुल इस्लाम को कार्यकारी राष्ट्रपति बनाया गया। ताजुद्दीन अहमद के प्रधान मंत्रित्व में एक मंत्रिपरिषद का गठन किया गया जिसके सदस्य के रूप में खोंडकर मुश्ताक अहमद, कमरुज्जमाँ तथा मंसूर अली शामिल किये गये। मुश्ताक को विदेश विभाग तथा कमरुज्जमां को गृह विभाग का भार सौंपा गयज्ञं राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की औपचारिक घोषणा के पूर्व 11 अप्रैल, 1971 को प्रधानमंत्री ताजुद्दीन अहमद का संदेश स्वाधीन बांगला बेतार केन्द्र जो भारतीय क्षेत्र में अवस्थित था। से राष्ट्र के नाम प्रसारित किये गये संदेश में कहा गया – संघर्ष की अंतिम परिणति के बारे में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। विजय जिसे हम अपने उत्साह एवं बलिदान से प्राप्त करेंगे अंततगोत्वा हमारी ही होगी।
भारत में बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या
बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या भारत के लिए दशकों से एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा रही है। यह समस्या मुख्य रूप से 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उत्पन्न हुई, जब लाखों लोग हिंसा और उत्पीड़न से बचने के लिए भारत में शरण लेने आए। हालांकि, वर्षों के दौरान यह प्रवास लगातार जारी रहा, जिससे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियाँ उत्पन्न हुईं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
बांग्लादेश के गठन से पहले, पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में राजनीतिक और सांस्कृतिक दमन के कारण असंतोष बढ़ रहा था। 1971 में पाकिस्तान से अलग होने के संघर्ष के दौरान लाखों लोग भारत आए, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और मेघालय में। भारत ने मानवीय आधार पर इन शरणार्थियों को शरण दी, लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी भारत में अवैध रूप से आते रहे।
बांग्लादेशी शरणार्थियों के भारत में आगमन के कारण
1. आर्थिक अस्थिरता.. बांग्लादेश में गरीबी और बेरोजगारी के कारण लोग बेहतर जीवन की तलाश में भारत आते हैं।
2. राजनीतिक अस्थिरता और उत्पीड़न, कुछ समय के दौरान बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की घटनाओं ने लोगों को भारत पलायन के लिए मजबूर किया।
3. सांस्कृतिक समानता. भारत और बांग्लादेश की सांस्कृतिक समानता के कारण लोग भारत में आसानी से घुलमिल जाते हैं, जिससे पहचान करना मुश्किल हो जाता है।
4. भौगोलिक सुविधा..  भारत-बांग्लादेश सीमा खुली होने और लंबी होने के कारण अवैध रूप से प्रवेश करना आसान हो जाता है।
निष्कर्ष
बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या भारत के लिए एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। इसे केवल सुरक्षा या राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसमें मानवीय पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा। सरकार को संतुलित नीति अपनानी होगी जो राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक संतुलन और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बनाए रख सके। भारत और बांग्लादेश के बीच बेहतर सहयोग और प्रभावी सीमा प्रबंधन से इस समस्या का दीर्घकालिक समाधान संभव हो सकता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. शर्मा, डॉ0 प्रभुदत्त। ’’अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’’’, जयपुर- कॉलेज बुक डिपो, 1998 ।
2. पाण्डेय, डॉ0 आर0 एस0। ‘नवीन अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा-प्रणाली का आविर्भाव एवं भारत के समक्ष सम्भाव्य चुनौतियाँ व अवसर – एक मूल्याकन’, आगरा, प्रतियोगिता दर्पण,।
3. घई, आर0 ए0। ‘भारतीय विदेश नीति’, जालन्धर – न्यू एकेडेमिक पब्लिशिंग कम्पनी, 2009।
4. माथुर, ए. बी..। भारत-बांग्लादेश सीमा प्रबंधन और सुरक्षा चिंताएँ.ए नई दिल्ली, नीति प्रकाशन, 2021।
5. द इकोनॉमिक टाइम्स।  अवैध प्रवास और भारतीय अर्थव्यवस्था, 20 जनवरी 2023
6. भारत-बांग्लादेश सीमा सुरक्षा बल  की वार्षिक रिपोर्ट, 2022।
7. नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स असम रिपोर्ट, 2019।

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