प्रो0 नीलम गुप्ता
राजनीति विज्ञान
बरेली कॉलेज, बरेली
सामाजिक संरचना में उपस्थित अनेकानेक विभेदों में स्त्री एवं पुरुष का विभेद सर्वाधिक बुनियादी है, क्योंकि यह प्राकृतिक है किन्तु प्राकृतिक विभेद का निहितार्थ लैंगिक असमानता नहीं है, यह मंतव्य लोकतांत्रिक दर्शन, स्त्री ,एवं जेंडर विमर्श में निरंतर उभरता रहा है। इतिहास के प्रत्येक दौर में, कमोबेश परिवर्तन के साथ ये अंतरसंबध अधिकांशतः आधिपत्य- अधीनता के क्यों रहे हैं- जेंडर विमर्श ने इन प्रश्नों को बुनियादी प्रश्नों के रूप में उठाया है। इसी क्रम में राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मुद्दे के रूप में जेंडर अध्ययन, जेंडर संवेदनशीलता, संचेतना और महिला सशक्तिकरण के प्रश्न पिछले कुछ दशकों में महत्वपूर्ण प्रश्न के रूप में उठे हैं।
महिलाओं की स्थिति तथा उससे जुड़े विमर्श को समझने के लिए जेंडर तथा लिंग के भेद को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है। लिंग एवं जेंडर के भेद को स्पष्ट करना नारीवादी चिंतन का एक महत्वपूर्ण योगदान है। लिंग शब्द पुरुष और स्त्री के बीच एक जैविक अर्थ की तरफ इंगित करता है जबकि जेंडर का सम्बन्ध उसके साथ गुंथे हुए सांस्कृतिक अर्थों से है। लिंग जैविकीय रूप से निर्धारित होता है तथा जैविकीय अंतर को महत्व देता है।
एक व्यक्ति पुरुष या स्त्री के रूप में पैदा होता है परन्तु संस्कृति उसे पुल्लिंग या स्त्री लिंग के रूप में विकसित करती है। अर्थात प्र.ति से लिंग का वही रिश्ता है जो संस्कृति से जेंडर का है।
नारी वादी विमर्श की दृष्टि से इस फर्क को स्पष्ट करना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि महिलाओं की अधीनता को मोटे तौर पर स्त्री पुरुष के बीच जैविक फर्क के आधार पर सही ठहराया जाता है। इस तर्क के अनुसार जो प्राकृतिक है वह अपरिवर्तनीय है, इसलिए सही है। ऐसे तर्क को जैविक निर्धारण वाद कहा जाता है। वस्तुतः लिंग एक जैविक शब्दावली है जो स्त्री और पुरुष में जैविक भेद को प्रदर्शित करती है। वहीं जेंडर शब्द स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक भेदभाव को दिखाता है। जेंडर शब्द इस बात को इंगित करता है कि जैविक भेद के अतिरिक्त जितने भी भेद दिखते हैं वो प्राकृतिक न होकर समाज के द्वारा निर्मित हैं, और अगर यह भेद निर्मित हुआ है या बनाया गया है तो दूर भी किया जा सकता है। समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव के पीछे पूरी समाजीकरण की प्रक्रिया है। इस प्रकार जेंडर लिंगानुरूप व्यवहारों को सांस्कृतिक रूप से परिभाषित करना है। अर्थात लिंग जैविकीय रूप से निर्धारित होता है जबकि जेंडर का संबंध उसके साथ गुँथे हुए सांस्कृतिक अर्थों से है और इसके पूछे पूरी समाजीकरण की प्रक्रिया है और इस सामाजीकरण की प्रक्रिया के तहत जेंडर आधारित भेदभाव में न सिर्फ औरतों को बल्कि पुरुषों को भी एक बने बनाए ढांचे में जीवन भूमिकाओं को निर्धारित कर दिया जाता है। स्त्री एवं पुरुष दोनों ही जैविक संरचना है। लेकिन इनकी पारिवारिक सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक भूमिका का निर्धारण जब किया जाता है। तो इनके अपने स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रश्न अंकित हो जाता है, जिसका जवाब जेंडर देता है। जेंडर अस्मिता की पहचान का सबसे मूल घटक है जो हमें स्त्री व पुरुष की निर्धारित सीमा को परिभाषित करने और दुनिया को देखने के नजरिए की नाटकीय भूमिका को बताता है।
सामाजिक संदर्भों में जब हम जेंडर की बात करते हैं तो इसका पहला प्रयोग लिंग और लिंग की भूमिका के अंतर को समझने में है। जहाँ स्त्री और पुरुष का जैविक आधार पर विभाजन न होकर समाज द्वारा तय मानदंडों पर विभाजन है। लिंग और लिंग की भूमिका जैसे शब्द अब समाज में परिभाषित होने लगे थे लेकिन जेंडर का प्रयोग अब भी सामाजिक प्रक्रिया में उस रूप में नहीं देखा जा रहा था। जिसमें स्त्री की भूमिका अधीनता की तो पुरुष की आधिपत्य की मानी जाती रही, जिसका जिक्र 1845 में मार्गरेट फूलर की श्ूवउमद पद जीम 19जी बमदजनतलश् में, 1851 में हैरियट टेलर मिल की म्दतिंदबीपेमउमदज वि ूवउमद, 1865 में जॉन स्टुअर्ट मिल की श्ैनइरमबजपवद वि ॅवउमदश् 1884 में फ्रेडरिक एंजेल्स की ‘‘परिवार, निजी सम्पत्ति, और राज्य की उत्पत्ति’’ पुस्तकों में मिलता है।
1935 में सांस्कृतिक नृविज्ञानी मार्गरेट मीड ने अपने शोध श्ैमग ।दक जमउचमतंउमदज पद जीतमम चतपउपजपअम ेवबपमजपमेश् में लिंग आधारित श्रम विभाजन को प्रा.तिक माना, जबकि 1955 में मनोवैज्ञानिक जॉन विलियम मनी ने जेंडर शब्द का प्रयोग करते हुए कहा जेंडर केवल स्त्री पुरुष की सामाजिक स्थिति भर नहीं है बल्कि व्यक्ति की पहचान व उसका निर्धारण है ,जो प्रा.तिक भिन्नता से अलग है।
1940 से 1960 तक आते आते सामजिक विभाजन की प्रक्रिया का यह विचार वैचारिक विमर्श को जन्म देता है तथा लिंग व लिंग की भूमिका पर अब वैचारिक रूप से लेखन होने लगता है। जिसमें 1949 में सिमोन द बोवार की श्ज्ीम ेमबवदक ेमगश् 1963 में केट मिलिट की ‘द फैमिनिन मिस्टीक’, 1968 में सुलामिथ फायर स्टोन की ‘डायलेक्टिक ऑफ़ सेक्स’ 1971 में जूलियट मिशेल की ‘विमेन स्टेट’ जैसी पुस्तकें मुख्य हैं। यद्यपि नारीवादी विमर्श के वर्तमान स्वरूप का प्रारम्भ केट मिलिट की पुस्तक ‘सेक्सुअल पालिटिक्स’ तथा बाद में विकसित मनोवैज्ञानिक, समाजवादी, रैडिकल एवं उत्तर संरचनावादी धाराओं के मिली जुली विचारधात्मक सोच से माना जाता है किन्तु स्त्री असमानता के विरुद्ध चेतना का इतिहास काफ़ी पुराना है। इस इतिहास में प्लेटो, जे.एस.मिल, जॉन लॉक, कार्ल मार्क्स, एंजिल्स का स्त्री समता का पक्षधर चिंतन शामिल है। नारीवादी दृष्टि से उदारवादी चिंतक मेरी वोल्स्टन क्राट के 1792 में प्रकाशित ‘अ विन्डिकेशन ऑफ़ द राइट्स ऑफ़ वीमेन’ विशेष उल्लेखनीय है। 20वीं सदी के मध्य अस्तित्ववादी चिंतक सिमोन दा वुओ की 1949 में प्रकाशित कृति ‘द सेकन्ड सेक्स’ ने नारीवादी विमर्श को सर्वथा नवीन दृष्टि प्रदान की। उनका विश्लेषण कि – स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है, बुओ की उक्त नारीवादी प्रस्थापनाओं ने व्यापक उद्वेलन पैदा किया। लिंग और लिंग की भूमिका जैसे शब्द अब समाज में परिभाषित होने लगे थे लेकिन जेंडर का प्रयोग अब भी सामाजिक प्रक्रिया मे उस रूप में नहीं देखा जा रहा था। 1968 में मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट स्टोलर ने जेंडर का अर्थ प्रकृति से न मानकर मनोवैज्ञानिक व सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़कर देखा और कहा कि लिंग का सम्बन्ध स्त्री और पुरुष से है तो जेंडर का संबंध स्त्रीत्व व पुरुषत्व से है। ये दोनों ही शब्द लिंग की प्राकृतिक संरचना से स्वतंत्र अर्थ ग्रहण करते हैं। रॉबर्ट स्टोलर का यह अब तक का पहला स्वतन्त्र अध्ययन था। जिसमें लिंग और जेंडर को अलग-अलग रूपों में सामने लाया गया साथ ही उन्हें परिभाषित किया गया।
1972 में ब्रिटिश समाजशास्त्री व नारीवादी लेखिका एना ओक्ले की पुस्तक ‘‘सेक्स जेंडर एंड सोसाइटी’’ में एना के अनुसार- जेन्डर सामाजिक सांस्कृतिक संरचना है जो स्त्री व पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व कानूनों का निर्धारण करता है। 1980 में एना के विचारों से समाजशास्त्री विचारक रेनेन कॉर्नेल सहमत नजर आती हैं। कॉनेल ने सामाजिक दृष्टिकोण से लिंग और जेंडर के सामाजिक संबंध पर लिखा। उनका मानना था कि जेंडर सामाजिक निर्मिति है जिसमें व्यक्ति की पहचान गौण होती है और समाज की भूमिका मुख्य। 1980 में फ्रेंच इतिहासकार व विचारक मिशेल फूको अपनी पुस्तक ‘‘द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुएलिटी’’ में ज्ञान और सत्ता के चरित्र की बात करते हैं और बताते हैं कि किस तरह ज्ञान और सत्ता स्त्री को अनुकूलित करते हैं।
अमेरिकन विचारक और जेंडर सिद्धांतकार जूडिथ बटलर ने 1988 में अपने निबंध में लिखा कि जेंडर का संबंध समाज द्वारा स्वीकृत क्रियात्मक उपलब्धियों व निषेध से है या कहें कि यह एक शैली है जो समाज द्वारा निर्धारित संकेतों, आंदोलनों एवं अधिनियमों के गठन के तरीके के रूप में देखी जा सकती है।
जेंडर संस्कृति द्वारा पहले से निर्धारित स्त्री पुरुष शारीरिक संरचना के आधार पर किया गया विभाजन है जो स्त्री व पुरुष की सामाजिक विचार को गढ़ता है। जेन्डर के संबंध में हम केवल दो संभावनाओं स्त्री -पुरुष पर ही बात करते हैं जबकि उससे इतर एक तीसरा जेंडर भी है जो इतरलिंगी है वो भी जेंडर पहचान के प्रश्न से घूमता देखा जा सकता है।
जैविक बनावट और संस्कृति के अंतर संबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है की महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौंदर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है। शरीर का स्वरूप जितना प्रकृति से निर्धारित हुआ है उतना ही संस्कृति से भी। इस प्रकार महिलाओं की मौजूदा अधीनता, जैविक असमानता से नहीं पैदा होती है, बल्कि ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है, जिसे ज्यां जांक रूसो, फूको, सोरेन किगार्दे और नीत्शे जैसे विचारकों के उदाहरण से समझा जा सकता है जिसमें वो मानते हैं कि स्त्री का निर्माण पुरुषों के लिए हुआ है।
पश्चिमी विमर्शों के अतिरिक्त लिंगभेद के देशीय संदर्भ एवं उसमें परिवर्तन की व्याख्या भारतीय विशिष्टता के संदर्भ में आवश्यक है। भारतीय सन्दर्भ में जेंडर पर विमर्श में कमला भसीन, उमा चक्रवर्ती, मैत्री कृष्णराज, शर्मिला रेगे, निवेदिता मेनन, नीरा देसाई आदि के नाम प्रमुख रूप से सामने आते हैं। कमला भसीन कहती हैं कि जेंडर सामाजिक सांस्कृतिक रूप में स्त्री पुरुष को दी गई परिभाषा है जिसके माध्यम से समाज उन्हें स्त्री और पुरुष दोनों को सामाजिक भूमिका में विभाजित करता है। यह समाज की सच्चाई को मापने का विश्लेषणात्मक औजार है।
मैत्रेयी कृष्णराज के अनुसार समाज में जितनी भी आर्थिक व राजनीतिक समस्याएं हैं उनका संबंध जेंडर से है। शर्मिला रेगे जेन्डर को विचार की प्रक्रिया मानती हैं तथा इसको ऐसा वर्ग मानती हैं जिसमें कुछ संबंधों को रखा जाए और उनसे निर्मित संबंधों को जाना जा सके। उमा चक्रवर्ती भी सामाजिक संरचना को स्त्री की निर्मिति का कारण मानती हैं- स्त्री का परिवेश उसकी पराधीनता की प्रवृति को तय करता रहा है। निवेदिता मेनन भी जेंडर को सामाजिक निर्मिति का ही रूप मानती हैं। साथ ही उनका मानना है कि जेंडर की यह अवधारणा भारत में पहले से ही मौजूद रही है। यह आधुनिक सभ्यता की देन नहीं है बल्कि प्राक् आधुनिक भारतीय संस्कृति मे विभिन्न प्रकार की यौन पहचानो के लिए कहीं अधिक व्यापक स्थान उपलब्ध था -मसलन उस काल में हिजडों के पास भी एक सामाजिक स्वीकार्यता मौजूद थी, जो समकालीन समाज में नहीं है। सूफी और भक्ति परंपराएँ उभयलैंगिकता पर आधारित थी जो अक्सर द्विलिंगी मॉडल को खारिज करते थे। इस प्रकार हम देखते है कि भारत में लिंग और जेंडर के अंतर को स्पष्ट करता विचार पहले से ही मौजूद रहा है।
जेन्डर शब्द की उत्पत्ति व उसके प्रयोग के संदर्भ में अलग-अलग मतों को अब तक जाना व समझा गया। विभिन्न भाषावैज्ञानिक, समाजशास्त्री, इतिहासकार, मनोवैज्ञानिक, नृविज्ञानी, मानवशास्त्री, जीव वैज्ञानिक व नारीवादियों द्वारा जेंडर के संबंध में जो कहा गया उसे देखने व समझने का प्रयास किया गया। उसके आधार पर जेंडर को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जेंडर की अपनी कोई उचित परिभाषा नहीं है। कुछ ने इसे भाषा के संदर्भ में देखा, तो कुछ ने सामाजिक संदर्भों में। इसके अतिरिक्त जेंडर को इतिहास, संस्कृति, प्रकृति, सेक्स और सत्ता से भी जोड़कर देखने व समझने का प्रयास किया गया। इस प्रकार सामाजिक आधार पर कंडीशनिंग के कारणों को जानना व उसका विश्लेषण जेंडर है। जेंडर को कभी भी पूरी तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता। हालांकि समाज जरुर कुछ सामान्य गुणों को स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की श्रेणी में रखता है परंतु हम सभी में सामान्यतः दोनों ही गुणों का सम्मिश्रण पाया जाता है- उभयलैंगिकता। इस प्रकार ऐसी जैविकीय विशेषताएं जो स्त्री पुरुष में विभाजन करती हैं वह लिंग कहलाती हैं तथा ऐसी सामाजिक विशेषताएं जो एक समाज अपने स्त्री व पुरुष के लिए उपयुक्त समझता है वह जेंडर कहलाती हैं- जैसे स्त्रीत्व तथा पुरुषत्व। जेंडर स्त्री व पुरुष की व्यवहारगत सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को प्रकट करता है। साथ ही उनकी भूमिकाओं तथा उत्तरदायित्व की ओर इंगित करता है जिन्हें परिवार समाजों एवं संस्.तियों के द्वारा निर्मित किया जाता है। ज़ेंडर भूमिकाएँ तथा अपेक्षाएँ सीखी जाती हैं तथा यह समय के साथ बदलती हैं तथा विभिन्न समाजों एवं संस्कृतियों के सापेक्ष होती हैं।
लिंग एवं जेंडर के भेद को समझने में जैविक निर्धारणवाद को समझना आवश्यक है। इस विचारधारा के अनुसार स्त्री व पुरुष के बीच जैविक रूप से जो फर्क है वह प्राकृतिक है और अपरिवर्तनीय है, अतः वैध है और इस प्रकार पुरुषों के शारीरिक शक्ति की तुलना में स्त्रियों को निम्नतर मानकर उनके साथ असमानता का व्यवहार करना जैविक निर्धारणवाद के विचार में आता है। सिमोन दा बोउआर के अनुसार शारीरिक भिन्नता के बावजूद विभिन्न सीमाएं स्त्री की अनिवार्य व स्थायी नियति के रूप में नहीं स्वीकारी जा सकती। ये जैविक परिस्थितियाँ औरत को अधीनस्थ भूमिका स्वीकारने को बाध्य नहीं कर सकती।
इन आधारों पर यदि भारतीय सन्दर्भ में दृष्टिपात करें तो यह कहा जाएगा कि 1975 में भारत में स्त्रियों की प्रास्थिति पर प्रकाशित रिपोर्ट ‘समानता की ओर’ में पहली बार समग्र दृष्टि से महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डाला गया तथा राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक तथा कानूनी प्रावधानों के संदर्भ में महिलाओं के अधिकारों की वास्तविक स्थिति पर प्रश्न उठाए गए। 1975 में सम्पूर्ण दशाब्दी को स्त्रियों की दशाब्दी की घोषणा से स्वतंत्र भारत में स्त्रियों की स्थिति को विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन का प्रयास किया गया। विभिन्न अध्ययनों के दौरान यह पाया गया कि भारत में स्त्रियों को समान संवैधानिक तथा कानूनी स्तर प्रदान करने के बावजूद उनके सामान्य एवं आर्थिक स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ है। तब से अनेक स्तरों में पूरी विकास प्रक्रिया में महिलाओं के परिप्रेक्ष्य का अभाव और नीति-निर्माताओं की लैंगिक असंवेदनशीलता पर बहस शुरू हुई। फलस्वरूप विकास में औरतों को शामिल किए जाने की धारणा का जन्म हुआ। इस सोच के तहत 1975 के बाद से सरकार द्वारा अनेक कदम उठाए गए। छठी पंचवर्षीय योजना में पहली बार ‘महिला और विकास’ ;ॅ।क्द्ध पर एक अलग अध्याय जोड़ा गया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं उसके बाद राष्ट्रीय कार्ययोजना एन.पी.ई. 1992 में बालिका शिक्षा को मुख्य प्रश्न बनाया। राजकीय नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता पर विचार आरंभ हुआ। महिला विकास हेतु 3 अत्यावश्यक क्षेत्रों स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार की पहचान की गई और इन क्षेत्रों में राज्य के द्वारा अनेकों विकास परक योजनाएं चलायी गईं। परन्तु अनेकानेक सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों व योजनाओं के बाद भी भारत में महिला आन्दोलन का लक्ष्य 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में पश्चिमी देशों के आन्दोलन से इन अर्थों में भिन्न था कि जो समाज में संविधान एवं कानून द्वारा मान लिया गया था उन्हें वास्तविक तौर पर सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में क्रियान्वित करना था। फिर भी नियोजन दर्शन में महिला एवं विकास के अभिगम में समाज के एकतरफा विकास यानी महिला की बात की गई। इस कारण समाज के समन्वित विकास के बजाय एकांगी विकास को बल मिला। महत्वपूर्ण बात यह रही के अनेक उत्साहपूर्ण नीतियों एवं वैधानिक प्रयासों के बावजूद महिला प्रास्थिति सीमांतक ही रही तथा स्त्री पुरुष समता का प्रश्न महिला विकास के आंकड़ों की प्राथमिकता में पीछे छूट गया किन्तु 1980 और बाद के दशकों में यह महसूस किया गया कि उसकी जड़े विशिष्ट सामाजिक, सांस्.तिक और राजनीतिक परिवेश में हैं। संतुलित, अर्थपूर्ण, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक संरचना एवं विकास में जनआबादी के आधे भाग की सक्रिय सहभागिता की उपेक्षा नहीं, बल्कि उसे सुनिश्चित करने की आवश्यकता है इस बात पर सामान्य सहमति उभरी है।
सामान्यतः सशक्तिकरण का अभिप्राय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत सभी क्षेत्रों में लिया जाता है। इसके लिए संरचनात्मक स्तर पर संसाधनों तक पहुंच आवश्यक है तथा वैयक्तिक स्तर पर चेतना, आत्मविश्वास एवं आत्मावलंबन तथा उन कारणों की समीक्षा भी समीचीन है, जो आम महिलाओं की शक्तिहीनता के मूल में है। इस क्रिया में महिला मात्र लिंग ‘स्त्री’ के रूप में नहीं बल्कि बुनियादी सामाजिक इकाई के रूप में महत्त्वपूर्ण होगी। ये दृष्टिकोण महिला को जेंडर के रूप में पुन परिभाषित कर ‘जेंडर एवं विकास’ (ळ।क्) या गैड की चर्चा करता है। इसलिए हाल के वर्षों में लिंग व विकास नामक अभिगम अपनाया गया जिसके तहत महिला बनाम पुरुष के सिद्धांत को नकार कर मुख्यधारा से जोड़ने की बात की गई ताकि वे जनसंख्या के दूसरे अर्धाश के साथ मिलकर कदम बढ़ा सकें। जिसमें इसे सशक्त समर्थ अभिकर्ता के रूप में शक्ति संरचना के सभी स्तर पर निर्णय निर्माण में समाज सहभागी के रूप में सक्रिय हो। नवीं, पंचवर्षीय योजना में महिलाओं के लिए ‘‘जेंडर जस्टिस’’ जैसे महत्वपूर्ण विचारों का समावेश किया गया। वर्ष 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया गया तथा अनेक कानूनी प्रावधानों के साथ साथ महिलाओं के अंदर क्षमताओं के निर्माण की आवश्यकता का नारा दिया गया।
जेंडर एवं विकास अभिगम के तहत महिलाओं को सशक्त अभिकर्ता के रूप में सक्रिय रहने के अनेक प्रयास अभी तक निरंतर हो रहे हैं। कानून व्यवस्था, अधिकारों में वृद्धि, क्षमताओं का निर्माण आदि के माध्यम से। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण है- शिक्षा के माध्यम से क्योंकि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम होता है। यही वजह है की नई शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत प्रत्येक विषय में जेंडर संवेदीकरण की शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया गया है। जेन्डर संवेदीकरण एक बहुआयामी एवं स्वत्र प्रक्रिया है जिसके लिए परिवार, मीडिया, सरकार, समाज एवं शिक्षा सभी को मिलकर काम करना होगा। लैंगिक रूप से संवेदनशील समाज ही एक समृद्ध न्यायपूर्ण और प्रगतिशील समाज हो सकता है।
सन्दर्भ सूची :-
1. साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता – नारीवादी राजनीति – संघर्ष एवं मुद्दे (2001) – हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
2. डॉ0 दीप्ति जौहरी – जेंडर, स्कूल तथा समाज (2017) आर0 लाल बुक डिपो, मेरठ
3. डॉ0 अमिता सिंह – लिंग एवं समाज (2015) विवेक प्रकाशन, जवाहर नगर, दिल्ली-7
4. वी0 गीता – अनुवाद-ऋचा, स्त्रीवाद की सैद्धान्तिकी-जेंडर विमर्श, (2020), प्रकाशन संस्थान – नई दिल्ली
5. ीजजचेरूध्ध्इमकंतजपबसमेण्इसवहेचवजण्बवउए लैंगिक संवेदीकरण : एक सामाजिक अनिवार्यता, फरवरी 01, 2025
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