ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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भारतीय राजनीति में दिनकर का योगदान

प्रो. सर्वजीत सिंह 
विभाग प्रभारी
राजनीति विज्ञान विभाग
सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
रुद्रपुर (ऊधम सिंह नगर)
क्षितिज भट्ट
शोध छात्र
सारांश
रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य के उन युगनायकों में हैं जिनकी रचनात्मकता का विस्तार केवल काव्य और संस्कृति तक सीमित नहीं था, बल्कि वह राजनीति के क्षेत्र में भी गहराई से सक्रिय रही। यह शोध पत्र दिनकर के राजनीतिक योगदान को दो प्रमुख कालखंडों स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात् में विभाजित कर उनका विश्लेषण करता है। साथ ही यह मूल्यांकन करता है कि किस प्रकार दिनकर का साहित्यिक विवेक भारतीय राजनीति में नैतिक चेतना का संचार करता रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके क्रांतिकारी लेखन ने जनता में जोश और साहस का संचार किया, वहीं स्वतंत्र भारत में उन्होंने सत्ता के निकट रहकर भी उसकी आलोचना का साहस दिखाया। उनका संसद में दिया गया ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ का सजीव रूपांतर, चीन युद्ध के बाद का उनका तीखा भाषण, तथा नेहरू के गिरने पर उन्हें सहारा देने का मानवीय प्रसंग कृ इन सब घटनाओं में दिनकर के विचार और कर्म दोनों झलकते हैं। यह शोध पत्र दिनकर के व्यक्तित्व की उस भूमिका को रेखांकित करता है, जो आज भी भारतीय लोकतंत्र की चेतना में जीवित है।
प्रमुख शब्द- रामधारी सिंह दिनकर, राजनीति, राष्ट्रवाद, संसद, स्वतंत्रता आंदोलन, नैतिकता, साहित्य, चीन युद्ध, नेहरू, लोकसभा, आलोचना, काव्य चेतना, जनमानस।
भूमिका
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ। बचपन में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण संघर्षों के बीच हुआ। शिक्षा प्राप्त करने के दौरान ही उन्होंने साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति गंभीर रुचि विकसित की। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास, राजनीति विज्ञान और दर्शन शास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
उनकी प्रमुख रचनाओं में रश्मिरथी, हुंकार, परशुराम की प्रतीक्षा, संसृति के चार अध्याय, उर्वशी, कुरुक्षेत्र और धूर्त राष्ट्र उल्लेखनीय हैं। दिनकर को उनकी रचना उर्वशी के लिए 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला, और वे भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार, राज्यसभा के सदस्य तथा राष्ट्रकवि के रूप में सम्मानित हुए।
स्वतंत्रता आंदोलन में दिनकर की भूमिका केवल एक कवि की नहीं थी, बल्कि वे एक जन-प्रेरक, विचारक और संवेदनशील नागरिक के रूप में भी सक्रिय रहे। ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ जैसी रचनाओं में उन्होंने ब्रिटिश सत्ता को सीधी चुनौती दी। स्वतंत्र भारत में वे राज्यसभा के सदस्य बने और नीति निर्माण में भाग लेते हुए सत्ता की आलोचना का नैतिक स्वर बने रहे।
इस प्रकार दिनकर की भूमिका आजादी के पहले और बाद – दोनों कालखंडों में अत्यंत महत्वपूर्ण रही है, और उन्होंने साहित्य के माध्यम से राजनीति में एक नैतिक आधार प्रस्तुत किया।
स्वतंत्रता पूर्व राजनीति में दिनकर का योगदान
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान साहित्यकारों की एक बड़ी भूमिका रही, जिन्होंने अपने लेखन के        माध्यम से जनमानस को जागरूक किया। दिनकर इस परंपरा में अग्रणी थे। वे मानते थे कि साहित्य को जनसंघर्षों का दस्तावेज बनना चाहिए और कवि को समय के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए। इस विचारधारा की झलक उनके आरंभिक काव्य संग्रह ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ में स्पष्ट दिखाई देती है।
दिनकर का लेखन इस दौर में न केवल क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करता था, बल्कि यह जनता के भीतर स्वाधीनता की आकांक्षा को तीव्र करने का काम भी करता था। उन्होंने अपने कविताओं में ऐसे प्रतीकों और मिथकों का प्रयोग किया जो जनमानस के भीतर गहराई से व्याप्त थे – जैसे रावण, परशुराम, अर्जुन, कर्ण आदि। ‘हुंकार’ की एक पंक्ति, “आ गया फिर कोई झंझावात, कर तूफानों से बात!” तत्कालीन भारतीय जनमानस के भीतर संघर्ष और जोश का आह्वान थी।
इस काल में दिनकर का साहित्य सरकार के लिए खतरे की तरह देखा जाता था। ब्रिटिश राज के        अधिकारियों ने उनके कई काव्य पाठों और लेखों को ‘देशद्रोही’ घोषित किया। लेकिन दिनकर ने अपने रचनात्मक तेवर को कमजोर नहीं पड़ने दिया। उन्होंने ‘धरती के रौद्र रूप’ को स्वर दिया, ‘क्रांति की पुकार’ को शब्द दिए, और ‘जनवाणी’ बनकर उभरे।
वे महात्मा गांधी, भगत सिंह और नेहरू जैसे नेताओं के विचारों से प्रभावित थे, किंतु उनका लेखन किसी एक विचारधारा तक सीमित नहीं था। उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलनों की गरिमा को समझा, और अहिंसा के दर्शन को भी सराहा। दिनकर ने जनता के भीतर यह विश्वास जगाया कि स्वराज्य केवल राजनैतिक सत्ता की बात नहीं है, बल्कि वह आत्मगौरव और नैतिक स्वतंत्रता का प्रश्न भी है।
इस काल में उनकी एक और महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। साहित्य और पत्रकारिता के माध्यम से विचारशीलता का प्रसार। वे अनेक पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े और लेखों के माध्यम से युवा पीढ़ी को राजनीति में सक्रियता और राष्ट्र निर्माण का संदेश देते रहे।
इस प्रकार स्वतंत्रता पूर्व राजनीति में दिनकर एक संवेदनशील लेखक, निर्भीक आलोचक और जन प्रेरक के रूप में उभरे। उनकी कविताएं केवल शब्द नहीं, बल्कि संघर्ष के घोषणापत्र थे, जिनसे हजारों युवाओं ने प्रेरणा ली।
स्वतंत्रता पश्चात् राजनीति में दिनकर का योगदान
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत एक नवगठित राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान निर्मित कर रहा था, तब रामधारी सिंह दिनकर केवल एक साहित्यकार नहीं रहे, वे उस चेतना के संवाहक बन चुके थे जो स्वतंत्रता की पीड़ा और भविष्य के सपनों को एक साथ अपने शब्दों में ढो रही थी। उन्होंने इस भूमिका को केवल लेखनी तक सीमित नहीं रखा, बल्कि संसद, सांस्कृतिक मंचों और राजभाषा आंदोलन में भी उसी ओजस्विता के साथ भागीदारी निभाई। भारत की स्वतंत्रता के पाँच वर्षों बाद, 1952 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत किया गया, जहाँ वे तीन कार्यकाल (1952-1964) तक सक्रिय रहे। यह वह समय था जब भारत को संविधानिक संस्थाओं, भाषाई एकता, सांस्कृतिक पुनर्निर्माण और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में अपनी भूमिका को स्पष्ट करना था। दिनकर की संसद में उपस्थिति केवल औपचारिक नहीं थी, बल्कि गहन वैचारिक और नैतिक हस्तक्षेप की भूमि बन गई थी।
वे सत्ता से विमुख नहीं, बल्कि सत्ता के समीप रहकर जनचेतना के संवाहक बनकर उभरे। उन्होंने स्वयं कहा था, “राजनीति यदि जनता की चेतना से कट जाए, तो वह केवल सत्ता की मशीनरी बनकर रह जाती है।” उनका एक प्रसिद्ध संसदीय वक्तव्य था। “कविता केवल सौंदर्य या करुणा नहीं, वह जनता के दुख और सत्ता के दंभ का उत्तर भी है।” संसद में वे जब बोलते थे, तो लगता था मानो भारत की आत्मा बोल रही हो। वे         गांधी और लोहिया की तरह सत्ता से संवाद करते थे, आलोचना करते थे, परंतु सृजनात्मक दृष्टिकोण के साथ। उनके भाषण ओजस्विता और विवेक से भरे होते थे। वे सत्ता के आलोचक भी थे और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रवक्ता भी।
1956 में प्रकाशित उनकी कृति संस्कृति के चार अध्याय को उस समय के सांस्कृतिक विमर्श का निर्णायक मोड़ माना गया। इसमें उन्होंने भारत की संस्कृति के विकास को चार अध्यायों में बाँटा -वैदिक, बौद्ध, इस्लामी और आधुनिक काल। उन्होंने लिखा, “भारत की संस्कृति समुद्र की तरह है जिसमें गंगा, यमुना, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सभी समाहित हैं। उसे एक जाति, एक धर्म, एक भाषा से नहीं बाँधा जा सकता।” यह कृति तत्कालीन सांस्कृतिक राजनीति पर गहन वैचारिक हस्तक्षेप थी, जिसने स्वयं पंडित नेहरू को प्रभावित किया। उन्होंने इसकी भूमिका लिखी और दिनकर की सांस्कृतिक दृष्टि को भारत की आत्मा के अनुकूल माना।
यह दृष्टि उस समय विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी जब देश में विभाजन की पीड़ा ताजा थी और सांप्रदायिक राजनीति अपने पैर पसार रही थी। जब नेहरू के भारत में पश्चिमी आधुनिकता और पाश्चात्य    विचारधारा का प्रभाव बढ़ रहा था, तब दिनकर ने भारतीय परंपरा और सांस्कृतिक अस्मिता की आवाज बुलंद की। उनका आग्रह था कि भारत की आत्मा भारतीय रहनी चाहिए, चाहे शरीर पर पश्चिमी पोशाक क्यों न हो। वे उन दुर्लभ साहित्यकारों में थे जिन्होंने राजनीति में प्रवेश कर अपनी लेखनी की शक्ति को कम नहीं होने दिया, बल्कि उसे और अधिक मुखर बनाया।
भाषा के प्रश्न पर दिनकर का योगदान अत्यंत उल्लेखनीय है। संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था, लेकिन उसे लागू करने में अनेक व्यावहारिक और राजनीतिक अड़चनें थीं। दिनकर हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य रहे और विभिन्न राज्यों में जाकर हिंदी को शासन की भाषा बनाने हेतु सक्रिय प्रयास करते रहे। उन्होंने कहा था, “यदि भाषा आत्मा की अभिव्यक्ति है, तो भारत की आत्मा हिंदी बोलती है।” परंतु वे केवल एकांगी दृष्टिकोण नहीं रखते थे – वे अन्य भाषाओं के सम्मान के पक्षधर भी थे। वे भाषा के        माध्यम से भारत की एकता और विविधता दोनों को एकसाथ प्रतिष्ठित करना चाहते थे। भारत सरकार के हिंदी प्रभाग में उप-सचिव के रूप में भी उन्होंने हिंदी के प्रसार हेतु नीतियों को दिशा दी।
दिनकर का दृष्टिकोण केवल वैचारिक नहीं, व्यावहारिक भी था। उन्होंने सरकारी सांस्कृतिक नीतियों को राष्ट्र निर्माण से जोड़ा और साहित्य को राजनीति के समानांतर खड़ा किया- न तलवे चाटने वाला, न नकारने वाला, बल्कि एक विवेकशील साझेदार। वे लोकसभा में नहीं गए, किंतु उनका साहित्य संसद से अधिक प्रभावशाली था। उनकी रचनाएँ ‘हुंकार’, ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘उर्वशी’ केवल काव्य नहीं थीं, बल्कि राजनीति, संस्कृति और आधुनिकता के मध्य संवाद का माध्यम थीं। ‘उर्वशी’ में जहाँ प्रेम और सौंदर्य की महाकाव्यात्मक प्रस्तुति है, वहीं आधुनिकता और भारतीयता के द्वंद्व का रूपांतरण भी मिलता है। इस रचना के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
1962 के भारत-चीन युद्ध ने भारत की पंचशील आधारित आदर्शवादी विदेश नीति को गहरी ठेस पहुँचाई। इस समय देश में व्याप्त क्षोभ और आक्रोश का एक प्रखर सांस्कृतिक उत्तर दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ के रूप में दिया। उन्होंने संसद में कहा, “हमने शांति की साधना की, परंतु सामने वाले ने विश्वासघात किया। अब केवल नीति नहीं, शक्ति भी आवश्यक है।” कविता में उन्होंने लिखा-
“अब नहीं समर की बात पुरानी,
उठो, परशुराम!
फिर धरती पर धर्म और शौर्य की आवश्यकता है।”
यह कविता संसद में पढ़ी गई और फिर जनसभाओं में, जहाँ इसे सुनकर हजारों लोग उद्वेलित हो उठते थे। यह केवल साहित्य नहीं, एक राष्ट्रीय चेतना थी।
एक बार संसद भवन में प्रधानमंत्री नेहरू मंच की ओर बढ़ते समय सीढ़ियों से फिसल गए। उनके साथ कोई नहीं था। दिनकर वहीं खड़े थे और उन्होंने तुरंत नेहरू को संभाल लिया। यह केवल एक मानवीय घटना नहीं थी। यह प्रतीक था उस भाव का कि साहित्य राजनीति को गिरने नहीं देता। जब नेहरू ने आभार प्रकट किया, तो दिनकर ने मुस्कराकर कहा कृ “भारत की आत्मा को गिरने नहीं दिया जा सकता, पंडितजी।” इस प्रसंग ने दिनकर की उस विनम्र शक्ति को दर्शाया जो सत्ता के समीप रहकर भी उसकी आत्मा को जगाए रखने की शक्ति रखती थी।
दिनकर संसद में जब बोलते थे तो वह केवल राजनीतिक भाषण नहीं होता था। उसमें गूँज होती थी कृ “यदि संसद मौन है, तो साहित्य बोलता है। और यदि साहित्य भी मौन हो जाए, तो राष्ट्र केवल तंत्र बनकर रह जाएगा।”
दिनकर की भूमिका का मूल्यांकन और प्रासंगिकता
दिनकर की राजनीतिक भूमिका का मूल्यांकन करते समय यह समझना आवश्यक है कि वे केवल एक कवि नहीं थे, बल्कि एक विचारक, एक पथ-प्रदर्शक और एक जनकवि थे, जिनकी चेतना सत्ता के निकट होते हुए भी जनता के पक्ष में ही केंद्रित रही। उनके राजनीतिक चिंतन में भारतीय लोकतंत्र की मजबूती, सत्ता के प्रति जनसंवेदनशीलता और नीति के धरातल पर नैतिक आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविताएँ सत्ता की आलोचना मात्र नहीं थीं, बल्कि वे बदलाव का सपना जगाने वाली चेतना की मशाल थीं। वे न तो तटस्थ थे, न ही निष्क्रिय। संसद में भी उन्होंने जनहित की बातों को मुखरता से उठाया, और उनकी कविताएँ जनआकांक्षाओं की सच्ची अभिव्यक्ति बन गईं।
उनकी यह प्रासंगिकता केवल तत्कालीन राजनीति तक सीमित नहीं रही। 1974 के जेपी आंदोलन के दौरान, जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘संपूर्ण क्रांति’ की मांग के साथ युवा भारत सड़कों पर उतरा, तब दिनकर की कविताएँ जनसंघर्ष की आवाज बन गईं। उनकी कालजयी पंक्ति कृ “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” बिहार से दिल्ली तक गूंजने लगी। यह कविता न केवल एक साहित्यिक कृति थी, बल्कि जनांदोलन की ललकार बन गई थी। छात्र, युवा, किसान कृ सभी ने दिनकर के शब्दों में अपने युग की पुकार को पाया।
यह विशेष प्रसंग इस बात का सशक्त प्रमाण है कि दिनकर की कविताएँ समय से परे जाकर सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करती रहीं। यद्यपि वे स्वयं उस समय जीवित नहीं थे, पर उनकी रचनाओं में जो जनशक्ति थी, वह आंदोलनकारियों को दिशा दे रही थी। वे अपने जीवनकाल में जनता के कवि थे और उसके बाद भी वे जनता की चेतना में जीवित रहे।
आज जब लोकतंत्र नई चुनौतियों के बीच खड़ा है, जब सत्ता के समीकरण जटिल होते जा रहे हैं, तब दिनकर के शब्द और दृष्टि पहले से अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है। वे हमें याद दिलाते हैं कि सत्ता का मूल्यांकन जरूरी है, और जनता की चेतना ही किसी भी लोकतंत्र की असली संप्रभुता है। इस संदर्भ में दिनकर न केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं, बल्कि एक जीवित चेतना भी, जो आज भी हर सजग नागरिक के भीतर बोलती है।
निष्कर्ष :-
रामधारी सिंह दिनकर न केवल हिंदी साहित्य के एक स्तंभ थे, बल्कि वे भारतीय राजनीति की चेतना का भी एक जीवंत प्रतीक थे। स्वतंत्रता पूर्व के संघर्षों में उनकी लेखनी जहां शोषण और अन्याय के विरुद्ध जनक्रांति का घोष बनकर उभरी, वहीं स्वतंत्रता के बाद उन्होंने सत्ता के निकट रहकर भी उसकी आलोचना करने का नैतिक साहस बनाए रखा। दिनकर का जीवन और साहित्य इस बात के उदाहरण हैं कि एक लेखक अपने समय की राजनीति को न केवल प्रभावित कर सकता है, बल्कि दिशा भी दे सकता है।
उन्होंने राजनीति को नारेबाजी और छलावे से हटाकर उसकी नैतिक जिम्मेदारी की ओर मोड़ा। जब सत्ता आत्ममुग्धता में लीन थी, दिनकर ने उसे जमीन की आवाज सुनाई। जब विचारधाराएं जड़ हो चली थीं, उन्होंने उन्हें कविता के माध्यम से हिलाया।
उनका संसद में दिया गया भाषण, जिसमें उन्होंने पंचशील की विफलता के बाद परशुराम की प्रतीकात्मक वापसी की मांग की, भारतीय राजनीति की नैतिक चेतना का ऐतिहासिक क्षण बन गया। दिनकर का लेखन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके युग में था। उनकी कविताएं, उनके भाषण और उनके विचार हमें यह सिखाते हैं कि राष्ट्र केवल नीतियों से नहीं बनता, बल्कि विचारों, साहस और आत्म-संवाद से बनता है।
इस शोध पत्र के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि रामधारी सिंह दिनकर न केवल एक महान कवि थे, बल्कि वे भारत की राजनीतिक चेतना के रचनाकार भी थे। उनके साहित्य में जो दृष्टि, साहस और संवेदना है, वह आने वाले समय के लिए भी मार्गदर्शक बनी रहेगी। उनकी विरासत केवल पंक्तियों में नहीं, बल्कि मूल्यों में जिंदा है- और यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूमिका है।
सन्दर्भ सूची
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3. मिश्रा, विद्यानिवास (1999), दिनकर का राष्ट्रवाद. साहित्य अकादमी.
4. दिनकर, रामधारी सिंह (1951), संस्कृति के चार अध्याय. लोकभारती प्रकाशन
5. दिनकर, रामधारी सिंह (1952),कुरूक्षेत्र. राजकमल प्रकाशन
6. दिनकर, रामधारी सिंह (1952), रश्मिरथी. राजकमल प्रकाशन
7. श्रीं, Ganganath ¼1987½- Rashtrakavi Dinkar: A Critical Study- Delhi: Sahitya Bharati-
8- Yadav, Yashwant (2015)-“Parliamentary Speeches of Dinkar: Ethics and Nationalism Indian Journal of Political Discourse, Vol 3, Issue 2
9- Nayar, Kuldip (2001)- Beyond the Lines: An Autobiography- Chapter on Nehru & Dinkar interaction
10- The Rajya Sabha Archives – Speeches by Ramdhari Singh Dinkar, 1962- https://rsdebate-nic-in/browse\type(author&value)RAMDHARI+SINGH+DINKAR

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