डाॅ0 राजबाला
(असिस्टेंट प्रोफेसर) हिन्दी विभाग
सरदार भगत सिंह संघटक राजकीय महाविद्यालय
पुवायां शाहजहांपुर
परिचय
मुंशी प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपत राय था, जिनका जन्म 31 जुलाई 1880 ईस्वी को उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी जिले के लमही नामक गांव में हुआ। मुंशी जी के पिताश्री का नाम अजायब राय था जो डाकखाने में क्लर्क के पद पर पदस्थ थे। बचपन में ही इनके माता जी का देहावसान हो गया था और उसके बाद उनकी दूसरी मां के देखरेख में उनका बचपन बहुत ही कष्टमय व्यतीत हुआ। धनपत राय बचपन से ही कहानी सुनने के अत्यंत शौकीन थे जिससे इनकी इन्हीं आदतों ने इन्हें महान कहानीकार के मार्ग पर विकसित किया। प्रेमचंद कि शिक्षा एक होनहार विद्यार्थी के रूप में संपन्न हुई। स्रातक के बाद कम आयु में ही इनकी शादी संपन्न करा दी गई लेकिन मनोवांछित पत्नी ना होने के कारण बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह संपन्न हुआ।
प्रेमचंद को शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने सर्वप्रथम ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से नवाजा, इसके बाद उनकी यह उपाधि साहित्यिक जगत में आज भी सम्मान के साथ उन्हें प्रदत्त है। वह हिंदी और उर्दू के महान भारतीय लेखकों में शीर्षस्थ हैं जिन्होंने कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का उद्भव किया जिससे पूरी शती ने सीखा। इनके साहित्य के अध्ययन के बिना हिंदी साहित्य का अध्ययन अधूरा है. ऐसा कहना कदाचित अनुचित नहीं होगा। मुंशी जी एक संवेदनशील लेखक होने के साथ-साथ कुशल वक्ता, जागरूक नागरिक तथा सुधि संपादक भी थे। इनका योगदान हिंदी साहित्य जगत में अतुलनीय हैं।
प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन एवं योगदान
धनपत राय का साहित्यिक नाम प्रेमचंद था जो इनके द्वारा जीवन के अधिकांश वर्षों के व्यतीत हो जाने के बाद अपनाया गया। शुरुआत में जब उन्होंने सरकारी नौकरी करते हुए कहानी का लेखन आरंभ किया था तब वह नवाब नायक के नाम से लिखा करते थे। इनको जानने पहचानने वाले तथा उनके करीबी दोस्त. मित्र इत्यादि इन्हें नवाब राय के नाम से ही आजीवन संबोधित करते रहे। भारत सरकार के द्वारा इनका पहला कहानी संग्रह सोजे वतन को जप्त कर लिया गया जिसके कारण इन्हें नवाब राय का नाम छोड़ना पड़ा। इसके बाद का साहित्य इनका प्रेमचंद के नाम से लिखा गया। पहला कहानी संग्रह सोजे वतन को भारत सरकार द्वारा जप्त कर लेने के बाद प्रेमचंद ने बड़े पैमाने पर कहानियों और उपन्यासों को पढ़ना प्रारंभ किया। शुरू में वे एक तंबाकू विक्रेता की दुकान में जाकर कहानियों के अक्षय भंडार ‘तिलिस्मे होशरूबा’ का पाठ सुनें जिसे ‘फैजी’ ने अकबर के मनोरंजन हेतु लिखा था। इन्हीं कहानियों को पूरे। वर्ष होने के बाद प्रेमचंद की कल्पना को नई दिशा मिली तथा साहित्य की अन्य अमूल्य रचनाएं भी प्रेमचंद के द्वारा कही गई। इनमें से सरशार की कृतियाँ और रेनाल्ड की ‘लंदन रहस्य’ श्रेष्ठ बताई जाती है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में बुद्धि लाल नाम के पुस्तक विक्रेता से उनकी दोस्ती हुई और प्रेमचंद इनकी दुकान की किताबें अपने विद्यालय में बेचा करते थे और इसके भुगतान में वे कुछ कहानियों और उपन्यासों को कुछ समय के लिए पढ़ने के लिए ले जाते थे। इस प्रकार से उन्होंने शुरुआती के वर्षों में सैकड़ों कहानियों और उपन्यासों को पढ़ें और उसके बाद इन्होंने गोरखपुर में ही अपने सबसे पहली साहित्य कृति को रूप दिया।
प्रेमचंद की कृतियाँ भगवान शंकर के स्वरूप से प्रभावित जान पड़ती है। इन्होंने सत्यम शिवम सुंदरम के तथ्य को अपनाया है। भगवान शिव की कलात्मकता को उन्होंने आत्मर्पित किया है। प्रेमचंद ने ना तो भूतकाल का गुणगान किया है और ना ही भविष्य काल की कल्पनाओं को जीया है। उन्होंने बड़ी ही इमानदारी के साथ वर्तमान में जीते हुए वर्तमान काल की परिस्थितियों को अपने कृतियों में समुचित स्थान दिया है। प्रेमचंद गरीबों व किसानों के विषय में कहते हैं कि इनके ऊपर बंधन नहीं है बल्कि यह मानसिक रूप से बंधन के जाल में जकड़े हुए हैं यदि यह सभी मानसिक रूप से यह स्वीकार कर ले कि इन्हें कोई भी दबा नहीं सकता, उनका उत्पीड़न नहीं कर सकता तो वे सभी अपनी समस्याओं और उत्पीड़न की विभिन्न प्रताड़नाओं से मुक्त हो जाएंगे।
सामाजिक सुधार के विषय में
प्रेमचंद ने समाज के जागरण के विषय में अत्यंत सराहनीय कार्य किया है। उन्होंने सामान्य जनमानस को साहित्य में समुचित स्थान दिया है। समाजकल्याण की यह भावना उन्हें कभी-कभी काल्पनिकता कि ओर बरबस खींच ले जाती है लेकिन उन्होंने उस काल्पनिकता में भी सर्वदा शोषित जनों का हित ही चाहा है। चाहे काल्पनिकता कितनी भी चरम सीमा पर हो लेकिन उन्होंने इसे वास्तविक जीवन के सरोकारों से जोड़ा है और सदा ही उसे समाज कल्याण की भावना से ओतप्रोत किया है। प्रेमचंद आर्यसमाज, गांधीवादी, वामपंथी चारधारा आदि से प्रभावित थे, लेकिन इन सब का सार तत्व उन्होंने जन समाज के कल्याण के रूप में अपनी कृतियों में उकेरा है और उनकी कोमल सहृदयता प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। इनकी रचनाओं में गरीब व मजदूरों के लिए स्वभाविक कल्याण की इच्छा प्रत्यक्ष प्रदर्शित होती है। गोदान में गरीबी और लाचारी का जो चित्रण प्रेमचंद ने किया है वह अतुलनीय है। यदि हम इनके युग का आरंभ सेवासदन को कहें तो इस युग का उत्कर्ष का काल गोदान ही होगा। प्रेमचंद आदर्शवादी विचारधाराओं को अपने साहित्यिक पात्रों पर बोझ नहीं बनाते थे बल्कि उनकी अंतरात्मा की आवाज की तरह स्वभाविक रूप से प्रकट करने का समुचित प्रयास करते थे। संप्रदाय से संबंधित समस्याओं को उन्होंने सेवा सदन और कायाकल्प में उजागर किया है तथा रंगभूमि कर्मभूमि और गोदान के साथ-साथ सेवा सदन में उन्होंने अंतर्जातीय विवाह का वर्णन किया है। नारियों की स्थिति समाज में किस प्रकार की है और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने के लिए प्रेमचंद ने अपने सभी उपन्यासों में प्रयास किया है। निर्मला और गबन में मध्यम वर्ग की समस्याओं का सजीव चित्रण प्रेमचंद के द्वारा देखने को मिलता है। हरिजनों की विवशता और उनकी कुंठा को कर्मभूमि में शीर्ष रूप से वर्णित किया गया है।
उपन्यास
हिंदी साहित्य के उपन्यास का विकासयुग प्रेमचंद जी के पहले उपन्यास सेवासदन के प्रकाशित होने के साथ ही प्रकाश में आया जिसे प्रेमचंद युग के नाम से भी जाना जाता है। यह समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार का काल था। अंग्रेजों के शासन और इनके शिक्षा नीतियों एवं अंग्रेजी सभ्यता के वर्चस्व से भारतीय समाज में उपस्थित कुरीतियों, अंधविश्वासों और धार्मिक आडंबरों के खिलाफ विद्रोह से एक नई जागृति और सम्मान की भावना का विकास हो रहा था। इस समय बापू राजनीति में प्रभावी तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके थे। इस समय गांधी जी के विचार और सत्याग्रह, सदाचार, अहिंसा, स्त्रियों के उन्नति जैसे विचारों का जागरण हो चुका था तथा रूस के विज्ञान और अविष्कारों से जनसाधारण के मानसिकता पर व्यापक असर पड़ा था जिसके कारण रोमांस, चमत्कार, कल्पना और इंद्रजाल से हटकर हिंदी जगत के उपन्यासकार सत्य की धरातल पर लोगों के हित में अपनी रचनाओं का विकास कर रहे थे।
इन सभी विचारधाराओं से प्रेरित व अग्र पंक्ति में खड़े मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने से पहले के उपन्यासकारों के विषय में कहा था कि ‘‘जिन्हें जगत की गति नहीं व्याप्ति वे जासूसी व तिलिस्मी चीजें लिखा करते हैं’’।
कहानी
प्रेमचंद की अधिकतर कहानियों में निचले व मध्यम वर्ग का विवेचन मिलता है। ड़ाॅ कमल किशोर गोयनका ने मुंशी जी की पूरे हिंदी व उर्दू कहानियों को प्रेमचंद कहानी रचनावली के नाम से प्रकाशित कराया है। किशोर जी के अनुसार मुंशी जी ने कुल 301 कहानियों को रूप दिया है जिनमें से तीन अभी अनुपलब्ध हैं। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोजे वतन के नाम से जून 1960 में प्रकाश में आया था इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को सामान्यतया प्रेमचंद की पहली कहानी के रूप में जाना जाता है। ड़ाॅक्टर गोयनका के कथन अनुसार कानपुर से प्रकाशित होने वाली उर्दू मासिक पत्रिका जमाना के अप्रैल वाले अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश प्रेम असल में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।
प्रेमचंद के जीवन काल में कुल 9 कहानी संग्रह का प्रकाशन हुआ जो क्रम से सोजे वतन, सप् त सरोज, नवनिधि, प्रेमपूर्णिमा, प्रेम-प्रतिमा, प्रेम-पचीसी, समरयात्रा, प्रेम-द्वादशी, मानसरोवर भाग एक और दो तथा कफन हैं। प्रेमचंद के देहावसान के पश्चात उनकी कहानियों को ‘मानसरोवर’ शीर्षक देकर आठ भागों में प्रकाशित किया गया। प्रेमचंद के साहित्य के मूल अधिकार के समाप्त होते ही अन्यान्य संपादकों और प्रकाशकों ने प्रेमचंद की कहानियों को अलग-अलग संकलन के रूप में प्रकाशित कराए। मुंशी जी की कहानियों में विषय और शिल्प की विविधता देखने को मिलती है। उन्होंने मानव के सभी वर्गों के साथ-साथ पशु पक्षियों को भी अपनी कहानियों में मुख्य पात्र के रूप में सहेजा है। उनकी कहानियों में मजदूरों, स्त्रियों किसानों, दलितों आदि की समस्याओं को गंभीरता के साथ चित्रित किया गया है। उन्होंने समाजसुधार, स्वाधीनता संग्राम, देश प्रेम आदि विषयों से संबंधित अनेकों कहानियां लिखी हैं। उनकी ऐतिहासिक कहानी व कथा तथा प्रेम युक्त कहानियां काफी लोकप्रिय हुई थी। प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों में अग्रलिखित कहानियों को शुमार किया जा सकता है- पंच परमेश्वर, गुल्ली डंडा, दो बैलों की कथा, बड़े भाई साहब, पूस की रात. ईदगाह, ठाकुर का कुआं, कफन, बूढ़ी काकी, सद्गति, मंत्र, दूध का दाम इत्यादि।
नाटक
प्रेमचंद ने नाटक के क्षेत्र में भी अपना अमिट छाप छोड़ा है. जिनमें संग्राम, कर्बला, प्रेम की वेदी प्रमुख है। यह नाटक शिल्प और संवेदनाओं के स्तर पर उत्तम है लेकिन उनकी कहानियों और उपन्यासों ने इतनी महानता प्राप्त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को अत्यधिक प्रसिद्धि नहीं मिली यह नाटक वस्तुतः संवादात्मक उपन्यास तक ही सीमित रह गए।
लेख
प्रेमचंद एक संवेदनशील कहानीकार ही नहीं थे बल्कि वे जागरूक नागरिक व संपादक भी थे जिन्होंने हंस, जागरण, माधुरी जैसे पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते हुए तत्कालीन अन्य समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे मर्यादा, चांद स्वदेश आदि में भी अपने साहित्य और सामाजिक चिंताओं को निबंधों तथा लेखों के माध्यम से व्यक्त किया। अमृत राय के द्वारा संपादित प्रेमचंद विविध प्रसंग 3 भाग वास्तविकता में मुंशी जी के ही लेखों का संकलन है।
प्रेमचंद की साहित्यिक विशेषताएं
प्रेमचंद की रचनात्मकता अन्यान्य साहित्यिक रूपों में निखर कर आई हैं। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उनकी रचनाओं में समकालीन इतिहास बोलता हुआ दिखता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जनसाधारण की भावनाओं, उनकी समस्याओं और परिस्थितियों का समुचित विवेचन किया है। उनकी कृतियाँ भारत के सबसे अधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियों में जानी जाती है। अपनी कहानियों से मुंशीजी ने मानव स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल दिया हैं। इन बातों की सिद्धि के लिए अग्र लिखित कुछ उदाहरण प्रस्तुत है -नमक का दरोगा इस कहानी में दरोगा बहुत ईमानदार व्यक्ति है जिसे घूस देकर बिगाड़ने में सभी प्रयास असमर्थता को प्राप्त हुए। फिर उसे सरकारी कर्मचारी गलत सिद्ध करके नौकरी से बर्खास्त कर देते हैं लेकिन जिसके कारण वह बर्खास्त हुआ रहता है वही व्यक्ति उसे अपने घर पर मैनेजर की नौकरी देता है क्योंकि वह एक ईमानदार और कर्तव्य परायण व्यक्ति को अपने घर काम पर रखना चाहता है। पंच परमेश्वर में भी गांव का पंच व्यक्तिगत दुश्मनी को भूल कर के सच्चा न्याय करता है। ऐसा ग्रामीण परिवेश में कम देखने को मिलता है लेकिन प्रेमचंद ने सकारात्मकत्ता को उजागर करने के लिए ऐसे कहानियों और उदाहरण को प्रस्तुत किया है।
प्रेमचंद की कृतियाँ
मुंशी जी की कृतियाँ हिंदुस्तान के सबसे अधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियों में शुमार की जाती है। उन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, समीक्षा, संपादकीय, लेख, संस्मरण इत्यादि अनेक विधाओं में साहित्य की रचना की है किंतु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं उन्होंने अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट की उपाधि प्राप्त कर ली थी। प्रेमचंद के द्वारा कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 10 अनुवाद, सात बाल पुस्तके तथा 3 नाटक और हजारों पृष्ठों के लेख, भाषण, संपादकीय, पत्र, आदि की रचना की गई है। जिस समय में प्रेमचंद ने लिखना प्रारंभ किया था उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत विद्यमान नहीं थी और ना ही विचार और न ही प्रगतिशीलता का कोई प्रारूप उनके सामने था सिवाय बांग्ला भाषा के साहित्य के। प्रेमचंद के समय में बंकिम चंद्र चटर्जी तथा शरतचंद्र थे और इनके अतिरिक्त टाॅल स्टाॅय जैसे रूस के साहित्यकार थे। लेकिन आते आते समय में उन्होंने अंत में गोदान ाव जैसी कालजई उपन्यास की रचना की जो आधुनिक क्लासिक के रूप में प्रतिष्ठित माना जाता है।
प्रेमचंद को प्राप्त पुरस्कार
सबसे श्रेष्ठ पुरस्कार की बात करें तो प्रेमचंद की याद में भारतीय डाक की ओर से 31 जुलाई सन 1980 ईस्वी को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया गया था। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के जिस विद्यालय में वह शिक्षक पद पर कार्यरत थे वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है उसके बरामदे में एक भित्ति लेख भी है जहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय विद्यमान है। वहां पर उनकी एक अप्रत्यक्ष प्रतिमा भी स्थापित की गई है। प्रेमचंद की जीवन संगिनी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर के नाम से उनकी जीवन कहानी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया जिससे लोग अनभिज्ञ थे। प्रेमचंद के ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से अपने पिताश्री की जीवन कथा लिखी है। प्रेमचंद जी की सभी पुस्तकों के अंग्रेजी व उर्दू रूपांतरण तो हुए ही हैं साथ में रूसी, चीनी जैसे अनेक विदेशी भाषाओं में भी उनकी रचनाएं काफी प्रसिद्धि को प्राप्त की है।
स्वर्णिम युग
प्रेमचंद के उपन्यास कला के स्वर्णिम युग की बात करें तो सन 1931 के आरंभ में गबन का प्रकाशन हुआ था उसके बाद 16 अप्रैल 1931 ईस्वी को प्रेमचंद ने अपनी एक और श्रेष्ठ रचना कर्मभूमि की शुरुआत की जो अगस्त 1932 में जन सामान्य के लिए उपलब्ध हो गई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन 1932 में वह अपना अंतिम महान उपन्यास गोदान को लिखना प्रारंभ कर दिए थे यद्यपि हंस और जागरण से युक्त अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून 1936 मैं ही संभव हो सका अपनी अंतिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास मंगलसूत्र लिखना शुरू ही किया था लेकिन अकाल मृत्यु के कारण यह अधूरा ही रह गया कर्मभूमि गबन और गोदान जिसे उपन्यासत्रयी के नाम से विश्व प्रसिद्धि मिली है। कर्मभूमि अपने क्रांतिकारी चेतना के कारण विश्व प्रसिद्ध हुआ।
रूढ़िवादिता का विरोध
प्रेमचंद के जन्म के समय का युग सामाजिक और धार्मिक रूढिवादियों से भरा हुआ था। इन रूढिवादियों से स्वयं प्रेमचंद भी आहत हुए थे। तब के समय में प्रेमचंद ने कथा साहित्य का सफर प्रारंभ किया और अनेकों प्रकार के रूढिवादियों से युक्त समाज को यथाशक्ति कथा साहित्य द्वारा मुक्त करने का प्रयत्न किया अपनी कहानियों के बालक के माध्यम से यह उद्घोषित करते हुए कहे कि ष्में निरर्थक रूढियों और व्यर्थ के बंधनों का दास नहीं हूं।
सामाजिक रूढ़िवादिता
सामाजिक रूढ़ियों में प्रेमचंद ने विवाह से संबंधित रूढियो जैसे बहुविवाह, बेमेल-विवाह, अभिभावकों द्वारा आयोजित विवाह, दहेज प्रथा, पुनर्विवाह, विधवा विवाह, पर्दा प्रथा, वृद्ध विवाह, बाल विवाह तथा पतिव्रत धर्म के संबंध में बड़ी संवेदना और सचेतना के साथ लिखा है। उस समय के समाज में यह बात घर कर गई थी कि तीन पुत्रों के जन्म के बाद जनमने वाली बेटी अशुभ होती है। प्रेमचंद ने इस रूढ़िवादिता का अपनी कहानी तीतर के माध्यम से पुरजोर विरोध किया है। होली के शुभअवसर पर पाए जाने वाली रूढ़िवादिता की निंदा करते हुए वह कहते हैं कि अगर पीने पिलाने के बावजूद होली एक पवित्र त्योहार है तो चोरी और रिश्वतखोरी को भी पवित्र मानना चाहिए। उनके अनुसार त्योहारों का अर्थ है अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति रखना, आर्थिक समस्याओं के बावजूद अतिथि सत्कार को मर्यादा एवं प्रतिष्ठा का प्रश्न समझ लेने जैसे रूढ़िवादीताओं का भी उन्होंने पुरजोर विरोध किया है।
धर्म से संबंधित रुढ़ियां
प्रेमचंद को एक महान साहित्यकार के साथ साथ एक महान दार्शनिक भी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेमचंद के भीतर के दार्शनिक ने धर्म की आड़ में जन सामान्य के शोषण करने वालों को पहचान लिया था वह उनके बाहरी विधि-विधानों तथा अंदरूनी अशुद्धियों को पहचान चुके थे। इनसब को अच्छी तरह से देखने व परखने के बाद प्रेमचंद ने यह ठान लिया था कि वह धार्मिक रूढ़िवादिताओं को खत्म करने के लिए हर एक संभव प्रयास करेंगे।
साहित्य में प्रेमचंद का अविस्मरणीय योगदान
साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का अद्वितीय योगदान सर्वविदित है। उन्होंने उपन्यास और कहानियों के द्वारा जन सामान्य को साहित्य से जोड़ने का सेतु स्थापित किया है। उनकी लिखी कृतियाँ आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।
प्रेमचंद के लिए इस प्रकार के उद्गार युक्त वचन अनेकानेक हिंदी के विद्वानों के द्वारा अनायास ही सुना जा सकता है। प्रेमचंद ने एसबीआई की सदस्यता ग्रहण करते हुए गांव में 5 साल तक निरीक्षण किए और उसके दौरान जो भी देखा उन्हें उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत किया जो आज के समय में भी प्रासंगिक जान पड़ता है।
मुंशी प्रेमचंद की कहानियां हृदयस्पर्शी होती हैं जिन्हें एक बार पढ़ या सुन लेने से मानस पटल पर अमिट छाप बन जाता है। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में आने वाले गावों और जिले को एक अलग तरह का पहचान दिया जिसे वहां के निवासी कभी भुला नहीं सकते। साहित्य में किए गए उनके कार्यों के लिए पूरा साहित्य जगत उन्हें कभी विस्मृत नहीं कर सकता।
उपसंहार
प्रेमचंद ने अपने समय में अनेकों कृतियों लिखी हैं। प्रेमचंद की जैसी कृतियाँ उस समय से लेकर अब तक किसी और के द्वारा देखने को नहीं मिली और आगे मिलना भी मुश्किल जान पड़ता है। प्रेमचंद के जीवन के कुछ अंतिम दिन वाराणसी और लखनऊ में गुजरे जहां पर उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सफल संपादन किया और अपने साहित्य सृजन का अमिट छाप छोड़ते रहें। 8 अक्टूबर सन् 1936 ईस्वी को जलोदर रोग के कारण उनका देहांत हो गया। यह महान उपन्यासकार इस दुनिया से शारीरिक रूप से तो चला गया लेकिन वह अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से अब तक जीवित है और आगे आने वाली पीढ़ी अभी भुला नहीं सकेंगी।
संदर्भ – सूची
1. प्रेमचंद (2003), प्रेमचंद की 75 लोकप्रिय कहानियाँ, दिल्ली, भारतः राजा प्रकाशन, आई.एॅस.बी.एॅन.।
2. हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रेमचंद्र शुक्ल।
3. प्रेमचंद 1936. साहित्य के उद्देश्य
4. प्रेमचन्द जीवन परिचय (हिन्दी) (एच. टी. एम. एल)। अभिगमन तिथि- 9 नवंबर, 2010
5. मनोज कुमार पर 8-50 चउ लेबल उपन्यास साहित्य, प्रेमचंद, मनोज कुमार, साहित्यकार
6. कृतियों की रूपरेखा अंग्रेजी में लिखते थे प्रेमचंद (हिन्दी) (एच. टी. एम. एल)। अभिगमन तिथि: 9 अक्टूबर, 2010
7. अध्याय 16, पृ. 574, हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ० नगेन्द्र, 33 वां संस्करण 2007, मयूर पेपरबैक्स, नौएडा