ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

भारतीय युवा  अरमान और प्रतिमान 

डाॅ0 ऋचा सिंह
प्राचार्या
वी0जी0आई0 दादरी, गौतमबुद्धनगर
भारत भी दुनिया के विकसित देशों की तरह हर वर्ष 12 जनवरी को युवा दिवस मनाता है। युवकों को भविष्य का कर्णधार कहा जाता है। वे किसी राष्ट्र की असल शक्ति ही नहीं, उसके आधार और समग्र चेतना के संवाहक होते हैं। चूंकि देश की आधी से ज्यादा आबदी युवा हैं।  अतः  ‘युवाओं की सरकार में उचित भागीदारी’ या ‘युवाओं की सरकार’ होनी चाहिए। यह कोई बुरा ख्याल नहीं है। वैसे भी जब देश में सरकार का बुनियादी नियम बहुमत है तो इस वजह से युवा सरकार बन जानी चाहिए। एशिया के कुछ और पश्चिम के अधिकतर देशों में यह सफल रिवाज की तरह है। मगर भारत में युवा सरकारों की शुरूआत अपवाद स्वरूप है।
किसी भी समाज में जो चुनौतियां होती हैं और जो आशाएं होती है, उनके मुकाबले और पूर्ति के लिए समाज अपने युवाओं पर भरोसा करता है। युवाओं में बुजुर्ग पीढ़ी की तुलना में कई विशेष क्षमताएं पाई जाती है। उनके अंदर नये संदर्भों को समझने के लिए सीखने का अवसर होता है। सामाजिक जीवन में प्रचलित आदर्शवादी धारा को अपनाने की उनमें विशेष क्षमता होती है। युवा होने के नाते किसी भी प्रश्न या आदर्श को वह चांलीस से पचास साल तक की अवधि तक अपना समय देकर उन्हें कार्यान्वित करने के प्रयास कर सकते हैं। इन गुणों का भारतीय युवाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर जेपी आंदोलन तक में कई बार अत्यंत प्रशंसनीय प्रदर्शन भी किया है। इसलिए भारतीय समाज की नेतृत्व-परंपरा में एक तरफ गांधी-टैगोर जैसे बुजुर्गो का सम्मानजनक स्थान है तो विवेकानंद, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद की महिमा का भी बराबर स्मरण है।
आज भारत विश्व के अन्य देशों की तुलना में युवाओं के बहुमत वाला देश बन चुका है। इसलिए बार-बार युवा शक्ति को राष्ट्र की मौजूदा चुनौतियों के समाधान के लिए एक प्रबल साधन के रूप में बताने की चेष्टा की जा रही है। वैसे तो भारतीय राजनीति में यह पीढ़ी-परिवर्तन का दौर है। भारत की दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और ‘‘भारतीय जनता पार्टी में बुजुर्गों की जगह कम उम्र वालों के लिए जगह बनाने का सर्वसम्मत दबाव स्वीकारा जा चुका है।’’1 क्षेत्रीय पार्टियों में भी द्रविड़ मुनेत्र कषगम से लेकर समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और लोकजनशक्ति पार्टी में भी बुजुर्ग नेताओं ने सŸार के उस पार जाने के कारण अब चालीस के आसपास की उम्र वाले युवाओं को अपने उŸाराधिकारी के रूप में स्वयं सहज तरीके से पेश  कर दिया लेकिन विडम्बना यह है कि शेष भारतीय युवाओं में इस समय राजनीति को लेकर जबरदस्त उदासीनता का भाव फैल रहा है विभिन्न जन आन्दोलनांे में भी पर्यावरण से लेकर स्त्रियों के खिलाफ हिंसा के मोर्चों पर युवाओं की सक्रियता में कोई संदेह नहीं है। लेकिन राजनीति को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व में अपनी भूमिकाओं को लेकर आज का युवा आकर्षण के बजाय एक तरह की नाराजगी और नफरत महसूस कर रहा है। राजनीतिकरण की प्रक्रिया के बगैर लोकतांत्रीकरण और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रियाएं आगे कैसे बढ़ेंगी? राजीव गांधी के जमाने में वोट की उम्र 21 साल से 18 साल घटाकर यह आशा की गई थी कि इससे युवाओं में राजनीति और विशेष तौर पर चुनाव को लेकर आकर्षण बढ़ेगा लेकिन अब तक का नतीजा कोई विशेष उत्साहजनक नहीं रहा है।
हमारी युवा शक्ति में 1991 के बाद अस्मिता की राजनीति के प्रभाव के कारण जबरदस्त अंदरूनी विखंडन और बिखराव भी पैदा हुआ है। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले युवा आंदोलन के दौर की तुलना में आज के युवाओं में एक बड़ी कमी छात्र एकता और युवा एकता की है। इस समय तब की तुलना में जाति, क्षेत्र, भाषा,         धर्म और लिंगभेद के आधार पर युवाओं में जबरदस्त अतर्विरोध विकसित हो चुके हैं। आज का युवा जाति के प्रश्न पर अगड़ा, पिछड़ा और दलित कम से कम इन तीन खांचों में बंटा हुआ है। इसी प्रकार, स्त्री प्रसंग को लेकर आज के युवक-युवतियों के साथ किसी भी प्रकार की एकता महसूस करने में असमर्थ हैं क्योंकि युवतियों के प्रति हिंसा कुल मिलाकर युवाओं द्वारा ही की जा रही है। इसमें सुधार के लक्षण अभी तो नहीं दिखाई दे रहे। फिर सांप्रदायिकता के मोर्चे पर भी सांप्रदायिक झगड़े और हिंसा की घटनाएं बढ़ रही है और इनमें बड़े-बूढ़ो की तुलना में नौजवान ही एक दूसरे से टकराते दिखाई पड़ते हैं। फिर क्षेत्रीयता के संदर्भ में भी गोरखालेंड, नागालैंड से लेकर मणिपुर और तेलंगाना तक जो क्षेत्रीय बनाम राष्ट्रीयता को लेकर टकराहटें पैदा होती रही हैं, उनके भी कर्ता-       धर्ता युवा ही दिखाई पड़े।
अतः युवाओं के बीच में बड़ी प्रक्रियाओं को तत्काल सक्रिय करना जरूरी है। सबसे पहले सभी युवाओं के लिए ग्रामीण और नगरीय, गरीब और अमीर, स्त्री और पुरूष इन भेदों से ऊपर  उठकर अधिक से अधिक उच्च शिक्षा और समान शिक्षा के अवसर प्रदान करना आवश्यक है। बिना सुरक्षित युवा शक्ति के हम युवाओं की भीड़ का देश तो बन जाएंगे लेकिन उनके अंदर पिछली पीढ़ी की तुलना में बेहतर कौशल, दृष्टि और सामर्थ होगी, इसका दावा करना कठिन होगा।
दूसरे शिक्षा के जरिए उनकी शक्ति का संवर्धन करने के साथ-साथ उनके अंदर सामाजिक और राजनीतिक चेतना का भी निर्माण करना जरूरी है। आज के युवाओं में लोकतंत्र और राष्ट्रनिर्माण को लेकर       आधी-अधूरी समझ है। उनके मन में अपने देश और दूसरे देशों के बीच में फर्क करने के जरूरी त्याग भावना और समाज के नवनिर्माण के लिए अपने को आगे लाने की समर्पण भावना में आजादी की लड़ाई के दौरान के युवाओं की तुलना में बहुत कमी दिखाई पड़ रही है। आज रोजी-रोजगार की तलाश में हमारा युवा वर्ग राष्ट्र हित की तुलना में व्यक्तिगत हित को प्राथमिकता देने में कोई संकोच नहीं करता बल्कि अगर वह संकोच करे भी तो उसके परिवार से लेकर उसके समाज तक सब उसको विदेशों में जाकर डाॅलर कमाने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। देश में कस्बों-गावों में रहकर समाज निर्माण के काम में लगे हुए युवाओं की तुलना में विदेशी कंपनियों के लिए दूर-दराज के देशों में जाकर डाॅलर कमाने वाले युवाओं का ज्यादा आदर है।
तीसरे, हमारे युवाओं के बीच में विघटन और परस्पर ईष्र्या के बजाय एकता और सहयोग की भावना का भी निर्माण करना जरूरी है ताकि आज युवा शिक्षित भी हो जाएं, राजनीतिक तौर पर सजग और सचेत भी हो जाएं जिससे कि जाति और लिंग भेद से पीड़ित हमारा समाज आने वाले दिनों में एक बेहतर दौर की आशा कर सके। इसके लिए परस्पर सहयोग की भावना भी बहुत जरूरी है। आज बुजुर्गो की तुलना में युवाओं में द्वंद्व, टकराहट और हिंसा की भावना ज्यादा प्रबल है। जब तक हम इन तीनों चुनौतियों के बारे में युवाओं के साथ सहयोग का     संबंध नहीं बनाएंगेेेेेेेेेेेेेे, तब तक सिर्फ उम्र के पैमाने पर युवा का फर्क कर कोई बेहतर भविष्य की कल्पना करना अव्यावहारिक होगा। ‘‘देश में जो युवा सरकार आए उसे युवा केंद्रित योजनाएं बनानी चाहिए। रोजगार सृजन में सहायक शिक्षा व्यवस्था लाई जानी चाहिए। इससे युवा शक्ति दक्ष हो सकेगी। आज मूल समस्या रोजगार सृजन की है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा रोजगार पैदा किए जाएं।’’2
वोट पाने के लिए ‘‘युवाओं के शासन की बात करना आज भारत के राजनीतिक दलों की वैसी ही मजबूरी है, जिस तरह अपना उत्पाद बेचने के लिए युवाओं को आकर्षित करना काॅरपोरेट की बाध्यता। वोट और मुनाफे के इस कारोबार में युवाओं के लिए अगर कुछ होने जा रहा है तो उसे बाइप्रोडक्ट मानिए वरना बाजार और सरकार की नीतियों में ऐसा बहुत कम है, जो भारत जैसे युवा देश की आवश्यकता को पूरा कर सकें।’’3
भारत अगर युवाओं के बहुमत वाला देश बनता जा रहा है तो युवाओं का सŸाा प्रतिष्ठान से लेकर समाज के नवनिर्माण तक में आगे आना अत्यंत स्वाभाविक जरूरत है। लेकिन इसके साथ यह भी जोड़ना चाहिए कि हमारे युवाओं के प्रति हमारा समाज अब भी संवेदनशील नहीं है। हमारी युवा नीति में युवाओं के बुनियादी हित शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सांस्कृतिक स्वायŸाता; के बारे में कोई राहत की गुंजाइश नहीं दिखाई पड़ रही है। कुल मिलाकर हमारा देश युवाओं के बहुमत वाला देश तो हो रहा है लेकिन देश का सŸाा प्रतिष्ठान उनके प्रति उपेक्षा भाव रखता है और इस उपेक्षा भाव को खत्म किए बिना मुट्ठी भर युवाओं को लोक सभा, विधानसभा या मंत्रिमंडल में जगह देने से तस्वीर कैसे बदलेगी?
कुछ लोग ‘‘युवा वर्ग को समाज के लिए खतरे का कारण और दिग्भ्रमित मानते हैं। अपराध, ड्रग्स की गिरफ्त में आना और एचआईवी से जुड़ने के कारण युवा वर्ग की इस तरह की छवि बनी है। देश के कुछ क्षेत्रों में इस तरह की समस्याएं अधिक है। सामाजिक विकास और परिवर्तन की तमाम विसंगतियों, जो बेरोजगारी, अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ेपन और क्षेत्रीय, जाति, जेंडर पूर्वाग्रह के कारण बनती हैं, ऐसी विकृतियों को जन्म देती हैं।’’4
इतिहास के हर कालखण्ड में ‘युवापन’ और ’युवाजन’ की महŸाा को स्वीकार किया जाता रहा है। ‘‘समाज ने इन्हें अपनी ताकत समझा है तो राज्य ने अपना हथियार और बाजार ने अपने व्यापार का मूल          आधार। लेकिन कमोवेश सबने इन्हें अपने एजेंडे के केन्द्र में रखा है। यह अलग बात है कि इनकी आवश्यकता, आकांक्षा और भावनाओं को कितना समझा गया, इनकी कितनी कदर की गई या फिर उनके लिए कितने प्रयास किये गये, ये सदैव सवालों के घेरे में रहे हैं। सभी तरह के संघर्षो, आंदोलनों और रचनात्मक प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले ये युवाजन हमेशा अपने वर्तमान के संकट और संत्रास के सबसे अधिक भोक्ता रहे हैं।’’5
युवाजनों की वर्तमान स्थिति पर दृष्टि डालते हुए हमें दो अलग-अलग हिस्सों में इसे देखना होगा। पहला यह कि युवाओं के स्वयं के विकास के संदर्भ में क्या चुनौतियां है और दूसरे देश के विकास में युवाओं की भागीदारी को लेकर क्या संकट और संभावना है? जहां तक युवाओं के विकास की वर्तमान स्थिति का सवाल है, उसे भी क्षेत्र (शहरी और ग्रामीण), वर्ग (अगड़ा और पिछड़ा) को दृष्टि में रखते हुए देखना होगा क्योंकि इसके भीतर भी कहीं-कहीं बड़े पैमाने पर अंतर दिखाई पड़ता है। विषमता और विसंगति की कई तरह की परतें समाज में मौजूद हैं। जब समाधान और रास्ते तलाशने होंगे, तब इन्हें नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।
इन अवरोधों के बावजूद नौजवानों का जज्बा मरा नहीं। वह निरंतर सŸाा से सार्थक प्रतिरोध करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की धार को तेज करने की कोशिशों में लगा रहा। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी युवजन सभा, स्टूडेंट फेडरेशन आॅफ इंउिया जैसी तीन राजनीतिक शक्तियां परिसरों में खासी सक्रिय रही है। तीनों की अपनी निश्चित प्रतिबद्धताएं हैं। लेकिन ‘‘कमोबेश सभी छात्र संगठन राजनीतिक दलों की चेरी बन गए हैं। उनके एजेंडे भी अब राजनीतिक पार्टियां तय कर रही हैं। ये समूह किसी परिवर्तन का वाहक न बनकर पार्टी के साइनबोर्ड बनकर रह गए हैं। परिसरों में अब संवाद नदारद है, बहसें नहीं हो रही हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं।’’6
युवा सिर्फ एक अवस्था नहीं, हर मनुष्य के जीवन का वह काल हैं जिसमें जिंदगी का सही ढांचा, या कहें कि समग्र आधार खड़ा होता है। ‘‘हमारे देश की व्यवस्था एवं समाज में और बहुत कुछ है, लेकिन युवा अवस्था की समस्याओं को जानने की समझ कमतर है। व्यवस्था, केवल सरकार नहीं है, समूचा समाज उसका अंग है। कोशिश हर स्तर पर होनी चाहिए, तभी युवाओं की समस्याओं से पार पाया जा सकता है और उन्हें ठीक दिशा दी जा सकती है।’’7 यह कहना है देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी का, जिन्होंने लगभग चार दशक के अपने सेवा काल में करीब आधा समय युवा मामलों के मंत्रालय में संयुक्त सचिव और नेहरू युवा केंद्र संगठन और राजीव गांधी नेशनल इंसटीटयूट आफ डेवेलपमेंट श्रीपेरेम्बदूर के डायरेक्टर जनरल जैसे पदों पर रह कर युवाओं से सम्बंधित कार्य करते हुए गुजारे हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि ‘‘आज का युवा खुद में सिमटा हुआ है। उसकी दुनिया खुद तक सीमित है जिसमें उसकी चिंताओ के सरोकार अपने और अपने परिवार से आगे नहीं जाते हैं। उसे अपने करियर से आगे कुछ दिखाई नहीं देता। करिअर के लिए वह सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहता है। करियर और अपने फायदे के लिए उसे किसी के भी कंधे पर पैर रखकर आगे बढ़ने से गुरेज नहीं है। अवसरवाद इस युवा की सबसे बड़ी विचारधारा है। यथास्थितिवाद में उसे सबसे अधिक फायदा दिखाई देता है। संभव है कि यह बात सभी युवाओं के लिए सही नही हो लेकिन महानगरीय और मध्यवर्गीय युवाओं के एक बड़े तबके के लिए यह चरित्रीकरण काफी हद तक सही है।’’8
युवाओं को ‘‘हर क्षेत्र में इस विश्वास के साथ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी जानी चाहिए कि वे इसका सफलतापूर्वक निर्वाहन करेंगे। जिम्मेदारियों से आशय चाहे खेलकूद का क्षेत्र हो या फिर राजनीति, कला, या फिर कोई और दूसरा पेशा, सब में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने होगी। हमें इस बात को भी समझना होगा कि आज जो भारत विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर है   उसके पीछे युवाओं के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। क्या हम 20 वर्ष पहले इतने मजबूत भारत की कल्पना कर सकते थे, शायद बिलकुल नहीं। युवा हमारा भविष्य है, उनकी नींव मजबूत करके हमें उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए।’’9
हमारे राजनीतिक और प्रशासक संचार से सघन सम्पर्कित इन युवाओं से अपने को कमतर जोड़ पाए है। ‘‘ये युवा सŸाा प्रतिष्ठानों को महसूस कराने लगे हैं कि एक समूह के तौर पर वह आक्रमक हो सकते हैं क्योंकि उनके सरोकार साझा है और वे आपस में झट से संवाद बना सकते हैं। सोच और फैसले में ठहरे राजनीतिक वर्ग का भगवान ही मालिक है क्योंकि संचार के इन उपकरणों और सुविधाओं की पैठ सुदूर गांवों में भी होने लगी है। गांव मोबाइल और इंटरनेट से संपन्न हो रहे हैं। आने वाले दिनांे में ‘स्वतःस्फूर्त’ आंदोलन आम चलन बनने जा रहा है।’’10
भारत के युवा परिवर्तन और निरंतरता की समवेत चेतना के वाहक हैं। देश-समाज के नए परिवेश ने युवाओं की दुनिया, उनके नजरिए, उनकी चुनौतियों को एक नई आग्रहमुक्त नजर से देखने की ठोस जरूरत है। ‘नया जमाना’ और ‘तरूणाई’ का साझा नया नहीं है। अगर कुछ नया हैं तो महज इस साझे को संभव करने वाली शक्तियां और कारक।
सन्दर्भ
1. प्रो0 आनंद कुमार, (युवा आन्दोलनों के भागीदार); यथास्थितिवाद के लिए दुरूपयोग, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 19 अक्टूबर 2013।
2. भरत झुनझुनवाला, (प्रख्यात अर्थशास्त्री); शिक्षा में लाना होगा ऊर्जावान बदलाव, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 19 अक्टूबर 2013।
3. अरूण कुमार त्रिपाटी, (वरिष्ठ पत्रकार); सिर्फ हंगामा खड़ा करना मकसद, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 19 अक्टूबर 2013।
4. गिरीश्वर मिश्र, (मनोविज्ञान संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय); मानसिक दशा है युवापन; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 19 अक्टूबर 2013।
5. चन्द्रशेखर प्राण, (निदेशक, नेहरू युवा केंद्र संगठन); युवाओं का वर्तमान और भविष्य; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 8 जनवरी 2011।
6. संजय द्विवेदी, (संचार विभागाध्यक्ष पत्रकारिता विवि, भोपाल); छात्र युवा आंदोलन के बुरे दिन; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 8 जनवरी 2011।
7. शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी, (पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त भारत); व्यवस्था को भी हो युवा के अवस्था की समझ; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 8 जनवरी 2011।
8. आनंद प्रधान, (एसोसिएट प्रोफेसर, आई.आईएमसी); युवा क्रान्ति को ट्रिगर का इंतजार है; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 8 जनवरी 2011।
9. सचिन पायलट, (पूर्व केन्द्रीय राज्यमंत्री); युवाओं पर भरोसा करने की जरूरत; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 8 जनवरी 2011।
10. एसएल राव, (पूर्व महानिदेशक एनसीईआर); युवाओं से डील करना सीखे सत्ता; हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 19 जनवरी 2013।

Latest News

  • Express Publication Program (EPP) in 4 days

    Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...

  • Institutional Membership Program

    Individual authors are required to pay the publication fee of their published

  • Suits you and create something wonderful for your

    Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.