डाॅ0 सतीश कुमार यादव
प्राचार्य,
डाॅ0 अवधेश प्रकाश शर्मा स्मारक महाविद्यालय
बाराबंकी (उ0प्र0)
हिन्दी साहित्य में नारी के स्थान को लेकर साहित्यकारों की दृष्टि में बड़ी भिन्नता मिलती है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल के कवियों के दर्शन में कभी नारी भोग्या रही, तो कभी आदर्श रूपा।
कुछ रचनाकारों ने उसे श्रद्धा या देवी के पद पर भी आसीन किया है तो कुछ उसे अनंत दुःख भोगने वाली सहधर्मिणी या एक मनोरंजक माध्यम मानकर चित्रित किया है परन्तु मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य में नारी विषयक जो प्रतिरूप दिया है उससे हिन्दी साहित्य जगत में एक नये मार्ग की खोज शुरू हुई। उनकी रचनाओं में नारी विषयक चिन्तन, मनोदशाओं का विषद और मार्मिक चित्रण प्रस्तुत हुआ है। गुप्त जी के अनुसार भारतीय संस्कृति में नारी और पुरूष दोनों एक दूसरे के पूरक है। स्त्री-पुरूष मिलकर जीवन की एक महत्वपूर्ण इकाई का निर्माण करते हैं। स्त्री के अभाव में पुरूष पूर्ण नही हो सकता। जिस समाज मे नारियों का शिक्षा स्तर अच्छा होता है। वो समाज तरक्की के मार्ग पर चल पड़ता है। गुप्त जी ने अपने काव्य में नारी के प्रति श्रद्वा भाव व सम्मान रखते हुए यही भाव उजागर किया है-
’’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’1
उन्होने नारी को पुरूषों से श्रेष्ठ माना है वह पुरूष की जन्मदात्री है डाॅ0 अर्चना शेखावत ने भारतीय संस्कृति नारी के अतीत कालीन स्थान के उत्कर्ष के भव्य चित्र को अंकित करते हुए माना है कि ’’भारतीय संस्कृति में नारी अद्र्धागिनी है और पुरूष अर्द्धनारीश्वर युगल सामंजस्य की विलक्षण कल्पना है।’’2
कविवर गुप्त ने अपनी लेखनी से आर्य-स्त्रियों के स्थान को पुरूष समाज में निर्धारित करते हुए माना है कि वे सद्गृहस्थी की वाहक दैवीय शक्ति के समान थी। उन्ही के शब्दों में-
केवल पुरूष ही थे न वे जिनका जगत को गर्व था,
गृह देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा।3
आज नारी को सृष्टि की सर्वोत्तम रचना माना गया है। कवि जयशंकर प्रसाद ने नारी के प्रति के अपना श्रद्वा भाव इस प्रकार व्यक्त किया है-
’’नारी तुम केवल श्रद्वा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में,
पीपूष स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में।4
आज नारी चेतना हमारे समय की जीवंत वास्तविकता है। आज की नारी अपने वजूद को महसूस करती है। एक सजग इकाई के रूप में वह तमाम यथार्थ स्थितियों से प्रतिकूल होती है। वर्तमान सामाजिक परिवेश के अन्तर्विरोधों व असंगतियों को वह आज के परिप्रेक्ष्य में जानना चाहती है।
उनका विलक्षण विवेचन अपनी चेतना के आधार पर करना चाहती है। डाॅ0 रमेश चन्द्र त्रिपाठी ने माना है ‘‘नर एवं नारी एक दूसरे के पूरक है लेकिन दोनों में से जब कभी अपनी मर्यादा तोड़ने का निरर्थक प्रयास किया है तब उसे असफलता ही हाथ लगी है।’’ विधाता ने नर-नारी दोनों को महत्वपूर्ण बनाया है। वे एक-दूसरे के पूरक है और इसी में जीवन की सार्थकता है।5
रामायण और महाभारत संस्कृत साहित्य की आदिम प्रमुख एवं महत्वपूर्ण रचना है। इन रचनाओं के आधार पर ही मनीषियों द्वारा तत्कालिक समय का नामकरण रामायण काल एवं महाभारत काल किया गया है। आदि कवि बाल्मीकि ने अपने ग्रंथ ‘रामायण’ में यथार्थता एवं सहजता के साथ रामकथा वर्णित की है। रामकथा में माता सीता में शील एवं सतीत्व की परिसीमा है महर्षि बाल्मीकि की दृष्टि अत्यंत उदान्त एवं विस्तृत थी।
रामायण काल में नारी का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण था। इस काल में नारी देवी के रूप में अंकित थी। पार्वती, सती, गंगा, लक्ष्मी, सीता आदि ऐसी ही अलौकिक व चरित्रवान नारिया सृष्टि सृजन में देखने को मिलता है। सीता भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित जिन पर संपूर्ण रामकथा आश्रित है। सीता का विवाह स्वयंवर प्रथा से हुआ जो नारी के प्रत्यक्ष वर चुनने का उदाहरण है। साहित्य में रामायण काल वह काल था, जिसमें पुरूषों के साथ उनके पत्नियों का भी चित्रण किया जाता था। राजा दशरथ के चार पुत्रों के साथ मूर्तिमयी उनकी चारों पत्नियों का वर्णन कवि गुप्त ने आधुनिक महाकाव्य साकेत में इस प्रकार चित्रित किया है-
‘‘राम-सीता, धीराम्बर-इला
शौय्र्य-सह सम्पति, लक्ष्मण-उर्मिला।
भरत-कर्ता माण्डवी उनकी क्रिया,
कीर्ति-सी श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्नप्रिया
ब्रहमा की है चार जैसी पूर्तिया,
ठीक वेसी चार-माया मूर्तियाँ।6
मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युगीन कवि है। द्विवेदी युगीन काव्य में नारी को उसके अतीत गौरव का स्मरण कराया गया है तथा उसे समाज में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यही कारण है कि गुप्त जी ने नारी का वर्णन पश्चिमी सभ्यता के बजाय भारतीय परम्परा के अनुसार किया है। भारतीय संस्कृति के ‘वैतालिक’ गुप्त ने नारी के अबला रूप को इस प्रकार गौरवान्वित किया है। उनके काव्य में नारी का रूप मानव के लिए मानवीय तथा दानव के लिए दानवी है-
‘‘मैं अबला हूँ किन्तु न अत्याचार सहूँगी।
तुम दानव के लिए चण्डिका बनी रहूँगी।।’’7
वर्तमान युगीन नारी प्रत्येक कार्य में पुरूषों से कंधो से कंधा मिलाकर कार्य कर रही है। गुप्त जी की नारी का मानना है कि नारी का अहित कर आज तक किसी पुरूष को कुछ भी हाँसिल नही हुआ है। इसलिए स्त्री-पुरूष का परस्पर सहयोग जरूरी है। गुप्त जी कहते है-
‘‘वाम होकर हर सकेगा सुख न मेरा दैव! तू,
हो भले ही विश्व में बाधक विशेष सदैव तू।
भूमि-सुख न सही, मिलेगा स्वर्ग-सुख मुझको अभी,
आर्य-कन्या का अहित कोई न कर सकता कभी।’’8
नारी से पृथक होकर किसी समाज की उन्नति संभव नही है। नारी व्यक्ति एवं समाज के बीच की इकाई है। गुप्त जी की नारी परिवार की संरचना में विश्वास करती है। वह एकल परिवार की नही, संयुक्त परिवार की अधिकारी है। ‘पंचवटी’ खण्डकाव्य में सीता लक्ष्मण के वन में साथ चलने पर कहती है कि परिवार का संचालन तपस्वी बनने से बढ़कर है। गुप्त जी ने परिवार की श्रेष्ठता सीता के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया है-
‘‘सीता बोली कि ये पिता को, आज्ञा से सब छोड़ चले,
पर देवर, तुम त्यागी बनकर क्यों घर से मुँह मोड़ चले।’’9
आज देश में महिलाएं सुरक्षित नही हैं उनका शोषण हो रहा है नेता लोग शासन की आड़ में उन पर अत्याचार कर रहे है। गुप्त जी ने अपने खण्डकाव्य ‘सैरन्ध्री’ में कहा है कि जो शासक अपने राज्य में महिलाओं की रक्षा नही कर सकता, उसे सत्ता में रहने का कोई अधिकार नही है। अतः वे शासक वर्ग को चेतावनी देते हैं-तुमने यदि सामथ्र्य नही है अब शासन का,
तो क्यों करते नही त्याग तुम राजासन का?
करने में यदि दमन दुर्जनो का डरते हो,
तो छूकर क्यों राज-दण्ड दूषित करते हो।
जिस तरह भारतीयों ने सम्पूर्ण भारत को एक परिवार माना है उसी प्रकार गुप्त जी ने ‘यशोधरा’ कृति के माध्यम से संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का भाव व्यक्त किया है। उनकी ‘यशोधरा’ अपने पुत्र राहुल को समझाती है कि तुम्हारे पिता ने सृष्टि से नाता जोड़कर सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मान लिया है। गुप्त जी ‘यशोधरा’ के माध्यम से कहते हैं-
‘‘बेटा घर छोड़ वे गये हैं अन्य दृष्टि से,
जोड़ लिया नाता है उन्होंने सब सृष्टि से।’’
हमारे देश में नारी का सम्मान है परन्तु उसकी आजादी की एक सीमा है। पाश्चात्य संस्कृति की भाँति नारी के आजादी की व्यवस्था नही है। गुप्त जी ने अपनी अनूदित कृति ‘शकुन्तला’ में मुनि कण्व ने जो उपदेश दिया है वह भारतीय नारी के वैवाहिक जीवन का आधार स्तम्भ है, वे कहते हैं-
‘‘परिजनो को अनुकूल आचरण ने सुख दीजो,
कभी भूलकर बड़े भाग्य पर गर्व न कीजो।’’
इसी चाल से स्त्रियाँ सुगृहिणी-पद पाती है।
उलटी चलकर वेश-व्याधियाँ कहलाती हैं।12
मैथिलीशरण गुप्त जी ऐसे कवि है, जिन्होने नारी के प्रति सहानुभूति व्यक्त की है। उन्होनंे शोषिता, वंचिता तथा अपमानित नारी पात्रों को अपनी काव्य कृति में स्थान दिया। उनको सामाजिक बुराईयों से लड़ने व अंधविश्वासो कुरीतियों से बचने हेतु नई दिशा दिया। उनको पुरूषों की प्रेरणा स्रोत बताया। गुप्त जी ने नारियों की समस्या को समझा उसे राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का कार्य किया। उन्होनें नारी को मां, पत्नी के आदर्श रूप में चित्रित किया है। यही कारण है कि उनके सभी नारी पात्रों में कैकेयी, सीता, उर्मिला, माण्डवी, राधा, कुन्ती, द्रोपदी, उत्तरा, यशोधरा सदैव स्मरणीय रहेंगी। इन सभी पात्रों ने समाज, परिवार में सामंजस्य स्थापित कर आदर्श प्रस्तुत किया है, जिस समाज में नारियों का स्तर अच्छा होता है उस समाज की उन्नति होना स्वभाविक है।
सन्दर्भः
1. प्रसिद्ध श्लोक ‘मनुस्मृति’।
2. डाॅ0 अर्चना शेखावतः समकालीन हिन्दी महिला कहानीकारों की कहानियों में नारी चेतना पृष्ठ सं0-56
3. मैथिलीशरण गुप्तः भारत-भारती पृष्ठ सं0-17
4. जयशंकर प्रसादः कामायनी पृष्ठ सं0-38
5. डाॅ0 रमेशचन्द्र त्रिपाठीः समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ पृष्ठ सं0-113
6. मैथिलीशरण गुप्तः साकेत पृष्ठ सं0-02
7. मैथिलीशरण गुप्तः सैरन्ध्री पृष्ठ सं0-20
8. मैथिलीशरण गुप्तः रंग में भंग पृष्ठ सं0-13
9. मैथिलीशरण गुप्तः पंचवटी पृष्ठ सं0-02
10. मैथिलीशरण गुप्तः सैरन्ध्री पृष्ठ सं0-22
11. मैथिलीशरण गुप्तः यशोधरा पृष्ठ सं0-79
12. मैथिलीशरण गुप्तः शकुन्तला पृष्ठ सं0-26