पूजा सरोज
असिस्टेंट प्रोफेसर
रघुनाथ गल्र्स पी. जी. कॉलेज,
मेरठ (उ.प्र.)
सारांश-
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को आँचलिक उपन्यासकारों में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रिपोतार्ज, यात्रा- वृत्तांत इत्यादि अनेक विधाओं में साहित्य लेखन करने के बावजूद उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि आँचलिक उपन्यासों के द्वारा मिली, आँचलिक उपन्यास होने के कारण ‘मैला आँचल’ उपन्यास में अंचल विशेष की समस्याओं का यथार्थ चित्र उकेरा गया है। ‘मैला आँचल’ में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक यथार्थ के साथ-साथ सांस्कृतिक और धार्मिक यथार्थ का भी बहुत गहराई से चित्रण किया गया है, उपन्यास में जहाँ सामाजिक यथार्थ के द्वारा समाज की संपूर्ण संरचना को, राजनीतिक यथार्थ के द्वारा राजनीति के वीभत्स रूप को और आर्थिक यथार्थ के द्वारा समाज की आर्थिक संरचना को सामने लाने का प्रयास किया गया है वहीं सांस्कृतिक और धार्मिक यथार्थ के द्वारा संस्कृति और धार्मिक स्थिति को सामने लाने का प्रयास किया गया है –
बीज शब्दः फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, यथार्थ बोध, संस्.ति, सांस्.तिक यथार्थ, धर्म, धार्मिक यथार्थ।
1. सांस्कृतिक यथार्थ- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में जो क्रिया-कलाप करता है अथवा जो कुछ सोचता-विचरता है, ये सभी घटनाएँ संस्कृति से सम्बद्ध होती हैं। संस्कृति का व्यक्ति के आचरण और सोच पर गहरा प्रभाव पड़ता है, जिससे उसका व्यक्तित्व विकसित होता है। तौर-तरीके, क्रिया-कलाप, आचार-विचार जिन्हें मनुष्य अपने पूर्व पीढ़ी से ग्रहण करता है तथा जिन मान्यताओं को समाज स्वीकार करता है वही संस्कृति है- “कोई भी संस्कृति एक सम्पूर्ण जीवन शैली होती है, जिसमें सोच, चिंतन, साहित्य, संगीत, कला, पहनावा, खान-पान, भाषा, बोली, सामाजिक-पारिवारिक रिश्ते आदि सभी कुछ समाहित हैं”1
रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ उपन्यास में ग्रामीण संस्.ति का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। गाँव ही वह स्थान है जहाँ संस्कृति का मूल और आदर्श रूप प्रतिबिम्बित होता है। भारत की संस्कृति का प्रसार बिंदु कृषि और ग्राम जीवन से जुड़ा हुआ है। भारतीय किसान एवं मजदूर के जीवन में आने वाले संस्कार, पर्व, त्यौहार, रूढ़ियाँ, प्रथाएं और रीति-रिवाज आदि घटक संस्कृति निर्माण के कारक हैं। सांस्कृतिक पर्व, त्यौहार, मेले आदि संस्कृति में ही समाये हुए हैं। सांस्कृतिक पर्व जहाँ लोक और परलोक को सुहेला बनाते हैं, वहीं विशेष अवसरों पर मानव को आनन्दित करते हैं। ग्रामीण जीवन में त्यौहारों का भी अत्यधिक महत्त्व है। प्रायः हर त्यौहार किसी न किसी देवी-देवता से जुड़े हुए हैं। रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ में सिरवा पर्व, सतुआनी पर्व, चकेवा पर्व, होली आदि त्यौहारों के चित्रण के साथ ही अंचलों के लाल-बाग मेला, मदनपुर का मेला, काली मेला आदि का बड़े विस्तार से वर्णन किया है। सतुआनी पर्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है- “आज दोपहर को सत्तू खाएँगे, सतुआनी पर्व है आज, आज रात की बनी हुई चीजें कल खाएँगे, कल चूल्हा नहीं जलेगा, बारहों मास चूल्हा जलाने के लिए यह आवश्यक है कि वर्ष के प्रथम दिन में भूमिदाह नहीं किया जाए। इस वर्ष की पकी हुई चीज उस वर्ष में खाएँगे।’’2 रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ में मेरीगंज में प्रचलित रीति-रिवाजों और मान्यताओं-परंपराओं का भी यथार्थ चित्रण किया है। मेरीगंज में शादी-ब्याह के अवसर पर होने वाली परंपराओं और प्रथाओं का सुंदर वर्णन किया गया है। श्राद्ध के समय की जाने वाली क्रियाओं, साधु और ब्राह्मण भोज का भी सुंदर वर्णन किया गया है। रचनाकार एक स्थान पर लिखता है- “सबसे पहले कालीथान में पूड़ी चढ़ाई जाती है। इसके बाद कोठी के जंगल की ओर दो पूड़ियाँ फेंक दी जाती हैं, जंगल के देव-देवी और भूत-पिशाच के लिए। इसके बाद साधु और बाभन भोजन।”3
गायन और वादन संस्कृति का अंग है। वाद्ययन्त्रों की चर्चा करते हुए ‘रेणु’ जी लिखते हैं कि मेरीगंज में लोग उनके ढोलक और खंजड़ी जैसे वाद्य बजाते हैं। ‘मैला आँचल’ में गीत-संगीत की भी सुन्दर झलक दिखाई देती है। गाँव और उसके अस्मिता की पहचान ग्राम्य गीतों में ही दिखाई देती है। इस प्रकार के गीत थोड़े समय के लिए हमारे हृदय को तरंगायित कर जाते हैं। होली के अवसर पर गाया गया गीत कितना मनोहारी बन पड़ा है-
“अरे बँहियाँ पकड़ि झकझोरे श्याम रे।
फूटल रेसम जोड़ी चूड़ी।
मसकि गई चोली, भींगावल साड़ी।
आँचल उड़ि जाए हो।
ऐसो होरी मचायो श्याम रे’’4
राजनीतिक या सामाजिक घटनाओं के सांस्कृतिक रूपों को भी उन्होंने अनोखे रूप से चित्रित किया है। भगत सिंह पर तो नौटंकी भी बनाई जाती है। लेकिन सुराज के बाद हिंदू-मुस्लिम दंगे भी हो रहे हैं और बालदेव को पन्द्रह-बीस बरस पुराना स्वतंत्रता संग्राम का इस अंचल में प्रचलित साम्प्रदायिक सद्भाव का गीत याद आता है-
“अरे, चमके मन्दिरवा में चाँद।
मसजिदवा में बंसी बजे।
मिली रहू हिंदू-मुसलमान।
मान-अपमान तजो”5
‘मैला आँचल’ में मेरीगंज में प्रचलित अनेक लोककथाओं जैसे- सुरंगा-सदाब्रिज की कथा, कुमार बिज्जेभान की कथा, लोरिका की कथा, कमली मैया की कथा, ब्रह्मपिशाच की कथा आदि का यथार्थ चित्रण किया है। मेरीगंज के तंत्रिमाटोली में महँगूदास के घर के पास लोग जमा हैं। सुरंगा-सदाब्रिज कथा के प्रसंग में सदाब्रिज पर मोहित स्त्री का कथन यहाँ द्रष्टव्य है-
“सासू मोरा मरे हो, मरे मोरा बहिनी से,
मरे ननद जेठ मोर जी।
मरे हमर सबकुछ पलिबरवा से,
फसी गइली परेम के डोर जी।”6
नृत्य वह माध्यम है जिसके द्वारा एक साथ संगीत, ताल, नृत्य, अभिनय की अभियक्ति होती है। ग्रामीण-जीवन में लोग सहजता से नृत्य का आचरण करते हैं। ‘रेणु’ जी ने अनेक प्रकार के लोकनृत्यों जैसे – बिदापत नाच, विदेसिया, संथाली, ठेठर कंपनी, सावित्री नाच आदि का यथार्थ चित्रण किया है। बिदापत नाच का तो अपना महत्त्व है।
आज गाँव में शहरी संस्कृति का प्रभाव दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, क्योंकि लोग रोजी-रोटी के लिए गाँवों से शहरों में जाते हैं। वहाँ से वापस गाँवों में लौटने पर उस शहरी संस्कृति के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाते हैं। ‘रेणु’ जी ने इसे फुलिया के माध्यम से इस प्रकार चित्रित किया है- “फुलिया बालों में महकौआ तेल लगाती है। साड़ी पहनने का ढंग, बोलने-बतियाने का ढंग, सब कुछ बदल गया है। तहसीलदार साहब की बेटी कमली अँगिया के नीचे जैसी छोटी चोली पहनती है, वैसी वह भी पहनती है। कान में पीतर के फूल हैं। फूल नहीं, फुलिया कहती है- कनपासा। आँचल में चाबी का गुच्छा बाँधती है। पैर में शीशी का रंग लगाती है। सौंफ, दालचीनी खाने से मुँह गमकता है।”7
2. धार्मिक यथार्थ- मनुष्य के जीवन में धार्मिक मान्यताएँ एक नियम के रूप में आजीवन विद्यमान होती हैं। भारत में धार्मिक मान्यताएँ अत्यधिक प्राचीन रूप में उपलब्ध होती हैं। धार्मिक दृष्टि से यदि हम वर्तमान और अतीत की तुलना करें, तो हमारा अतीत वर्तमान की अपेक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण दिखाई देता है। यद्यपि अतीत में धार्मिक नियम में कठोरता मौजूद थी फिर भी समाज में लोगों द्वारा उसको मान्यता प्राप्त थी। विचारकों द्वारा धर्म की अलग- अलग परिभाषाएँ दी गयी हैं। मुद्राराक्षस जी धर्म के विषय मे कहते हैं कि ‘‘धर्म की निश्चित या वैज्ञानिक परिभाषा सिर्फ एक है कि धर्म तर्कहीन विश्वास का नाम होता है। धर्म एक ऐसे विश्वास का नाम है जिसके किसी भी पक्ष पर तर्क नहीं किया जा सकता है और न प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है। धर्म की इसी परिभाषा को मैं स्वीकार करता हूँ।‘‘8 मुद्रा जी की उपर्युक्त परिभाषा से धर्म का वास्तविक स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है। धर्म समाज में एकजुटता और सांस्कृतिक पहचान का आधार है। यह परिवार, रीति-रिवाज और परंपराओं को आकार देने का कार्य करता है। लेकिन व्यावहारिक रूप में, धर्म कई बार जातिवाद, लैंगिक भेदभाव और सामुदायिक असहिष्णुता का माध्यम बन जाता है। धर्म मानव को अपने पूर्वजों से विरासत के रूप में मिलता है जिसके द्वारा मानव को अपने जीवन में आने वाली हर कठिनाइयों से मुक्ति पाने की शक्ति मिलती है।
‘मैला आँचल’ उपन्यास में ‘रेणु’ जी ने धर्म के विविध पहलुओं पर दृष्टि रखते हुए उसके यथार्थ को चित्रित करने का सफल प्रयास किया है। धार्मिक अन्धविश्वास, धार्मिक रूढ़ियाँ, कर्मकाण्ड, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण आदि की वास्तविकता को सफलता पूर्वक उद्घाटित किया है। ज्ञान- विज्ञान, शिक्षा और औद्योगीकरण ने धर्म के स्वरूप को तेजी से बदला है जिसके कारण धर्म के प्रति लोगों की सोच में भी तेजी से परिवर्तन हुआ है। धार्मिक मूल्यों में ह्रास, धर्म में राजनीति का प्रवेश और धर्म में नैतिक मूल्यों के विघटन का भी ‘रेणु’ जी ने चित्रण किया है।
धार्मिक गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र मठ है। मठ का महंत सेवादास लछमी पर अधिकार किये हुए है। इससे पहले बसुमतिया के महंत ने लछमी पर अधिकार जमाने के लिए मुकदमेबाजी की थी। इस मुकदमेबाजी में सेवादास जीते और उन्होंने अपने वकील साहब को आश्वासन दिया था- वकील साहब, लक्षमी हमारी बेटी की तरह रहेगी। इसी लक्षमी के साथ बुड्ढे गिद्ध ने संबंध जोड़ लिया हैं इसीलिए मठ का पुराना नौकर किसनू कहता है- “अंधा महंत अपने पापों का प्राच्छित कर रहा है। बाबाजी होकर जो रखेलिन रखता है, वह बाबाजी नहीं। ऊपर बाबाजी भीतर दगाबाजी!”9 सेवादास के बाद रामदास महंत बनता है। वह महंत बनने के बाद लक्षमी को अपनी दासी बनाना चाहता है, पर लक्षमी के विरोध और कालीचरन के भय से इस इरादे में असफल होने पर वह रामपियरिया को दासी बना लेता है। इस प्रकार ये लोग धर्म के नाम पर अधर्म करते हैं। मठों में अक्सर झगड़े और मारपीट होती रहती है। ये लोग गांजा भी पीते हैं।
रेणु जी ने धार्मिक अंध विश्वास पर बहुत कुछ लिखा है। ‘मैला आँचल’ उपन्यास भी इससे अछूता नहीं है। मानव को मर्यादित जीवन जीने के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, उचित चिकित्सा की सुविधा और रोजगार के साधन आवश्यक हैं। यह तभी सम्भव है जब समतामूलक समाज की स्थापना हो और समतामूलक समाज के लिए अन्धविश्वास या अन्ध-आस्था को उस समाज से निकाल फेंकना होगा, क्योंकि इसी अन्धविश्वास ने मानव-समाज को मानसिक रूप से शक्तिहीन बना रखा है। यह हर अन्याय को सहन करने की ताकत प्रदान करता है। मानव को उसके विपरीत लड़ने की प्रेरणा नहीं देता। यही कारण है कि अनाचार, भ्रष्टाचार के साथ अन्धविश्वास भी अपनी जड़ें जमाए हुए है- “जिस समाज में मुक्ति, तर्क, विवेक के स्थान पर अन्ध-आस्था पर केंद्रित धर्म का वर्चस्व हो वह समाज अतीत जीवी होता है तथा संस्कृति को प्रदूषित करता है। भारत में एक नहीं कई धर्म हैं। धर्मों में भी दर्जनों उपधर्म हैं, सैकड़ों कल्ट हैं, अनगिनत भगवान और भगवान के अवतार हैं, धार्मिक पुस्तकें हैं जिन्हें मानना अनिवार्य है वरना नरकगामी (दोजख) होना पड़ेगा। कहना न होगा कि ऐसी अन्ध-आस्था पर केंद्रित समाज-अन्याय, विषमता, जन्मजात वर्ण व्यवस्था, दासता आदि को पुष्ट करने वाला ही हो सकता हैं”10
रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ में अन्ध-विश्वास के अंतर्गत धार्मिक विश्वास,तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और भूत-प्रेत आदि का यथार्थ चित्रण किया हैघ् उन्होंने लिखा है कि लोगों में यह अंधविश्वास है कि जिन नाम का पीर कभी-कभी मन मोहनेवाला रूप धरकर कुमारी और बेवा लड़कियों को भरमाता है। कहते हैं- “जिन एक पीर का नाम है। वह कभी-कभी मन मोहनेवाला रूप धरकर कुमारी और बेवा लड़कियों को भरमाता है। गरीब-से-गरीब को धनी बना देना उसकी चुटकी बजाने-भर की बात है।
जिस पर बिगड़े, बरबाद कर दे, जिस पर ढरे उसे निहाल कर दे। कमली के लिए डॉक्टर जिन ही है।”11 धार्मिक रूढ़ियों को भी धार्मिक यथार्थ से जोड़ा जाता है। अनेक अन्धविश्वास जब अधिक दिनों तक किसी समाज में बने रहते हैं तो वे धार्मिक रूढ़ियों का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। उपन्यासकार ने मेरीगंज में प्रचलित धार्मिक रूढ़ियों का भी यथार्थ चित्रण किया है। यात्रा पर निकलते समय टोकना अच्छा नहीं। गर्भवती औरतों को बौने को नहीं देखना चाहिए, इसी कारण से बावनदास के आने की बात सुनकर गर्भवती स्त्रियाँ स्वयं छिप जाती थीं या छिपा दी जाती थीं। इस प्रकार से हमारे समाज में तमाम तरह के अन्धविश्वास और रूढ़ियाँ व्याप्त हैं। जिसे रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ उपन्यास के माध्यम से उजागर किया है। रेणु जी इस प्रकार के रूढ़ियों और अंधविश्वासों को समाज के लिए घातक मानते थे, इस कारण उसके यथार्थ चित्र को समाज के सम्मुख उजागर किया।
उपसंहार- विस्तृत विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘मैला आँचल’ उपन्यास यथार्थ बोध से भरा पड़ा है। रेणु जी ने जो कुछ भी लिखा है भोगा हुआ यथार्थ लिखा है। उस यथार्थ को जाना है, परखा है, उसके वह खुद साक्षी हैं। उनमें जीवन-यथार्थ से टकराने की हिम्मत है, इसलिए मानव-जीवन से जुड़े हर प्रकार के यथार्थ चित्रों को उभारा है। सांस्कृतिक यथार्थ के अंतर्गत पर्व, त्यौहार, मेला, गीत, नृत्य, वाद्ययंत्र, लोककथा, परंपरा, रीति-रिवाज आदि का रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ में रेखांकन किया है। धार्मिक यथार्थ के अंतर्गत उन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों, धर्म की आड़ में हो रहे अत्याचार आदि का वास्तविक अंकन किया है। देश को आजाद हुए भले ही सतहत्तर साल से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है फिर भी सामाजिक संबंधों में खटास, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार, अन्धविश्वास, कुरीतियाँ, ऊँच-नीच का भेद-भाव, जातिगत पीड़ा और न्याय व्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है। इन सभी बुराइयों पर कुठाराघात करने के लिए यथार्थ बोध की आवश्कता है। रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ उपन्यास में इसी सांस्कृतिक और धार्मिक यथार्थ बोध को चित्रित करने का सफल प्रयास किया है।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची –
1. गीतेश शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्व, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 9
2. फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तेईसवाँ संस्करण, 2016, पृष्ठ- 108
3. वही, पृष्ठ- 30
4. वही, पृष्ठ- 91
5. वही, पृष्ठ- 169
6. वही, पृष्ठ- 42
7. वही, पृष्ठ- 123
8. विनय दास, मुद्राराक्षस सृजन एवं सन्दर्भ, गरिमा प्रकाशन, बाराबंकी, 2007, पृष्ठ- 7
9. फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तेईसवाँ संस्करण, 2016, पृष्ठ- 19
10. गीतेश शर्मा, भारतीय संस्कृृति और हिन्दुत्व, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 21
11. फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तेईसवाँ संस्करण, 2016, पृष्ठ- 177